मैथिल हैंडसम लड़का,बैंक,पिता अधिकारी,हेतु सुशिक्षित बधू चाहिए। स्मार्ट ब्राह्मण लड़का,आईआईटी,हेतु सुंदर प्रोफे.,नन प्रोफे.वधू चाहिए। श्रीवास्तव,मंगला,एमबीए,पिता राजपत्रित अधिकारी,हेतु लड़की लंबी,गोरी,सुन्दर और सुशिक्षित चाहिए। अम्बष्ट स्मार्ट बिहार सरकार में कार्यरत लड़का हेतु घरेलु लम्बी सुन्दर वधू चाहिए। अतिसुंदर नवाज़ी शेख लड़की हेतु आईटी, सरकारी अफसर,वर चाहिए। अतिसुंदर भूमिहार लड़की बीटेक एमबीए हेतु बीटेक वर चाहिए। कुर्मी अतिसुंदर दुधिया गोरी कॉन्वेटेड ग्रेजुएट हेतु वेलसेटल्ड वर चाहिए।
अख़बारों में हर रविवार को आने वाले शादी के विज्ञापनों का कई तरह से पाठ किया जाता रहा है। इन विज्ञापनों की भाषा बदल रही है। इनकी हिंदी काफी खोजी किस्म की है। लड़का और लड़की की खूबियों के बीच एक किस्म की प्रतियोगिता मची है। इन्हीं दावेदारियों की अभिव्यक्ति में समाज का चेहरा दिखने लगता है।
इन विज्ञापनों के लड़के हैंडसम और स्मार्ट हैं। तो लड़कियां गोरी,सुन्दर और अतिसुंदर दूधिया गोरी हैं। सुन्दर लड़की और अतिसुन्दर लड़की में फर्क नज़र आता है। बात लंबाई और रंग से आगे बढ़ चुकी है। लड़की अपनी खूबी बताने के साथ साथ पसंद भी बता रही है। जैसे अति सुंदर भूमिहार लड़की खुद भी बीटेक और एमबीए है और उसे लड़का भी इसे प्रोफेशन का चाहिए। साफ है इन विज्ञापनों से झलकता है कि मां बाप अपनी बेटी की पसंद को महत्व दे रहे हैं। जैसे एक विज्ञापन में कहा गया है कि अति सुन्दर राजपूत लड़की गोरी हेतु आईआटी या एमबीए वर चाहिए।
सांवले रंग की कोई कीमत नहीं है। अतिसुन्दर होने की शर्त है गोरी होना। इसलिए अतिसुन्दर लड़कियों के साथ गोरी है यह भी लिखा जाता है। कहीं कोई यह न समझ ले कि लड़की अतिसुन्दर तो है मगर सांवली तो नहीं। रंग को लेकर हमारी सोच साफ झलकती है। गोरी बधू लाने की होड़ मची है।
ऐसे में लड़के खुद को हैंडसम और स्मार्ट कह कर दूसरे लड़कों से अलग कर रहे हैं। क्योंकि कुर्मी एमबीए लड़की अतिसुन्दर और गोरी है। उसे स्मार्ट वर चाहिए। अब लगता है कि शादियां उन्हीं के बीच हो रही हैं जो नौकरी के बाद अतिसुन्दर और स्मार्ट होने की कसौटी पर खरे उतरते हैं। अतिसुन्दर होने की दावेदारी और पाने की ख्वाहिश हर जाति तबके में हैं। बढ़ई अतिसुन्दर बिहार में कार्यरत हेतु वर चाहिए। अतिसुन्दर फूलमाली लड़की हेतु एमबीए वर चाहिए।
लड़कों के विज्ञापन में एकलौता पर भी ज़ोर है। इकलौते बेटे का बाप अलग तेवर में होता है। सारी संपत्ति एक ही आदमी को ट्रांसफर होगी इसलिए उसका भाव ज़्यादा होता है। अब इन विज्ञापनों में ज़्यादातर युवक स्मार्ट हैं। लेकिन बात आगे बढ़ चुकी है। सिन्हा,अमेरिका में कार्यरत स्मार्ट,स्लीम युवक हेतु सुंदर,गोरी,शिक्षित,स्लीम वधू चाहिए। यानी अतिंसुन्दर,हैंडसम के साथ अब स्लीम होना भी नई शर्त है।
