लालू यादव को इस चुनाव में बोलते सुन रहा हूं। अब न तो वे हंसाते हुए लग रहे हैं न ही गुस्से में। एक मिसफिट नेता की तरह बिहार में घूम रहे हैं। जिन टूटी सड़कों से वे ग़रीबों को रैलियों में ठेलते रहे,वो सड़के अब बनने लगी हैं। बिहार बदला है तो लालू भी बदल गए हैं। केंद्र में पांच साल तक वाहवाही( मीडिया प्रायोजित या असली?) लूटते रहने के बाद बिहार की जनता हावर्ड की पब्लिक की तरह इम्प्रैस नहीं है। लालू पांच साल तक विकास पुरुष बनते रहे लेकिन यह छवि बिहार में काम आती हुई नहीं लग रही है। उन्हें अब भी भरोसा है कि माई टाई समीकरण उनका जुगाड़ बिठा देगा।
बिहार में जिससे भी बात करता हूं,यही जवाब मिलता है कि इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई है। जो लोग बिहार के लोगों की जातीय पराकाष्ठा में यकीन रखते हैं उनका कहना है कि लालू पासवान कंबाइन टरबाइन की तरह काम करेगा। लेकिन बिहार के अक्तूबर २००५ के नतीजों को देखें तो जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर बड़ी संख्या में वोट इधर से उधर हुए थे। यादवों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। मुसलमानों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। पासवान को कई जगहों पर इसलिए वोट मिला था क्योंकि वहां के लोग लालू के उम्मीदवार को हराने के लिए पासवान के उम्मीदवार को वोट दे दिया। अब उस वोट को भी लालू और पासवान अपना अपना मान रहे हैं।
बिहार की जनता खा पी के दोपहर की नींद सो रही है। वो बहुत जल्दी जागना नहीं चाहती। नीतीश को मौका देना चाहती है। इसी आत्मविश्वास के कारण नीतीश अब अपनी पार्टी और सहयोगी दल से भी लड़ रहे हैं। ये और बात है कि दोनों नेताओं को विकास पर पूरा यकीन नहीं है। इसलिए लालू पासवान और नीतीश भाजपा भी जातीय समीकरणों के दम पर ही चुनाव लड़ रहे हैं।
लेकिन इस चुनाव में लालू को देखना उनके बदले हुए रूप से ज़्यादा एक खोए हुए नेता को देखना लग रहा है। लालू अब सत्तू, लोटा, लाठी और ताड़ी की बात नहीं करते। वो अब गरीबों और पिछड़ों की अकेली आवाज़ नहीं रहे। इस आवाज़ को लगाने के लिए उन्हें पासवान रेडियो का भी सहारा लेना पड़ रहा है। लालू का करिश्मा उतार पर है। गरीब कट लिये हैं। पिछड़े आधे इधर तो आधे उधर हो चुके हैं। लालू ने हर स्तर पर राजनीतिक चूक की है। कोई पार्टी का ढांचा नहीं बनाया। विपक्ष की कोई भूमिका नहीं रही। दिल्ली में रेल मंत्रालय के सहारे बिहार को दिया तो बहुत कुछ लेकिन बिहार की जनता इससे इम्प्रैस नहीं है। उसे तो पहले से ही मिलता रहा है। पासवान और नीतीश के ज़माने से ही।
अगर हमारे सहयोगी अजय सिंह के शब्द सही हैं तो इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई चल रही है। दिल यानी जात और दिमाग यानी विकास। मेरा मानना है कि बिहार की जनता दिमाग से सोच रही है। हर जाति में बड़ी संख्या में लोग जातिगत स्वाभिमान से ज्यादा प्रेरित होते हैं लेकिन इसी के बीच एक बड़ी संख्या वैसे लोगों की भी छिटक रही है जो दिमाग से सोच रही है. यही पब्लिक जीत तय करेगी। मुझे नहीं लगता कि लालू जीतेंगे। सिर्फ सेकुलर होकर और आडवाणी और वरुण को खदे़ड़ कर वो नहीं चल सकते। बिहार की पब्लिक ने अब बीजेपी का रूल देख लिया है। लालू ने अपना टच खो दिया है। वो रेल मंत्रालय की कामयाबी को अपने स्टाइल और मुहावरों में नहीं ढाल पा रहे हैं। यही लालू खोए खोए से नज़र आते हैं।
