हिन्दी न्यूज़ टेलीविजन में प्रयोगों को सक्रियता देखने लायक है। हिन्दी में फार्मेट को लेकर प्रयोग अंग्रेजी से पहले होने लगे हैं। पहले अंग्रेजी से शुरूआत होती थी और फिर हिन्दी में पहुंचती थी। अब हिन्दी न्यूज़ चैनल फार्मेट के मामले में अंग्रेजी को भी अनुसरण करने पर मजबूर कर रहे हैं। फटाफट हो या सटासट। कभी न्यूज़ बुलेटिन के आखिर में आने वाला न्यूज़ रैप को शुरूआत में सरकाने का श्रेय हिन्दी न्यूज़ चैनलों को जाता है। स्पीड न्यूज के कई वेरायटी आपको मिल जायेंगी। वॉयस ओवर को लेकर भी कई तरह के बदलाव किये जा रहे हैं। कंटेंट को लेकर इनकी सराहना-आलोचना अलग मसला है पहले यही नोटिस में लिया जाना चाहिए कि फार्मेट कैसे और कितनी तेजी से बदले जा रहे हैं। गनीमत है कि फार्मेट ही बदल रहे हैं,ख़बरें नहीं। फार्मेट को आप कनस्तर से तुलना कर सकते हैं। इसमें आटा ही भरा जा रहा है। कोई कनस्तर को पीट-पीट को ठूंस रहा है तो कोई हिला-हिला कर।
आज सुबह हेडलाइनन्स टुडे देख रहा था। बहुत ज़माने बाद फिर से न्यूज चैनलों को देखने की कोशिश की है। हेडलाइन्स टुडे में स्क्रोल्स जिसे आप हिन्दी में सरकत पट्टिका कह सकते हैं,स्क्रीन के ऊपरी हिस्से में चल रहा था। उसके ऊपर एक ठहरा हुआ ट़ॉप बैंड भी था। आमतौर पर ऊपर दो बैंड नहीं होते हैं। हिन्दी न्यूज चैनलों में सरकत पट्टिका नीचे आई थी। आई तो अंग्रेजी से ही थी लेकिन इसमें मौलिक बदलाव हिन्दी न्यूज़ चैनलों में ज्यादा हुआ। पहले ये सरकत पट्टियां बेनामी चला करती थीं अब सबके नाम हैं। न्यूज़ टॉप टेन या फटाफट जैसे नाम हैं। सबसे पहले हिन्दी चैनलों ने ही ऊपर और नीचे एक साथ यानी टॉप एंड बॉडम बैंड शुरू किया था। कई तरह की पट्टियां हैं। अलग-अलग साइज़ की।
न्यूज़ चैनलों के डेस्क पर जो लोग काम करते हैं उन्हें कम से कम पचास एलिमेंट याद रखने पड़ते हैं। मसलन टॉप बैंड का नंबर अलग है तो बॉटम बैंड का अलग। हर खांचे का एक नंबर होता है जिससे याद रखना होता है। खबरों के बीच में वाइप चलता है उसका अलग नंबर होता है। वाइप शब्द कार के शीशे पर लगे वाइपर से आया है। जैसे बारिश के वक्त वाइपर स्क्रीन को साफ करता है और चला जाता है उसी तरह स्क्रीन पर वाइप ख़बरों की बारिश को साफ करता रहता है। वाइप जिस पर फटाफट या स्पीड न्यूज़ लिखा होता है। जो किसी भी ख़बर में मच्छरों की भनभनाहट सी आवाज़ लिये चला आता है और गायब हो जाता है। जब तक आपको लगता है कि चला गया कमबख्त,वो वापस आ जाता है और कान के नीचे भन्नाते मच्छर जैसी आवाज़ निकालने लगता है। ये आवाज़ गाड़ियों की भागती आवाज़ से भी मिलती जुलती है। हमारे पास स्पीड की प्रतिनिधि ध्वनि यही है।
इतना ही नहीं इन खांचों में शब्द अंटाने में काफी मेहनत लगती है। आउटपुट एडिटर लघुतम शब्दों को खोजता रहता है। स्पेस बार की मदद से शब्दों के भीतर वर्णों को सटाते रहता है ताकि एक शब्द औऱ अंट जाए। हिन्दी में एब्रीविएशेन का कल्चर नहीं है। इसलिए लघुत्तम शब्दों को खोजना चुनौती भरा काम हो जाता है। पता नहीं अभी तक न्यूज़ चैनलों में अनुप्रास संपादक भर्ती क्यों नहीं हुए जो अ से शुरू होने वाले समानार्थी शब्दों की खोज कर इन खांचों में भर देगा। वैसे जो लिखा जा रहा है वो भी इस अंदाज़ में कि कोई चुनौती दे रहा है कि का रे..पढ़ा कि नहीं..अंखवे फोड़ देंगे। व्याकरण की तो कब की तेरहवीं हो चुकी है।
