जुनून बसता है मेरी आंखों में...सुकून कहीं और है
जूनून बसता है मेरी आंखों में...सुकून कहीं और है...क्या करूं देखते रहने की बेचैनी ने नींदें उड़ा दी हैं। हर तरफ,हर चीज़ देखने लेने का पागलपन। शहर-दर-शहर तस्वीरों,नारों,वाक्यों और रंगों में जन के मानस का चेहरा बनाता रहता हूं। उप-संपादक मुक्त,बिना सलीम-जावेद के,बिना प्रसून जोशी के,हर समय कोई न कोई रच रहा है। लुभा लेने के लिए, आपको बुला लेने के लिए,पक्का,एक दाम,असली और नकली के मर्म को भेदती हुईं ये पंक्तियां जब मुझे किसी होर्डिंग पर लटकी मिलती हैं तो तस्वीरों में उतार लेने का जुनून सवार हो जाता है। वैसे ही जैसे कोई बच्चा आम के बाग को देखते ही ढेला चलाने लगता है। जब तक आम नहीं टपकता तब तक उसके निशाने पर सारे आम होते हैं। कभी-कभी लगता है कि अख़बारों, टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में बचे-खुचे लोग आते हैं। जबकि इनसे दूर सारे प्रतिभाशाली अपनी नैसर्गिक क्षमताओं का खुलेआम इज़हार कर रहे होते हैं। अनाम। कब तक क्लिक करता रहूं, कब तक ढूंढता चलूं,खुद को बयां कर देने की इस फितरत की तलाश में। कैमरा ऑन होने से पहले आंखों का फ्लैश चमक जाता है। दोस्तों, मैं भारत में आई फ्लैक्स क्रांति को यूं नहीं गुज़रने दूंगा। दर्ज करूंगा। एक फालतू इतिहासकार के रूप में ही सही।
"कभी-कभी लगता है कि अख़बारों, टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में बचे-खुचे लोग आते हैं। जबकि इनसे दूर सारे प्रतिभाशाली अपनी नैसर्गिक क्षमताओं का खुलेआम इज़हार कर रहे होते हैं। अनाम।"
ReplyDelete"दोस्तों, मैं भारत में आई फ्लैक्स क्रांति को यूं नहीं गुज़रने दूंगा। दर्ज करूंगा। एक फालतू इतिहासकार के रूप में ही सही।"
Sahi laga. Achchha laga.
मुंबई के साकीनाका और जरीमरी वाले इलाकों के साईनबोर्ड भी इसी तरह के रोचक होते हैं।
ReplyDeleteसाईनबोर्ड पर पता लिखा होता है -
मुलशीपालटी अस्कूल के सामने,
और किसी किसी दुकान पर तो अलग ही बोर्ड मिल जायगा -
ए-वन हेयर कटिंग सलून (बगल साफ करवाने को कह हमें शर्मिंदा ना करें - बब्बन मिंया)
और कोई लिखेगा - मुस्तफा हाड वैद्य, हमारे यहां सब तरा का हड्डी बिड्डी ठीक किया जाता है।
ढूँढने पर तो भगवान भी मिलते हैं,फिर ये तो ग्रास रूट लेवल रचनाएं हैं जिनका अलग टच एण्ड फील है।
अच्छी तस्वीरें हैं। इधर उधर लिखे को पढने का शौक मैंने भी कभी बहुत पाला था।
जूनून बसता है मेरी आंखों में...सुकून कहीं और है...क्या करूं देखते रहने की बेचैनी ने नींदें उड़ा दी हैं। waah kya baat hai !!!!!!!!!!!
ReplyDeleterochak khoj .........
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाकई आपका कैमरा और आंखें दोनों प्रतिभा ढूंढ ही लेते हैं
ReplyDeletesir,aapki panktiyon ne kehne ko majboor kar diya..ye mere khud ke udgaar hai..jab maine aapka article padha..isko anytha hi lijiyega..
ReplyDeleteजूनून बसता है मेरी आँखों में
सुकून कहीं और है
मैं चुप करता हूँ लफ़्ज़ों को
तो खींचता ख़ामोशी का शोर है
रोज होता है कुछ न कुछ ख्वाबगाह में
मगर मिलता नहीं कुछ सोच की पनाह में
और मुड़ जाता हूँ उन बेचैनियों की राह पर
जहाँ चलता बस कलम का जोर है ॥
शहर दर शहर ढूंढता हूँ मैं जिंदगी का चेहरा
अपने वजूद का शायद उस पहचान से है रिश्ता गहरा
उसको यूँ ही पाने की फितरत में
होती जा रही खुद की जरुरत कमजोर है ॥
Ravishji,
ReplyDeleteShirshak aur lekh dono hin badhiya hain. Badhayi.
