हिन्दी सिनेमा में दिखने वाले शहर और गांव के स्पेस का अलग से अध्ययन नहीं किया गया है। विदेशी लोकेशन जाने की होड़ से पहले सत्तर और अस्सी के दशक तक ज्यादातर फिल्में अपने शहरों में ही बनती थीं। गानों से लेकर भागने दौड़ने के दृश्य में शहर की पुरानी तस्वीरें मुझे रोमाचिंत करती हैं। कभी-कभी लगता है कि इन गानों में जो रास्ते और शहर दिखाए गए हैं,उन्हें एक बार खोजने निकल जाऊं। देखूं कि दस फिल्मों में मुंबई के वीटी स्टेशन के आस-पास का नज़ारा कैसे बदला है। मरीन ड्राइव अलग-अलग फिल्मों में कैसी दिखती है।
इसीलिए बार बार रिमझिम गिरे सावन सुनता रहता हूं। वीडियो देखने का कोई मौका नहीं छोड़ता। आप भी इस गाने को यूट्यूब पर चलाकर देखिये। मुंबई से पहले की बंबई का खुलापन दिखता है। अमिताभ और मौसमी जिन रास्तों पर भीगते हुए भाग रहे हैं उनकी चौड़ाई नज़र आती हैं। सड़कें इतनी चौड़ी हैं और फ्रेम में आसमान अपने आप आ जाता है। किनारे बने एक मंज़िला मकान की छत दिखने लगती है। मरीन ड्राइव पर जब अमिताभ और मौसमी दौड़ रहे हैं तो सागर की मस्ती देखिये। पानी में दोनों दौड़ रहे हैं। सड़कों पर गाड़ियां कम हैं। ट्रैफिक जाम जैसा नज़ारा नहीं हैं। आज इसी गाने को आप उसी लोकेशन पर शूट नहीं कर सकते। दोनों जब एक पार्क से गुजरते हैं तो तीन ससे चार मंजिला इमारतें दिखती हैं।
पहले भी यूं तो बरसे थे बादल...पहले भी यूं तो भीगा था आंचल। अबके बरस क्यूं सजन सुलग सुलग जाए मन। पार्क की गीली मिट्टी को कैमरा पकड़ता है। दोनों के जूते चप्पल किचड़ से सने है। इस बार सावन दहका हुआ है, इस बार मौसम बहका हुआ है..गाना आगे बढ़ता है, कैमरा सड़कों पर जमे पानी को देखकर निकल जाता है,तभी फ्रेम से एक लैम्ब्रेटा निकलता है। चलाने वाला सफेद बरसाती में हैं। सड़क पर जमे पानी से बेपरवाह चला जा रहा है। वीटी स्टेशन के पास अमिताभ और मौसमी सड़क पार करते हैं।हल्की बूंदा बांदी हो रही है। लोग हैं और मगर भीड़ नहीं है। लोग छाता लिये सड़क पार कर रहे हैं। वीटी का आसमान खुला लगता है। गोलंबर पर लगी मूर्ति के ऊपर का आसमान खाली लगता है। ऊंची इमारतों से शहर भरा नहीं लगता है। काली पाली टैक्सी की रफ्तार बारिश के बाद भी ठीक ठाक है। जाम नहीं है। गाड़ियां भागती नज़र आ रही हैं। एक कामगार शहर की तस्वीर बनती है। दोनों जब मरीन ड्राइव पर आकर एक बेंच पर बैठते हैं तो बगल से कुछ मजदूर अपने सामानों को कंधे पर लादे चले जा रहे हैं सागर की लहरें मरीन ड्राइव की दीवारों से टकरा कर ऊपर आने लगती हैं।
यह गाना मेरे भीतर हर दिन बजता है। जब भी बजता है इसके भीतर का शहर दिखता है। अब हम बारिश से डरने लगे हैं। भीगते नहीं हैं। कीचड़ में अपने बच्चों को खेलने नहीं देते। हमने हर जगह की मिट्टी को पराया कर दिया। प्रवासी मुल्क के लोग हैं। गांव से कस्बा और शहर। बनियान की तरह शहर बदलते हैं। मुंबई को बिना देखे मुंबई की कल्पना इन्हीं सब दृश्यों के माध्यम से मेरे भीतर बनती चली गईं। अक्सर लगता है कि किसी का हाथ पकड़ कर बारिश में दौड़ने चला जाऊं। जेब में रखे कागज़ भीग जाएं तो अमिताभ की तरह निकाल कर फेंक दूं और मौसमी का हाथ थामे रहूं। देर तक और दूर तक इस गाने को गाता हुआ निकल जाऊं। आने दूं जूतों से छिटक कर कीचड़ को चेहरे तक। डेटॉल और रिन साबुन के विज्ञापन को लात मारते हुए। गीले और गंदे कपड़ों का रोमांस तो अब परदे पर भी नहीं आता। सब कुछ साफ-साफ दिखता है।
वाक़ई... आप ठीक कहते हैं...
