शहर बड़ा अजीब लगता था। आबादी को पचाने के लिए इसका पेट फैला जा रहा था। बेरसराय के सारे मकान ऊंचे होने लगे। गली-गली में वन रूम सेट के छोटे-छोटे पोस्टर लग गए। सफेद काग़ज़ पर काले काले मोटे अक्षर। कंप्यूटर के आने से पोस्टर लगाना आसान हो गया। मेस खुलने लगे। अंडा-पराठा और आचार-पराठा। मेस की मेज़ आचार और नमकदानी के साथ सिगरेटदानी से सजी होती थी। एक टीवी भी होता था। क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक उफानों को राष्ट्रवादी मुलम्मों के साथ व्यक्त करने का मंच बनता जा रहा था। सईद अनवर के जमते ही सांसे पत्थर हो जाती थीं। वेंकटेश प्रसाद की उखड़ती गेंदों से जब विकेट चटकते थे तो जान में जान आ जाती थी। भोजन पूरा होता रहता था। प्रवासी छात्रों ने उधार की प्रक्रिया में हाथ जलाना शुरू कर दिया। एक सिगरेट को तीन लोग पीने लगे। सिगरेट छोड़ देने का साप्ताहिक प्रण लिया जाने लगा। तोड़ा जाने लगा।
जवाहर बुक डिपो के आस-पास मंडराने वाले महान भारत के भावी लोकसेवक। हर असली किताब का नकली प्रिंट। छापे पड़ते थे। दुकान फिर खुलती थी। हर किताब फार्मूला की तरह देखी जाती थी। चलता है या नहीं चलता है। राजीव भैया ने सूची जारी कर दी है। एकाध राजीव भैया टाइप लोग यूपीएससी की कामयाबी के चलते तमाम कमरों में किसी सचिन तेंदुलकर की तरह चर्चा में आ जाते थे। दूर दूर से वन रूम सेट के बाशिंदे निकल कर राजीव भैया के वन रूम सेट तक पहुंच जाते थे। यूपीएससी निकालना मज़ाक नहीं था। इसका हो गया रे...आयं रे, इ हो यूपीएससी कर गईस। बड़ा दहेज मिलेगा हो। मां-बाप का नाम रोशन कर दिहीस। हमारे बिहार के गांव-घरों में रौशनी इन्हीं सब कामयाबी की ख़बरों से होती है। दहेज के सामानों का भविष्य तय होता था। जवाहर बुक डिपो बिहार यूपी के गांव-घरों में शाहजहां रोड पर बने यूपीएससी के दफ्तर से ज़्यादा लोकप्रिय हो गया।
किशोर कुमार के गानों से किसी की कामयाबी से पैदा हुआ दर्द हल्का होता रहता था। शाहरूख़ ख़ान के निगेटिव रोल से दिल्ली की लड़कियों को तरसती निगाहों से देखने वाले गांव-घरों के राजकुमारों को सुकून पहुंच रहा था। कुछ लड़कों ने तैयारियों के सिलसिले में सांझा चूल्हा चालू कर लिया था। महान भारत के भावी सेवक खिचड़ी से लेकर मटन बनाने के विशेषज्ञ हो रहे थे। योजना पत्रिका के आंकड़ों को घोट रहे थे। रोज़गार समाचार और द हिंदू के संपादकीय। भारतीय दैनिक ज्ञान भंडार के मूल स्त्रोत। सफलता के कई ताबीज इनसे चुराई गई मंत्रों से बने थे। फ्रंटलाइन और इंडिया टुडे से निकली जानकारियां लोकसेवकों के ज्ञान चक्षु खोल रही थीं।
