ये इंदिरापुरम के शिप्रा रिवियेरा के एक गेट के बाहर से ली गई तस्वीर है। अंग्रेजी के शब्द पहले बोलचाल में हिंदी के हुए और अब लिखनचाल में घुस रहे हैं। आम लोगों के द्वारा लिखी जाने वाली हिंदी।
Mere liye ye bhi bhasha ka vikas hi hoga kyunki maine bhasha ki paribhasha hi ye seekhi hai.Jab tak baat saamne wali ki samajh aaye bhasha theek warna galat. Yahan lekhak ne apni baat ko sabhi ko samjha diya hai.
दूसरी भाषा के आसान शब्द को अन्य भाषा के द्वारा अपना लिया जाना भाषा की उदारता और विकास दोनों ही है। अंग्रेजी भाषा ने तो अनेकों भाषाओं के शब्दों को अपनाया है।
ये सौ फीसदी भाषा का विकास ही है। जो लोग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि वर्तमान की भाषा ही शाश्वत है उन्हे अपने पुरखों की भाषा और अपनी भाषा के बीच तुलना करनी चाहिए। वैसे भी एक ही परिवेश में अलग-2 लोगों की भाषा में अन्तर पाया जा सकता है जो उनकी शिक्षा,उनके पारिवारिक माहौल और लोगों के साथ उनके इंटरएक्शन की वजह से हो सकता है। भाषा वहीं जिंदा रहती है जो आम जनता में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के लायक हो और सहज संप्रेषणीय हो। इस आधार पर कहा जा सकता है कि दुनिया की पुरानी भाषाएं या कई विलुप्त हो गईं भाषाएं इसलिए खत्म हो गई या बोलचाल से बाहर हो गई क्योंकि वो आमजनता के लिए सहज नहीं थी या ऐसा बन नहीं पाई। इस मामले में हमे अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए जो हर देश में उस देश के हिसाब से ढ़ल रही है और एक सतरंगा संसार बना रही है। हमें भाषाई ब्राह्मणवाद से बचना चाहिए।
'Naye kapdon ki repairing' se darzi ka arth hai sile-silaye kapdon ke maap mein pher badal karna. Yani jaise pant ki kamar ya lambai chhota/ bada kar vyakti-vishesh ke pehnne layak banana...
(Ek sajjan USA mein rahte hain aur ek bar, jab unke pas adhik samay nahin tha, we sile-silaye jeans kharid kar aur unki maap mein thoda sa badlav kar apni naap ki bana kar le gaye the)...
कबीर ने ऐसे ही भाषा को बहता नीर नहीं कहा था. भाषा को बांधिये मत. नदी बंधती है तो मरने लगती है. पर भाषाई उन्मुक्तता के मुद्दे पर नवभारत टाइम्सी भाषा का समर्थन न किया जाए.
भाषा पर व्यक्तिगत शैली का भी असर पड़ता है..और फिर दरजी भैया से या पेंटर भैया से आप भाषाविद बनने की उतनी उम्मीद भी छोड़िये...लचीलापन होना ही चाहिए वरना अपनी हिंदी दरबारी भाषा बन जायेगी...और जनता जनार्दन को प्रयोग करने दीजिये ना..कौन कह रहा है कि इसे शब्दकोष में रखिये....
ye koi badi baat nahin Raveesh ji, desh ke lagbhag har shahr men aisa hi ho rahaa hai, jahan tak rahi shuddh likhne kii baat to maharashtra men dekhiye HINDI ki kaise taang todi jaati hai.
English dictionary adopts hindi words every year and hindi adopts english words unofficially in common public's dictionary and its most of the time changed from its original pronounciation.
समृद्धि के ये निशान हर क़दम पर मिलते हैं। भाषाओं के हमेशा दो स्तर भी रहे हैं। बोल-चाल की और लिखत-पढ़त की। यहां जो नमूना दिया है वह बोल-चाल की भाषा का लिखत-पढ़त रूप है जो शाहिद मास्टर के यहां और तमाम फुटपाथों, चालू काऊंटरों पर नजर आता है।
Aap kisi bhasa ko doosri bhasa ke shabdo ko lekar samridha nahi kar sakte. Yeh bolchal tak hee theek hai Nahi to aage chalkar yehi bhasa hinglish ya hingrezi ban jati hai.Bhasa ki udarta ke naam par ese chalte nahi diya ja sakta.