जब आजतक ने ट्रेन दुर्घटनाओं की बनी-बनाई एनिमेशन दिखाना शुरू किया तब लोग हंसते थे। ये वो लोग हैं जो अंग्रेजी में काम करते रहे हैं और उनके अनुसार तब तक कोई सम्मानित प्रयोग नहीं हो सकता जब तक वो अंग्रेजी न करें। आज सभी अंग्रेजी चैनलों में दुर्घटना के वक्त बनी-बनाई एनिमेशन ग्राफिक्स का इस्तमाल होता है। एक और प्रयोग हुआ है, घेरा बनाकर तीर से दिखाने का। इंडिया टीवी ने इसका खूब इस्तमाल किया है। कैमरे में कैद किसी छोटी सी चीज़ को लाल डोरे से घेर दिया और तीर मार-मार कर दिखाना शुरू कर दिया। पहले इस तरह के लाल डोरे सिर्फ बदचरित्रों के गर्दन के आस-पास बनाये जाते थे। टाइम्स नाऊ ने एक बदलाव किया। जिस तरह से हम फेसबुक या इंटरनेट पर भेजी गई तस्वीरों को क्लिक करते हैं तो नाम भी उभर आता है,उसी तरह टाइम्स नाऊ ने वीडियो में दर्ज तमाम लोगों के नाम लिखने की शुरूआत की। यह दावे के साथ नहीं कह सकता कि टाइम्स नाऊ ने ही की। लेकिन उसके तुरंत बाद कुछ अंग्रेजी चैनलों को भी नकल करते देखा।इंडिया टीवी ने ओवर दि सोल्डर शॉट को भी एनिमेटेड कर दिया है। आदमखोर चमगादड़ में पूरी स्क्रीन पर चमगादड़ उड़ रहे हैं। खटिया पर एक आदमी घायलावस्था में पड़ा है। उसके ऊपर से खून के धब्बे उड़ रहे हैं। कई चैनल इस तरह का एनिमेशन इस्तमाल करते हैं।
बहुत पहले मैंने अपने ब्लॉग कस्बा पर लिखा था कि टीवी अख़बार हो रहा है। लेकिन ध्यान से देखें तो अखबार भी इतना क्लटर या बजबजाया हुआ नहीं लगता। हिन्दी टेलीविजन अपना ही रूप गढ़ रहे हैं। जिस तरह से बाज़ार फ्लेक्स होर्डिंग से भरे दिखते हैं वैसे ही अब न्यूज़ चैनल नज़र आने लगे हैं। समझ नहीं आता कि उसी तीस सेकेंड में पढ़ें,देखें या सुनें। दर्शक को तीन क्रियाएं एक साथ करनी पड़ती हैं। जब दर्शक के पास वक्त कम है तो उसे एक साथ तीन काम करने पर क्यों मजबूर किया जा रहा है। यह एक सवाल है। लेकिन यह बदलाव आ चुका है और इसे सभी ने स्वीकार भी किया है।
इंग्लिश न्यूज चैनलों में भी आप स्पीड न्यूज़ का जलवा देखेंगे। मैं नहीं मानता कि हिन्दी न्यूज़ चैनलों में सारे बदलाव नकल से हो रहे हैं। बहुत कुछ मौलिक हैं। वो भद्दे हैं या नहीं,यह दर्शक,आलोचक तय करेंगे। वैसे ज़्यादर आलोचकों को टीवी की तमीज़ भी नहीं। समझ नहीं आता कि वो ख़बरों की साहित्यिक समीक्षा कर रहे हैं या टीवी के फार्मेट की। उनकी समीक्षा ख़बरों के सरोकार टाइप के पुरातन फार्मेट से आगे नहीं बढ़ पाती। हालांकि वो भी एक गंभीर और ज़रूरी काम है। ख़ैर,टाइम्स नाऊ में कश्मीर की खबर आ रही है। सात तरह की सूचनाएं स्क्रीनपर हैं। बायीं ओर के ऊपरी कोने में कश्मीर क्राइसीस का लोगो है जो स्क्रीन बदलते ही ऊपर नीचे होते रहता है। जब रिपोर्टर का चेहरा आता है तो कश्मीर क्राइसीस का बैंड ऊपर कोने में होता है। जब कोई ग्राफिक्स प्लेट आती है तो नीचे आ जाता है। बंदर की तरह बेचैन लगता है। कभीं खंभे के ऊपर होता है तो कभी खंभे के नीचे। इसके अलावा रिपोर्टर जितना बोल रहा है उससे ज्यादा लिखा हुआ आ रहा है। ये सब स्क्रीन को ऊर्जावान बनाने के लिए किया जा रहा है। टाइम्स नाऊ ने संप्रेषण के क्षेत्र में कई प्रयोग किये हैं। कई चीज़े पहली बार पेश की हैं। पहले ब्रांड का 'लोगो' होता था अब हर ख़बर में एक 'लोगो' लगता है। 'लोगो' को 'लोगीकरण' हो गया है।
आप ध्यान से देखिये तो पायेंगे कि ब्रेकिंग न्यूज़ के सुपर बैंड किसी सामंत या गुंडे से कम नहीं हैं। इनके आते ही बाकी सारी सरकत पट्टिकाएं कहीं कोने में दब जाती हैं तो कुछ गायब भी हो जाती हैं। ब्रेकिंग न्यूज़ का लाल आतंक सबको खदेड़ देता है। ब्रेक में भी ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलती रहती है। बचपन में एक पेंसिल देखी थी। एक तरफ ब्लू और दूसरी तरफ लाल। ऐसी ही पेसिंल से मिलती जुलती है आईबीएन सेवन की पट्टी। नीले में नक्सली लिखा होता है और लाल में हमला। टीवी के प्रोड्यूसर और ग्राफिक्स डिज़ाइनरों के हुनर को सम्मानित करने का वक्त आ गया है। आईबीएन सेवन लिखता है कि पांच मिनट में आपके काम की पंद्रह ख़बरें। एक्सप्रेस न्यूज़ नौ बज कर सत्ताईस मिनट पर। हिन्दी चैनलों ने ही सबसे पहले न्यूज देखने के वक्त की कल्पना बदल ली। ठीक सात बजे या ठीक नौ बजे जैसे जुमले गायब हो गए। छह सत्ताईस या छह उनसठ जैसे जुमले आ गए। इंडिया टीवी पर सरकत पट्टी बता रही है कि 9:30 की 5 हेडलाइन 9:27 पर। समय को भी हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने पुनर्परिभाषित किया है। जल्दी ही लोग अपनी घड़ी में अलार्म हिन्दी चैनलों के गढ़े इस समय बोध के अनुसार लगायेंगे। वो अब सवा पांच बजे का अलार्म नहीं बल्कि 5:16 मिनट का लगाया करेंगे।