इन विज्ञापनों में नए नए शब्द जगह बना रहे हैं। वेलसेटल्ड,एजुकेटेड,प्रोफेशन का संक्षिप्त रूप प्रोफे,नन प्रोफे,कान्यकुब्ज की जगह का.कु और इंजीनियर की जगह इंजी.आदि का इस्तमाल हो रहा है। लड़के या लड़की के बाप के पास अपना मकान है, इसका भी ज़िक्र है। कमाई के अंक भी बताये जा रहे हैं। जैसे- चमार लड़का,एमए,अपना व्यवसाय,आय ५ अंकों में पिता अधिकारी रिर्टा.(रिटायर्ड का संक्षिप्त रूप)हेतु घरेलु सुन्दर लड़की चाहिए। स्थान का भी ज़िक्र है। स्वर्णकार अयोध्यावासी वर के लिए ग्रेजुएट गोरी स्लिम एवं ऊंचाई ५ फीट ५ ईंच स्वजातीय वधु चाहिए।
विज्ञापनों के व्याकरण बदल रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता के लिंग विशेशज्ञों ने द्वारा और तथा को खत्म करने के अध्यादेश कब से जारी किये हुए हैं। लेकिन इन विज्ञापनों में हेतु मौजूद है। हेतू और हेतु दोनों रूपों में। एक गलत है और एक सही। लेकिन अर्थ एक है। वधू और वधु दोनों तरह से लिखा जाता है।
जाति बंधन से मुक्त और दहेज रहित विवाह के प्रार्थी भी नज़र आते हैं। बहुत लोग उप जातियों के बंधनों को भी तोड़ रहे हैं। सभी जैन अग्रवाल मान्य तो कभी सुन्नी लड़के के विज्ञापन में लिखा होता है कि सभी मुस्लिम मान्य। दहेज नहीं और डिमांड नहीं जैसी अभिव्यक्तियां नज़र आती हैं। सुशील और संस्कारी जैसे शब्द हैं लेकिन कम हैं।
पूरे विज्ञापनों को देखिये तो सांवले,काले,कम सुंदर,चश्मेवालों,मोटे,छोटे आदि के लिए कोई जगह नहीं है। शादी के मामले में हम रंगभेदी हैं। समझ नहीं आता कि अतिसुन्दर वाली लड़की के नीचे जो एक और कायस्थ लड़की का विज्ञापन है लेकिन उसे गोरी और अतिसुन्दर नहीं लिखा है। तो क्या कोई उस परिवार से संपर्क नहीं करेगा।
शादियों को लेकर हम हमेशा से हिंसक रहे हैं। गोरी लड़की होती है तो मुहंदिखाई होती है। कई बार यह अफवाह भी सुनी है कि लड़की अच्छी नहीं है कि इसीलिए फलां बाबू ने रिसेप्शन नहीं किया। मुहं दिखाई का मतलब ही है अपनी रंगभेदी इच्छाओं का इनाम लड़की को देना। बाप रे। लड़कियों पर क्या गुज़रती होगी। औरतों की ठेलमठाली। सब घूंघट उठा कर देख रही हैं कि अच्छी है या नहीं। जहां अब मंच पर रिसेप्शन होता है वहां देखने का नज़रियां थोड़ा स्मार्ट और स्लिम होता है। इसीलिए इन विज्ञापनों को फाड़ कर फेंकिये और भाग कर शादी कीजिए। अपनी पसंद की लड़की और लड़के से। न कि गोरी, लंबे और स्लिम आदि शर्तों के हिसाब से। मूड खराब हो गया इसे पढ़कर।
( सोर्स- हिंदुस्तान अखबार में छपे विज्ञापन)
रवीश जी, मैं अक्सर सोचता हूँ कि ये गोरा बनाने वाली क्रीम की बिक्री सबसे ज्यादा अफ्रीका में क्यों नहीं होती!