Main ye manta hu ke ye bhasa ka vikas to bilkul nahin hai, balki ye ek tarike ka parda hai jise hum log apni bhasa ki agyaanta ko chipane ke liye istemaal karte hai.
Har jagah englih ka bolballa hai. mere ye shabd bhi english main hi hai, prantu vicharo ko prakat karne ki bhasa meri abhi bhi hindi hi hai.
hum is tarah ke mishrit bhasa ka orayog tab karte hai jab hum apni hi mool bhasa se anibhigya hote hai.... aur aaj ke samaj ka paridrisya dekh kar dar lagta hai ki.. hume apni bhasa ka gyan kitna kam hai..
Jab hum 'gyan' ki baat karte hain to kya hamein yeh bhi kabhi-kabhi nahin sochna chahiye ki manav-janm ka prayojan kya hai? Kuchh hai bhi ya nahin? Ghar se office aur phir vapis - kya yahi arth hai? Kyun ham chahte hain ki ham tarakki karein? bhale hi sam, dand, bhed ka istemal kar! adi adi
दिलचस्प...
ReplyDeleteइसे आप भाषा का विकास कहेंगे या भाषा का भ्रष्ट होना?
ReplyDeleteयह तो अधिक से अधिक होना चाहिए। यह भाषा का विकास ही है।
ReplyDeleteMere liye ye bhi bhasha ka vikas hi hoga kyunki maine bhasha ki paribhasha hi ye seekhi hai.Jab tak baat saamne wali ki samajh aaye bhasha theek warna galat. Yahan lekhak ne apni baat ko sabhi ko samjha diya hai.
ReplyDeleteदूसरी भाषा के आसान शब्द को अन्य भाषा के द्वारा अपना लिया जाना भाषा की उदारता और विकास दोनों ही है। अंग्रेजी भाषा ने तो अनेकों भाषाओं के शब्दों को अपनाया है।
ReplyDeleteदिलचस्प लगा पर मुझे लगता है भाषा का विकास....इस बात पर मन दुविधा में है.
ReplyDeleteये सौ फीसदी भाषा का विकास ही है। जो लोग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि वर्तमान की भाषा ही शाश्वत है उन्हे अपने पुरखों की भाषा और अपनी भाषा के बीच तुलना करनी चाहिए। वैसे भी एक ही परिवेश में अलग-2 लोगों की भाषा में अन्तर पाया जा सकता है जो उनकी शिक्षा,उनके पारिवारिक माहौल और लोगों के साथ उनके इंटरएक्शन की वजह से हो सकता है। भाषा वहीं जिंदा रहती है जो आम जनता में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के लायक हो और सहज संप्रेषणीय हो। इस आधार पर कहा जा सकता है कि दुनिया की पुरानी भाषाएं या कई विलुप्त हो गईं भाषाएं इसलिए खत्म हो गई या बोलचाल से बाहर हो गई क्योंकि वो आमजनता के लिए सहज नहीं थी या ऐसा बन नहीं पाई। इस मामले में हमे अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए जो हर देश में उस देश के हिसाब से ढ़ल रही है और एक सतरंगा संसार बना रही है। हमें भाषाई ब्राह्मणवाद से बचना चाहिए।
ReplyDeleteभाषा तो खैर ऐसे ही विकसित होती है...लेकिन नए कपड़ों की रिपेयरिंग...मान गए शाहिद मास्टर...
ReplyDeleteजय हिंद...
निवेदन है कि टिप्पणी ब्लॉग पता छोड़ने के लिए मत दिया करो।
ReplyDeleteहमारे यहां नए पुराने कपड़ों की रिपेयरिंग किए जाते हैं। ये तो अनर्थ। इससे विकास कैसे कहेंगे जरा सोचिए। वाक्य को गौर से पढ़ें और फिर बोले।
शायद अगर ये वाक्य ऐसे लिखा होता तो लगता कि विकास हो रहा है। जैसे कि मैंने नीचे दिया है।
हमारे यहां नए पुराने कपड़ों की रिपेयरिंग की जाती है।
'Naye kapdon ki repairing' se darzi ka arth hai sile-silaye kapdon ke maap mein pher badal karna. Yani jaise pant ki kamar ya lambai chhota/ bada kar vyakti-vishesh ke pehnne layak banana...