इंडिया टीवी ने जितने फार्मेट में बदलाव किये हैं उतने किसी चैनल ने नहीं किये हैं। इंडिया टीवी की निरंतर आलोचना में उसके इस योगदान पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इंडिया टीवी के कैमरा वर्क को भी कभी ध्यान से देखियेगा। उसके शॉट अलग होते हैं। अमूमन कई हिन्दी चैनलों के कैमरा कार्य में कई बदलाव आ रहे हैं। शॉट इस तरह से लिये जा रहे हैं जैसे कैमरा से टकरा कर ऑबजेक्ट टूटने ही वाला हो। इस तरह के बदलाव टाइम्स नाऊ में देखियेगा। तभी कभी-कभी लोग यह भी कहते हैं कि टाइम्स नाऊ अंग्रेज़ी का हिन्दी चैनल है। ग्राफिक्स टेक्सट और विजुअल का मिक्सचर बनाकर नया माल परोसने में इंडिया टीवी का जवाब नहीं। स्टार न्यूज़ ने 24 घंटे 24 रिपोर्टर में नया फार्मेट लाया था। रिपोर्टर की पीटूसी से खबर शुरू होती थी और उस खबर की विजुअल चलती थी। एक तरह से रिपोर्टर मैदान से एंकर की तरह दिखने लगा। बाद में इस फार्मेट की अनुसरण आईबीएन सेवन और इंडिया टीवी ने भी किया। सब एक दूसरे का अनुसरण कर रहे हैं। अब यह भी एक मान्य फार्मूला हो गया है। हैरान हूं कि अभी तक इंडिया टीवी या स्टार ने यह प्रोमो क्यों नहीं चलाया कि देखो देखो हमारी स्पीड न्यूज का कर रहे हैं सब नकल। ओरिजनल हैं हम। देखो देखो नकलची है वो। ठीक उसी तरह से जैसे इंडिया टीवी नंबर वन होने पर बाकी चैनलों की भी टीआरपी दिखा देता है। एक जनाब ने सूरत से फोन किया और कहा कि एनडीटीवी इंडिया की टीआरपी कम हो गई है क्या। मैंने कहा आपको कैसे मालूम। तो जवाब मिला कि इंडिया टीवी दिखा रहा है। हद है भाई। ये कैसा टॉपर है जो फेलियर का भी रिज़ल्ट लेकर मार्केट में उधम मचा रहा है। फेल होने वाले को मुंह छुपाने का वक्त और जगह की गुज़ाइश भी नहीं छोड़ता। बड़ा निर्दयी है मुआ। इससे पहले कि आप फेल होकर मोहल्ले में पहुंचे,बचते-बचाते,इंडिया टीवी हल्ला कर चुका होता है। बाप रे। आज तक पर क्या गुजरी होगी। वैसे गुज़रती तो हम पर भी है। इसीलिए तीन-तीन घंटे लगाता हूं फेसबुक पर। ऐ भाई,मेरी रिपोर्ट देख लेना। ऐ भइया...देखे कि नहीं। नहीं देखे तो देख लो न। जवाब मिलता है अरे आप और टीआरपी। लगता है उनका कपार फोड़ दें।
कश्मीर के अलगाववादी नेताओं की तरह बात करते हैं टीआरपी के विरोधी। इंडिया में रहकर संविधान का पालन तो करना ही होगा। टीआरपी टीवी का संविधान है,जिसका असफल विरोध सिर्फ अलगाववादी पत्रकार कर रहे हैं। टीआरपी का विरोध एम्पलॉयर नहीं करते हैं। अफसोस इसी बात का रह गया कि तथाकथित अच्छे पत्रकारों ने टीआरपी से लड़ने के लिए श्रम नहीं किया। वो लेख ही लिखते रहे और अपनी नैतिकता को इंडिया टीवी,आजतक,न्यूजड 24 और आईबीएन सेवन से श्रेष्ठ बताते रहे। जब एक मीटर पर खराब रिपोर्ट को अच्छी रेटिंग मिल रही है तो अच्छी रिपोर्ट को क्यों नहीं मिलेगी। क्या तथाकथित अच्छी रिपोर्ट के लिखने और पेश करने में कमी नहीं होती होगी? क्या अच्छी रिपोर्ट के समर्थन में कोई कारगर फार्मेट की खोज नहीं की जा सकती है? क्या अच्छी ख़बरों के नाम पर लोकार्पण की खबरें आप देखना चाहेंगे? उसमें भी तो सरोकार होता है। तथाकथित आलसी परन्तु अच्छे पत्रकारों ने बिना लड़े ही लड़ाई का मैदान छोड़ दिया। हिन्दी पत्रकारिता का संकट तथाकथित अच्छे पत्रकारों के नकारेपन का संकट है। जब अच्छे लोग घर बैठ जाएंगे तो बंदर और भूतों का कब्जा किसी भी हवेली पर हो ही जाएगा। आलोचकों की माने तो सारे प्रयोग तथाकथित पत्रकारिता के बदनाम करने वालों की गली में ही क्यों हो रहे हैं? शरीफों के मोहल्ले में भी तो कुछ होना चाहिए। हर क्लासिकल गीत सुनने लायक तो नहीं होता न। कोई तो नुसरत अली बनकर ज्यादा लोगों तक पहुंचाएगा या फिर तार पर रेगियाने या टुनटुनाने से ही काम चल जाएगा।
