दिल्ली में साठ लाख से अधिक गाड़ीवान हैं। इतने लोगों ने किसी न किसी किस्म की गाड़ी खरीदने का अपना सपना पूरा कर लिया है। कार और बाइक वाले लोगों की लंबी करातें रोज़ सड़क पर दिख रही है। शहर घरों,दफ्तरों और दुकानों के बाहर खड़ी बेतरतीब कारों और स्कूटरों से बेहूदा लगता है। नए समय में गाड़ीवानों ने नए किस्म का धीरज धर लिया है। गाड़ी खरीदी इस दलील के साथ कि कहीं आराम और जल्दी से पहुंचेंगे। लेकिन कार में बैठकर घंटों इंतज़ार एक खास किस्म का अर्बन धीरज पैदा कर रहा है। बैक मिरर में अपना ऊबड़-खाबड़ थोबड़ा देख कर और एफएम चैनलों में बकवास सुन कर भी लोग एफएम चैनलों को फोन करने की नादानी करते हैं। ट्रैफिक पत्रकार बन कर बताते हैं कि धौला कुआं में जाम है। औसत रफ्तार दस किमी प्रति घंटा है। दांत निपोरती एक बालिका और खे खे करता एक छोकरा बताने लगता है कि हे हे जी रास्ता बदल लो। नहीं बदल सको तो लो सुन लो ये गाना...ज़रा ज़रा किस मी किस मी...टच मी टच मी।
हम अपने समय के बेहूदा ज़ोन से रोज़ गुजरते हैं। डीएनडी वाले को चालीस रुपया रोज़ देते हैं। पांच मिनट बचाने के लिए। पार्किंग वाले को दस रुपये रोज़। अब पुलिस कमिश्नर ने कह दिया है कि लाखों रुपये खर्च कर वे साठ लाख से ज़्यादा गाड़ीवान वालों को खत लिखेंगे। उसमें दुकान का पता देंगे कि कहां कहां से वे गीयर लॉक और कार लॉक लगवा सकते हैं। दिल्ली में लोहे की रॉड का लॉक लगता है कार खरीद कर हम किसी भाड़े के सिपाही की तरह कच्चे पक्के हथियारों से लैस हो लिये हैं। आ जा तू..देख लूंगा इसी रॉड से। कारों की सुरक्षा एक बड़ा उद्योग है। हज़ारों करोड़ों का। कार खरीद कर बीमा कराओ। अब पुलिस कमिश्नर के मुताबिक गाड़ी की सुरक्षा का इंतज़ाम आप कर लोग।
भाई साहब फिर पी सी आर वैन पर लिख कर काहे घूमते हैं। आपके लिए हमेशा। जब हम अपना इंतज़ाम कर ही लेंगे तो जाइये न। आपकी क्या ज़रूरत है। इन्हीं के आंकड़े हैं कि सितंबर तक दिल्ली में हर दिन औसतन ३० से अधिक कार या बाइक चोरी होती रही है। वाह। हमारे सहयोगी के अपार्टमेंट में भाई लोग गए।उनकी कार के तीन चक्के निकाले और चक्कों की जगह कार को ईंटों पर खड़ा कर के चले गए। बगल की कार से भी एकाध टायर ले गए। यह लेख इसलिए लिख रहा हूं कि टायर लॉक की खोज में काम शुरू हो जाना चाहिए। सेंट्रल लॉक से काम नहीं चलेगा। अव्वल तो कई लोगों की जान चली गई है। कार जली तो दरवाज़ा ही नहीं खुला। एफएम चैनलों का कारोबार न पैदा होता अगर ट्रैफिक जाम न होता। रेडियो जॉकी ट्रैफिक समस्या की ही देन हैं। उनका हुनर निखरता ही इस बात से है कि आप ट्रैफिक जाम में फंस कर भयंकर पीड़ा से गुज़रते हैं और वो आपका टाइम पास कराने के लिए आ जाते हैं।