ReplyDeleteऔर आपने कभी सोचा है कि जिन विज्ञापनों में 'दहेज़-जाति बंधन नहीं' ऐसा लिखा रहता है उनके बारे में लोग क्या सोचते हैं? "अरे ज़रूर कोई विकलांग होगा/होगी"
समाज को इतने गौर से देखने और उसपर सुन्दर लेख लिखने के लिए बधाई. http://parshuram27.blogspot.com
ReplyDeleteयह कहां का अखबार पढ़ लिया आपने ? अमेरिका का या आस्टेªलिया का होगा ! वहीं है रेसिज़्म। देखा नहीं राष्ट्रपति ओबामा तक की शादी गोरी लड़की से नहीं हो पायी। हमारे यहां तो आजकल ऐक्सट्रीमली सैक्सी लड़की और ‘बाॅय विद सिक्स पैक एब्स’ वाले मैट्रीमोनियल छप रहे हैं। हम सरवअधिक परगतिशील हैं। का योरप का ‘‘दि हिंदुस्तान बुढ़भक टाइम्स’’ तो नहीं उठा लाए। चलिए, फेंकिए इसे। खाली-पीली मज़ाक करते हैं।
ReplyDeleteDahej nahin lene ki jor jor se ghoshana karne walo ki ek alag hi samasya hai. Har week drawing room me ladkiyon ki pared si lagi rahti hai. The best (kyonko oonko lagta hai ki wo pahle hain jo bina dahej ki shadi kar rahe hain) ke chakkar me samay bitata jaata hai. Jab do-teen saal beet jaata hai aur lagta hai ki eesase bhi best mil sakta hai tab wo jamin par aate hain.
ReplyDeleteबहुत सही विश्लेषण....
ReplyDeleteऔर निशांत मिश्र जी
सच कहा आपने...
जो लोग cast no bar या इस तरह की बातें लिखते हैं तो उनके विषय में लोग वाकई ऐसे ही ख्याल रखते हैं।
गोरे रंग के तो गुलाम हैं भाई हम लोग… मायावती जरा आगे बढ़ीं तो पेट दुखने लगा, मीरा कुमार की एकमात्र योग्यता है बाबू जगजीवनराम की बेटी होना, और बाकी के सत्ता-मलाई चाटने वाले राजकुमार-राजकुमारियाँ सब गोरे हैं इसलिये उन्हें कोई आँच नहीं आने वाली… :) :)
ReplyDeleteजब मनुष्य ने शिकारी अवस्था और आवश्यक खाद्य संग्रहण से आगे बढ़ कर पशुपालन सीख लिया और संपत्ति एकत्र होने लगी तो संपत्ति पर किस का अधिकार रहे? का प्रश्न उत्पन्न हुआ। पुरुष अपनी ही संतान को संपत्ति देना चाहता था। लेकिन यह कैसे पता लगे कि कौन किस की संतान है? इस प्रश्न का हल निकला विवाह संस्था के जन्म से।
ReplyDeleteइस तरह व्यक्तिगत संपत्ति विवाह के जन्म से ही जुड़ी है। बाद में स्त्री ने भी संपत्ति का ही रूप ले लिया। जब तक संपत्ति व्यक्तिगत बनी रहेगी ये सब विकृतियाँ मानव समाज में मौजूद रहेंगी ही।
अँगरेज़ इसे जींस (genes) का कमाल कहेंगे और 'हिन्दू' इसे शिव/ राम/ अर्जुन (या पांडवों की) विभिन्न काल में अति सुंदर पत्नी, पार्वती/ सीता/ द्रौपदी, क्रमशः, की हिन्दू मानस पटल पर झलक...काले तो भारत में हाल फिलहाल अफ्रीका से आये...
