ज्योति बसु चले गए। ९५ साल की उम्र। उम्र के आखिरी पड़ाव तक सियासी सक्रियता। पश्चिम बंगाल से केंद्र की राजनीति में धुरी बने रहने वाले वे आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए। एक राज्य की ज़मीन में मजबूती से पांव गड़ाए ज्योति बाबू दिल्ली में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति से पहले कांग्रेसवाद के खिलाफ गोलबंदी को सक्रिय करने वाले नेताओं में से रहे। संयुक्त मोर्चा का प्रयोग कई नाकामियों से निकलता हुआ यूपीए सरकार में आकर परिपक्व हुआ। अब सीपीएम केंद्र सरकार के साथ नहीं है,लेकिन पांच साल तक सरकारी की नीतियों पर उसका राजनीतिक प्रभाव गज़ब का रहा। इतना सख्त रहा कि मनमोहन सिंह अपनी आर्थिक नीतियों के कारण नहीं बल्कि सामाजिक नीतियों के कारण दुबारा सत्ता में आए। ये सीपीएम की दूसरी बड़ी ऐतिहासिक गलती थी। न्यूक्लियर डील पर इतनी घोर कम्युनिस्ट लाइन ली कि उस धुरी से बाहर ही छिटक गई जो उनके दम पर ही घूम रही थी। ज्योति बसु न्यूक्लियर डील के समर्थन में थे। प्रकाश करात नहीं थे। लेकिन तब शायद एक पार्टीमैन के नाते ज्योति बसु ने अपनी हैसियत का बेज़ा इस्तमाल नहीं किया। बल्कि इस बार भी पार्टी के नेताओं की बात मान ली।
इतिहास उन्हें जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़ों पर देखेगा या उन नीतियों के लिए जिनसे लाखों गरीब का जीवन बदला? या उन नीतियों के लिए जिसे बसु और सुरजीत आगे बढ़ाते रहे। वो नीति थी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष दलों की गोलबंदी। वर्ना गुजरात दंगों के बाद जब एनडीए की सरकार आती तो धर्मनिरपेक्ष सोच वाली बड़ी आबादी को गहरा धक्का लगता। एक बात यह भी कही जाती है कि पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास की दौड़ में आगे नहीं निकल सका। लेकिन जो उनका दौर था उस दौर में तो पूरे भारत की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। इस दौरान ज्योति बसु ने बंगाल में जो राजनैतिक और सामाजिक संस्कृति विकसित की,वो अगर उनके काडर अपने नेताओं की शह पर धूमिल न करते तो उसका भी अध्ययन किया जाता। बंगाल के सियासी माहौल में कभी सांप्रदायिकता कभी घुल नहीं पाई। लेकिन बाद के वर्षों में पार्टी के काडर भ्रष्ट होते चले गए। आततायी हो गए। अब सीपीएम भी ऐसे कार्यकर्ताओं को निकाल रही है। लेकिन लगता है अब देर हो गई। एक ऐसे समय में जब सीपीएम पश्चिम बंगाल में सबसे कमज़ोर लग रही है,उसके एक सर्वमान्य नेता का चला जाना,कई मायनों में सांकेतिक महत्व रखता है।
शरद यादव ने कहा कि जब गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को अनाज देने की बात हो रही थी तो ज्योति बसु अड़ गए। कहा कि इच्छाशक्ति होनी चाहिए,संसाधन आ जायेंगे। जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की गई हो, वो पार्टी की बात मानकर इंकार कर दे, इसकी एक ही मिसाल है। पंद्रह लाख भूमिहीनों को कोई एक नीति के दम पर ज़मीन दे दे,ये किस जीडीपी ग्रोथ रेट में आएगा। प्रमोद दासगुप्ता के ट्रेन किए हुए बसु और सुरजीत दोनों ने कम्युनिस्ट राजनीति को अपने जीते जी हमेशा प्रासंगिक बनाए रखा। नीतीश कुमार भूमि सुधार लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। बसु ने कई दशक पहले ये काम कर दिखाया। उनकी साख हमेशा बनी रही। सत्ता का त्याग करने की मिसालें दी। जब शरीर थक गया तो मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी और जब पार्टी ने कह दिया तो प्रधानमंत्री बन कर कुछ करने की अभिलाषा भी। जिसकी अपनी विश्वसनीयता पार्टी से ऊपर रही।