सुरक्षा चक्र एक धंधा चक्र है। आप असुरक्षित है, इसका अहसास कराने के लिए कमिश्नर की चिट्ठी आएगी तो डर तो जायेंगे ही। दुकान का पता होगा तो वहां भी जायेंगे। खूब माल खपेगा और बिकेगा। इससे कार लॉक बनाने वाली मझोले किस्म की कंपनियों का कारोबार बढ़ जाएगा। भारत से मंदी भग जाएगी।
सड़क पर चलने वालों के लिए एक और प्लांट खबर आई है। शोध हुआ है कि दिल्ली में मेट्रो के आने से हर दिन साठ हज़ार के करीब कारें सड़कों से गायब हो गईं हैं। जिस शहर में साठ लाख से अधिक गाड़ियां हों वहां पचास साठ हज़ार की न चलने से क्या फर्क पड़ेगा?पता किया जाना चाहिए कि दिल्ली में औसतन कितनी गाड़िया हर दिन सड़कों पर होती है। उस अनुपात में अगर मेट्रो साठ हज़ार गाड़ियों की ही छुट्टी कर पाया है तब तो यह नाकामी है। फिर यह भी देखना होगा कि मेट्रो में दस लाख से अधिक लोग चलने लगे हैं। ये कौन लोग हैं। बस वाले ही ज़्यादा चल रहे हैं या अपनी गाड़ियों को घर पार्क कर देने वाले। इसका अध्ययन करना चाहिए। वर्ना खबरों के मुताबिक जो शोध के नतीजे हैं उससे तो यही लगता है कि मेट्रो फेल हो गई है। लो फ्लोर बसें लाकर ज़्यादातर लोगों को खड़ा कर दिया है। खड़े होने की जगह ज़्यादा बना दी गई है और शीशा बड़ा कर दिया गया है ताकि भीड़ में दबे कुचले लोग एक खास किस्म का सौंदर्य बोध भी पैदा कर सके।
दोस्तों ट्रैफिक ने जीवन को बदल दिया है। रिश्तों को तोड़ दिया है। इसका कुछ करो। ये सिर्फ प्रदूषण और धरती का मामला नहीं हैं। दिल्ली वाला औसतन एक घंटा रोज़ आने जाने में लगा देता होगा। काम के घंटे बढ़ रहे हैं। जाम के घंटे बढ़ रहे हैं। ब्लॉगरों से अनुरोध है कि अगर उनके इलाके से मेट्रो गुज़र रही है तो वो इलाके की ट्रैफिक का अध्ययन करें और कुछ लिखें।
रोज़मर्रा की सच्चाइयों को बयां कर दिया आपने, रेडियो चैनल वालों पर तो गुस्सा आता है... चीख-पुकार मचाये हुए है... समय बचाने लिए लिए आपके-मेरे साथ-साथ ना जाने कितने लोग दूसरा रास्ता लेते हैं... मेट्रो ने २ साल पहले ही फेज़ - १ का लागत वसूल कर लिया... रश आवर में यह मुंबई की लोकल हो गयी है... मैं तो खुद को भीड़ के हवाले कर देता हूँ... खुद को ट्रेन में पाता हूँ...
ReplyDeleteजाने क्यों लोग अभी भी कार-पूलिंग को लेकर सचेत नहीं हैं....? सामायिक प्रासंगिक लेख....
ReplyDeletevery nice post. thanx plz visit my blog
ReplyDeletehttp://awazdohumko.blogspot.com/
प्रियदर्शन जी ने कही लिखा था .एक बारिश हो तो सारे चैनल गुहार मचाने लगते है .ट्रेफिक की बाद इन्तजामी .जाम...पर कोई इसके मूल कारणों के पीछे नहीं जाता .वो है शहर की प्लानिंग ....वो सही कहते है बॉम्बे पे पानी की निकासी सब बंद है....नाले कूडे से पाट दिये गये है .तो जरा सी बारिश तूफ़ान लाएगी ही......