Parul, aapki kavita ne hin yahan comment likhne ko uksaya hai, warna tasviron ki samajh mujhe jyada nahin hai. Bahut achha likha hai. aapko bhi baadhayi.
Nikhilesh.
thanx CSNikhilesh ji :)
ReplyDeleteरवीश जी, एक अप्रत्यासित सा सवाल, ४०,००० करोड़ के स्पेक्ट्रम घोटाले और ४,००० करोड़ के मधु कोड़ा घोटाले पर कुछ सुनाई दे रहा ।
ReplyDeleteकुछ अपडेट ?
रवीश जी, त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थना के साथ फ़िर से :
ReplyDeleteएक अप्रत्यासित सा सवाल, ४०,००० करोड़ के स्पेक्ट्रम घोटाले और ४,००० करोड़ के मधु कोड़ा घोटाले पर कुछ सुनाई नहीं दे रहा ?
कुछ अपडेट ?
आप के ये चित्र स्थाई स्तंभ हो गए हैं। इंतजार रहता है।
ReplyDeleteअच्छी तस्वीरें हैं।
ReplyDeleteआभार
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
मधु कोड़ा के घोटाले पर तो अपडेट आती रहती है लेकिन स्पेक्ट्रम घोटाले का पता नहीं। नई दिल्ली की लाल इमारतों की खबर का कम ही पता रहता है। मेरी इनमें दिलचस्पी है और न ही पत्रकारों में योग्यता कि इस तरह के घोटाले की तह तक चले जाएं। मैं हिन्दी पत्रकारों की बात कर रहा हूं।
ReplyDeleteपारुल की पंक्तियां। वाह। अच्छी लगीं।
ReplyDeleteकभी-कभी लगता है कि अख़बारों, टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में बचे-खुचे लोग आते हैं। जबकि इनसे दूर सारे प्रतिभाशाली अपनी नैसर्गिक क्षमताओं का खुलेआम इज़हार कर रहे होते हैं।
ReplyDeleteसहमत होना पडता है आपसे !!
bhai sahab, yah nazar mujhe udhar denge?
ReplyDelete;)
khair, aapke blog par in tasveero ko dekhta hu ato lagta hai ki kya nazar paai hai aapne, sahi jagah pe sahi mauke pe clik karne wali nazar hi to nazar hai (photo) journalism me.
maan na padega aur maan raha hu
shandar
रवीश जी, ऐसी बात नहीं, हिंदी के पत्रकार बहुत अच्छे हैं परन्तु पैसा और पद्मश्री पाने में पीछे रह जाते हैं । हां सरकारी पॉलिसियों के बदलाव पर भी प्रभाव अंग्रेजी वालों का ही पड़ता है । कारण सबको पता है क्या लिखें कोई फ़ायदा नहीं ।
ReplyDeleteरवीश जी ~ इस संसार में 'फालतू' कुछ नहीं है: हर वस्तु, अथवा जीव, किसी न किसी समय अथवा स्थान पर, किसी न किसी के कुछ न कुछ 'भले'/ 'बुरे' काम आता है - शायद जानते /जान सकते हैं सभी...समय VIP है: बीज अभी बोया तो उस से उपजे वृक्ष का फल पाने के लिए इंतज़ार करना आवश्यक है...या इस बीच वैसा ही फल बाज़ार से खरीद लो, अथवा चुरा लो :)
ReplyDeleteप्राचीन ज्ञानी 'हिन्दुओं' ने - सत्य की खोज में - विभिन्न क्षेत्रों की सूचना ग्रहण कर और फिर उनका विश्लेषण कर, यानि 'तपस्या' के बाद, अनंत का सार निकाल कर जाना कि केवल मानव शरीर के रूप में ही जीव 'परम सत्य' यानि निराकार ब्रह्म को पा सकता है...और यह भी जान सकता है कि उस शक्ति का अंश हर जड़ और चेतन वस्तु/ जीव में मौजूद है...