शायद यही वजह है कि लालू अपनी सभाओं में गलतियों के लिए माफी मांग रहे हैं। साधू यादव को धकिया के निकाल चुके हैं। लेकिन अब देर हो चुकी है। अब उन्हें नीतीश के पूरी तरह चूक जाने तक इंतज़ार करना होगा। फिलहाल वो रातों को ज़रूर बेचैन होते होंगे कि पंद्रह साल तक क्यों नहीं कुछ किया। केंद्र ने मदद नहीं दी तो खुद क्यों नहीं पहल की। क्यों बड़े बड़े पंडालों में शादियों का हंगामा होता रहा। अपहरण पर तो काबू पा ही सकते थे। एक बेहतर कम्युनिकेटर की यह दशा दिख रही है। लालू खुद गंभीर नज़र आते हैं। कैमरे के सामने सतर्क हो जाते हैं। अलग नहीं दिखते। लालू नहीं दिखते। लालू की तरह दिखते तो हो सकता था कि बिहार में मुद्दा कुछ गरमाता। टाइम चला गया साहिब। इस चुनाव मे कम बैक के आसार कम लगते हैं। किसी नेता को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि नए दल और नया विकल्प बनने तक हमारे देश की राजनीति में वही नेता बारी बारी से आते रहते हैं।
कुछ लोगों ने नीतीश की नौटंकी पर लिखे मेरे लेख पर कहा कि मुझे पैसे मिले हैं। उन्हें शायद नहीं पता। पैसा देने और लेने वाले की औकात क्या होती है। जितना मौकापरस्त नीतीश है उतना तो लालू को आता भी नहीं है। यही नीतीश सूरजभान या आनंद मोहन में से किसी से समर्थन लेने गए थे। जब तक विकास करते हैं तब तक तो ठीक है लेकिन उनका अहंकार अब दिखता है। ओढ़ी हुई विनम्रता दो चार माइल सड़क बनाने के बाद उतर गई है। लालू तो लॉस्ट हो चुके हैं। रही बात लालू और नीतीश में बेहतर कौन है,तो जवाब यही है कि और विकल्प क्या है। नीतीश ने अच्छा काम किया है तो फिलहाल अच्छे हैं। देखते हैं कि कब तक अच्छे रहते हैं। कोसी बाढ़ में इनकी अच्छाई देखकर आया था। नीतीश की आलोचना ज्यादा होगी क्योंकि नीतीश से उम्मीद भी ज्यादा है। बिना पैसे के करूंगा।
जातिवाद तो देशभर में व्याप्त है। हर जगह यही एक समस्या है। लेकिन अब लोग काफी हद तक दिमाग से सोचने लगे है। लेकिन आप लिखते हैं कि लालू सोचते होंगे कि केंद्र ने मदद नहीं दी तो खुद क्यों नहीं पहल की।
ReplyDeleteअजी केंद्र ने कौन सी मदद नहीं की। और जितनी की भी उसका कौन सा सही इस्तेमाल कर दिया उन्होंने?????? और साधु यादव को निकालें या कुछ कर लें, अपने कृत्यों को कैसे धो पाएँगे। लालू कभी भी गरीबों और पिछड़ों की आवाज़ नहीं रहे, उन्होंने सत्तू, लोटा, लाठी और ताड़ी जैसे शब्दों का सिर्फ सियासी इस्तेमाल किया है। लालू ने बिहार को लूट लिया है। अपराधियों को शरण दी है। आप उन्हें मजबूर नेता बताकर क्या साबित करना चाह रहे हैं? मजबूर तो लालू आज हुए हैं लेकिन सिर्फ सत्ता के लिए... और वो मजबूर इसलिए हुए हैं क्योंकि जनता अब जाग गई है।
आखिर कोई कबतक जनता को वेवकूफ बनाता रहेगा....आजादी के बाद से अबतक नेताओं की कारस्तानी झेल चुकी बिहार की जनता अगर जाग रही है तो बुरा क्या है....लेकिन पूरी तरह जितनी जल्दी जाग जाए उतना ही बेहतर ....अगर वाकई बिहार में दिल और दिमाग की लड़ाई है तो बहुत अच्छा.....क्योंकि नीतीश जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार की तस्वीर वाकई बदल रही है....एक गंभीर नेता की तरह नीतीश उलूल जुलूल नहीं बोलते...काम करते हैं....काम करने में विश्वास करते हैं....अबतक उनकी शैली से यही दिखता है....लेकिन लालू ....काम करने....कम काम करने...और चिल्लाकर ज्यादा कर दिया...ये बताने में माहिर है.....इस चुनाव के नतीजे के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा कि वाकई बिहार की जनता जाग गई है...या फिर अभी तक कुंभकर्णी नींद में सोई है.....लालू..रामविलास सरीखे नेताओं को भी अब समझ जाना चाहिए....कि बिहार में नेतागिरी का मतलब सिर्फ लोगों को वेवकूफ बनाना नहीं कुछ काम भी करना है.......