ReplyDeleteयह गीत भी बहुत ही दिलकश है...
bahut sahi baat ki aapne
ReplyDeleteaur geet ka kya khna , apne aap main sab kuchh byan karta
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
क्या बात है सर, आजकल केवल फिल्मों और फिल्म वालों की चर्चा , वो भी पुरानी बातें । अतीत की बातें जब ज्यादा अच्छी लगने लगें तो समझो बुढ़ापा दस्तक दे रहा है । वैसे नाराज़ मत होइयेगा , आप युवा ही हैं और ईश्वर उसे अक्षुण्ण रखे । पुरानी बातें याद दिलाने के लिए धन्यवाद ।
ReplyDeleteरोचक
ReplyDeleteGOOD FEELING
ReplyDeleteये आज आप अजदकायमान क्यूं हुए जा रहे हैं :)
ReplyDeleteप्रमोद जी भी कभी कभी इसी तरह की पोस्ट लिखते हैं :)
मुंबई के अनेक रूप हैं. मेरे सबसे छोटे दामाद से बारिश के बारे में पूछो तो वो शुरू हो जाता है जो अनुभव उसने किया २६ जुलाई '०५ की बारिश का,,, जब दोनों दोस्त ऑफिस से घर की ओर रवाना हो, पानी में डूबी कार से निकल, कई किलोमीटर पैदल चल, रात एक बस में सोये,,, और दूसरे दिन १२ बजे घर पहुँच डेटोल डले पानी से २-३ बार नहाया!
ReplyDeleteमुंबई वाले , बारिश से अब भी नहीं डरते...कितनी भी मूसलाधार बारिश हो, घर से निकल पड़ते हैं. बच्चों को कीचड़ में खेलने से बिलकुल नहीं रोकते...बल्कि पहली बारिश में अगर बच्चा डर रहा हो तो उसे गोद में लेकर भीगने जाते हैं....हर मैदान में कीचड़ से लथपथ बच्चे फूटबाल खेलते नज़र आएंगे.
ReplyDeleteकंक्रीट के जंगल, चारोँ तरफ भीड़, रोड जाम, हार्न की चिल्ल पोँ से ऊबे मन को पुरानी यादेँ शांत नहीँ बल्कि और भी बेचैन करतीँ हैँ।
ReplyDeleteआया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का
रवीश जी यादेँ जालिम ही होतीँ हैँ।
अब वह ज़माना ही न जाने कहाँ खो गया है जिसमें चरित्र अभिनेता नायक को कहता था, "चर्चगेट पर 5 बजे मारिया तुम्हारा इंतज़ार करेगी| उसके हाथ में लाल गुलाब होगा और तुम उसे 5 का फटा नोट दिखाओगे,तो जवाब में वह भी 5 के नोट का दूसरा हिस्सा दिखाएगी| तुम उसे लाल कहोगे और वह गुलाब कहेगी|
ReplyDeleteठीक है, विदेश देखने का मौका मिल जाता है, मगर वह सुंदरता नहीं| मैं स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड, जर्मनी फिल्मों में देख देख कर ऊब गया हूँ, मगर अब बम्बई, या ऐसी जगहें भूलें से भी देखने को नहीं मिलती |
main 'sanchi' ki bat se sahamat hoon. wideshon ke sundar drishyon ko saraha jarur ja sakata hai, lekin apane desh ke drishyon ko dekh kar jo apanapan mahsus hota tha, wo khatm ho gaya hai.