वो प्रधानमंत्री होते तो क्या होता और न बनने से क्या हुआ,इस सवाल का कोई ठोस जवाब मिलना मुश्किल है। जहां से ज्योति बसु ने अपनी पीठ मोड़ कर इतिहास बना दिया, वहीं से हिन्दुस्तान का इतिहास दूसरी दिशा में मुड़ गया। कंप्यूटर क्लर्कों का देश बन गया। देश के डीलर उद्योगपतियों का राज( ये पंक्ति सुशांत झा के लेख से प्रेरित है),जो सिर्फ बड़े डीलर बन कर शाइनिंग इंडिया में कामयाबी के प्रतीक बन गए। भारत के उद्योगपतियों ने मौलिक संस्थान कम बनाएं बल्कि लाइसेंस हटवा कर मल्टी नेशनल कंपनियों की डीलरशिप ले ली। इस उदारीकरण का नतीजा यह है कि देश में आज चालीस करोड़ लोग गरीब हैं। बाकी गरीब ही हैं।
लेकिन ज्योति बसु भी इन्हीं संभावनाओं में कोई आर्थिक तस्वीर ढूंढ रहे थे। उनके पास भी कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं थी। तेईस सालों तक कम्युनिस्ट विचारधारा के दम पर राज करने के बाद भी कोई मॉडल नहीं बना पाए जिसकी कम्युनिस्ट आर्थिक विचारधारा के तहत व्याख्या की जाती। वो भी सीमित अर्थो में उदारीकरण के ज़रिये ही आर्थिक मुक्ति तलाश रहे थे। ठीक है कि कम्युनिस्ट आंदोलन के कई स्वरूप रहे हैं। कोई बंदूक के रास्ते चला तो कोई वोट के। देश के कई ज़िलों में बंदूकधारी साम्यवाद खड़ा हो गया और पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के तहत दमनकारी होता लेफ्ट ममता बनर्जी की बेतुकी राजनीति के आगे कमज़ोर पड़ गया। फैसला नहीं आया है लेकिन लेफ्ट की कमज़ोरी झलक रही है। अपने बनाये किले को ढहते देखने से पहले ज्योति बसु ने दुनिया को विदा कह दिया। शायद इस बार भी उन्होंने ठीक समय पर पीठ मोड़ ली। इतिहास पर फैसला छोड़ दिया। काडर और विचारधारा के दम पर चलने वाली पार्टी अब भगवान भरोसे चलने वाली अराजक तृणमूल से अपने अस्तित्व की लड़ाई जीत पायेगी या नहीं,इस पर नतीजा आने से पहले ही लिखा जा रहा है। लेफ्ट की गलतियां इतनी हो गईं हैं कि सिर्फ आईने में झांकने से काम नहीं चलेगा। धर्मनिरपेक्ष राजनीति और लोकनीतियों के लिए लेफ्ट की मौजूदगी ज़रूरी है। सीपीएम के लिए ये समय धूल झाड़ने का है। वर्ना सामने से तेज आंधी आ रही है।
सर आप का आज करीब 12 बजे से एंकररिंग देखी ...
ReplyDeleteबेहतरीन एंकररिंग करते हैं आप .. बहुत अच्छा लगा. आप को सुन कर लगता है की बस ग्लामेर ही नहीं और भी बहुत कुछ है इलेक्ट्रिक मीडिया में....
बीबीसी पर पढ़ रहा था तो पाया कि ज्योति बसु के राजनीतिक करियर पर बहुत क़रीब से निगाह रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक और अंग्रेज़ी अख़बार 'टेलीग्राफ़' के राजनीतिक संपादक आशीष चक्रवर्ती कहते हैं, ''बसु कम्युनिस्ट कम और व्यवहारिक अधिक दिखते थे, एक सामाजिक प्रजातांत्रिक. लेकिन उनकी सफलता यह संकते देती है कि सामाजिक लोकतंत्र का तो भविष्य है लेकिन साम्यवाद का अब और नहीं.''
ReplyDeleteलेकिन उनकी यह सफलता और भी अधिक हो सकती थी अगर उनकी पार्टी की केंद्रीय समिति ने उन्हें 1996 में केंद्र में बनने वाली गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने की अनुमति दे दी होती. ज्योति बसु ने बाद में पार्टी के इस फ़ैसले को एक ‘ऐतिहासिक भूल’ बताया था.
इस तरह के नेता एक प्रकार का युग बनाते हैं और उसके जाने के बाद लोग उन युगों का अक्सर गाहे बगाहे याद करते हैं।
ReplyDeleteज्योति बसु इसी प्रकार के युगनिर्माता थे।
एक राजनेता के बतौर सही विश्लेषण है, कुछ बातों को छोड़ कर। वे पश्चिम बंगाल की अपनी सफलताओं का भारत में कहीं भी, पड़ौसी राज्यों तक में विस्तार नहीं कर सके।
ReplyDeleteकामरेड़ ज्योति बसु को लाल सलाम
ReplyDeletepaak saaf log bante hain to sirf misaal... aur aisi hi ek misaal the ...jyoti basu...