मनोज तिवारी का गाना इसी दौरान लांच हो गया था। गांव में किसी ने मज़ाक में पूछा था कि कब से दिल्ली में हैं। कब आइयेगा। अगले साल आईएएस हो जाएगा? संतोषजनक जवाब नहीं मिला तो बोले कि मनोज तिवारी का गाना सुनले बानी जी। ना...कौन हवे इ। नचनिया-बजनिया के चक्कर में हम ना घूमी। चाचा जी ने कहा सुन लीह। निमन गवले बा। जब गाना सुना तो काठ मार गया। महान भारत के लोकसेवक बन कर दिल्ली से लौट आने के इंतज़ार में बैठे मां-बाप के भावों को मनोज तिवारी ने पकड़ लिया था और गा दिया था। इस गाने के कारण कामयाबी का इंतज़ार कर रहे कई भावी लोकसेवक गांव आने से डरने लगे। सुना है कि जुबली हॉल में भी ये गाना बजने लगा। पता चल गया कि चाचाजी ने इस गाने के ज़रिये औकात दिखाने की कोशिश की है। गांव-घरों में नाकाम लड़कों की सामाजिक हैसियत इन्हीं सब तंजो से तय होती है। उनका लड़का बनाम हमारा लड़का चलता रहता है। रिश्तेदारों का डायलॉग होता था- गईल रहले बबुआ। रोपया उड़ावत रहले। समझा समझा कर थक गया कि मैं लोकसेवक नहीं बनूंगा। कंपटीशन नहीं दूंगा। फिर भी तमाम महान नाकाम लोकसेवकों में गिना गया। मेरे पड़ोस के चाचाजी ने ऐसे नाकाम विद्यार्थियों के लिए जुमला निकाला था- बुरबक विद्यार्थी का बस्ता भारी।
मनोज तिवारी का गाना है- अस्सीये में ले के एडमिशन..कंपटीशन देता। ये गाना वन-रूम सेट में रह रहे प्रवासी छात्रों की दास्तान का एक लोक दस्तावेज़ है। गाने का भाव कुछ ऐसा है कि सन अस्सी से ही यूपीएससी दे रहा है। नहीं हो रहा है। मूंछ मुंडा ली है। मनोज का गाना चल रहा है। दिल्ली,इलाहाबाद और काशी के हॉस्टलों और वन-रूम सेटों से यथार्थ निकल कर लोकधुन में मन रमाने लगता है।
चानी पर के बार... चांनी पर के बार झरल....
मोछ के निशान नईखे
ओभर भइल एज बाकीर
तनिको गुमान नईखे
चानस भिड़ौले बाटे
चानस लहौले बाटे
दे के पटीशन
कंपटीशन देता
इस गाने की समीक्षा बाद में करूंगा। लेकिन यह गाना वन रूम सेट के बुढ़ाये बाबाओं की सामाजिक मानसिक कथाओं को कहता है। कंपटीशन देना अपने आप में आरंभिक योग्यता की निशानी है। शादी के लिए अगुआ यानी लड़की वाले आते हैं और पिता की अकड़ का गज़ब का विश्लेषण है। मंडल के बाद उम्र की सीमा बढ़ा दी गई थी। चांस भी बढ़ गए थे। कंपटीशन देना एक काम हो गया था। कंपटीशन भविष्य निर्माण का आंदोलन। वन रूम सेट के खोह में इस आंदोलन की व्यक्तिगत,सामूहिक रणनीति बनाई जाती थी।
कंपटीशन देना एक सनातन प्रक्रिया के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। पटना से दिल्ली ड्राफ्ट आने लगे थे। पासबुक। कई वन रूम सेट में यूपीएससी देने वाले बाबा और देवता के रूप में पुकारे जाने लगे। कोई प्रीलिम्स निकाल कर क्वार्टर अफसर बन जाता था तो कोई मेन तक पहुंच कर आधा अफसर बन जाता था। जुबली हॉल में कई ऐसे प्रौढ़ प्रतियोगियों को बाबा पुकारे जाते हुए सुना था। बाल मुंडा कर मेन्स देने का कर्मकांड किस प्रतिभाशाली ब्राह्मण की देन है,पता लगाया जाना चाहिए। अजीब सा चलन था। वन-रूम सेट ऐसे बाबाओं के किस्सों से आबाद होने लगे। यूपीएससी के अस्थाई सलाहकार। अच्छे खासे जवान लड़के यूपीएससी के कारण बुढ़ा गए। बाबा कहलाने लगे। वन-रूम सेट का रोमांस जारी है।
जवाहर बुक डिपो का नाम भी भूल गए थे.. आज फिर से याद आ गया..