ReplyDeleteRavishji, ek aur rochak lekh. ab kab phir se Devanand/Nutan ko qutabminar pe dekhge ( tere ghar ke samne), phir kab dhikhai dega Gangtok, delhi ka india-gate, mumbai ke chaale,(Katha)aur bhi tamam khubsoorat aur dikash Hindustani nazare.....
ReplyDeleteIshwar Bollywood ke producers ko taufiq de.
http://www.youtube.com/watch?v=WKry5yQqNr0
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआदरणीय रवीश जी,
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग से रूबरू हुआ हूँ। आपको पढकर अच्छा लगा। आपके इस विचार पर मैं यही कहना चाहुंगा कि आजकल हमारी मुबंईया फिल्मे हमारी ना रहकर केवल मल्टीप्लेक्स ऑडियंस और NRI ऑडिंयस की होकर रह गई हैं। अब फिल्मो में सावन के गीतो की जगह रैन डांस ने लेली हैं। अब नही देखने को मिलते हैं फिल्मो में सावन के वो सुहाने दिन जब मुबंई की सडको पर अक्सर बारिश के गीतो को फिल्माया जाता था। सिर्फ अब तो स्मृतियां ही शेष रह गई हैं।
चंद्रशेखर गुप्ता,
रायपुर[छ.ग.]
रवीश जी को सादर प्रणाम....भाई जी बहुत ही रोचक..मजा आ गया...आपने रिमझिम गिरे सावन की याद ताज़ा कर दी...बहुत बहुत धन्यवाद...
ReplyDeleteRavish sir
ReplyDeleteAab to na woh sawan hota hai aur na hi woh mausam. Haan dahakna phir bhi jari hai 48°C mein.
बारिश गिरने के लिए जगह कहाँ है अब मुंबई में ?
ReplyDeleteRavish Baboo !!! Behtar post, Sundar abhiwykti!!!
ReplyDeleteek sawaal aapke liye khaas jawaab zaroor dijiyega
समान रूप से सुन्दर दो जुड़वां बहनें सड़क पर चल रही हैं| एक केवल कलाई और चेहरे को छोड़ कर परदे में पूरी तरह ढकी हों दूसरी पश्चिमी वस्त्र मिनी स्कर्ट (छोटा लहंगा) और छोटा सा टॉप पहने हो | एक लफंगा किसी लड़की को छेड़ने के लिए किनारे खडा हो ऐसी स्थिति में वह किस लड़की से छेड़ छाड़ करेगा ? उस लड़की से जो परदे में है या उससे जो मिनी स्कर्ट में है? स्वाभाविक है वह दूसरी लड़की से दुर्व्यवहार करेगा! ऐसे वस्त्र विपरीत लिंग को अप्रत्यक्ष रूप से छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार का निमंत्रण देते हैं|
Aapka fan,
Saleem Khan
Founder, Hamari Anjuman
http://hamarianjuman.blogspot.com
Ravish Baboo !!! Behtar post, Sundar abhiwykti!!!