ReplyDeleteकितनी भी क्रीम लगालो फायदा तो क्रीम बनाने वाले को ही होगा - लगाने वाले को नहीं :)
यहां पर फ़ायदा क्रीम से ज़्यादा ‘चूना लगाने’ वाले को होता है। जो क्रीम बेचकर चूना लगाता है। और ‘डाउरी नो बार’ वाले को और कुछ समझें न समझें ‘मानसिक विकलांग’ या ‘ठलुआ’ तो समझा ही जाता है। और वो गिरते-पड़ते, आधा-अधूरा सफल हो भी जाए तो क्रेडिट लेने को तरह-तरह के संत-महंत रातों-रात उग आतें हैं।
ReplyDeleteकाले कहां से आए और गोरे कहां से आए इस बारे में ऐंथ्रोपॉलिजी में पीएचडी कर रहे मेरे एक मित्र से मैनें बात कि तो उसनें बताया कि काले इस देश के हैं और गोरे बाहर से आए हैं...काले गोरे का भेद तो भारतीयों के मन में बुरी तरह बसा हुआ है।
ReplyDeleteजाति को भी रंग के आधार पर देखा जाता है...दलित है तो काला होना अनिवार्यता सी बन जाती है। कोई लड़का दलित हो और रंग गोरा हो तो जवाब आता है, यार तुम लगते नहीं हो दलित!
अश्वेत शब्द पर आपकी पोस्ट पहले पढ़ चूका हूँ.सच है सौन्दर्य के भारतीय पैमाने गोरापन को महिमा प्रदान करते है.शायद ये सिर्फ एक उत्तर भारतीय सच हो.
ReplyDeleteयहाँ राजस्थान में सामूहिक विवाह की परंपरा रही है,मैथिल ब्राहमणों में भी ऐसा कोई मेला लगता था जिसमे योग्य वर वधु की match-making जैसा कुछ होता था. क्या इन संस्थाओं का अब अस्तित्व नहीं है,या अब इनकी उपयोगिता नहीं रही?
हंस में एक कहानी छपी थी 'बुजरी' (अवधी / भोजपुरी में यह फीमेल सेक्सुएलिटी के प्रति एक गाली है) यहां काला कलूटा IAS अफसर अपनी गोरी चिट्टी मेम को लेकर शहर में रहता है और गाँव में सांवली सी पहली पत्नी को यूँ ही रख छोडता है। बारह साल बाद अपनी पहली पत्नी से मिलने गाँव लौटता है।
ReplyDeleteरात में पसीने से तर बतर अपनी सांवली पत्नी से संबंध बनाते समय उस अफसर को अपनी पत्नी से एक प्रकार की दुर्गंध सी आती है। उसकी IAS अफसरी ने उसे इतना बदल दिया था कि खुद का काला रंग भूलकर पत्नी को दुत्कार बैठा।
इस दिलचस्प कहानी को यहां सफेद घर ब्लॉग पर पढा जा सकता है -
लिंक है -
http://www.safedghar.blogspot.com/2009/07/blog-post_19.html
जब पढे लिखे काले कलूटे IAS अफसर को अपनी पत्नी गंधाती लग सकती है तो बाकी लोगों का कहना ही क्या ?
समाज में बदलाव तो हो रहा है पर वो बदलाव किस दिशा में और किस स्तर पर हो रहा है यह भी विचारणीय है।
karine se uthaya hai sawal
ReplyDeletesukriya
भइया हम कह रहे हैं कि हम आधुनिक हो गये हैं क्या सिर्फ नंगई देखने दिखाने के लिए?
ReplyDeleteइस तरह के विज्ञापन तो हमें सदियो पीछे की याद दिलाते हैं। क्या आपको नहीं दिलाते?
"पूरे विज्ञापनों को देखिये तो सांवले,काले,कम सुंदर,चश्मेवालों,मोटे,छोटे आदि के लिए कोई जगह नहीं है। शादी के मामले में हम रंगभेदी हैं"
ReplyDeleteबिल्कुल सही साहब...
सावली सलोनी अब किसी को नहीं चाहिए...सबको दुधिया रंग ही भा रहा है।
लड़कियों का भी उत्पात आसमान पर है...अब हर कोई जीम में पसीना तो नहीं बहा सकता..।।
मूड तो मेरा भी ख़राब हो गया, रवीश जी ! सच इन बातों पर हम ध्यान क्यूँ नही देते .....मानसिक गुलामी कहाँ तक ले जायेगी ?
