राजनाथ सिंह भी अब दलितों के घर खाने लगे हैं। राहुल गांधी तो खा ही रहे हैं। आजकल दलित फूड काफी चल निकला है। पोलिटिकली। पंजाब के उभार के दिनों में जब वहां के ट्रक ड्राईवर देशाटन पर निकलें तो पंजाबी ढाबा खुल गए। अब दलित ढाबा और दलित रिसोर्ट खोलने का टाईम आ गया है। दलित व्यंजन। मेनू में दलित नेताओं के नाम पर रखें जायें। फूले फुल्का। अंबेडकर आचार। मायावती मलाई। कांशीराम ककड़ी। शाहू पनीर। इन महापुरुषों के नाम पर बने इन व्यंजनों को तभी परोसा जाए जब खाने वाला कोई नेता इनकी एक किताब पढ़ ले। दलित ढाबे में बनाने वाले भी दलित होंगे। जो खायेगा उसे मैनेजर के साथ फोटे खिंचवा कर दिया जाएगा ताकि वे अपनी पार्टी के नेताओं को दिखा सकें। वहां पर सारे महापुरुषों की मूर्तियां भी लग सकती हैं। हर महापुरुष के हिसाब से उनके इलाके का व्यंजन हो। ये भी एक आइडिया हो सकता है। यानी अगर आप देश भर के सभी दलित महापुरुषों के इलाके का व्यंजन खा लें तो बड़े पोस्ट के दावेदार हो सकते हैं। दलित रिसोर्ट अच्छा आइडिया है। इसमें आप स्विमिग पूल में नहाने से लेकर शराब पीने की व्यवस्था हो और दलित चिंतन के एक्सपर्ट बुला कर लंबे लंबे भाषण सुनायें जायें। फिर अगले दिन दोपहर उनका टेस्ट हो और पास हो जाएं तो सर्टिफिकेट मिले। यह लिखा हुआ कि अमुक शर्मा ने पांच प्रकार के दलित व्यंजनों का किया है और पांच किस्म के विशेषज्ञों का भाषण भी सुना। बोर्ड लगा दे कि हमारे यहां दलित भोजन का उत्तम प्रबंध है। उचित दर की दुकान। खाने पीने को लेकर दलित आत्मविश्वास वैसे ही नहीं झलकता है। मेरी एक परिचित हैं जो होटल चलाती हैं। उनसे कहा कि आप पर स्टोरी करूंगा तो महिला ने कहा कि लोग जान जायेंगे तो खाना खाने नहीं आएंगे।
शुरू में तो ये भोजन विश्राम यात्रा ठीक लगी लेकिन अब यह दलितों को जानने के अलावा नौटंकी लगने लगी है। इसलिए नहीं कि ठाकुर राजनाथ सिंह भी खाने लगे हैं बल्कि इसलिए कि हो क्या रहा है। राजनाथ सिंह कब से दलितों के बारे में बात करने लगे। एक तरफ वो दलितों के घर खाना खाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स में बीफ मत परोसो। उन्हें खाने के संस्कारों की विविधता के बारे में कुछ नहीं मालूम। वो धर्म और जाति की राजनीति का कॉकटेल अब तो न बनायें। चार साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहते हुए तो कुछ किया नहीं। अब फोटोकॉपी पोलिटिक्स कर रहे हैं।
लेकिन क्या यह ठोस उपाय है? सारे गांवों की बसावट जात के आधार पर है। बहुत पहले मैंने इस ब्लॉग पर लिखा भी था कि गांवों की पारंपरिक बसावट को ध्वस्त कर दिया जाए और एक नया मास्टर प्लान बने। गांवों में इस तरह से घरों को बसाया जाए ताकि एक घर पंडित का हो और दूसरा दलित का, उसका पड़ोसी ठाकुर का। वैसे भी सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों के लिए घर बनवाती ही