अच्छी फिलम है। मीडिया के भीतर चल रहे कई संकटों का कोलाज है और एक किस्म का सिनेमाई ब्लॉग। फिलम की कहानी कई सत्य कथाओं का नाटकीय रुपांतरण है। जुलाई २००८ के विश्वासमत के दौरान संसद में रखे गए नोटे के बंडल के ज़रिये एक धृतकुमारी टंकार टाइप के ईमानदार मनमोहन सिंह की छवि बिगाड़ाने की कोशिश और स्टिंग न दिखाये जाने के पीछे की हकीकतों और अफवाहों का मिश्रण।
पहले आधे में फिलम मीडिया के कंटेंट के विवाद को छूती है। टीआरपी गिर रही है। अस्तित्व पर संकट है।चैनल घाटे में हैं। तो क्यों न थोड़ा बदल कर मार्केट के बाकी सामानों की तरह हो जाया जाए। ये कहानी कुछ कुछ एनडीटीवी इंडिया के संकट जैसी लगी। साफ साफ किसी का नाम नहीं है लेकिन लेखकीय क्षमता के ज़रिये आप इन नामों और घटनाओं को समझ सकते हैं। जब विजय मलिक अपने कमरे में गिरती टीआरपी की चर्चा करते हैं तो पीछे दीवार पर लगी टीवी में एनडीटीवी इंडिया का लोगो दिखता है। यही एक क्षण है जहां फिल्म वास्तविकता को छूती है। लेकिन यह संयोग भी हो सकता है। वहां से कहानी आगे बढ़ती है और हिन्दी फटीचर काल के तमाम कार्यक्रमों और अनुप्रासों की एक झलक दिखाई जाती है। यहां फिलम थोड़ी कमज़ोर लगती है। कंटेंट के संकट को हलके से छूती है या फिर कहानी का मकसद कंटेंट के संकट से ज़्यादा मीडिया के आर्थिक पक्ष के बहाने उस पर राजनीतिक नियंत्रण को एक्सपोज़ करने का रहा होगा।
बिल्कुल सही है कि अब पत्रकारों के सवाल में दम नहीं रहे। न वो आग है। मेरा मानना रहा है कि हिन्दी टेलीविजन का फटीचर काल इसलिए आया क्योंकि सभी स्तरों पर खुद को अच्छा कहने वाले पत्रकार फेल हो गए। वो अच्छा कहलाते रहे लेकिन बेहतर कार्यक्रमों या रिपोर्टिंग के लिए उपयुक्त श्रम नहीं किया। प्रयोग नहीं हुआ। उनकी साख इसलिए बची रह गई क्योंकि वो नैतिकता रूपी पैमाने पर अच्छा और महान मान लिये गए। इन अच्छे पत्रकारों के कार्यक्रम,एंकर लिंक, बोलने का लहज़ा इन सबको करीब से देखेंगे तो संकट का यथार्थ नज़र आएगा। सिर्फ यह कह कर गरिया देना कि खतम हो जाएगा संसार जैसे कार्यक्रम पत्रकारिता नहीं हैं,अधूरी आलोचना है। यह भी देखा जाना चाहिए कि इसके विकल्प का दावा करने वालों के कार्यक्रमों में कितना दम है। कौन से ऐसे बेहतर कार्यक्रम हैं जिनके लिए आप इंतज़ार करते है,जिसे देखकर आप धन्य हो जाते हैं। हो तो मुझे भी बताइयेगा। तभी हम सभी को एक रास्ता मिलेगा। एक बार लोग जूझेंगे कि बेहतर और नया करके इस लड़ाई में उतरते हैं न कि लेख लिख कर या फिर किसी सेमिनार में भाषण देकर। रण की तरह टीवी किसी साहित्यिक पत्रिका की तरह नहीं चल सकती,उसे जन-जन तक पहुंचने की कोशिश करनी ही चाहिए।