आपकी प्यास शायद अगस्त्य मुनि समान हो, जो पूरा sagar ही पी गए :)
तस्वीरों के अलावा ३ चीज़ें ख़ास पसंद आईं....पहला, शीर्षक; दूसरा, 'दोस्तों, मैं भारत में आई फ्लैक्स क्रांति को यूं नहीं गुज़रने दूंगा। दर्ज करूंगा। एक फालतू इतिहासकार के रूप में ही सही।'
ReplyDeleteऔर तीसरा, पारुल की पंक्तियाँ...
अपना यह स्तम्भ ज़ारी रखिएगा...इसी बहाने हम भी रिफ्लेक्स क्रान्ति के इतिहास का हिस्सा बने रहेंगे...:)
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। आप उन चीजों को दर्ज कर रहे हैं जिसके जरिए शहर और कस्बों के इतिहास को जानना दिलचस्प होगा। आनेवाले समय में बाजार का जब भी इतिहास लिखा जाएगा,यूनिनिमस बाजार से अलग तो ये कच्चे माल के तौर पर काम आएंगे।..
ReplyDeletesir,aapne tarif ki,bahut accha laga ..:)
ReplyDeleteRavish ji,Patrakarita chod kahin photographer na ban jay. Parul ki paktiyan bahoot achee lagi Badhayee.
ReplyDeleteमुझे तो नहीं लगता कि मैं अब पत्रकारिता कर रहा हूं। इस भ्रम से बहुत पहले निकल गया दोस्त। अब वही कर रहा हूं जो मुझे अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteजूनून से तो जिन्दा हैं हम लोग, कितने तो मर गए, कितने रोज़ मर रहे हैं...जूनून जिंदाबाद
ReplyDeleteकारवां की तलाश की तो खुद को अकेला पाया
ReplyDeleteजब अकेले चल दिए तो लोग खुद बखुद जुड़ते चले गए ...
अब देखिये आपसे सहमत होने वाले कितने ही लोग आपके ब्लॉग पर कारवां बना गए हैं .. इस क्रांति को यूँ ही जारी रखियेगा .,...
KEEP IT UP RAVISH BHAI
ReplyDeleteGOOOOOOOOOD PHOTO..
अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा..घूमते रहो इब्न बतूता की तरह आपका भी नाम दर्ज़ हो जाएगा। आपका दर्शन नया है। ये इतिहास फालतू नहीं जाएगा रवीश भाई। बहुत रोचक शोध विषय उठाया है मान्यवर। हम देख कर खुश होते हैं। हो सकता है कल एनसीईआरटी इसकी भी एक किताब सिलेबस में लगवा दे और बच्चे रवीशचित्रावली देखकर खुश हों। आने वाले वक्त में कोई गुलज़ार शायद लिख दे...रवीश कुमार... आशु इतिहासकार...
ReplyDeleteRaivshji agar humare liye aap padhne ke liye itne achhe blog likhte rahe aur dekhne ko bhi utni hi achhi tasveerein "qasba" par dete rahe to phir humein kehena padega
ReplyDelete"Kya Karun 'ravish'ke saare blog
ko dekhte aur 'Padhte' rehene ki bechaini ne neendein udaa di hain..."
बड़ा टची शिर्षक लगाया है आपने। अकादमिक जकड़बंदी में बंधे लोगों बारे में कुछ न कहना ही उचित है। लेकिन इतना पता है कि शुरू-शुरू में विलियम डालरिम्पल को अमैच्योर कहके कुछ लोगों ने खारिज करने की कोशिश की थी। बाद में उन लोगों को मानना पड़ा कई अकादमिक तोतों से ज्यादा महत्वपूर्ण काम विलियम ने किया है।
ReplyDeleteएक बात शाश्वत निराशावाद के बारे में कहना चाहुंगा। निराशावाद के समर्थन में लिखे एक लेख में लेखक ने तर्क दिया था कि जब कोई क्रिएटिव व्यक्ति अपने किसी क्षेत्र विशेष में बहुत निराश हो जाता है तो वह अपनी आत्म-अभिव्यक्ति के लिए नई राह तलाशने को प्रेरित होता है। बहुधा इसमें सफल भी हो जाता है। साहित्य के बारे में यह मानना कईयों का है। जो प्रेम रू-ब-रू अभिव्यक्त नहीं हो पाता वो कविताओं में अभिव्यक्ति पाता है। ठीक उसी वक्त जब कोई दूसरा वास्तविक प्रेम को जी रहा होता है।