है। कई सरकारी योजनाएं हैं जिनके तहत गांवों में गरीबों के लिए घर बनते हैं। इन घरों को गांव के किसी छोर पर न बनाया जाए। आज भी इंदिरा आवास के घर दलितों की बस्ती में ही बनते हैं। ये चलन तुरंत बंद होना चाहिए। इंदिरा आवास के तहत सभी जाति के गरीबों को घर मिले। जब तक हम बसावट में मिलावट नहीं करेंगे, दलितों को जानने के लिए उनकी बस्तियों में जाते ही रह जाएंगे। अलग से जाकर नौटंकी करने की ज़रूरत न पड़े इसलिए गांवों की बसावट को ध्वस्त करने की योजना पर काम करना चाहिए। बवाल होगा तो होगा। ठाकुर साहब का घर एक छोर पर और जाटव जी का एक छोर पर नहीं चलेगा।
जिन शहरों में माथुर अपार्टमेंट और राजपूत अपार्टमेंट बने हैं उन्हें भी तोड़ दिया जाए। आगे से किसी भी अपार्टमेंट को इलाका और जात धरम के आधार न बनने दिया जाए। जाति को तोड़ने के कोई सकारात्मक उपाय नहीं किये जा रहे हैं। बीएसपी भी समन्वय की राजनीति कर रही है। लेकिन समन्वय की इस ताकत का इस्तमाल जाति को तोड़ने के लिए नहीं करती है। राहुल गांधी खुद तो कहते हैं कि जाति में यकीन नहीं करता लेकिन पार्टी में अभी भी जाति के नाम पर सूची बनती है। शहरों में ब्राह्मण युवती परिचय सम्मेलन, गर्ग परिचय सम्मेलन बंद कर दिया जाए। महाराष्ट्र से लेकर कई राज्यों में जाति तोड़ कर शादी करने पर पचास हज़ार रुपये दिये जा रहे हैं। इससे कुछ नहीं होने वाला। एक बार फिर से इस जाति के खिलाफ उठिये। जाति को तोड़िये।
क्या कहिएगा अगर इस नौटंकी को सर के बल खड़ा कर दिया जाए। यानी क्यूं नहीं, सौ-पचास दलित राहुल बाबा और राजनाथ के घर में आकर कुछ दिन गुज़ारें...कांग्रेस,बीजेपी के अन्य महानुभावों के घर भी। बजाए इन लोगों के वहां जाने के। और ये सिलसिला कभी थमे नहीं, चलता रहे।
ReplyDeleteलेकिन इसमें दिक़्क़त ये है कि ये फ़ोटोजेनिक नहीं है। लाल गालों से दमकते, ज़रूरत से ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट नेताजी एक तंग कमरे में लालटेन की रोशनी में आड़ी-तिरछी रेखाओं से घिरे चेहरे से बात करने की तस्वीर नहीं पा सकेंगे।
"दलित रिसोर्ट- दलित खाना से लेकर रहने का उत्तम प्रबंध"...liked it
ReplyDeleteये भारत है महाराज आप रह रह भूल जाते है लगता है। यहां तो हमेशा से यही रहा है। हां ये है कि अब दलित लोगों का टाइम आया है, या कहें की लाया गया है, सबको समान अधिकार दिये जायेंगे या समान माना जायेगा तो वोट बटेंगे कैसे, नेताजी के पेट लात न पड़ जायेगी
ReplyDeleteहो गए सब कायदे, बेकायदा,
ReplyDeleteअब तो इनको तोड़ दो बाकायदा।
कल के अपने बुलेटिन में विनोद दुआ ने ठीक कहा था कि हमारे नेता महंगाई के जरूरी मुद्दे को छोड़ हर बेतुके मुद्दे में व्यस्त हैं। फिर महंगाई का मुद्दा उठे कैसे।
ReplyDeleteमैं तो इस चिंता में परेशान हूं कि इन मेहमानों के चलते बिचारे ग़रीबों का बज़ट कितना गड़बड़ा जाता होगा!!!