ReplyDeleteSACHIN KUMAR
ReplyDeleteएक वक्त तब कहा जाता था जोड़िया स्वर्ग में बनती है. अब तो क्रीम बेचने वाले बनाते है...तो विज्ञापनों के माध्यम से भी जोड़िया बनती है...कभी फोटोग्राफर भी बनाते थे...शानदार तस्वीरें निकालकर...पंडित जी भी पत्रा देखकर ग्रह-लगन और पता नहीं क्या-क्या मिलान करते थे...आज इंटरनेट से भी शादियां हो रही है...इतने माध्यम होने के बावजूद आज पहले से ज्यादा शादियां टूट रही है....मनचाहा दहेज ना मिलने पर ज़िंदा जलाए जाने की भी घटनाएं होती है..सात फेरे की कहानी टीवी पर भी चली आई है...राखी का स्वंयवर को हिट है ही...अब ये दूसरी बात है राखी को कोई पसंद भी आएगा या नहीं...लोग एसएमएस से राय भेज रहे हां राखी सच में शादी करेगी कोई कहता है नहीं सब प्रचार का तरीका है वगैरह-वगैरह। इतना तो कहा ही जा सकता है आजकल की जोड़ियां स्वर्ग में तो नहीं ही बनती...
नवीन कुमार 'रणवीर' जी,
ReplyDeleteमैं 'हिन्दू' होने के कारण जान पाया कि आरंभ में शिव अर्धनारीश्वर थे और उनका निवास स्थान काशी यानि वाराणसी में था...वेदांती के अनुसार वे आधे-अधूरे नहीं थे न आज भी हैं - सम्पूर्ण...ये तो उनकी 'माया' का प्रभाव है कि द्वैतवाद या अनंत वाद के द्बारा वे, भूतनाथ, सब आत्माओं के माध्यम से अपना इतिहास दोहरा रहे हैं...
पृथ्वी यानि 'गंगाधर' शिव पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो किसी भी क्षण मन की आँख से देखने पर उनका आधा चेहरा अँधेरे में काला या अश्वेत दीखता है और जहाँ प्रकाश रहता है वो गोरा या श्वेत...
धरती से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई यह आधुनिक वैज्ञानिक भी कहते हैं जबकि इसी को प्राचीन किन्तु अत्यधिक ज्ञानी 'हिन्दू' ने 'इंदु' यानि चंद्रमा को पार्वती, शिव की दूसरी पत्नी को सती का ही रूप बताया...और सती उनकी प्रथम अर्धांगिनी थी जो अपने पिता (निराकार ब्रह्म) द्वारा आयोजित 'हवंन कुंड' यानि ज्वाला-मुखी की अग्नि में सती हो गयीं...
अंग्रेजी में, उपरोक्त समान, इव का आदम के ही अस्थि-पिंजर से उत्पन्न होना दर्शाया जाता है...और आधुनिक, पढ़े-लिखे हिन्दू को भटकाने के लिए रामसेतु को Adam's Bridge कहा जाता है :) और बुद्धिमान मानव को अफ्रीका से आना और सारे संसार पर छा जाना दर्शाया जाता है :)
itni shartey baap re baaap. maja aya padhkar
ReplyDeleteबहुत समय पहले एक विज्ञापन देखा था जिसमें जिक्र था कि फलाँ-फलाँ विशेषताओं वाली लड़की के लिए 'ब्रह्मचारी लड़का' चाहिए। चिंता हो गई कि अब ऐसा लड़का कहाँ से लाएँ। विज्ञापन में नाम-पता नहीं था, लेकिन अभी भी मन करता है, कि पता लगाया जाए उस लड़की को ब्रह्मचारी मिला कि नहीं?