इसीलिए जब ये बवाल गुज़र जाए तो इस पर भी चर्चा कीजिएगा कि जो जो लोग खुद को अच्छा कहते हैं,लिखने के स्तर पर,रिपोर्टिंग के स्तर या एंकरिंग के स्तर पर,उनके काम में कितनी धार है। ऐसे अच्छे लोगों के कार्यक्रमों की विवेचना कीजिए और देखिये उसमें कितना खरापन है। ये एक किस्म की सार्थक बहस होगी और अच्छा कहलाने वालों पर बेहतर होने का दबाव बनेगा। सिर्फ नैतिकता को बचाकर छत पर खड़े हो जाने से और गलीज़ काम करने वालों को गरिया देने से ये संकट नहीं गुज़रने वाला। गरियाने के बहाने अपनी घटिया कॉपियों,घटिया कैमरा,पीटूसी और बेतरतीब ढंग से लिखी रिपोर्ट और घटिया शो को पब्लिक काहे देखेगी। इसीलिए मुझे लगता है कि मौजूदा संकट खराबी का नहीं,अच्छा समझने वालों की पंगु कल्पनाशीलता का नतीजा है।
और यहीं पर रण सार्थक हस्तक्षेप करती है। यहीं पर फिलम मेरे सवालों का हल्का जवाब देती है। परब शास्त्री के किरदार के रूप में। एक धारदार रिपोर्टर ही मीडिया के संकट को खतम करता है। हिन्दी टीवी के फटीचर काल में सभी रिपोर्टर संपादक बन गए। मैदान में कोई धारदार रिपोर्टर नहीं बचा जो खबरों को खोज रहा हो। हो सकता है कि चैनल प्रोत्साहित नहीं करता हो,हो सकता है कि रिपोर्टर भी नहीं करता हो। लेकिन परब शास्त्री का किरदार व्यक्तिगत पहल करने वाला किरदार है। वो अपना काम करता चलता है। खोज रहा किन पर्दों के पीछे साज़िश रची गई। उसके सवाल पत्रकार वाले लगते हैं। त्रिवेदी के सवाल मज़ाक तो उड़ाते हैं लेकिन आप किसी भी पोलिटिकल इंटरव्यू को देख लीजिए,करण थापर को छोड़कर,उसके ज़्यादातर हिस्से में बकवास होता है। परब के सवाल पर कि आप नया क्या करेंगे,पांडे का बड़बड़ना और लड़खड़ना लाजवाब है। रिपोर्टर की ताकत का अहसास करा कर रण ने बड़ा उपकार किया है।
एक दौर था जब हिन्दी न्यूज़ चैनलों में कई परब शास्त्री थे। अब दौर ऐसा है कि सब के सब त्रिवेदी हो गए हैं। कई रिपोर्टर अब नेताओं से संपर्क की बात ज़्यादा करते हैं। राजनीतिक दलों के साथ साथ महासचिवों के प्रति निष्ठा पैदा हो गई है। हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में राजनीतिक पत्रकारिता फटीचर काल को सुशोभित कर रही है। परब शास्त्री आज भी हैं लेकिन उनकी कदर नहीं। मीडिया संस्थान परब शास्त्री बनाना भी नहीं चाहते। कितने हिन्दी के रिपोर्टरों ने चटवाल के मामले की गहन पड़ताल की है। व्यक्तिगत या सांस्थानिक रूप से। सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस की रितु सरीन ही क्यों कर रही हैं। ये सवाल तो हिन्दी के रिपोर्टरों को व्यक्तिगत स्तर पर खुद से पूछने ही होंगे।
लेकिन ऐसा नहीं है कि आप फिलम से बोर होते हैं। गाने नहीं है। सेक्सी डांस नहीं है। पार्श्व संगीत के ज़रिये चित्कार सुनाई देती है। गाना स्पष्ट नहीं है लेकिन चित्कार से पता चलता है कि बेअसर हो चुका यह माध्यम चीख रहा है। आज कई चैनलों में उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों के पैसे लगे हैं। मीडिया ने इसे तब स्वीकार किया जब उस पर संकट नहीं था। कई चैनल राजनेताओं के भी हैं। बिल्डरों और चीनी मिल वालों ने भी चैनल खोलें, उनका अधिकार है, लेकिन पत्रकारिता से उनका क्या लगाव हो सकता है। ये ज़रूर है कि इस फिलम से सीखने के लिए कुछ नहीं है लेकिन ये एक अच्छी डॉक्यूमेंट्री है।
