आप अंग्रेज़ी सीखने के करीब पहुंच गए हैं
हिन्दी में अंग्रेज़ी सीखाने के ये साइन बोर्ड। हॉस्पिटलाइज़ेशन के चंद घंटे बाद ही मरीज़ को ठीक करने का दावा किया जा रहा है। अंग्रेजी में पारंगत होने की टॉनिक मिलती है यहां। भाषाई राष्ट्रवाद का कचूमर निकलने के बाद अंग्रेजी के शरण में जाये बिना क्या होगा। घंटे में अंग्रेजी सीखाने वाले कहते हैं कि नौकरी तो हिन्दी में नहीं है। आप इस सत्य को छुपाकर हिन्दी हिन्दी मत कीजिए। इंग्लिश मीडियम स्कूल अंग्रेजी पढ़ना लिखना तो सीखा देते हैं लेकिन बोलना नहीं।
बोलने की टेक्निक बदल दी गई है। ग्रामर को गांव भेज दिया गया है। घास चरने। अमेरिकन संस्थान के विक्रम लांबा कहते हैं कि जो सीखने आता है उसके भीतर से हिन्दी निकालता हूं। फिर धीरे धीरे अंग्रेज़ी फिट करता हूं। उसे बचपन से पंखा बोलने की आदत है। फैन बोलने की आदत के लिए जगह बनानी पड़ती है। ग्रामर का भय ठीक नहीं है। ही के साथ डू या डज़ लगाइये,इससे ही पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो वही करेगा जो करेगा। आप पहले यह तो बोलिये कि ही डू। बाद में उसे ही डज़ करा दूंगा।
लाखों लोगों की भाषा बदल रही है। अंग्रेजी बोलना सीख रहे हैं। दुभाषिये हो रहे हैं। शहरों की होर्डिंग में रोमन में हिन्दी और अंग्रेजी दिखाई पड़ती है। दिल्ली शहर के भीतर होर्डिंग देखें तो लगेगा कि लंदन में हैं। इससे पहले सार्वजनिक रूप से इंग्लिश से इतना टकराव नहीं हो रहा था। नाम पट्टिकाओं पर हिन्दी उर्दू या पंजाबी की तरह नजर आती है। इंग्लिश मुख्य भाषा है। हिन्दी का भी बाजार बढ़ रहा है। अख़बार पसर रहे हैं। लेकिन जो साक्षर हो रहा है वो एबीसीडी से भी साक्षर हो रहा है। वो इंग्लिश सीखना चाहता है। हिन्दी में बने रहना नहीं चाहता। हिन्दी को लेकर गर्व की दुकान का कोई मतलब नहीं। हिन्दी का मोह छूटता नहीं लेकिन आप किसी को कह नहीं सकते कि हिन्दी जानिये,नौकरी मिलेगी। ये हकीकत आज की नहीं है। अंग्रेजी को लेकर राजनीतिक सहमति बन चुकी है। हिन्दी को लेकर सारे प्रयास बंद हो चुके हैं। संपर्क भाषा बन कर भी हिन्दी रोजगार की गारंटी नहीं है।
आपका अंग्रेज़ी सीखने वाला प्रोग्राम कल टी.वी. पर देखा था. आपकी अपने विषय पर अच्छी पकड़ रहती है. अच्छा लगा.
ReplyDeleteजय हो !
ReplyDeleteपहले वाक्य में ’सीखाने’ को ठीक कर लें ।
ReplyDeleteइन विज्ञापनों से और कुछ पता चले या न चले, लेकिन ये तो पक्की तौर पर पता चलता है की, हम और हमारे देश की सरकार मानसिक तौर पे अभी भी पूरी तरह गुलाम हैं / दरअसल हिंदी का प्रचार और प्रसार में ईमानदारी भी एक बाधा है / क्योकि हिंदी में ठगी और धोखाधारी इतना आसान नहीं जितना अंग्रेजी में /
ReplyDeletehaan ndtv par aapki report dekhi thi :)
ReplyDeleteravish ji the story is realy good .
ReplyDeleteसही है,
ReplyDeleteअब ज़माने के साथ भी तो चलना हैं नही तो 'बेकवर्ड ' कोन कहलाना पसंद करेगा ....
Conversing in English is rather easy. Took me indefatigable will, 6 months, 34 Hollywood Movies, Late Fr Kamil Bulke's English-Hindi Kosh and help from a few friends who spoke fluent English.
ReplyDeleteBut, that was in Bombay [Now, Mumbai].
I don't find any such circle here in NCR, where people speak fluent English for the sake of speaking it.
But, it's a kind of "status symbol" and I think Raviish Kumar has tried to underline the "status" and commercial aspect of English Speaking Courses and quite eloquently!