ReplyDelete(Ek sajjan USA mein rahte hain aur ek bar, jab unke pas adhik samay nahin tha, we sile-silaye jeans kharid kar aur unki maap mein thoda sa badlav kar apni naap ki bana kar le gaye the)...
कबीर ने ऐसे ही भाषा को बहता नीर नहीं कहा था. भाषा को बांधिये मत. नदी बंधती है तो मरने लगती है. पर भाषाई उन्मुक्तता के मुद्दे पर नवभारत टाइम्सी भाषा का समर्थन न किया जाए.
ReplyDeleteतो किबला आईडिया धांसू नहीं लगा आपको ?
ReplyDeleteजबरदस्त !! अच्छा प्रयोग ! देखने में अजीब लगता है परंतु मुम्बई में ये आम हो चला है।
ReplyDeleteलच्छन मिंयां की दुकान 'मोसपलटी' के 'नोटीसबाजी' के चलते 'कोनर' में बगलिया गई है। थोडा आगे आयेंगे तो दुकान पा जायेंगे।
ReplyDelete- लच्छन टेलर 'मिर्जापुरवाले'
***********
ये भी कभी देखा है हमने :-)
जय माता दी,
ReplyDeleteअच्छा लगा.
भाषा पर व्यक्तिगत शैली का भी असर पड़ता है..और फिर दरजी भैया से या पेंटर भैया से आप भाषाविद बनने की उतनी उम्मीद भी छोड़िये...लचीलापन होना ही चाहिए वरना अपनी हिंदी दरबारी भाषा बन जायेगी...और जनता जनार्दन को प्रयोग करने दीजिये ना..कौन कह रहा है कि इसे शब्दकोष में रखिये....
ReplyDeleteye koi badi baat nahin Raveesh ji, desh ke lagbhag har shahr men aisa hi ho rahaa hai, jahan tak rahi shuddh likhne kii baat to maharashtra men dekhiye HINDI ki kaise taang todi jaati hai.
ReplyDeleteEnglish dictionary adopts hindi words every year and hindi adopts english words unofficially in common public's dictionary and its most of the time changed from its original pronounciation.
ReplyDeleteहमारे यहाँ एक टेलर के बोर्ड पर लिखा है " शूट श्पेशलिस्ट "
ReplyDeleteचक्की वाले भी लिखता हैं यंहा आटा पीसा जाता है।
ReplyDeleteसमृद्धि के ये निशान हर क़दम पर मिलते हैं।
ReplyDeleteभाषाओं के हमेशा दो स्तर भी रहे हैं। बोल-चाल की और लिखत-पढ़त की।
यहां जो नमूना दिया है वह बोल-चाल की भाषा का लिखत-पढ़त रूप है जो शाहिद मास्टर के यहां और तमाम फुटपाथों, चालू काऊंटरों पर नजर आता है।
यह सिर्फ एक आयाम है, किसी चिन्ता की वजह नहीं।
बहुत बढ़िया रवीश भाई।
Aap kisi bhasa ko doosri bhasa ke shabdo ko lekar samridha nahi kar sakte. Yeh bolchal tak hee theek hai Nahi to aage chalkar yehi bhasa hinglish ya hingrezi ban jati hai.Bhasa ki udarta ke naam par ese chalte nahi diya ja sakta.
ReplyDeletenamaskar sir,
ReplyDeleteMain ye manta hu ke ye bhasa ka vikas to bilkul nahin hai, balki ye ek tarike ka parda hai jise hum log apni bhasa ki agyaanta ko chipane ke liye istemaal karte hai.
Har jagah englih ka bolballa hai. mere ye shabd bhi english main hi hai, prantu vicharo ko prakat karne ki bhasa meri abhi bhi hindi hi hai.
hum is tarah ke mishrit bhasa ka orayog tab karte hai jab hum apni hi mool bhasa se anibhigya hote hai.... aur aaj ke samaj ka paridrisya dekh kar dar lagta hai ki.. hume apni bhasa ka gyan kitna kam hai..
Jab hum 'gyan' ki baat karte hain to kya hamein yeh bhi kabhi-kabhi nahin sochna chahiye ki manav-janm ka prayojan kya hai? Kuchh hai bhi ya nahin? Ghar se office aur phir vapis - kya yahi arth hai? Kyun ham chahte hain ki ham tarakki karein? bhale hi sam, dand, bhed ka istemal kar! adi adi
ReplyDelete