ReplyDeleteunko aakhri salaam
वो जो प्रधानमंत्री न बन सका, चला गया ...THIS IS THE DIFFERENT BETWEEN ज्योति बसु AND OTHER POLITICIANS.....
ReplyDeleteअपने ठीक कहा उनके होते बंगाल की सियासत में साम्प्रदायिकता कभी घुल नहीं पाई!
ReplyDeleteउनके होते बांगला लेखिका का क्या हश्र हुआ ! किस से छिपा है ?
दुखद समाचार।
ReplyDeleteश्री ज्योति बसु जी को श्रृद्धांजलि एवं उनकी आत्म की शांति के लिए प्रार्थना।
उनके अवसान से एक युग की समाप्ति हुई।
श्री ज्योति बासु को श्रधांजलि।
ReplyDeleteदेश में सबसे लम्बे समय तक एक राज्य के सी ऍम रहे श्री बासु जी हमेशा याद रहेंगे।
सी0पी0एम0 नेता ज्योति बसु का निधन निश्चय ही दुखद एवं एक युग का अंत है। आपके लेख से न केवल ज्योति बसु के जीवन एवं दर्शन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिली, बल्कि सी0पी0एम0 की वर्तमान राजनीति पर भी आपके द्वारा बेबाब टिप्पणि की गई है। धन्यवाद।
ReplyDeleteज्योति बसु ने २५ साल तक प. बंगाल पर राज किया, ज़ाहिर बात है कुछ तो ऐसा होगा कि लोग उन्हे इतना प्यार करते थे.
ReplyDeleteभारतीय राजनीति के स्तंभ को सुमन श्रधांजलि.
अपनी भी श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteगोरे अंग्रेजों ने भारत में राज्य माँ शेरा वाली गौरी के बंगाल से आरम्भ किया था, कोलकाता को राजधानी बना...और कई वर्ष भारत देश को एक सशक्त साम्राज्य का रूप दे दिया,,,किन्तु जैसा सदा काल-चक्र के अनुसार होता आया है, वे माँ काली की लाल जुबान से डर कृष्ण की दिल्ली में राजधानी स्थापित कर वापिस लौट गए अपने घर...
इस प्रकार एक आम आदमी के दृष्टिकोण से मुझे भी सबसे पहले सन '५९ में दुर्गापूजा की छुट्टियों में कॉलेज से टूर में कलकत्ता शहर को देखने का संयोग प्राप्त हुआ - जब दिन में हम कुछ 'सड़क, पानी' आदि से सम्बंधित संरचनाएं आदि देखते थे और फिर शाम हमारी होती थी अन्य दर्शनीय स्थान आदि देखने के लिए...भाग्यवश किन्तु तब अधिकतर बारिश हुआ करती थी रोज़, जिस कारण सात दिन में हमने दस फिल्म देखी, विभिन्न सिनेमा हॉल में जो चौरंगी के पास ही स्तिथ थे और हमारी पेट पूजा की आवश्यकता पूर्ण करने हेतु रेस्तौरां आदि भी वहां उपलब्ध थे...बारिश के कारण एक रात हमें सिनेमा हॉल से अपने अस्थायी निवास स्थान तक विक्टोरिया का सफ़र मजबूरन करना पड़ा क्यूंकि शहर की सड़के छोटी छोटी नदियों में परिवर्तित हो गयीं थी...
उसके बाद फिर से सन '७५ से '८२ तक कई बार कोलकाता जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ काम के सिलसिले में...
यह तो मानना पड़ेगा कि जब अखबार में आये दिन पढने को मिलता था कि कैसे पहले ट्राम का भाडा बढ़ने पर कलकत्ता निवासी आग लगा देते थे, उन्हें ही मैंने '७९ में घंटों बिजली गुल होने पर भी, स्व. ज्योति बासु के प्रभाव से, गर्मी में उफ करते नहीं सुना जबकि रात को पडोसी घरों से छोटे छोटे बच्चों के रोने कि आवाजें आती थी, और बंद पंखों के कारण शायद केवल हमारी सहन शक्ति क्षीण हो जाती थी, किन्तु "मजबूरी तेरा नाम महात्मा गांधी" कहावत की याद आती थी !