Note: I am Hindi-speaking but I cannot type in Devanaagarii.
''अंग्रेज़ी शेरनी का दूध है, जो पियेगा वो दहाड़ेगा.....'
ReplyDeleteये सबसे रोचक था...हंसी रुक ही नहीं पा रही है.....कहां मिला लिखा हुआ ये....
ये कैसा रहेगा...
''हिंदी गाय का दूध है, जो पिएगा, घी भी खाएगा मुफ्त में...''
विश्वनागरिक बनने के लिए अंग्रेजी जरूरी है। भारत के लिए जो भूमिका हिन्दी की है वही भूमिका अंग्रेजी की दुनिया के स्तर पर है। हिन्दी में रोजगार मिल भी जाए तो अंग्रेजी आज जरूरी है।
ReplyDeletesir aapki report dekhi english factory. sabse achhi bat usme yahi lagi ki, last aapne kha aapko bhi kamchalau english hi aati hai. jan kar dil kush ho gaya, kyoko hamaari bhi yahi halat hai, mazak tha ye..........waise usme english devi ka idea aur english satta ki bhasha hai....baba saheb ambedkar ke cott vakai dil ko lubha gaya
ReplyDeletejay ho...
ReplyDeleteरवीश जी
ReplyDeleteमैं अरसे से आपका प्रशंसक हूँ. ndtv पर लगातार , सामाजिक सरोकारों से जुड़े. आपके द्वारा प्रस्तुत फीचर्स को देखता हूँ . आप अक्सर समाज में घट रही विसंगतियो पर ध्यान तो आकर्षित करते ही हैं साथ ही अव्मूलियित होते हमारे समय और जीवन के प्रति एक सकारात्मक सोच देते हैं , ऐसे समय में जब अनेक पत्रकार बाज़ार की मांग के चलते ढोल पीट कहानिओं को चिल्ला चिल्ला कर प्रस्तुत करते हैं एवं उन परीकथाओं के माध्यम से, जगाने का दावा कर हमारी सोच को सुलाने में प्रयत्नशील हैं आप बहुत ही सहज तरीके से अपनी बात कहते हैं जो देखने वाले को यथार्थ का अनुभव करता है
अभी आज ही मैंने अंग्रेजी बेचने वालों पर आपका फीचर देखा और लगा की पहाड़ गंज जैसे फीचर्स को बहुत पसंद करने के बावजूद आपतक , अपने आलस्य के चलते , अपनी बात न पहुंचा सका , सोचा आज तो कुछ कह ही दूँ. सच मानिये आपकी प्रशंसा में जो कहना चाह रहा हूँ उसके लिए शब्द कम ही हैं .
मैं व्यंग्य का विद्यार्थी हूँ इसलिए - दिल्ली शहर के भीतर होर्डिंग देखें तो लगेगा कि लंदन में हैं।- जैसी सशक्त व्यन्गोक्तिया पढ़कर लगता है जैसे कोई मन की बात कर रहा है
एक बार पुनः बधाई
प्रेम जनमेजय
आपकी रिपोर्ट एनडीटीवी पर देखा , हमेशा की तरह अच्छी लगी । अंग्रेजी शासक वर्ग की भाषा है । भारत मे यह केवल एक भाषा या कम्युनिकेशन का माध्यम भर नहीं है यह आप को सामाजिक स्टेटस देती है । भारत मे जाति वर्ण ही सब कुछ निर्धारित करता है , अंग्रेजी आप के उस जाति की हीनता ( यदि हो तो ) से छुटकारा दिलाती है । क्योंकि यह आपको सीधे शासक वर्ग से जोड़ती है । रवीश जी ध्यान दीजियेगा , हमारे देश मे हमेशा दो भाषायें रहीं एक शासक वर्ग की ( संस्कृत और फ़ारसी ) दूसरी स्थानीय बोल चाल की आम आदमी की ।
ReplyDeleteअंग्रेजी रोजगार से भी जुड़ी है , क्योंकि शासन मे थोड़ा बहुत उत्तर के राज्य हिंदी मे काम करते हैं परन्तु बिजनेस की भाषा तो पूरे देश की अंग्रेजी ही है ।
मेरा मानना है कि यदि हिन्दी रोजगार या शासन की भाषा बन जाये तो अंग्रेजी का वही हाल हो जायेगा जो आज फ़ारसी और संस्कृत का है । लेकिन यहां हिंदी का मुकाबला अपनी देशी बहनों से है , अन्य प्रदेश के लोग हिंदी को नही अपनाना चाहते , हां अंग्रेजी से उन्हे कोई गिला नहीं है । आज की स्थिति यही है भविष्य मे क्या होगा कौन जाने ।
एक बार फिर छा गए आप !