नाटकीयता के बहाने ही सही रण एक मौका देती है,माफी मांग कर अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ लौटने का। आखिर में फिलम मीडिया के प्रति उदार हो जाती है। ये नहीं कहती कि बंद करो टीवी को देखना। ये एक फिलम नहीं कह सकती। इस संकट को दूर करने के लिए खुद को याद किया जाए कि पत्रकार क्यों बने हैं? लेकिन यह समाधान बेहद सरल और आदर्श है। इससे कुछ नहीं होगा। इससे पहले भी मीडिया के संकटों पर रोज़ लेख लिखे जा रहे हैं, बहस हो रही है और अब तो मंत्री संपादकों से गाइडलाइन इश्यू करवाता है। लोकप्रियता सभी टीवी चैनलों का ख्वाब होना चाहिए। कोई नाम कमाकर लोकप्रिय हो सकता है तो कोई बदनाम होकर। लेकिन सिर्फ निमन बबुआ(good boy) बन कर आप इस रण को नहीं जीत सकते। निमन बबुआ और काबिल बबुआ की लड़ाई शुरू होनी चाहिए। इसलिए रण जारी है दोस्तों।
उस दिन पत्रकार भईया और पत्रकारिन भौजी को बाजार में सब्जीवाले से झगडते देखा था । कह रहे थे कि महंगाई बीस फीसदी बढी है और तुम्हारी सब्जी के दाम पचीस फीसदी ज्यादा हैं, ऐसा क्यूं ?
ReplyDeleteतब सब्जीवाले ने बताया कि यहां रेहडी लगाने के लिये नगरपालिका वालों को चुप्पे से जो पांच फीसदी की फीस दी है वह आपके बीस फीसदी में शामिल नहीं है :)
तो भईया हम तो यही कहेंगे कि पत्रकारिता अब सिर्फ चिल्ला चिल्ला कर उस बीस फीसदी की फटकार सुनाती है। बात तो तब है जब वह उस पांच फीसदी की पुचकार भी सुनवाये :)
अच्छी समीक्षा।
हर क्षेत्र में, किसी भी व्यक्ति का, और संस्था का भी, एक कागज़ी लक्ष्य होता है...जो अधिकतर काल के प्रभाव से भूला जाता है...और यथार्त में एक कामकाजी लक्ष्य, शायद अज्ञानता वश, बन जाता है: पैसा बनाना - येन, केन, प्रकारेण...यद्यपि अंग्रेजी में एक कहावत है कि "आदमी केवल रोटी से ही नहीं जीता है"...इसमें जानकारों, यानि 'योगियों' ने जोड़ा कि "वो भगवान् (यानि 'परमात्मा') के शब्द से भी जीता है" - (शायद इस धारणा से प्रेरित हो कि ब्रह्माण्ड/ संसार की श्रृष्टि 'ब्रह्मनाद' से हुई, और बाहरी कमज़ोर भौतिक शरीर के साथ एक शक्ति रुपी अज्ञात आत्मा भी जुडी है...द्वन्द, यानि 'रण', इन दोनों के बीच अज्ञानता वश सनातन काल से जारी है...जिसमें विजय हमेशा अनंत सत्य की ही होती है - अंततोगत्वा शरीर का मिट्टी में मिलना निश्चित है...शायद बारम्बार, काल-चक्र के साथ विभिन्न रूपों में...)...फिर कोई क्यूँ परेशान हो और आनंद क्यूँ न लूटे अपनी ही मूर्खता का भी (ऐसा गीता में भी लिखा है)...
ReplyDeleteRavish Bhai , I will certainly watch this movie to understand pressure of Electronic Media .
ReplyDeleteइलेक्ट्रानिक मीडिया का एक सफल एंकर जब इतनी साफगोई दिखाता है तो बड़ी खुशी होती है..दिल से...! रविशजी आप जैसे कितने बचे हैं..अभी..?