ज्योति दा ने तकरीबन 6 दशकों तक अपने खून पसीने से वाम पंथ को लोकतंत्र के खांचे में फिट बैठाए रखा। उनका प्रयोग पूरी दुनिया में एक नज़ीर है। ज्योति बाबू ने संविधान को ना मानने वाले वामपंथ को लोकतंत्र के साथ चलने का रास्ता दिखाया। दुनिया में पहली बार वामपंथ को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ढांचे में ढालने का श्रेय बेशक नम्बूदरीपाद को जाता हो, लेकिन लगातार दशकों तक इसको जमीनी हकीकत में तब्दील करने का श्रेय ज्योति बाबू को ही जाता है। अपनी सियासी समझ और बेहतर राजनेता के रूप में उनका कद ना सिर्फ वामपंथ बल्कि सभी पंथों वाली सियासी शख्सियतों से ऊपर रहा है।
ReplyDeletenamaskaar!
ReplyDeletejyoti bqasu ko shradhdha suman.ab fir samaya aa gayaa hai ki vaampanthi ekbaar apanii raajniitik pratibaddhataa ka mulyankan kar len.
बिलकुल सही कहा आपने ज्योति दा के बारे में जी।
ReplyDeleteRAVISH SIR AAPNE BILKUL SAHI BATE KAHI HAI JYOTI BASU KE BAARE ME.JYOTI BASU KEWAL APNE PARTY ME HI NAHI BALKI DUSERI PARTY WALE SE BHI ACHE SAMBANH RAKHTE THE. BIHAR SARKAR NE UNKI MRIYUE PER TIN DIN KE RASTRIYE SHOK KA FAISLA SAHI KIYA HAI
ReplyDeleteRAVISH SIR AAPNE BILKUL SAHI BATE KAHI HAI JYOTI BASU KE BAARE ME.JYOTI BASU KEWAL APNE PARTY ME HI NAHI BALKI DUSERI PARTY WALE SE BHI ACHE SAMBANH RAKHTE THE. BIHAR SARKAR NE UNKI MRIYUE PER TIN DIN KE RASTRIYE SHOK KA FAISLA SAHI KIYA HAI
ReplyDeleteRAVISH SIR AAPNE BILKUL SAHI BATE KAHI HAI JYOTI BASU KE BAARE ME.JYOTI BASU KEWAL APNE PARTY ME HI NAHI BALKI DUSERI PARTY WALE SE BHI ACHE SAMBANH RAKHTE THE. BIHAR SARKAR NE UNKI MRIYUE PER TIN DIN KE RASTRIYE SHOK KA FAISLA SAHI KIYA HAI
ReplyDeleteश्री ज्योति बसु की इन्ही विशेषताओ के कारण देश उन्हें सदैव याद रखेगा ......
ReplyDeleteवो जो प्रधानमंत्री न बन सका
ReplyDeleteवो जो कम्यूनिस्ट था भी और नहीं भी
वो जो सज्जनता की मिसाल था
वो जो संघर्ष की मिसाल था
वो जो पार्टी का असली काडर था
वो जो त्याग की प्रतिमूर्ति था
वो जो पार्टी का फैसला सर्वोच्च मानता था
वो जो राजनीति का अमूल्य निधि था
वो जो राजनीति की अनुकरणीय विधि था
वो जो ऊंचे कुल में जन्मा पर ज़मीन से जुड़ा रहा
वो जो ग़रीबों के हक़ की लड़ाई लड़ता चला गया
वो जो बंगाल की नवज्योति था, चला गया
वो जो सज्ज्न कम्यूनिस्ट था चला गया
वो चला गया, वो चला गया, वो चला गया...
वो जो प्रधानमंत्री न बन सका
ReplyDeleteवो जो कम्यूनिस्ट था भी और नहीं भी
वो जो सज्जनता की मिसाल था
वो जो संघर्ष की मिसाल था
वो जो पार्टी का असली काडर था
वो जो त्याग की प्रतिमूर्ति था
वो जो पार्टी का फैसला सर्वोच्च मानता था
वो जो राजनीति का अमूल्य निधि था
वो जो राजनीति की अनुकरणीय विधि था
वो जो ऊंचे कुल में जन्मा पर ज़मीन से जुड़ा रहा
वो जो ग़रीबों के हक़ की लड़ाई लड़ता चला गया
वो जो बंगाल की नवज्योति था, चला गया
वो जो सज्ज्न कम्यूनिस्ट था चला गया
वो चला गया, वो चला गया, वो चला गया...
Mr. Ravish i was searching for your mobile no. but could'nt find. kindly contact on the number given below-9415580890.
ReplyDeleteDr. J.P. Gupta
Lucknow.