ReplyDeleteपर एक रिपोर्ट आप इस बारे मैं भी बनाये की इन झटपट छाप इंग्लिश स्कूलों से निकल कर कस्बाई
छात्रों का क्या वाकई में लाभ हो रहा है ? या फिर पंखा को फैन बोलने के बाद जनता पहले जैसे ही भटक रही है |
namaskaar!
ReplyDeleteangrejii aur hindi kii asaliyat par aapakaa yaha blog achhaa hai.
main chaahakar bhii hindi men nahii likh paa rahaa huu.
kament bksaa men hindi kaise likhate hain?
namaskaar.
धिस काईंड आफ भेलू एडेड परोगराम शुड भी टेलिकासटेड आलभेज....बिकास यू आर गिबिंग अस भेरी गुड कनटेंपरेरी कंनटेंट....
ReplyDeleteमेरी इस ठिठोली से बुरा न मानिएगा...यह उस धूसर देहात की बोली है जिसमें मैं लोटता पोटता रहा हूँ :)
बढिया रिपोर्टिंग है।
mubaarqbaad!
ReplyDeleteye sanch hai ki English behad jaruri hain. Hamara padosi China ka udaharan hamare samne hain. Emglish sikhane ki chatpatahat wahan saaf najar aati hai. waha angreji sikhane wale teacher etane mahange hai ki unhone ek naya rasta khoj liya hain. wo teacher ko apane yahan bulate hain, apene ghar me rakhate hain, unake khane pine aur sahar ghumane ka inejam karate hain aur badale me apse angreji sikhate hai. ye achchi baat lagati hain. mujhe lagata hain ki is GURU-SISHYA parmpara me wo badhiya tarike se shikh payenge.China me majburi hain. wahan english me paathya samagri maujud nahi hain.
ReplyDeleteHamare yahan ye majburi nahi hain, par hame jaldbaji hain, hame koi ghol kar pilane wala chahie, isiliye chay(tea) ki dukano ki tarah har nukkad me ye dukane khul gayi hain.
यूरोप में जब अंग्रेजी नहीं पहुंची थी तो एक चुटकुला पढ़ा था:
ReplyDeleteस्विटज़रलैंड के एक होटल में रिसेप्शनिस्ट के पीछे अंग्रेजी में दीवार पर लिखा था 'यहाँ सब भाषाएँ बोली जाती हैं'...
यह पढ़ एक अंग्रेज खुश हो अंग्रेजी में धडाधड कुछ बोला, जो रिसेप्शनिस्ट की समझ नहीं आया :(
लेकिन उसने टूटी=फूटी अंग्रेजी में उसे समझा दिया कि उस होटल में संसार में बोले जानी वाली हर भाषा के व्यक्ति रहने आते थे और इस प्रकार सारी भाषायें उनके द्वारा ही वहां बोली जाती थीं...
उपरोक्त 'भारत' नामक 'होटल' पर भी लागू नहीं होता है क्या?
यह तो दिल्ली जैसे शहरों की विशेषता है कि अभी भी अंग्रेजी का जायका यहाँ कायम है, भले ही इसे गुलामी अथवा मजबूरी कहलें या सहूलियत,,, और कई वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत में ही नहीं अपितु लगभग पूरे संसार में राज्य किया... और सच तो यह है कि चीन, कोरिया, आदि देशों में भी अब अंग्रेजी सीख रहा है आम आदमी, क्यूंकि आज आवश्यक हो गया है संसार में एक ही भाषा के उपयोग किये जाने की...जिसे कोई 'काल का प्रभाव' भी कह सकता है (?)
raveeh ji aa[ki ye report tv me dekha bahut achchi lagi....