ReplyDeleteआपने लगता है अन्तर्जातीय शादी नहीं की है । सरकार द्वारा पैसा देना सार्वजनिक तौर पर ऐसे विवाह को कबूलने वाली बात होती है । कर्पूरी ठाकुर भी ऐसा स्वागत योग्य प्रावधान कर गये हैं । जब हम शोषित की स्थिति में नहीं होते तब शोषण देखने में चूक की संभावना काफ़ी होती है । दवा देने वाले की जाति पर लिखा भूल गये ? आप बहुत भोले-भाले जाति भूलने के उपाय सुझा रहे हैं । आप इन उपायों से भूल भी जायें,एक जाति है जो आपको नहीं भूली ।
ReplyDelete- अफ़लातून
भाई कहीं ऐसा तो नहीं की पहले इन दलितों के घर में किसी पञ्च सितारा होटल से खाना ला कर रख दिया जाता हो ताकि देश के महान नेता उसे खाते समय मुह ना बिचकाए. नहीं तो बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाको में जहाँ गरीब विचारे घास खा कर जी रहे है नेता जी को कहाँ से खिला पाएंगे. अरमानी के वस्त्र पहन कर लोग सादगी का प्रदर्शन कर रहे हो वहां दलित के घर खाना कैसे खा रहे होंगे एक सोचने का प्रशन है.
ReplyDeleteअब तो दलित टूरिस्म भी शुरू किया जाना चाहिए जहा रविश भाई के बताये दलित रेसोर्ट होंगे.
Ravishji,
ReplyDeleteMujhe to is baat ko lekar itna bara idea aaya hi nahin...
Busniess Na chalne ki guarantee hai.
Likha magar badhiya hai.
Nikhilesh.
ravish ji
ReplyDeleteek baat to hai jo sabse jyada daliton ke yahan khana khayega uska naam gneese book of world me darj hona chaheye. kya kahte hai. please visit my blog udbhavna.blogspot.com
namaskaar
ReplyDeletenayaa banaane ka paisa jutaa liijiye tab puraanii basti toda diijiyegaa. jaati suuchak naam rahenge to jaatri suuchak apartment bhii banenge. audyogok nagaro tathaa shaharoomen jaati tootanaa shuru huii thii tab tak jaativaadii paartiyoone usakaa bhaththaa diya. aap ekor to jaati ke aadhaar par aarakshan lengen to jaati kaise nahii chalegi. bharat men matdaan ab jaatiyon par ho rahaa hai.
namaskaar
ReplyDeletenayaa banaane ka paisa jutaa liijiye tab puraanii basti toda diijiyegaa. jaati suuchak naam rahenge to jaatri suuchak apartment bhii banenge. audyogok nagaro tathaa shaharoomen jaati tootanaa shuru huii thii tab tak jaativaadii paartiyoone usakaa bhaththaa diya. aap ekor to jaati ke aadhaar par aarakshan lengen to jaati kaise nahii chalegi. bharat men matdaan ab jaatiyon par ho rahaa hai.
ट्रक और बस बहुत समय से चल रहे हैं और यात्रियों की सुविधा के लिए ढाबे, या पंजाबी ढाबे, खुलते चले गए...कमपेटीशन के कारण इनकी हालत में भी सुधार आता चला गया...और वोट के लिए तो आज 'नेता' कुछ भी करेगा क्यूंकि कमपेटीशन के कारण ही मीडिया वालों की संख्या भी बढ़ गयी है और हर आदमी आज खुश होता है यदि उसकी सूरत टीवी पर दिखाई पड़े...और नेता को लाभ होता है यदि वो टीवी पर छाया रहे - स्टिंग ऑपरेशन छोडके...