ReplyDeleteइत्ती बाते कहाँ छुपा कर रखे हैं मालिक? :)
एक दम सटीक लिखा है.इस नज़ारे को मैंने भी बड़े करीब से देखा है.यूपी और बिहार के लड़कों की जिंदगी की सफलता पीसीएस और यूपीएससी की सफलता के सहरे चलती है.इन कम्पटीशन में सफल तो..... सबसे बेहतर.आपने खूब लिखा है.कई यूपीएससी के लड़ाके बाद में पत्रकार बन गए.वे आज बेहतरीन काम कर रहे है.इन प्रदेशों में ये सोच अभी भी प्रबल है कि सरकारी नोकरी पा लेनाही सफलता है....आप का कस्बा वाकई में लाज़बाव है
ReplyDeleteमनोज तिवारी का गाना काफी सुना है। भाव आज आपने स्पष्ट कर दिया। अब तो आप इस पूरी सीरीज़ में इस गाने को अपने भाव बता रहे हैं। जीते रहिए।
ReplyDeletesriram swwets
ReplyDeletekahe bhool gaye bhaiya ,
bahoote maja aaya
रवीश जी बहुत दिनों से "वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान" का इंतजार कर रहा था. दिन में कई बार ब्लॉग चेक करता था, पोस्ट के लिए धन्यवाद. हर बार के तरह इस बार भी बहुत उम्दा लिखा, वन-रूम सेट का रोमांस- दिल्ली मेरी जान" के अगले पार्ट का इतंजार पढने के तुरंत बाद ही शरू हो गया.
ReplyDeleteएक सिगरेट को तीन लोग पीने लगे। सिगरेट छोड़ देने का साप्ताहिक प्रण लिया जाने लगा। तोड़ा जाने लगा।
आज भी यही होता है दिल्ली के वन-रूम सेट में, हम तो आज भी वन रूम सेट वाले ही हैं, इस लिए आप को बता रहा हूँ| फिर से काहें नहीं रह लाते एक बार थोड़े दिनों के लिए वन-रूम सेट में यादे और ताज़ा हो जायेंगी
भाई जी आपका व्यंग कमाल का होता है!अभी बुलेटिन के दरमियान ये पढ़ते-पढ़ते ज़ोर से हंस पड़ा हू,बड़ी मुश्किल से सम्हाला एंकर रीड के लिए!!!बहूत खूब लगा बीते दीनों की हक़ीक़त बयाँ करना...."गांव में किसी ने मज़ाक में पूछा था कि कब से दिल्ली में हैं। कब आइयेगा। अगले साल आईएएस हो जाएगा? संतोषजनक जवाब नहीं मिला तो बोले कि मनोज तिवारी का गाना सुनले बानी जी। ना...कौन हवे इ। नचनिया-बजनिया के चक्कर में हम ना घूमी। चाचा जी ने कहा सुन लीह। निमन गवले बा। जब गाना सुना तो काठ मार गया।"....हा हा हा हा हा!!!
ReplyDelete"बाबा" छा गए ! गर्दा - गर्दा मचा दिए :) एकदम से मूड फ्रेश हो गया ! तीन तरह के बिहारी होते थे - "हरी " , "हैरी" और " हरिया " ! हैरी लोग बिजिनेश में चले गए - हरी लोग पत्रकार बन गए और "हरिया" कलक्टर :)
ReplyDeleteवन रूम सेट का रोमांस चालू आहे
ReplyDeleteवन रूम सेट का रोमांस चालू आहे
ReplyDeleteरवीशजी, गज़ब है आपका "वन-रूम सेट का रोमांस।"रोमांस" की खुमारी में डूब गया हूँ। तमाम पोस्ट कुछ धुंधली यादों को ताज़ा कर देते हैं। आपका ROMANCE जारी रहे। शुभकामना...