हिन्दी न्यूज़ चैनलों में बदलाव का कोई अलग सा दौर नहीं चल रहा है। बल्कि हर दिन और हर सेकेंड बदलाव हो रहे हैं। अब आप देखेंगे कि पहले शाम के वक्त सभी न्यूज बुलेटिन में तैयार रिपोर्ट हुआ करती थी। विज़ुअल,वीओ,बाइट,विजुअल,वीओ और फिर बाइट और उसके बाद सार स्वरूप दो तीन पंक्तिया लिखकर पीटूसी। जिसे रिपोर्टर ग्राउंड जीरों से अपनी टिप्पणी के रूप में पेश करता है। इसे वीडियो ऑन टेप यानी वीटी कहते हैं। अब वीटी का चलन खत्म हो गया और अगर कहीं है भी तो कम से कम मात्रा में। इसके लिए जिम्मेदार रिपोर्टर ही हैं। उन्हें तस्वीर और शब्द के इस्तमाल से कथा कहने का सलीका ही नहीं आया। न ही उनमें से किसी ने सीखने की कोशिश नहीं की। लिहाज़ा सचमुच कई रिपोर्ट बोरियत सी भरी लगती थी। धीरे-धीरे इस तरह की रिपोर्ट को डीडी टाइप कहा जाने लगा। इसकी एक वजह यह भी है कि टीवी में वो लोग लिए गए जिनको लिखने और बोलने और पेश करने की कला मालूम नहीं थी। आखिर आप भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर में हिन्दी के साहित्यकार को कैसे नौकरी दे सकते हैं। वो वहां क्या करेगा। टेलीविजन की दुनिया ऐसे अनमने से रिपोर्टरों को देखती रही। रिपोर्टर पान चबाते हुए आते रहे। जर्दा खाते रहे। लिखने का मन नहीं किया। पीटूसी की इस लाइन से आगे नहीं बढ़ सके कि आने वाला वक्त ही बताएगा कि आगे क्या होगा। आज भी बड़ी तादाद में रिपोर्टर अपनी पीटूसी नहीं लिख पाते हैं। लिहाज़ा कई चैनलो में डेस्क से लोग रिपोर्टर को पीटूसी लिखाते हैं। हद है जिस काम के लिए आप आए हैं वही नहीं मालूम।
यही कारण है कि आप ज्यादातर प्रयोग डेस्क से देखेंगे। मैदान में गया रिपोर्टर अपनी तस्वीरों और तत्वों से प्रयोग नहीं करता। वो कथा कहने की नई तरकीबें नहीं ढूंढ रहा है। कुछ रिपोर्टर हैं लेकिन सौ में नब्बे खराब हों तो दस की बात क्या मतलब रह जाता है। तो मैं कह रहा था कि रिपोर्टर की छाप वाली रिपोर्ट की अब मौत हो चुकी है। सारी खबरे विज़ुअल और एंकर वीओ के साथ चल रही है। एंकर वीओ भी गायब हो चुका है। वॉयस ओवर करने वाला वीओ कर देता है। स्पीड न्यूज़ ने एंकर को भी बेकार कर दिया है। वो सिर्फ इसलिए खड़े रहते हैं कि लिंक टूटने पर रूकावट के लिए खेद है का बोर्ड न लगाना पड़े। इसलिए आप देखेंगे कि पहले की तरह आप कम ही एंकरों को नाम से जानते होंगे। उनका चेहरा जब तक आता है तब तक चला भी जाता है। इंडिया टीवी और आजतक ने तो एंकर को स्क्रीन के कोने में खड़ा कर दिया जहां से उनका चेहरा भी नज़र नहीं आता था। फिर एंकरों से स्टैंड अप कहा गया। स्टार न्यूज़ ने न्यूज़ रूम में स्काई टीवी की तर्ज में दौड़ने का मैदान बनाया। एनडीटीवी इंडिया पर भी न्यूज़ रूम से एंकरिंग शुरू हुई। कई इंग्लिश चैनलों में भी शुरूआत हुई। स्टार ने एंकर को लेकर फिर एक कोशिश की है। टाइट क्लोज़ अप में उनका चेहरा आता है। कभी-कभी तो इतना टाइट होता है कि मेरी आंखों पर ज़ोर पड़ने लगता है। इस तरह के फ्रेम कई बार सीएनएन या फॉक्स पर किये जाते रहे हैं।