ReplyDeletejati ke jungle se takra ke kabir se lekar dayanand aur lohiya tak na jane kitne sir foot chuke hain per ye tas se mas nahi hui .ab to mahapurshoon ki jatiya dhund dhund kar unhe pinjro me band kiya ja raha he pata chala he chandra shekhar azad saryuparin bramhan the isliye bramhan sammelanon me chandra shekhar azad ko azad nahi tiwari likha jatahe todermal porwal the aut tulsi das bhi koi khas jati ke bramhan the chitragupt kayasthon ke maharana pratap rajputon ke aur shivaji to marathon ke the hi is jat ke chakravyuh ko todna bahut mushkil he kyonki nai pidhiyan bhi is me ghus kar abhimanyu hi sabit hoti he fir bhi har kar bethne se behtar he ladna
ReplyDeleteHi
ReplyDeleteSir,
I am Sanket Tale From Amravati(Maharashatra)
I am Big fan Of u R
I am see always watch u r news & television Show
sir
I invite U to please come to our city
My city is historical place & also
Our Indian President SASURAL.
Thanku
Please Reply
रवीश जी आप को मकर संक्रांति की हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteआप के यहाँ एक छोटा सा प्रोग्राम आता है गुस्ताख़ी माफ़ ....
छोटा प्रोग्राम और मोटा सन्देश ..
एक गुस्ताख़ी इस नाचीज़ की तरफ से भी..
आप की महाकुम्भ की रिपोर्टिंग देखी .... अच्छा लगा !
लेकिन कुम्भ अपने आप में अनोखा होता है और उसकी रिपोर्टिंग भी अनोखी होनी चाहिए .
ख़ास कर तब , जब आप जैसे पापा लोग रिपोर्टिंग करे.
रवीश जी मैं ये तो नहीं कहूँगा कि आप पहली बार मेले की रिपोर्टिंग कर रहे थे . लेकिन मैं आप को बता दू कि इलेक्ट्रिक से चालित मूर्तियाँ , गंगा पर किताबें और सी.डी. और टुच्चा किस्म का साहित्य हरिद्वार में आम है . कुम्भ पर नया क्या था वो आपने नहीं दिखाया..
आप की रिपोर्टिंग में नया क्या था ?
आज आप की सूर्य ग्रहण की एंकरिंग बहुत अच्छी थी ...
गुस्ताख़ी माफ़ ....
आपका के वाइस ओवर का प्रशंसक ......
runa.abhi@gmail.com
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteरविश जी ने बहुत ही साढ़े शब्दों में अपनी बात कही जिसमें दलितों के विकास का साफ सुथरा रूप छिपा है.बधाई.
ReplyDeleteआज का असली 'दलित', 'गणतंत्र' में, हर कोई है जो 'सरगम' का एक भाग है, यानि 'गरेनी' है (अर्थात 'गरीबी रेखा के नीचे' है)...
ReplyDeleteप्रसन्नता की बात शायद यह है कि फिर भी हर कोई 'शून्य' यानि 'सरगम' के कारक नादबिन्दू से उपर ही है :) (और उसके अस्तित्व को आज सोलह वर्षीय बालक, या षोडशी, भी मानने को तैयार ही नहीं है - जो शायद 'जिस थाली में खाते हैं/ उसी में छेद करने' जैसा हो :)
इसी कारण किसी ने शायद 'कुम्भ' के समय और 'गंगा' का 'आकाश, धरा और पाताल' में ही नहीं किन्तु सूक्ष्म रूप में भी मानव शरीर के भीतर, सुषुम्ना नदी, या 'नाडी' के रूप में, भी उपलब्ध होने क़ी अनुभूति के कारण गाया, '...प्रेम क़ी गंगा बहाते चलो/ राह में आये जो दीन दुखी/ सबको गले से लगाते चलो..."
जय माता ('माया'/ 'माथा'?) क़ी :)
(आज सब, 'अमर सिंह' आदि जैसे शायद, तथाकथित 'मानसिक संतुलन' खो दिए हैं - ऐसा लगता है - 'टीवी' क़ी मानें तो :)...