ReplyDeleteek sawaal aapke liye khaas jawaab zaroor dijiyega
समान रूप से सुन्दर दो जुड़वां बहनें सड़क पर चल रही हैं| एक केवल कलाई और चेहरे को छोड़ कर परदे में पूरी तरह ढकी हों दूसरी पश्चिमी वस्त्र मिनी स्कर्ट (छोटा लहंगा) और छोटा सा टॉप पहने हो | एक लफंगा किसी लड़की को छेड़ने के लिए किनारे खडा हो ऐसी स्थिति में वह किस लड़की से छेड़ छाड़ करेगा ? उस लड़की से जो परदे में है या उससे जो मिनी स्कर्ट में है? स्वाभाविक है वह दूसरी लड़की से दुर्व्यवहार करेगा! ऐसे वस्त्र विपरीत लिंग को अप्रत्यक्ष रूप से छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार का निमंत्रण देते हैं|
Aapka fan,
Saleem Khan
Founder, Hamari Anjuman
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Ravishji- padh kar anand aya aur saval zehan mai aya.
ReplyDeleteitne shehro ke nam badle( sahi ya galat mai uski charcha mai nhi jaogakiyo ki chrcha Do jano mai kam se kam hoti hai)aur sab ne use suyikar bhi liya kabhi esa vaad vivad nhi sune ko mila.
phir Bombay ko Mumbai bolne mai adhiktr logo ko kathnayi kioyo hoti hai?
Mai ispasht kardu mai Marathi ya kisi sanstha se nhi hu- ye isliye kehna thik laga kiyo ki aaj loog har bat mai kisi vivad ki jad ko dhunte hai
kadak dhoop aur pasine se tar batar garmi mein aap rimjhim sawan ka anand le bathe ho! drishya bhi aur gaana bhi dono dilkash hain.
ReplyDeleteये तो मायावी जगत बॉलीवुड का कमाल है कि 'बॉम्बे' को भुलाने ही नहीं देता... जैसे मो. रफ़ी का पचास के दशक में गाया गीत, "ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ / ये है बॉम्बे , ये है बॉम्बे, ये है बॉम्बे मेरी जान"...अब तो खैर किसी भी शहर में जीना मुश्किल हो चुका है :)
ReplyDeleteजहाँ तक नाम बदलने का सवाल है, हम जैसे 'बूढों' को उदाहरणतया दिल्ली में आर एम् एल अस्पताल कहने से सोचना पड़ता है कि शायद मतलब विलिंगडन हॉस्पिटल से हो; तिलक ब्रिज शायद हार्डिंग ब्रिज; अब सीपी हो गया जो कनोट प्लेस था जब लोगों के पास समय था; आदि आदि, मेट्रो का स्टेशन लेकिन राजीव चौक सबकी जुबान पर छा गया है अलबत्ता...
किसी भी नाम से उसे पुकार लो गुलाब की खुशबू बदल नहीं जाती कह गए शेख पीर!