दर्शक का ध्यान अब विकेंद्रित हो चुका है। इसे केंद्रित करने के लिए सारे प्रयोग हो रहे हैं। रविवार को जब कॉमनवेल्थ गांव में कोबरा जी आ गए तो स्टार न्यूज ने कलमाडी को सपेरा बना दिया। आम तौर पर इस तरह की चीज़ को बग कहा जाता है। जो स्क्रीन के एक कोने में पड़ा रहता है। ध्यानाकर्षण के लिए। स्टार ने सपेरे कलमाडी के बग को स्क्रीन पर घुमाना शुरू कर दिया ताकि चैनल बदलने वाले एक मिनट के लिए रूक जायें। अगर कोई रूक गया तो टीआरपी दर्ज हो जाती है। टीआरपी दर्ज कराने के लिए एक मिनट तक रोकना ज़रूरी है। इस तरह के प्रयोग पहले भी हो चुके हैं। ज्यादातर प्रयोग स्क्रीन पर लिखे गए शब्दों की प्रस्तुति और वीडियो से बनाए गए स्टिल्स के मैनुपुलेशन को लेकर हो रहे हैं। विज़ुअल कैसे ली जाए, कैसे शाट बेहतर हों इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।
हाल ही में मोहल्ला, जनतंत्र और यात्रा ने सिनेमा पर बहसतलब का आयोजन किया था। अनुराग कश्यप ने कहा कि उन्हें मोबाइल के लिए तीन मिनट की फिल्म बनाने के ऑफर मिले। तीन मिनट की दो फिल्में बनाकर उन्होंने अपनी कुल फीचर फिल्मों से ज्यादा कमाई की है। अब आप सोचिये। तीन मिनट की फिल्में बन रही हैं तो तीन मिनट की रिपोर्ट मर रही है। कोई फार्म खत्म नहीं होता। एक जगह से भगाया जाता है तो दूसरी जगह रूप बदल कर अपना रास्ता बना लेता है। जब फिल्म मोबाइल फोन के लिए बनेगी तो रिपोर्ट भी बनेगी। लेकिन दो मिनट वाली लंबी रिपोर्ट का क्या भविष्य होगा कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो कह ही सकते हैं कि हिन्दी के पत्रकारों ने अपने कौशल को दिखाने का एक मौका गंवा दिया। उन्हें यह मौका दस साल तक मिलता रहा। वो अपनी दो मिनट की रिपोर्ट को कूड़े जैसा बनाते रहे। जब अनुराग कश्यप इसी तीन मिनट में रोचक फिल्म बना सकते हैं तो क्या रिपोर्ट नहीं बन सकती थी। इसी नाकामी की ज़िम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ रिपोर्टरों की है। वो बंदिशों को बहाना बनाकर पानपराग खाते रहे। चेक शर्ट पहनते रहे। किसी भी ट्रेनिंग में यही सीखाया जाता है कि न्यूज रिपोर्टिंग में चेक शर्ट से बचिये। आप हिन्दी के पत्रकारों की कमीज़ देखिये। इसमें उनकी ग़रीबी नहीं बल्कि लापरवाह नज़रिया दिखता है अपने माध्यम को लेकर। मैंने एनडीटीवी इंडिया के बारे में नहीं लिखा है। कोई और लिखे तो बेहतर है। वैसे कई चैनलों के बारे में नहीं लिखा है। इस लेख का मकसद आलोचना नहीं है,बल्कि फार्मेट में आ रहे बदलावों को नोटिस में लेना भर है। कंटेंट की आलोचना हम अलग से करते ही रहते हैं। बहरहाल हिन्दी चैनलों की प्रयोगधर्मिता पर भी बात होनी चाहिए। उनके ख़बरों की अधर्मिता पर तो हो ही रही है। जिसका कोई नतीजा आज तक नहीं निकल सका।
aam shrota ke liye naveen aur rochak tareeke se dee gayee jaankaree ke liye aabhar.
ReplyDeleteइस सबके बीच भी ख़बरें आप किसी कहेंगे ये भी एक परेशानी है। कटरीना का नया नाच या फिर अनजाना अनजानी का प्रमोशन या फिर चैम्पियन्स लीग या फिर कही हुआ कोई ट्रेन हादसा। आपके पास या तो फटाफट न्यूज़ में से अपने हिसाब की ख़बरें चुनने का ऑप्शन है या फिर मनोरंजन चैनल पर चल चुके रीयलीटी शो के रीपीट देखने का।
ReplyDeleteबाज़ार किसने बनाया ? हमारे आप जैसे अच्चा माल बेचना चाहते हैं ... सोचना होगा , क्या खरीदार भी खरीदना चाहते हैं ...जब भी आपकी रिपोट देखता हूँ , अच्छा लगता है ये जान कर कि इस फॉर्मेट और TRP की महाभारत के बीच एक गंभीरता और बेबाक रिपोटिंग अब भी होती है. लेकिन जब खबर आती है , करीना की कमर २ इंच बढ़ गयी या घट गयी. तब दिखाने वाला भी आगे और देखने वाला भी आगे निकल जाता है, और एक अच्छी जानकारियों से भरी रिपोट TRP को तरस जाती है. बाज़ार बादल रहा है और खरीदार भी. क्या करें , सोचना होगा. हम गलत दिखा कर आदत डाल रहे हैं, या लोग वही देखना चाह रहे हैं? फिल्मो में भी पिपली लाइव आकार एक उम्मीद जगती है और न्यूज़ में भी अच्छी खबरे जैसे आपकी एक उम्मीद जगती हैं, की लोग अच्चा देखना चाहते हैं. फिर बुरा क्यूँ देखते हैं. समझ नहीं आता. सोचना होगा. इस वक़्त मन कहीं और लगा है. अपनी बात लग रहा है, कह नहीं पा रहा. लेकिन समझदार के लिए इशारा काफी है.