ReplyDeleteखैर हमारे यहां तो ये आलम है की स्कूटर .मोटर साइकिल की ऍफ़ आई आर पोलिस वाले लिखने को तैयार नहीं होती .तफ्शीश की तो बाद की बात है ....यानी ऍफ़ आई आर लिखवाने के लिए भी सोर्स लगनी पड़ती है ....
वैसे गाड़ी चुराने से बचने के लिए हमारे ही एक पेशेंट ने हमे बताया था .देसी रोड पे देसी मोटा ताला .सबसे मजबूत है ...
साठ ......................लाख ? तकरीबन इतनी ही तो जनसँख्या है स्विट्जर्लैंड की.
ReplyDeleteसार्वजनिक परिवहन सुचारु नहीं है, बनाया भी नहीं जाता क्यों कि इस से धंधाचक्र रुकता है। जब धंधाचक्र के चक्कर में जाम रोजमर्रा की चीज हो जाए तो मेट्रो लाय़ी जाती है।
ReplyDeleteJogiyon ne gahrayi mein ja kar paayta ki jaisa bahari brahmand hai vaisa hi brahmand ka swaroop shrishti ki sarvashreshta rachna yani manav sharir ke bhitar bhi hai...car ke taale ke saman shareer ke bhitar bhi '8' bandh hain jo saare brahmand ki aathon dishaon ki soochna 8 binduon par dharan kiye hain...aur har ek bindu mein magar machha ke jabde saman tala laga hai, jise kewal Nadbindu Vishnu hi khol sakte hain aur mastishk tak pahuncha sakte hain!
ReplyDeleteबहुत जरुरी विषय पर आपने कलम चलाई है ........बधाई
ReplyDeleteट्रैफिकावली अच्छी लिखी है :)
ReplyDeleteRavishji,
ReplyDeleteJust a suggestion,FM Gold is a better option,they strictly do not broadcast 'touch me,kiss me" songs just the way your channel doesn't telecast 'bhut prets".They broadcast decent songs,at least I think so.
Regards,
Pragya
मैं नोएडा में रहता हूं....जब से रह रहा हूं, तब से देख रहा हूं, रजनीगंधा चौक जाम है....काहे कि मेट्रो का काम चल रहा है....जस का तस है वहां का निर्माण...पता नहीं, मेट्रो कहां से आएगी...जब थोड़ा बहुत काम होता दिखता है तो कहीं हादसे की खबर आ जाती है....फिर देखता हूं, काम रुक गया है वहां...आपका मेल आईडी होता तो एक तस्वीर भेजता यहीं की....एक मेट्रो का पिलर फिर से खोद कर बनाया जा रहा है....ताकि इस बार मज़बूत बने....मुझे तो मेट्रो से डर लगने लगा है....बस में तो कम से कम है कि सामने से मौत दिखेगी....मेट्रो में तो पता ही नहीं चलेगा एक्सीडेंट हवा में हुआ है कि ज़मीन पर......एक मोटी सी आकाशवाणी होगी, अगला स्टेशन कोई नहीं है क्योंकि आपके लिए ज़िंदगी के दरवाज़े दाई-बाईं हर ओर से बंद कर दिए गए हैं.....इधर सुना है कि मेट्रो का किराया भी बढ़ने वाला है...मतलब गांव बसा नहीं कि लुटेरे हाज़िर......अरे भाई, मेट्रो बना तो लो पहिले कि एडवांस में किराया वसूलोगे.....मिनिमम किराया सुनते हैं कि आठ रुपैया हो जाएगा...अट्टा(नोएडा के लोग वाकिफ होंगे) से रजनीगंधा या रजनीगंधा से गोलचक्कर पैदल आया जा सकता है, मगर मेट्रो में चढ़े तो आठ रुपया में पहुंचेंगे....वाह रे जमाना......मेट्रो दिल्ली से बिहार जाएगी तो कितना पइसा लेगी भाई....हमारे ज़िंदा रहते तो नहीं जा पाएगी....दो साल में नोएडा नहीं
ReplyDeleteआ सकी, कहीं और क्या जाएगी ससुरी.....