ReplyDeleteमुझे तो आखिर वाली फोटो सही लगी कि अंग्रेजी वाले ही दहाड़ेंगे.....बाकि हिंदी वाले तो मिमियाते है....क्योंकि अंग्रेजी वालों से कौन पंगा ले हो सकता है कि कहीं गिटर पिटर में गरिया दे
ReplyDeleteजी बहुत सही जा रहें आप....रिपोर्ट भी देखी है
ReplyDeleteआजकल टाटा स्काय पर भी अंग्रेजी सिखाने वाले विज्ञापन आरहें हेँ
ReplyDeleteकिसी भी दिन दिल्ली के किसी भी न्यूज़ चैनल को फोन पर या ई-मेल करके आप नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को हो रही असुविधा के बारे में बताने की कोशिश करें तो उनमें से कोई भी आपकी बात नहीं सुनेगा. वह आपके ऊपर हंसेगे, आपका मजाक उड़ायेंगे और दो चार इधर उधर की बातें कर के फोन रख देंगे. आपके ई-मेल का जवाब तो छोडिये, पावती भी नहीं आएगी. वे कभी कुछ नहीं करेंगे. उनके पास मूर्खतापूर्ण बे सिर-पैर की ख़बरों का खज़ाना है(दीपिका का नया प्रेमी कौन है, देखिये आज रात साढ़े नौ बजे), उनके पास कुन्द्जहन पत्रकारों की अनाप-शनाप तनख्वाह पाने वाली टीम है, और उन्हें आम आदमी की तकलीफों से जुड़ी खबर की जरुरत नहीं है. 15 मई की उस भयानक दोपहर से पहले तक भी, जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर दो यात्री भगदड़ में कुचल कर मारे गए और लगभग चालीस घायल हो गए, कोई भी चैनल आपकी बात नहीं सुनता. जनता के प्रति जवाबदेह माने जाने वाले चैनलों ने इस हादसे के होने का इंतज़ार किया. और जैसे ही यह हादसा हुआ, हर चैनल ने अपनी लाइव खबर में अपने को जनता का सबसे बड़ा हमदर्द दिखाना शुरू कर दिया. उन्होंने पुलिस और प्रशासन को कटघरे में खड़ा किया, जो सही था. मगर उनमें से किसी के पास अपने गिरेबान में झांक कर देखने का ना तो साहस था और ना ही समझ.
ReplyDeleteशमीम उद्दीन, वसुंधरा, गाजियाबाद
Bahut he sundar lga...
ReplyDeleteचार-पांच सौ रुपए और पचास-साठ घंटे में अंग्रेजी ही सीखी जा सकती है....अगर यही रफ्तार चलती रही तो पता नहीं हिन्दुस्तान कब इंग्लिस्तान बन जाए....खैर हिन्दी सीखने के लिए कितने खर्च करने पड़ेंगे कुछ पता चले तो बताइएगा जरुर....
ReplyDeleteरवीश भाई आज हिंदी के रोजगार भी अन्ग्रेजी के सहारे चल रहे है,हिंदी न्यू मीडिया को ही लीजिये,अपने सहयोगी अन्ग्रेजी वेब पोर्टल की खबरों को हिंदी में अनुवाद करके वेबसाइट पर चिपका दिया जाता है |
ReplyDeleteअंग्रेजोँ ने अपनी भाषा को विश्व भाषा बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। उसे रोजी-रोटी से जोड़ा।
ReplyDeleteहमने उस तिलस्म को तोड़ने के लिए क्या किया?
लोग अपनी अयोग्यता, अज्ञान के कारण पीछे है और दोष एक निरीह भाषा बेचारी हिंदी को दिया जा रहा है. हिंदी की हत्या की सुपारी ले रखी है. जयचंद और मीरजाफर अब लाखो की तादाद में है जो हिंदी भाषा को मिटाना चाहते है. हिंदी को मिटा कर आगे बढ़ना चाहते है.. परन्तु अपना अस्तित्व मिटा कर आने वाली पीढ़ी को क्या देंगे . अब हमें मिटने वाले न तो खेबर से आयेंगे ना दर्रा से वो तो हमी से ही आकर दूध का कर्ज चुकायेंगे....
ReplyDeleteयानि हिंदी को नेस्ताबूत करने में अपना अमूल्य योगदान देंगे
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ReplyDeleteइंग्लिश सीखने का सबक शानदार रहा... आजकल DTH वाले भी सिखा रहे है.... सच है.... जय हो इंग्लिश मैय्या.
ReplyDeleteआई कैन टाक इन इंग्लिश, आई कैन वाक इन इंग्लिश बिकाज इंग्लिश इज ए बेरी फन्नी लैंग्वेज...यू सी सर व्हेन...
ReplyDeleteसार्थक चिंतन
ReplyDeleteहमारे देश में सहेस पुरिया जैसे काफी लोग है जो हिंदी का प्रयोग करने को पिछड़ापण समझते है. शायद दलित के पिछड़ेपन से भी ज्यादा. वे यह भूल रहे है दुनिया में तेज़ रफ़्तार से तरक्की करने वाला चीन आज अपनी चीनी भाषा के दम पर समूची दुनिया को टक्कर दे रहा है. जिसके आगे अमरीका भी चीनी गुणगान कर रहा है
ReplyDeleteghun khaye sahteeron par barahkhadi vidhata baanche...phati bhit hai aur chaat hai chooti aale pe bistooiya naache isi tarah se dukhharn master gardhta hai adam ke saanche...............jai ho hum nahi sudhrab mackaleye ki aatma ko kitna santosh milta hoga
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