ReplyDeleteSACHIN KUMAR
ReplyDeleteकिशोर कुमार के गानों से किसी की कामयाबी से पैदा हुआ दर्द हल्का होता रहता था। शाहरूख़ ख़ान के निगेटिव रोल से दिल्ली की लड़कियों को तरसती निगाहों से देखने वाले गांव-घरों के राजकुमारों को सुकून पहुंच रहा था। कुछ लड़कों ने तैयारियों के सिलसिले में सांझा चूल्हा चालू कर लिया था। महान भारत के भावी सेवक खिचड़ी से लेकर मटन बनाने के विशेषज्ञ हो रहे थे। अस्सीये में ले के एडमिशन..कंपटीशन देता। ये गाना वन-रूम सेट में रह रहे प्रवासी छात्रों की दास्तान का एक लोक दस्तावेज़ है।
"बाबा" छा गए ! गर्दा - गर्दा मचा दिए :) एकदम से मूड फ्रेश हो गया ! तीन तरह के बिहारी होते थे - "हरी " , "हैरी" और " हरिया " ! हैरी लोग बिजिनेश में चले गए - हरी लोग पत्रकार बन गए और "हरिया" कलक्टर
रवीश जी,
ReplyDeleteशूल फिल्म में यही गाना एक कैसेट के रूप में गवाया गया है कि ले के एडमिसन, कम्पटीसन देता.....और जब किसी मु्द्दे पर लोकगीत ही बन जाये तो बात की गहराई को समझा जा सकता है।
बात की छानबीन करते हुए मैंने एक पोस्ट लिखी थी - कि क्या कारण है जो बिहार के लोग सरकारी नौकरियों में ज्यादा दिखते हैं।
http://safedghar.blogspot.com/2008/10/blog-post_23.html
लिंक पर नोश फरमाएं।
पोस्ट तो धांसू है।
Lajawaab! Jawahar book depot, Bhool gayi thee, aapne yaad dila diya kuch kitaben mere paas bhi us book depot ki hain aur JNU ke doston ne shool dekhne ke baad isi ek gaane ke liye Film dekhne ki sifarish kar di thee,sachmooch Maza aa gaya padhkar!
ReplyDeleteसबसे बड़ी बात ये है कि ये डायरी के वो पन्ने हैं जो आज तक सलामत बचे हैं...और खुशी की बात ये कि आप इन्हें बचा कर रख पाए...बधाई है कि आप इतना वक्त अभी भी इस सब को याद करने के लिए निकाल लेते हैं...और ये किस्से और किस्सागोई बताती हैं कि ये शख्स एक ऐसा गंवई है जो मजबूरी में शहरी बन गया है...ये एक ऐसे खास आदमी की कलम है जो हमेशा आम बना रहना चाहता है पर मजबूरी है....ये सबक है उन सब के लिए जो खुद को इस नए खांचे में फिट कर के खास समझने लगे हैं...और अतीत को शर्म समझ कर याद ही नहीं करना चाहते हैं....
ReplyDeleteपढ़ कर इतना मज़ा आ रहा है कि लग रहा है कि अगला हिस्सा भी जल्दी ही लिख डालें...पापा आज भी कहते हैं कि सरकारी नौकरी की बातै कुछ और है...पर लइका तो पत्रकार है...का किया जाए अब लइकन का....
'सरकारी नौकरी' से ख्याल आया की भारत-सरकार-में-नौकरी ही पहले ऐसी नौकरी होती थी जिसमें अंग्रेजों के ज़माने में मेट्रिक पास करा लड़का, एक स्कूल लीविंग सर्टीफिकेट का इम्तहान पास कर, क्लर्क बन जाता था और किसी दिन बड़ा ऑफिसर बनने का ख्वाब देख सकता था...सरकारी मकान में सारी उम्र गुजार सकता था यदि समय से किसी बेटे को भी नौकरी में लगा देता था...जबकि तब निजी नौकरी का कोई भरोसा नहीं होता था...एक 'बाबू' को भी तब इज्ज़त से देखा जाता था...
ReplyDeleteस्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ड्रामे का रूप बदल गया, और तेज रफ़्तार से बदलता जा रहा है...