सर रहना गाजियाबाद में है और नौकरी दिल्ली में करनी हैं. इसलिए मैं तो यही नहीं समझ पा रहा हूँ की जब हर जगह हलात एक जैसे हैं तो किस ट्रैफिक व्यवस्ता का जिक्र किया जाए. गाजियाबाद में तो हलात एक दम बदतर हैं. दिल्ली में मिनट और घंटे का जाम लगता है जब की इस शहर में तो दिन भर लोग जाम में दिन काटते हैं.
ReplyDeleteनिखिल जी
ReplyDeleteवाकई मेट्रो से सुविधा तो हुई लेकिन जाम पर व्यापक असर नहीं दिख रहा है। आखिरी स्टेशन की आशंका में ही हम सब सफर पर निकलते हैं।
डॉ अनुराग, प्रियदर्शन की टिप्पणी तात्कालिक थी।
मीडिया शहर की प्लानिंग पर भी ज़ोर देता रहा है। ज़रूरी नहीं कि सारी बातें हर बार एक साथ ही की जाएं। मीडिया का मतलब टीवी ही नहीं होता। दिल्ली के हिंदी अंग्रेजी अखबारों में इसे लेकर खूब रिपोर्टिंग होती है।
ट्रैफिक जाम हमारी समस्या है। हम सब इसे लेकर डरते हैं। जानना चाहते हैं कि कहीं जाम तो नहीं लगा है। टीवी की दुविधा यही है कि वो कुछ भी करता है तो शोर की तरह दिखता है। हम आज भी टीवी को इस तरह देखते हैं जैसे घर में कोई हमलावर घुस आया हो।
उनकी आलोचना एक हिस्से तक सही है। तहलका में आई थी। लेकिन उस आलोचना की जड़ ये नहीं है कि प्लानिंग पर बहस नहीं होती। उनका संदर्भ ये था कि हम इसे लेकर बवाल मचाने लगते हैं।
SACHIN KUMAR
ReplyDeleteAAJ KI BRAKING KHABAR..
DELHI WALO SAWDHAN...YE ROOT BAND HAI...AAO US ROOT SE JAA SAKTE HAI...DHIRE CHALE---LEFT SE CHALE--CHALNA HI NAHI HAI...DELHI SARKAR KA FARMAN...OFFICE JANA HAI TO GHAR SE PAHLE NIKLE...COMMON WEALTH KI TAIYARIO KA JAYJA LENE TEAM AA RAHI...SO AAP IS ROOT PER NAHI CHAL SAKTE..YE COMMON WEALTH HO KISKE LIYE RAHA...DELHI KE LIYE,BHARAT KE LIYE YA KISI AUR KE LIYE....KHAIR COMMON WEALTH KI MEJBANI MILNA BADI BAAT HAI..YAKIN NAHI HOTA TO OBAMA KA CHERHA YAAD KAR LIJIYE...SHIKAGO KO OLMYPIC KI MEJBANI NAHI MIL SAKI..OBAMA KI SARI KOSHISO KE BAD BHI...KYA BHARAT KO KABHI OLMYPIC KI MEJBANI MILEGI? HUM TO COMMON WEALTH BHI KUDH KO GHASIT HUA PAA RAHE HAI. TRAFFI JAAM KA KOI VIKALP NAHI...AGAR KISI NE KAR DIYA HOTA TO NOBLE PRIZE NAHI MIL JATA....WAHI TOUCH ME-KISS ME SUNTE RAHIYE AUR EK-EK KADAM KHISAKTE RAHIYE...LEKIN CHAHE JO BHI KARNA HO KARIYE COMMON WEALTH JAROOR AAYOJIT KARWAIYE WARNA CHAND PER JIT HASIL KAR SAKTE HAI LEKIN CHANDI CHOWK KI JAAM PER CONTROL NAHI...SHARM AATI HAI MAGAR AAJ YE KAHNA HOGA...COMMON WEALTH NAHI HUA TO HUM KYA KARENGA...HO GAYA TAB TO KOI BAAT HI NAHI...KUCH DIN PEHLE EK KHABAR DEKHI THI NDTV PER....SAHAR ME JAAM LAGI CHAND KE PAAR CHALO.....BUS EK YAHI UMMID....