रवीश जी,
ReplyDeleteक्षमा प्रार्थना के साथ टिप्पडी दे रहा हूं,
पढ कर ऐसा लगा आप इस बात से नाराज़ हैं कि राहुल गांधी के कापी राइट पर राज नाथ सिंह ने क्यों अतिक्रमण किया । यह नौटंकी तो राहुल जी के अधिकार क्षेत्र मे है , वे अगर दलित के घर जायेंगे तो दिल से गये, दूसरा उनका विरोधी गया तो नाटक । बात जमी नहीं ।
दूसरी बात, यह सच है कि जाति हमारे यहां सबसे बड़ी समाजिक बुराई है, परंतु सब कुछ तोडने से पूर्व उसका आल्टर्नेटिव होना चाहिए वरना धीरे धीरे हो रहा सामजिक परिवर्तन ही अच्छा है, नहीं तो समाज मे अफ़रा तफ़री मच जायेगी । वैसे भी इस धीरे हो रहे परिवर्तन पर भी बहुत सारी दुखद हिंसात्मक घटनाएं हो रही हैं । सब एक साथ तोडने से तो गृहयुद्ध जैसे हालात हो सकते हैं। अत: मेरे विचार से, आप जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति जो कुछ आवाज रखते हैं उन्हे ऐसे सुझाव देने से बचना चाहिए । अन्यथा यह एक फ़िल्मी क्रान्तिकारी सुझाव ही लगेगा ।
इन हालातों मे, चाहे राहुल गांधी हों या राजनाथ, वे दिल जायें या नाटक करें, हमें इसे इस धीरे चल रही सामाजिक परिवर्तन की धारा में एक कदम मान कर स्वागत करना चाहिए ।
एक बात और , धीरे धीरे जाति वादी बस्तियों के बजाय अर्थ वादी बस्तियां बस जायेंगी, महल एक तरफ़ फ़्लैट दूसरी तरफ़ और झुग्गियां तीसरी तरफ़ , एक नया समाज, एक नया भेदभाव,एक नयी व्यवस्था, और उससे लडने के लिए एक नया आन्दोलन, तैयार रहियेगा ।
शुरू में बहुत बढ़िया कटाक्ष और व्यंग्य किया है। बाद में गंभीर विषय छेड़ा, बहुत सही कहा है कि इंदिरा आवास योजना के घर दलित बस्ती में ही बनते हैं, बल्कि सच ये भी है कि प्रधानमंत्री के बीस सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत दलितों के लिए बनी दुकानें भी दलित बस्ती के आसपास ही खड़ी हुई हैं। जहां गांव की बाज़ारी ज़रूरतें दम तोड़ देती हैं। उन दुकानों पर भी अब सवर्णों का कब्जा है। दलितों के पास उस समय इतना पैसा नहीं था कि इनमें कारोबार को शक्ल दे पाते। उस समय ही शिकवी बनने पर मजबूर दलितों ने दुकानें सवर्णों के हवाले कर दीं। आपने आगे सुझाया है कि जाति तोड़ने के लिए मिली जुली आबादी खड़ी की जाए। ठाकुर बांभन और दलित मिक्स बस्ती में हों। तो साहब ये तो नामुमकिन है। गांव में मास्टर प्लान चलाकर भी असंभव। क्योंकि गांव के नक्शे तहसील में हैं और सबके रकबे और पट्टे का लेखाजोखा भी वहीं। ऐसे में सारे ठाकुर और बांभन जाकर तहसीलदार और कानूनगो का गला पकड़ लेंगे। या फिर सरकारों को नए सिरे से आबादी का नक्शा बदलने के साथ ही चकबंदी करानी पड़ेगी। बताइये इतना सब मुमकिन है। आज सरकारें सर्कुलर जारी करने से परहेज़ करती हैं ऐसे में क्या गांवों में मास्टर प्लान चलाया जा सकेगा? पिछले सोलह साल से मुझे याद नहीं कि किसी गांव में सरकारी नियम से ज़रीब पड़ी हो। ज़मीनी विवाद इसके अपवाद हैं। इन विवादों के निपटारे या दीवानी अदालतों के आदेश पर