ReplyDelete- आनंद
रवीश जी। बात तो आपने सही कही है।
ReplyDeleteकुछ साल पहले तक हमारे आसपास ये माना जाता था कि जिन लोगों की शादी कई प्रयास के बावजूद सामाजिक संपर्कों से नहीं हो पातीं वे ही विज्ञापन के माध्यम से कथित संबंधों की तलाश करते हैं।
परंतु आजकल समय की समस्या का समाधान और सामर्थ्य के दिखावे के लिए सब चलता है।
इन विज्ञापनों में छपनेवाली सबसे अहम बात आपने छोड़ दी। हरेक को कॉन्वेन्ट से पढ़-लिखी लड़की या लड़का चाहिए रहता है। कई बार मेरे पिता ने इन विज्ञापनों को पढ़कर कहा है कि- दीप्ति बेटा तुम्हारा क्या होगा आप तो सरस्वती शिशु मंदिर से पढ़े हुए हो।
ReplyDeleteसुशीला पुरी जी ने किसी मानसिक गुलामी का ज़िक्र किया है। मैं उनसे विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूंगा कि यहां उनका आशय किस मानसिक गुलामी से है क्यों कि दहेज और रंग भेद दोनों ही विदेश से नहीं आए, हमारे अपने समाज की देन हैं !
ReplyDeleteRavish Sir,,, Kya Chhot maari hai aapne..... Ab kahun k aapke blog ka zikr intellectuals me itna kyun hota hai,,,, is article k lye saadhuvaad..
ReplyDeleteRavish Sir,,, Kya Chhot maari hai aapne..... Ab kahun k aapke blog ka zikr intellectuals me itna kyun hota hai,,,, is article k lye saadhuvaad..
ReplyDeleteपढ़कर दिव्य आनंद आया...यही रवीशत्व है। साधुवाद...
ReplyDeleteपंचतंत्र की कहानियों के माध्यम से, प्राचीन काल में, 'निति शास्त्र' को सरल बनाने के प्रयास से 'आम आदमी' भी अंदाज़ लगा सकता है प्राचीन हिन्दुओं की मानसिकता का, या ये कहिये कि उनके प्रकृति को भली प्रकार गहराई में जा कर समझने को प्राथमिकता देने को...उदहारणतया एक कहानी में प्रसंग आता है जिसमें माँ यशोदा को बाल-कृष्ण के मुंह में संपूर्ण ब्रह्माण्ड देखना दर्शाया जाता है...'आम आदमी', आम तौर पर, आगे बढ़ जाता है और कहानियों का सतही आनंद उठाता है...किन्तु यदि कोई गीता भी पढ़ ले और उसमें पाए कृष्ण (श्याम अथवा काला) को कहते हुए कि 'आम आदमी उन्हें माया से अपने भीतर देखते हैं जब कि वे किसी के भीतर नहीं है वरन सारी प्रकृति उन ही के भीतर समाई है', तो जान पायेगा कि असली कृष्ण कौन हैं? वे 'दो टांग वाला' प्राणी नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड ही है जो एक बड़े अन्धकार मय काले शून्य में समाया हुआ है :)
ReplyDeleteगोरे, या दूधिया, रंग वाले तो अनंत छोटे-बड़े सितारे हैं (जो जोडों में पाए जाते हैं, किन्तु हमारे सूर्य का जोडीदार का पता नहीं चला है)... जिनमें से हमारा सूर्य एक 'मामूली' सितारा हैं, किन्तु पृथ्वी पर स्थित हम प्राणियों के लिए यही सबसे महत्वपूर्ण है...गीता में कृष्ण इस कारण धनुर्धर अर्जुन से (जिनके धनुष से तीर हर दिशा में सूर्य की किरणों समान निकलते थे) कहते हैं कि वो अर्जुन के मित्र आरंभिक काल से हैं, किन्तु केवल उन्हें ही इसका ज्ञान है और वे अर्जुन का सारा इतिहास जानते हैं जब कि अर्जुन को उसका ज्ञान नहीं था : )
मेरे 'प्राचीन भारत' का ज्ञान महान :)
क्या करें सर सबको अंग्रेजों की तरह गोरा होन है असल में इतने साल राज किया है तो कुछ तो असर होगा
ReplyDeleteप्राचीन भारत की तुलना में, 'माया' के कारण, 'आधुनिक भारत' किन्तु आकाश के तारों को छोड़ दो टांगों वाले 'फ़िल्मी सितारों' से आगे नहीं पढ़/ बढ़ पाता इस कारण 'सितारों के साबुन' से नहाता है या उनकी भांती क्रीम ही मलता रह जाता है, भले ही गंगा-जमुना सूख ही क्यूं न जाए, या गंगा उलटी ही क्यूं न बहने लग जाए, अथवा पृथ्वी, सागर-जल में ही, जलमग्न क्यूं न हो जाए :)
ReplyDeleteजय माता की :)
इन विज्ञापनों के लड़के हैंडसम और स्मार्ट हैं। तो लड़कियां गोरी,सुन्दर और अतिसुंदर दूधिया गोरी हैं।
ReplyDeleteगोल-माल है सब गोल-माल है..