अर्बन प्लैनिंग के अलावा दूसरी बड़ी दिक़्क़त है- बेहतर पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का अभाव। अगर मैं सीपी से द्वारका मेट्रो से मज़े में पहुंच सकता हूं तो भैया, मुझे किसी पागल कुत्ते ने थोड़े ही काटा है कि मैं अपनी गाड़ी निकालूं। आंकड़ों की मानें तो जो करीब 7 लाख लोग मेट्रो में सफ़र कर रहे हैं, उनमें हर तबके के लोग हैं, कार वाले भी- इसे कहते हैं असल लोकतंत्र। आप कभी रोहिणी या द्वारका की मेट्रो पार्किंग पर नज़र डालेंगे तो तस्वीर साफ़ दिखेगी।
ReplyDeleteऔर मेट्रो तो बेचारी पिछले कुछ वक़्त से हो रहे हादसों की वजह से बदनाम हो गई है। हमें इस पर ज़्यादा हायतौबा मचाने की बजाय इसके सारे फ़ेज़ पूरे होने के बाद के आराम के बारे में सोचना चाहिए।
IN dinon shimla mein hooon
ReplyDeleteyahan adhyayan karta hoon
aakar detail mein likhta hoooon...
रवीश जी,
ReplyDeleteजाम की समस्या सिर्फ़ दिल्ली में ही नहीं ---अब तो हर शहर में होती जा रही है।लखनऊ में भी हम रोज ही जाम से जूझते हैं। छः सात किलोमीटर की दूरी पर मेरा आफ़िस है ---पर आफ़िस टाइम पर लगता है यह दूरी पचीस कीलोमीटर हो गयी----स्कूटर का क्लच दबाये दबाये हाथ जवाब देने लगते हैं।
दिल्ली में भी कई बार इस जाम में फ़स चुका हूं।इस समस्या पर तो सभी को सोचना चाहिये। आपने काफ़ी सामयिक विषय पर लिखा है।
हेमन्त कुमार
रवीश जी लिखने में तो आपका कोई जवाब नहीं है पर इस प्रासंगिक लेख के लिए आपको बधाई. दिनेशराय जी ने बिलकुल ही सही लिखा है की सार्वजनिक परिवहन सुचारु नहीं है, बनाया भी नहीं जाता क्यों कि इस से धंधाचक्र रुकता है। मै हिंदुस्तान में आपके द्वारा लिखी गयी ब्लॉग वार्ता का नियमित पाठक हूँ.
ReplyDeleteइसका केवल एक ही हल है सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाना ।
ReplyDeleteTarakki to ho hi rahi hai - kuchh do ek varsh pehle NOIDA stith karyalaya pahunchne mein meri ladki ko apne ghar se, dilli se, aadha (1/2) ghanta lagta tha aur ab ded (1 1/2) ghanta (yadi baarish na ho)!
ReplyDeleteतो आप ये कहना चाह रहे हैं मै गाड़ी ही न खरीदूं, रवीश जी गाड़ी में ही तो हमें अर्बन धीरज आता है आपने ही लिखा है। तो क्या मुझे हक नहीं है कार लेकर अर्बन धीरज धरने का। कार पूलिंग का आइडिया काम करेगा, या फिर ऑफिसवाले कैब क्यों नहीं करवाते यार,
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