भले ही लेखपाल व्यक्ति विशेष के चक नापता हुआ दिख जाए। अब आप बताइये क्या ये मुमकिन है? और यदि है तो कैसे? क्या आप इस योजना के लिए अपनी ज़मीन का दान दे सकेंगे? आपके जवाब का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteDear Ravish Ji bohot serious & relevant issue ko touch kia hai Indian cast system ancient period se chali aa rahi aisi kurity hai jiska solution karna aasan nahi hai. ek universal low hai k agar kisi cheez ko khatam nai hone dena hai to uska politicisation kar dia jai bcoz uske baad kuchh log uska virodh karenge or kuchh faiver me honge. unforunetly hamare great leaders iss kaam ko bakhubi anjam de rahe hai. ye hamare leaders wahan pull banane ki baat karte hai jahan nadi hoti hi nahi hai. iss samajik kuriti ko khatam karne k liye na to politician tayar hai or na hi indian society. aaj tak intercast shadi or pyar ko to log sehan nai kar sakte to baki chizo ki to baat kya kare. lekin hum kalan k sipahion ki ye moral duty hai k logo ko apne madhyam se lagatar jagruk karne ka kaam karte rahe. Shailendra ANI
ReplyDeletejanab yeh tho hawa chaltiii aajkal dalitoo ki or hawa chal rahi hai , jisko neta dekho woh udhaar ki or ja raha hai...
ReplyDeleteaap hamare tv serial ko he dekh lo... reality shows ek ne start ki sub channel peeche peeche start ho gaye...
मानव जीवन में अनंत रोल मॉडल हैं - एक ओर राम हैं तो दूसरी ओर रावन भी, या युधिस्ठिर और दुर्योधन भी...इस को ध्यान में रख नक़ल करना बुरा नहीं है यदि वो आपको एक भला नागरिक बनने में सहायक हो...मीडिया को अपने 'टीआरपी'/ 'हरे हरे नोट' से मतलब है न कि किसी भी कार्यक्रम से आम आदमी या बच्चे के मन में पड़ने वाले प्रभाव से...
ReplyDeleteस्वयं मीडिया से सम्बंधित व्यक्ति भी पश्चिम की ही नक़ल करते दिखाई पड़ते हैं - अधिकतर आँख बंद कर के अपने ही देश में उपलब्ध कई ऐसे अनेक लाभदायक उदाहरण की अनदेखी कर...बिना 'गहरे पानी में बैठ', यद्यपि जानते हुए कि हर सूचना एक दुधारी तलवार सामान है और टीवी पर प्रस्तुत कार्यक्रम को हर उम्र के व्यक्ति देखते हैं...तभी तो कहते हैं की नक़ल के लिये भी अकल चाहिए,,,किन्तु गहराई में जाने के लिए समय ही कहाँ है आज? :)
रवीश भाई
ReplyDeleteअभी ग्यानोदय में दलित अपार्टमेन्ट वाला आलेख पढ़ा ही था कि आपने यह ब्लॉग उछाल दिया. इसे पढ़ते हुए शुरू में तो ऐसा लगा कि शायद आप कुछ विवादास्पद चीज़ें लिख रहे हैं (जैसे कुछ व्यञ्जनों के नाम.) पर बाद में आपने बख़ूबी संभाल लिया. अच्छा लगा. शुभ कामनाएं
सुदेश श्रीवास्तव
दलित के घर खाना,
ReplyDeleteऔर खाकर गाना...
खानें का तो क्या लाभ?
पर खाकर गानें का है पूरा लाभ...
100% रिटर्न प्रोफिट है भाई...
ना गाया तो क्या लाभ?
हो गए अब तो अछूत आप...