सावन की बूंदें,बूंदों में मुंबईं, दिलोदिमाग पर
ReplyDeleteछा जाने वाले लफ्ज़ और दिलकश धुन। ये
सब स्क्रीन पर वाकई जादू जैसा अनुभव 'क्रिएट' करते हैं ।
रवीश जी,
ReplyDeleteमैं जानता हूं कि शायद तमाम टिप्पणियों में ये टिप्पणी खो जाए पर कहना ज़रूरी है। वो ये कि एक लंबे अरसे से मैं ये सोच रहा था। मुझे पुरानी फिल्में सिर्फ इसलिए पसंद आती हैं क्योंकि वो शहरों की कल की तस्वीर और ज़िंदगी की नब्ज़ को समझाती हैं।
एक्टर एक्ट्रेस को अगर पल भर के लिए सेकेंडरी मान लिजिए तो उनके आसपास के जूनियर कलाकार और लोकेशन दरअसल उस दौर के बारे में बिना किसी डायलॉग के भी बहुत कुछ बता देते हैं।
न जाने क्यों पुरानी चीजों और पुराने दौर को भी समझने की एक ललक पैदा हो गई है। मुझे लगता था कि शायद मैं ऐसा सोचता हूं।
न जाने क्यूं ऐसा होता है कि जब कोई पुरानी फिल्म देखता हूं तो उसके आसमान या फिर उसके वक्त को पकड़कर अपने शहर बनारस के आंगन में भी उतरने की कोशिश करता हूं। लगता है कि जब ये फिल्म बन रही होगी उस वक्त देश में क्या चल रहा होगा...और मेरे शहर में उस टाइम लाईन पर ज़िंदगी कौन सी कहानी गढ़ रही होगी।
कल ही दो बीघा ज़मीन देखी है। उसमें कल का कोलकाता दिखाया गया है। उम्मीद है आपने भी देखी होगी गुज़ारिश है एक बार फिर से देखिए समय निकालकर विषय को समझाने में कहीं कोई फोर्स नज़र नहीं आता बल्कि बात सीधी उतरती चली जाती है। और हां कोलकाता के आसामान को पकड़कर एक बार अपने घर के आंगन में उसी टाइम लाइन पर उतरिए कमाल का अनुभव होगा।
रविशजी, सोचने वाली बात ये है कि जब फिल्में नहीं बनी थीं, कुछ ही सदी पहले तक, तो क्या 'प्राचीन भारतीय' भूत में जाने में असमर्थ था?
ReplyDeleteबदलते नाम अवश्य बाधा ही बनें किन्तु 'बनारस' यानी 'वाराणसी' अथवा, पुरातन काल में गंगा के तट पर बसी, 'काशी' ही काफी हो सकता है "सत्यम शिवम् सुंदरम" वाले भूतनाथ तक पहुँचने में - कहते हैं न कि बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है!
एक बार यदि शून्य (नादबिन्दू विष्णु), यानी आरंभिक स्थिति को पकड़ लिया तो फिर उसके विभिन्न रूपों का आनंद उठाने में अवश्य कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए!
आकाश, अग्नि, जल, वायु और पृथ्वी को पंचभूत (शिव के मित्र) या पंचतत्व कहा गया है, जो प्रकृति में किसी भी साकार रूप के बनने में अनिवार्य माने गए हैं!
ravish ji ab barsaat bhi kahan hai..ho jaye to dil khush ho jaye!
ReplyDeleteरवीश जी यह गाना मुझे इतना पसंद है कि लगभग तीन साल से यह मेरे मोबाइल की रिंगटोन बना हुआ है। बदलने का मन ही नहीं करता। क्योंकि अपन भी उसी जमाने के जो हैं।
ReplyDeletee dil hein mushkil jeena yahaan zara haske zara bachke yeh hein mumbai meri jaan.........!!! mumbai ki khoobsurati har shakl men lajawaab hein..!! kal bhi aaj bhi, aaj bhi kal bhi.....
ReplyDeleteसही कहा रवीश जी,
ReplyDeleteवैसे किसी का हाथ पकड़कर चलनें की आशा को गोली मारिए, जिसका हाथ पकड़ा है उसी को थामें चलिए और मौसमी को भूल मौसम का आंनद लीजिए, ग्रांट रोड़ चौपाटी पर भेलपूरी खाईये। मरीन ड्राईव आज भी ख़ूबसूरत है।
वैसे बरसाती गानों में मुझे अमिताभ-स्मिता पाटिल का आज रपट जाए तो...(नमक हलाल) ज्यादा रोमानी लगता है।
RAVISH JI, MUST WATCH THE MOVIE 'CHOTTI SI BAAT' AND SONGS OF 'RAJNIGANDHA'. THESE ARE MORE NOSTALGIC THAN THE DISCUSSED SONG. MEMOIRS ARE ALWAYS NOSTALGIC.
ReplyDeleteआप कहाँ कहाँ से विचार पकड़ लाते हैं? सचमुच सीखने को मिलता है!
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