creative post
ReplyDeleteRavish Bhai :) Badhiya Likhe hain ! Lekin thoda "Mirch-Masala
ReplyDeletekam tha so GARAM GARAM achhchha laga !
हमारा भारत महान! लेकिन 'भारत' सब भारतीयों का अपना अलग अलग है. कुछ एक का वो सिमट के 'पटना' या 'बिहार'/ 'मुंबई' या 'महाराष्ट्र' आदि तक ही रह जाता है तो किसी-किसी का 'महाभारत', अर्थात संपूर्ण संसार, यानि 'ज्ञानी हिन्दुओं' के शिव् जिनके 'माथे' में चंद्रमा है और जिनकी 'जटाओं' में गंगा बहती है और जो गोरी पार्वती के साथ विवाह के पश्चात कैलाश पर्वत में, हिमालय में, अपना स्थायी निवास स्थान बना रह रहे हैं :) केवल पहुंचे हुवे योगी ही उन्हें मन की आँख से देख पाए हैं, क्यूंकि बाहरी आँखें असमर्थ समझी गयी हैं...
ReplyDeleteघोर कलियुग में हम मानव/ दानव केवल 'आसुरी आनंद' ही उठा सकते हैं या दुखी रह सकते हैं संपूर्ण ज्ञान उपलब्ध न कर पाने के कारण :)
रवीश जी हिन्दुस्तान मे मेरे ब्लोग की चर्चा के लिये आपको धन्यवाद देने हेतु मै आपका इ मेल पता ढूंढ रहा था लेकिन आपकी प्रोफाइल मे नही मिला अत: कस्बे की इसी सडक से गुजरते हुए आपकी भाषा ,शैली और विचारों के लिये आपको सलाम कर रहा हूँ . " विज्ञापनो में बच्चे " शीर्षक से मेरी एक कविता नया ज्ञानोदय में प्रकाशित है . आपका यह लेख इस बाज़ारवाद के समय मे एक नई द्रष्टि प्रदान करता है .धन्यवाद शरद कोकास
ReplyDeleteरवीशजी
ReplyDeleteये आपकी जो पोस्ट है और जिस तरह से वैवाहिक रिश्तों के लिए व्याकरण की उसमें व्याख्या की गई है। सुंदर है सामयिक भी। लेकिन, मैं तो दूसरी तरह से देख रहा हूं मेरी शादी अखबार में विज्ञापन देकर नहीं हुई। पूरी उम्मीद है आपकी भी नहीं हुई होगी। दरअसल ये अखबारी विज्ञापनों के जरिए शादी-बच्चे बनाते-बढ़ाते जो पूरी जमात पैदा हो रही है। उसने समस्या बढ़ाई ही है। अब बताइए ना घर परिवार वाले या फिर प्रेम विवाह करने वाले तो, देखकर सांवली-थोड़ी मोटी-छोटी लड़की भी ला सकते हैं। इसी तरह से कम सुदर्शन लड़का भी पसंद कर ले। लेकिन, भला विज्ञापन में कोई ये क्यों लिखने लगा कि उसे सांवली, गैर सुंदर, छोटी, मोटी लड़की या कम कमाने वाला, काला लड़का चाहिए।
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ReplyDeleteहर्षवर्धन जी,
ReplyDeleteये बाज़ार में रखने की यूएसपी है।
दूधिया गोरी लड़की, 5 अंको में वेतन वाला लड़का.. वाह क्या जमाना है.. बच्चों की शादियां भी ऐसे करते हैं, जैसे दुकान पर सौदा बेच रहे हों।
ReplyDeleteबहुत सही मुद्दा उठाया है आपने...