ReplyDelete''आज भी बड़ी तादाद में रिपोर्टर अपनी पीटूसी नहीं लिख पाते हैं। लिहाज़ा कई चैनलो में डेस्क से लोग रिपोर्टर को पीटूसी लिखाते हैं। हद है जिस काम के लिए आप आए हैं वही नहीं मालूम...''
ReplyDeleteफिर भी ऐसे ही लोगों को भर भर कर ''ओवर स्टाफ'' का रोना रोया जाता है. चाह नहीं नजर आती नए बंदों को मौका देने की जो बिना गुटखा चबाये कुछ नया कर सकते हैं. वैसे आपको नहीं लगता कि ये प्रयोग किसी काम के नहीं हैं जब तक विषयवस्तु अच्छी न हो? ये तो मेक अप भर होता है. असल चीज़ तो हमेशा कंटेंट रहेगी न.
हिन्दी पत्रकारिता का संकट तथाकथित अच्छे पत्रकारों के नकारेपन का संकट है।
ReplyDeletesamachar channels ki pahle to galaa-phaad praiyogita rahi baad men dekhna,sunna va padhna ek saath fatafat shuru ho gaya jo betuka to hai hi doosri baat jo gaur karne layak hai ki aaj ke news channels daraate zyaada hain,news kam dete hain.....
ReplyDeleteकई महत्त्वपूर्ण बातें उठाई हैं आपने...
ReplyDeleteबेहतर आलेख...
आदरणीय रवीश जी
ReplyDeleteबहुत समय से आप के लिखे लेख मे कस्बा मे पढ रह हुं। ओर रवीश की रिपोर्ट को एनडीटीवी पे देखता हूँ। आपकी पत्रकारिता से बेहद प्रभावित हुआ हूँ। मे एक मामूली सा आम लेखक हुं ओर प्रत्यक्ष नामक ब्लॉग पे लिखता हूँ। आपका आज का लेख कस्बा पे पढ़ा तो सोचा की आपको अपनी दिल की बात लिखूँ। मुझे याद है जब दूरदर्शन पे बुनियाद धारावाहिक आया करता था उसके बाद आने वाले समाचार देखने के लिए मेरे बाबूजी 8:40 से पहले सारा काम निपटा लिया करते थे।
सलमा सुल्तान, ज्योत्स्ना जी ,मीनू तलवार हो या नरोत्तम पूरी का वर्ल्ड ऑफ सपोर्ट या फिर विनोद दुआ जी का परख या फिर 1990 का न्यूज़ लाईव इन सब के नाम आज भी लोग इसलिए नहीं जानते की ये लोग दूरदर्शन के एम्प्लोयी थी। बल्कि लोग इन्हे सुनने के लिए रोज़ आठ चालीस पे टीवी टीयून करते थे। अगर उस समय भी इस तरह की शु शा जूप जाप वाली न्यूज दिखाई जाती तो यह सारे लोगो के नाम व चेहरे तक लोगो को याद ना रहते। न्यूज़ का मतलब ये नहीं कि कुछ भी परोस दो न्यूज़ के नाम पे। एक भी रिपोर्टर को न्यूज़ का साहित्य नहीं पता। न्यूज़ साहित्य से मेरा मतलब है। न्यूज़ लिखने व न्यूज़ के बोलते वक़्त सही शब्दो का प्रयोग का फ़ारमैट कहीं देखने को ही नहीं मिलता। सिर्फ न्यूज़ कैसे दिखाई जाए उसके फ़ारमैट बनाया ओर बदला जाता हैं। अगर न्यूज़ चेनल को न्यूज़ के अलावा सीरियल मे रोज़ कहानी ने क्या मोड लिया दिखाना बहुत ज्यादा विशेष लगता है ओर यह बेचने का एक बहुत ही आसान माध्यम है तो न्यूज़ चेनल को न्यूज़ छोड़ के सीरियल दिखाना शुरू कर देना चाहिए। हो हल्ला मचा के न्यूज़ परोसने वाले बहुत है लेकिन खबर को खबर की तरह से कोई भी नहीं दिखाता। पिछले साल एक न्यूज़ चेनल ने ब्रेकिंग न्यूज़ मे दिखाया की एश्वर्या राय ने करवा चौथ के समय कोन सी साड़ी पहनी। गनीमत है की सिर्फ साड़ी के बारे मे ही बताया कुछ ओर बताया होता तो क्या होता। क्या इस तरह की कोई भी खबर कहलाने लायक है। हाल ही मे एक ओर चेनल ने दिखाया की रेखा ने जया बच्चन से गले मिली। अब क्यूँ मिली कैसे मिली गले इस बात को कम से कम 10 बार स्लो मोशन मे रिपीट कर कर के दिखाया। नीचे की खिसकती पट्टिका मे लिखा हुआ था। रेखा ने जया बच्चन को देखे कैसे गले लगाया आज रात 9:30 बजे। अरे भाई गले ही तो लगाया है। इसमे क्या गुनाह कर दिया। इस तरह की न्यूज़ अगर दर्शक देखेगा तो क्या होगा भगवान ही मालिक है।
मेरे लिये बहुत सी जानकारी नई है बहुत अच्छी लगी आपकीपोस्ट। धन्यवाद।
ReplyDeleteरवीश जी राम राम,
ReplyDeleteजमाना बदल गया है और मीडिया भी बदली है - और मीडिया के सरोकार भी.