१९८० में जब गुवाहाटी पहुंचा तो देखा आन्दोलन के कारण वहाँ से बिहारियों से भरी रेल गाड़ियाँ चल रही थीं...शहर से कुली, रिक्शा चालक, सब्जी वाले, पान वाले, धोबी, मोची, इत्यादि सब गायब हो गए, (दूध वाले नेपाली थे)...आराम पसंद, पान (तामुल) चबाने के आदी, शहर निवासियों को तब कठिनाई महसूस हुई क्यूंकि उनको ऐसे 'नीच' काम आते ही नहीं थे, यद्यपि कुछ लोकल नए-नए लड़के रिक्शाचालक जरूर हमें देखने को मिले...फिर हमने देखा कुछ दिनों बाद ही सब बिहारियों को मुस्कुराते हुए लौटते :) आन्दोलन उसके बाद 'विदेशियों' के स्थान पर 'बंगालियों' के विरुद्ध हो गया...
जब हम बच्चे थे तो दिल्ली में पहले भी धोबी बिहारी ही देखे थे (बाबूजी उनको बरैठा कह कर पुकारते थे), जो हर हफ्ते घर से कपडे ले जाते थे और अगले हफ्ते धो और प्रेस कर ले आते थे...अब केवल प्रेस का ही काम होता है हर कालोनी में...
त्रिमूर्ती' के रूप, हरी, हैरी और हरिया बढ़िया लगा :)
दिल्ली ने
मैं लिखते लिखते रुक गया था...कि दिल्ली ने हमें बहुत कुछ सिखाया क्यूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण बाबूजी का शिमले से यहाँ स्तानांतरण हो गया था...और जबसे आँख खुली तो अपने को दिल्ली में ही पाया - लक्ष्मी-नारायण की छत्र-छाया में, बिरला मंदिर के निकट, जिसके साथ हमारा स्कूल भी संलग्नित था...और जिस सरकारी कालोनी में हम लगभग १३ वर्ष रहे, वो तालकटोरा पार्क को राम कृष्ण मिशन से जोड़ने वाली सड़क पर स्तिथ था - पहाड़ गंज/ गोल मार्केट के निकट...
ReplyDeleteसरकारी कर्मचारी विभिन्न प्रान्त के होने के कारण हमें आरंभिक काल से विभिन्न भाषाएं सुनने को मिलीं, जिस कारण हम शायद सेकुलर का मतलब औरों से बेहतर समझ सकने का दावा कर सकते हैं...
दिल्ली विश्वविद्यालय के कारण डीटीसी के सफ़र ने भी हमारे ज्ञानोपार्जन में सहायता क़ी - जिसकी अनेकों दास्तान अलग से लिखी जा सकती हैं क्यूंकि हर दिन पात्र बदल जाते थे..
ये वन रूम सेट का रोमांस है
ReplyDeleteया वन रुम सेट का रोमांच...??
बढिया है....!!!!
इस तरह लिखने के लिए बहुत साहस चाहिए. हिन्दी पत्रकारिता में बहुत कम लोग होंगे जो अपने अतीत को न भूले हों.
ReplyDeletebahut badhia, lajawab...sundar aur majedar
ReplyDeleteसभी वाक्य जीवंत हैं।पढ़ते वक्त आंखों के सामने से गुज़रते जा रहे हैं। कमाल है आप भी कम्टीशन दे चुके हैं। वैसे मैं अभी दे तो रहा हूं लेकिन पत्रकार बन चुका हूं।
ReplyDeleteसभी वाक्य जीवंत हैं।पढ़ते वक्त आंखों के सामने से गुज़रते जा रहे हैं। कमाल है आप भी कम्टीशन दे चुके हैं। वैसे मैं अभी दे तो रहा हूं लेकिन पत्रकार बन चुका हूं।
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ReplyDeleteवन रूम सेट सीरिज में मन रम गया, आपकी अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है
ReplyDeleteक्या लिखते हैं आप...जबरदस्त...बहुत मज़ा आया...
ReplyDeleteनीरज
हा हा हा...बाबा...अब भी यही हालत है.मनोज तिवारी वाला ये गाना आज भी प्रासंगिक है.
ReplyDeleteवन रूम सेट का रोमांस आगे भी जारी रखिये सर
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