ReplyDeleteरण तो अब शुरू हो रही है सर...रितु सरीन, विजय त्रिवेदी, करण थापर और रविश कुमार..ये लोग खुद में झांक लेते हैं. या यूँ कहिये की एक किरदार शाश्त्री खुद में झांकता है..वक़्त वक़्त पर लोग खुद में झांकेंगे और रण जारी रहेगी...
ReplyDeleteदिल को छूने वाला लेख, आपसे मिलने की इच्छा.
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ReplyDeleteYeh Lagta hai ki Ravish ji ko 3 idiots syndrome ho gaya hai...hahahah...kaabil babua hi Rann jeet sakta hai!yakin maniye..koi reporter ya uska supporter rann nahi jeetega...kyonki reporter muhzori ke alawa kutch nahi kerta....
ReplyDeleteरविश सर,
ReplyDeleteआपकी बात सत प्रतिशत सही है! फटीचर काल ने जनता को वास्तविक मुद्दे से दूर ले कर दिया है , हमारे देश मैं काबिल पत्रकारों की कमी नहीं है परन्तु जिनके हाथ मैं कमान है उनकी काबिलियत का पता नहीं है! दुर्भाग्य यह है की पत्रकारिता कलम से ज्यादा कैमरों पर होने लगी है और समाचार समूह व्यावसायिक समूह बन चुके हैं, मार्केट मैं मुनाफे को आधार बनाकर शेयरों से पैसा उगाही हो रही है! यहाँ पत्राकरिता से ज्यादा मुनाफे से प्रेरित स्ट्रेटेजी काम कर रही है ! कमाल की बात है की अंग्रेजी मैं हालात बहुत ही अच्छे हैं वनिश्पत हिंदी माध्यम के.....
mujhe INDIA 24 7 me NDTV ki jhalak mili.....
ReplyDeleteAaj kal sthitiyan bad se badtar ho rahi hai. Shayad Ravish ji apka vichar talab main kankar marne jaisa ho. Acha laga.
ReplyDeleteagar koi apni fatichar jaisi bato ko agey lakar TRP badha sakta hai to jitney bhi kuch sarthak karne wale patrakaro ko apni mehnat, apni safgoi, apni jijivisha se aisa programmae tyar karne honge jise sab dekhna chahe, sab jud sake, toh fir kuchh achha hoga, aisa achhe patrakaro ki kami nahi hain, bas unhe apne achhe kamo ko aagey lakar sampadak pe dabav banana, koi bhi achhey kam ko jayda din tak ignore nahi kar sakta.apki samiksha achhi lagti hain, jail pe bhi samiksha achhi thi , mere anusar punya prasun, debang , sanjay baragta , rajdeep sardesai kuchh achhe patrakar hain. punya prasun ka 10 baje ka programme achha hain.aap bhi achha kar rahe hain. aapke programme hame jindgi ke yatharth ko samjhate hain.aapki bitiya ka french sikhna pura hua ki nahi. kabhi alag alag bhasaon par bhi kuchh likhiyega.
ReplyDeleteआप कब परब शास्त्री को सामने ला रहे हैं????
ReplyDeleteरण जारी है.....
Sir,
ReplyDeleteAapko jankar harsh hoga ki is RANN ko jeetne ke liye kayi naye REPORTER din-raat jhoojh rahe hain, yadi ishvar ki kripa rahi to bahut jild aapko reel life ke sath hi real life mein bhi kayi POORAB SHASTRI nazar aayenge... Waqt badalega or itihaas khud ko dohrayega, aisa mera VISHVAAS hai...
-VIKAS SACHDEVA
095822-21718
ran jaari rahey shrimaan...!!
ReplyDeleteरविश कुमार झंडावाहक बन गए हैं, लगता है उनकी बातों से। जिद्द करो..बदल डालो। हम साथ है इस रण में।
ReplyDeleteमुझे याद है..डीडी वन पर आपकी वो वार्ता। जो प्रभाष जोशी के बाद हुई थी। उस में आपने मेरे सामने सिर्फ एक शब्द कहा था, लम्बे चौड़े सवाल के जवाब में ईमानदारी।
sundar........