पहले एक दलित को सताए जाने पर अखबार में कहीं एक छोटी सी खबर बनती थी - पर आज मीडिया किसी भी मुद्दे को राष्ट्रव्यापी बना रहा है. अगर अब कोई ऐसी खबर आ जाती है तो १०-१२ घंटे किसी न कि रूप में वो खबर चलती रहेगी.
पहले समाचार चाहे वो दूरदर्शन से आते थे या आकाशवाणी से देखने - सुनने के बाद लोग बहार आकार मोहल्ले में किसी चोपाल पर डिस्कस करते थे बातें होतीं थी नीम अँधेरे में - गहरी रात तक.
अब ये सब टीवी पर मीडिया ही कर देता है. - मीडिया जितनी भी तरक्की कर रहा - पर मुद्दों पर बहस जलवा खत्म हो रहा जहाँ एक आम आदमी जुड़ता था - ख़बरों के साथ.
राम राम
Sir, friday ko jo aapki report aati hai " RAVISH KI REPORT" wo bhi 9.28
ReplyDeleteminet par suru hoti hai aur 10 bajne se pahle khatam ho jati hai..........
रवीश जी मुझे लगता है कुछ समय बाद महिलाा रिपोर्टर साइज जीरो में और पुरुष रिपोर्टर सिक्स पैग मे दिखेगा।
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा विश्लेषण रविशजी, आप स्वयं में एक पूरा चलता फिरता-मीडिया संस्थान हैं.. आपसे व्यंग्यात्मक कटाक्ष बहुत ही मज़ेदार रहते हैं, हमेशा.. आपको अगर टेलिविज़न पत्रकारिता का 'राजू श्रीवास्तव' कहा जाये तो अतिशियोक्ति न होगी..
ReplyDeleteTRP-total revenue productivity !
ReplyDeleteन्यूज़ चैनल्स में आ रहे निरंतर बदलाव पर आया आपका लेख काफी सारगर्भित है ..वैसे इन बदलाव में कोई समस्या भी नहीं ..अगर प्रोडक्ट की तरह ख़बरों को भी रोचकता के साथ पेश किया जाए तो दिक्कत क्या है ..आखिर ख़बरों की मंडी भी अब बाज़ार कि मिजाज़ और अंदाज़ से ही तो तय हो रही है ..लेकिन ये कायाकल्प क्या प्रस्तुतीकरण तक ही सीमित रहेगा ..? कंटेंट के स्तर पर भी कुछ क्रांति हो तो बात बने..लेकिन ऐसे आसार तो नज़र नहीं आ रहे ..घास छीलने की योग्यता रखने वालों ने इस माध्यम पर हमला बोल दिया है और ..सम्पादक की कुर्सी को भैंस की पीठ समझ कर चिपक गए हैं ..इस चरवाहा विद्यालय से किसी संस्कृत वाणी की अपेक्षा व्यर्थ है ...पी टू सी तो बड़ी चीज़ है रवीश जी ..ये reporters ठीक से बूम पकड़ना ही सीख लें तो काफी सुधर हो जाएगा ...उम्मीद कीजिये बदलाव की ये बयार कंटेंट के स्तर पर पहुंचे...
ReplyDeleteकुल मिलाकर यह कि मनुष्य के मस्तिष्क पर दृश्य एवं श्रव्य की सता स्थापित की जा रही है इसके जानकार लोगों द्वारा ।
ReplyDeleteबहुत विस्तृत और जानकारी से भरा आलेख ।
परिवर्तन को स्वीकार कर लें सर.........रोना रोने से कुछ नहीं होने वाला है, आपने सही कहा संविधान है ये..और जब संविधान है तो सुप्रीम कोर्ट भी तो उसी के तहत फैसला करेगा ना.
ReplyDeleteपरिवर्तन को स्वीकार कर लें सर.........रोना रोने से कुछ नहीं होने वाला है, आपने सही कहा संविधान है ये..और जब संविधान है तो सुप्रीम कोर्ट भी तो उसी के तहत फैसला करेगा ना.
ReplyDeleteरविश जी
ReplyDeleteये तब की बात है जब भारत में केबल टीवी फ़ैल रहा था... तब टीवी देखना अच्छा लगता था क्योकि वैराइटी बहुत थी . पर बाद में क्या हुआ गौर करे..
चैनल A -- देखिये अमिताभ बच्चन स्पेशल : सत्ते पे सत्ता
चैनल B -- देखिये हेमा मालिनी स्पेशल :सत्ते पे सत्ता
चैनल C - देखिये बोलीवुड गोल्डेन मोमेंट्स :सत्ते पे सत्ता
चैनल D - देखिये अमजद खान स्पेशल :सत्ते पे सत्ता
चैनल E - देखिये भाई स्पेशल :सत्ते पे सत्ता
सो पिक्चर एक मगर हर चैनल उसे दिखाने को तैयार, कोई भी चैनल .. वही पिक्चर.. और ये सब देख के जो कोफ़्त पैदा हुई वो आज तक दिमाग में बैठी हुई है..