शायद इस संसार में कुछ नया है ही नहीं: पहले भी ज्ञानी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह संसार एक झूठा बाज़ार है जहाँ केवल झूठ ही बिकता है...
ReplyDeleteयोगी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही केवल निराकार ब्रह्म के मन में उभरते विचारों की, स्वप्न सामान, एक झलक मात्र ही बता गए...और इसका आनंद उठाने की सलाह दे गए :)
रवीशजी बात बिलकुल पते की है... लड़की गोरी ही चाहिएं लेकिन लड़का काला भी बिक जाता है...तो फिर काली लड़कियां कहां जाए... क्या रंगों के आगे हम योग्यता को दरकिनार कर देते है लेकिन मेरे विचार में हमें रंगों से ज्यादा तवज्जो गुनों को देनी चाहिए...क्यों कि ये पूरी जिंदगी का सवाल होता है...
ReplyDeleteये जेसी भाई आप मेरे कमेंट पर कुछ बोल रहे हैं लेकिन क्या कहना चाह रहे हैं,ये शायद समझ नहीं पा रहा हूं,आप दर्शन बघार रहे हैं,भोलेनाथ काशी में रहते थे...यहां जन्म लेनें वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है, ये सब वाराणसी के लोग बाहर वालों को सुनाते हैं,और पूजा-पाठ करके पैसे ऐंठते हैं। मुझे क्यों बताना चाहते हैं। और जो मैनें लिखा था केवल उसका जवाब दे तो बेहतर होगा,वो भी तार्किक, दार्शनिक नहीं!
ReplyDeleteनवीन कुमार 'रणवीर' जी, में क्षमा प्रार्थी हूँ यदि आपको ऐसा प्रतीत हुआ कि मैंने कुछ आपके विरुद्ध कहा... यह तो भारत में सदैव मान्य रहा है कि एक ही विषय पर अनंत दृष्टिकोण संभव हैं, जिस कारण विरोधाभास प्रतीत होना आवश्यक है...इसी लिए मानव समाज हमेशा किसी भी छोटे से छोटे विषय पर भी तीन भाग में बंट जाता है: पक्ष, विपक्ष और 'मध्य मार्गी'...
ReplyDeleteमैंने पहले यह कहा था कि काले अफ्रीका से आये, और आपने किसी मित्र का उदाहरण दे कहा कि काले भारत के ही हैं तभी मैंने हिन्दू मान्यता के सन्दर्भ में शिव(-पार्वती) का नाम लिया...
जहाँ तक तर्क का सम्बन्ध है, मैं बहुत अनुग्रहित रहूँगा यदि कोई बता दे कि सिनेमा तो अभी-अभी बना फिर स्वप्न कैसे दिखाई पड़ते हैं - मानव ही नहीं अपितु जानवरों को भी अनादि काल से? क्या यह संकेत नहीं किसी अदृस्य सर्वगुण सम्पन्न शक्ति के मानव को मूर्ख बनाने की क्षमता रखने का, जैसे पहले एक पढ़ा-लिखा शहरी किसी गाँव वाले को बनाता था, और आज गाँव वाला भी होशियार हो शहर वाले के भी कान काटने की क्षमता रखता है...
हरी अनंत...शब्दों में जैसे केले और आम की मिठास का अंतर बता पाना नामुमकिन है, उसी प्रकार तर्क से भगवान् को समझना भी नामुमकिन है, नहीं तो तुलसीदास भी न कह गए होते कि जाकी रही भावना जैसे प्रभु मूरत तिन देखि तैसी...
में फिर से आपसे क्षमा याचना करता हूँ.
लड़का चाहे जितना भी काला क्यों न हो. उसे लड़की गोरी ही चाहिए. इसलिए विज्ञापन में लड़का दूध सा उजला है नहीं लिखा होता.
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