ReplyDeleteगोलमाल है भाई सब गोलमाल है
ReplyDeleteshreemanji,agar sahi-galat ko lekar bahas jari hai, to samajhiye, sachchai zinda hai.
ReplyDeleteDear Sir,
ReplyDeleteYou are 100% right about “Fatecher Kaal” but it totally depends in our thinking; Instead of watching any promotion program on no.1 news channel we can watch political chat show ; Pehle log news sunna chate the to news or reports acche the ab sabko faltu ke battein sunne hai to kya ker sakta hai.
जो कोई भी 'फालतू कचरे' के ढेर को - दुर्गन्ध की परवाह किये बिना - गौर फरमाए तो शायद देख पायेगा कि कैसे उस ढेर में से भी चूहे, बिल्ली, गाय, कुत्ते, कव्वे, आदि आदि के अतिरिक्त किसी लड़के को भी कुछ 'लाभदायक'/ 'उपयोगी' वस्तु, चुनते हुए :)
ReplyDelete'हिन्दू मान्यता' के अनुसार 'सत्यमेव जयते', यानि सत्य मरता नहीं...सत्य वो ही है जो समय के परे है - अनादी एवं अनंत :)
SACHIN KUMAR
ReplyDelete'ये कहानी कुछ कुछ एनडीटीवी इंडिया के संकट जैसी लगी। साफ साफ किसी का नाम नहीं है लेकिन लेखकीय क्षमता के ज़रिये आप इन नामों और घटनाओं को समझ सकते हैं।'
AFTER WATCHING FILM I TOO TOLD THE SAME TO ONE OF MY FRIEND WHO IS ALSO IN THIS FIELD. ALTHOUGH THERE IS NOTHING NEW IN THE FILM BUT CAN GIVE MANY A TIME TO THINK WHO ARE IN THIS FIELD...ALAS THIS FOOLISH TRP WOULD NOT HAVE BEEN WE COULD NOT HAVE THINK TO SELL NEWS AS A PRODUCT. RAMU AND COMPANY DID WELL BUT WILL THEY STAND FOR WHICH THE FILM MADE?
ravish ji...bahut satik baat kahi hai..agar main galat nahi anjaane mein hi rann ke dauraan aapke darshan huye hai mujhe ...vaishali mein...
ReplyDeleteआप का ब्लोग पढ़ कर सोचा है कि फिल्म जरूर देखनी है । किसी भी क्षेत्र में सिर्फ़ आदर्श के लिए जीना बहुत मुश्किल होता है खासकर तब , जब कॉमर्सिअल सफलता के बिना सर्वाइवल असम्भव है । टीवी चैनेलों की संख्या में विस्फोट सा हुआ है और क्या क्या बिक रहा है कि सोच कर देख कर दिमाग बौखला जाता है ( mind boggling ) । जब से पेड न्यूज के बारे में सुना है , हमेशा शक सा लगा रहता है कि कहीं पेड न्यूज ( Paid news ) तो नहीं पढ़ या देख रहे हैं । हर न्यूज पर शक होता है कि कहीं ये पेड (Paid ) तो नही है ( ( बाबा भारती और डाकू खडग सिंह सिंड्रोम ) । वैसे कई बार पत्रकारों को देख सुन कर यह साफ लगता है कि वे किसी एक पक्ष की तरफ़दारी कर रहे हैं, ये सारी बातें एक असहज स्थिति का निर्माण करती हैं। इनसबके ऊपर भूत, आत्मा और रिअलिटी शो जैसे कार्यक्रम । वैसे वास्तविकता से आप ज्यादा परिचित होगें । फिल्म समीक्षा से हट कर, कभी भविष्य में इस विषय पर आप से एक विस्तृत लेख की अपेक्षा रहेगी ।
ReplyDeleteAapne to mere man ki baat keh di, jub main film dekh rahi thi uss waqt film ke charitron wa ghatnaon ko real life situation and character se milane ki koshish ki. AB ka scene dekhte hi mujhe NDTV ka dhyan aa gaya aur AB ki ka programme jaise Vinod Dua live.