मुझे आज भी याद है परख, वर्ल्ड दिस वीक द्केने के लिए कॉलेज हॉस्टल में जो भीड़ जमा होती थी और जिस संजीदगी से देखा जाता था वो आपको लगता है की भूत प्रेत, तांत्रिक की खबरे सुनाने वाले चैनल जमा कर पाएंगे. पिछले साल भारत में मैने टीवी के ४० से ऊपर चैनल सर्फ़ किये और १० चैनल में तो तावीज़, chamatakari यन्त्र बिक रहे थे. १० में या तो बाबा रामदेव या कोई धरम गुरु..एक चैनल देखा जिसमे बॉलीवुड की किसी पार्टी के बारे में दिखाया जा रहा था. कौन सी अभिनेत्री ने किस मशहूर विदेशी कंपनी का गाउन पहना , किस अभिनेता के साथ शिरकत की ये सब बताया जा रहा था वैसा ही जैसा की मै इंग्लिश पल्प किताबो में देकता रहता हु. आपके इस आर्टिकल में आपने टीवी स्क्रीन पर दौड़ते बैंड का जिक्र किया. पहले ये बैंड एक भी नहीं होता था .. पर अब देखे एक साथ ३ या ४.. एक BSE इंडेक्स का, एक हॉट न्यूज़, एक ब्रकिंग न्यूज़ . एक अगले प्रोग्राम का.... कोई बताएगा की क्या ये सब जरुरी था.. ?
रवीश जी, दर्शकों की पसंद के नाम पर दरअसल बाजार की मांग पूरी करने की भागमभाग बढ़ती जा रही है। समय है, जो खबरों में रुची रखते हैं वो सारा का सारा बुलेटिन देखते हैं, घंटे भर की बहस भी देखते हैं, रवीश की रिपोर्ट की लोकप्रियता का अंदाजा आपको है। फिर ये कहना बेमानी है कि दर्शकों के पास समय कम है। हां ये समझना जरुर कठिन है कि चैनलों में इतनी बेचैनी क्यों है? काहे बउराए हैं सब?
ReplyDeleteअसित नाथ तिवारी,chauthinazar.blogspot.com
sir maine aap ke vicharo ko aur badane ke liye ...apni website per laga diye hai ...www.tarangbharat.com
ReplyDeleteager ho sake to sir muchhe mail se apnee lekha bhej diye kare mail hai --tarangbharat@gmail.com badi kripa hogi ...santosh pandey
नमस्कार....
ReplyDeleteNamaskaar......
ReplyDeleteabhi kuch dino se hi apka blog padh raha hu. bhala ho us newspaper ka jisne apki ID ka pata diya. aaj jo apne likha, ye sochte to mere jaise bahut se log hain par shayad bata apse acchha koi nahi sakta, ye apke aaj k is article ko padhkar laga. mein vyaktigat rup me NDTV INDIA ka samarthak hu.....kyun ho..??? shayad baki sare news channel dekhane k baad hi me NDTV ka samarthak ban saka. mene sare news channel me se NDTV ko sabse ant me dekha tha shayad isliye bhi me NDTV ka samarthak hu.
ant me jyada kuch na likhkar me apko apni subhkamnaye deta hu or apse yahi umeed karta hu ki aap aane vale samay me aise hi samajik vishayon par likhate rahenge.......
keep it up.....
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ReplyDeleteHindi new channels ki aisi 'inside story' aap hi kar sakte hain. TRP ki mara-mari se sabhi peedit hain, lekin dukh ya kahun kheejh tab zyada hoti hai jab kareena ki kamar ya ash ki saari ke kisse NDTV par bhi highlight hote hain {apne channel pa aane wala GLAMOUR SHOW toh aapne bhi dekha hoga}. NDTV tab INDIA TV ka kumbh ke mele mein bhichhda bhai hi lagta hai.
ReplyDeleteहर खबर नोट है (उसे लोग टी.आर.पी कह कर शायद अपने अपराध बोध को कम करते होगे). देश का बैडं बज रहा है..नोट लुटा रहें हैं धन्ना सेठ... लूट सके तो लूट..
ReplyDeleteसमाचार मनोरंजन चैनलो की कुत्ता-घसीटी की बारीकियों को बड़ी बेबाकी से बताया आपने, रविश जी!
साधुवाद!!
आप सोचिये कि आप पृथ्वी पर स्थित किसी क्षेत्र विशेष को आकाश से दूर से देख रहे हैं तो आपको एक ही बारी में एक विशाल इलाका दिखाई पड़ेगा, किन्तु विस्तृत जानकारी नहीं मिलेगी उसमें से किसी एक छोटे से क्षेत्र, या पूरे ही क्षेत्र की,,,किन्तु अब जैसे-जैसे आप आकाश में नीचे उतरते जायेंगे उसकी विस्तृत जानकारी मिलनी आरंभ हो जाएगी,,,जिस कारण पूरे क्षेत्र की विस्तृत जानकारी पाने के लिए अब आपको बहुत सारी आँखों से (कई टी वी चैनल से ) देखने की आवश्यकता होगी...
ReplyDeleteबहुत विस्तृत और जानकारी से भरा आलेख ।
ReplyDeleteबहुत ही सधा हुआ लेख है रविश जी। समस्या तो ये है कि आजकल जो तथाकथित पत्रकारो की नयी पौध् आ रही है वो न ही कुछ लिखना जानती है और न ही उनकी रुचि दिखती है नया सीखने मे। ऐसे मे ग्राफिक्स और एनिमेशन की आड लेकर खबर को एक मसालेदार खिचडी के तौर पर पेश किया जाता है।
ReplyDeletesir abhi kasar hai ...lekin lekha bahoot hi mast hai ...
ReplyDeleteravish ji namskar...
ReplyDeleteIsliye maine sabhi news chanels dekhna band kar diya siway ndtv n aawaj ye dono hi thik hai...!
Bahut hi suddh vichro wali prativedan...waise aapko other chanels walo se dar nahi lagta is tarah aap bebaki se bolte hai....!
Anthheen sadak kab likhenge..