ReplyDeleteaapne keha ki aais kaun sa programme hai jisaka hamein intjaar rehta hai, election ke douran Vinod Dua Live dekha kerti thi, aisa lagta tha use dekhe bagair jaise mera din adhura hai.Ghar pahunchne ki jaldi rehati thi taaki yeh programme chhut na jaye.
mere paas TV dekhne ka waqt nahin hota magar jab bhi TV kholti hoon NDTV India pe jaakar hi mera remote rukta hai.
jaise purab shastri ka sapna Harshvardhan Mallik ke saath kaam kerna hota hai usi tarah meri zindagi ka bhi ek sapna hai Vinod Dua ke saath kaam karun pata nahin yeh sapna kabhi poora hoga ya nahin?
Ravish Ji aapka channel aaj bhi apani garima ko banaye huye hai, ummed hai bhavishye mai bhi bhi NDTV apani garima banayeh rakhega taaki hum jaise ligon ke paas kam se kam ek option to hoga news dekhne ka.....
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ReplyDeleteRavish Sir! haq beyani ke liye shkriya.
ReplyDeleteJab tak NEWS CHANNELS ki bagdor NON-MEDIA ya NON-JOURNALIST promoters ya malikon ke paas rahegi koi RANN nahi jeet sakta. Lohar (ironsmith) se sonar (goldsmith) ka kaam lena bewqoofi aur behoodgi ki hi misal hai naa...
Aaj kal media mein aisey aisey NON-PROFESSIONAL (lekin money making mein master) malik paida ho gaye hain jinka maqsad HARHAAL mein paisa kamana hi hota hai...chahey IMAAN bikey, INSAAN bikey ya JAAN bikey...aur sab bikney ke baad bhi dil aur pocket naa bharey to HINDUSTAN bikey...
ब्लॉग जगत का घिनौना चेहरा अविनाश
ReplyDeleteभारतीय ब्लॉगिंग दुनिया के समस्त ब्लॉगरों से एक स्वतंत्र पत्रकार एवं नियमित ब्लॉग पाठक का विनम्र अपील-
संचार की नई विधा ब्लॉग अपनी बात कहने का सबसे प्रभावी माध्यम बन सकता है, परन्तु कुछ कुंठित ब्लॉगरों के कारण आज ब्लॉग व्यक्तिगत कुंठा निकालने का माध्यम बन कर रह गया है | अविनाश (मोहल्ला) एवं यशवंत (भड़ास 4 मीडिया) जैसे कुंठित
ब्लॉगर महज सस्ती लोकप्रियता हेतु इसका प्रयोग कर रहे हैं |बिना तथ्य खोजे अपने ब्लॉग या वेबसाइट पर खबरों को छापना उतना ही बड़ा अपराध है जितना कि बिना गवाही के सजा सुनाना | भाई अविनाश को मैं वर्षों से जानता हूँ - प्रभात खबर के जमाने से | उनकी अब तो आदत बन चुकी है गलत और अधुरी खबरों को अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना | और, हो भी क्यूं न, भाई का ब्लॉग जाना भी इसीलिए जाता है|
कल कुछ ब्लॉगर मित्रों से बात चल रही थी कि अविनाश आलोचना सुनने की ताकत नहीं है, तभी तो अपनी व्यकतिगत कुंठा से प्रभावित खबरों पर आने वाली 'कटु प्रतिक्रिया' को मौडेरेट कर देता है | अविनाश जैसे लोग जिस तरह से ब्लॉग विधा का इस्तेमाल कर रहे हैं, निश्चय ही वह दिन दूर नहीं जब ब्लॉग पर भी 'कंटेंट कोड' लगाने की आवश्यकता पड़े | अतः तमाम वेब पत्रकारों से अपील है कि इस तरह की कुंठित मानसिकता वाले ब्लॉगरों तथा मोडरेटरों का बहिष्कार करें, तभी जाकर आम पाठकों का ब्लॉग या वेबसाइट आधारित खबरों पर विश्वास होगा |
मित्रों एक पुरानी कहावत से हम सभी तो अवगत हैं ही –
'एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है', उसी तरह अविनाश जैसे लोग इस पूरी विधा को गंदा कर रहे हैं |
lekin kuch bi ho god hai
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