ReplyDeleteलालू लद गए ? अच्छा ??
ReplyDeleteरवीश भाई,
ReplyDelete"और विकल्प क्या है।" बात तो आपने पते की कही है। चुनाव तो हमेशा " बेस्ट एमंगस्ट वर्स्ट" ही करने की मजबूरी है और आम लोग निःसहाय हो कर सोचते हैं कि-
कसाई ने बकरे से पूछा कि क्या है तुम्हारी जातिगत पहचान।
बकरा बोला झटके से काटो तो हिन्दू हलाल करो तो मुसलमान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अच्छा। तो अब बस समोसे में आलू रहेगा बिहार में लालू नहीं। चलो देखते हैं। जनता का ऊंट किस करवट बैठता है। सेक्युलर और विकास के नाम पर खुद जनता उबासी लेने लगती है। क्या फायदा है हमारे और आपके चिल्लाने का? अब वरुण गांधी को कोई हरा ही नहीं सकता, पहले शायद ये बदज़ुबान हार जाता। हमारे लोग भी उन्मादी ही हैं। उन्माद में ही अधिकारों का प्रयोग करते हैं, विवेक से नहीं।
ReplyDeleteआज स्तिथि इधर खंदक उधर खाडी जैसी है. क्रिकेट के खेल में कहते हैं की जब तक आखिरी गेंद न फेंकी जाये तब तक कुछ नहीं कह सकते - मैच बिना किसी हार-जीत के समाप्त भी हो सकते हैं. यही अवस्था अब इन चुनाओं की भी हो चुकी है, हार केवल जनता के पक्ष में ही आती है, कितनी भी ताली क्यूँ न बजाले कोई. जनता, केवल नाटक ही देख सकती है और यह उम्मीद कर सकती है की खेल आनंद दायक होगा. भविष्य क्या दिखायेगा वो 'मालिक' के हाथ सदैव रहेगा - मानो या न मानों :)
ReplyDeleteयह अनदेखा नटखट कौन है?? कहीं 'नन्दलाल' तो नहीं?? और क्या वो सबको मूर्ख बना कर अंतिम ताली खुद वोही तो नहीं बजाता??
हुज़ूर , पैसा और खुशामद सबको अछ्छा लगता है ! और 'अंहकार' से कौन अछूता रहा है ? खैर , नीतिश तो आनंद मोहन और सूरजभान के पास तो गए थे - कोई शक नहीं ! लेकिन सूरजभान और आनंदमोहन को बनाने वाला कौन था ? लालू , नीतिश या जनता ? लोकतंत्र में बिना लोक 'सपोर्ट' के कोई कुछ भी नहीं ! जिस जनता ने स्वच्छ चुनाव में सूरजभान को लोकसभा का रास्ता दिखया वही जनता काम निकल जाने पर उनको उनकी "विदाई" भी कर देगी ! अब आप सन २००४ के स्वच्छ चुनाव पर ऊंगली नहीं उठा सकते - आखिर क्यों आपके आका - लालू प्रसाद उसी सूरजभान के लिए वोट मांगते घूम रहे थे ! ( याद रहे सन २००४ का लोकसभा चुनाव - पासवान - लालू और सोनिया ने साथ में लड़ा था )
ReplyDeleteआपको सूरजभान का नाम हमेशा याद रहता है - लेकिन आप गोपालगंज के कुख्यात और कई सूरजभान के बाप - श्री सतीश पाण्डेय या सन १९८०- १९८४ तक गूंडा राज चलने वाले श्री काली पाण्डेय का नाम याद नहीं रखते ! आपको अपने गृह जिला के खूंखार तिवारी , उपाध्द्याय , मिश्र जैसे लोग जिन्होंने मोतिहारी के गोविन्दगंज में शरीफ लोगों का चलाना दुश्वार कर दिया था - वैसे लोग आपके दिल पर नाज करते हैं !
दिमाग जीते इसी में भारत का भला है.
ReplyDeleteमीडिया प्रायोजित या असली? यह तो आप ही बेहतर बता सकते है :) याद रखें जनता मूर्ख नहीं है.
लालू ने बिहार छोड़ा तो क्या हुआ दनादन रेलिया दिया ना । अब तो एक ख्वाब भी पलता सीने में पीएम का । चुनाव में जातिवादी समीकरण बिहार और उत्तर प्रदेश से नहीं जानेवाल है । और लालू की वाह वाही चाहे प्रयोजित ही क्यों न हो पर उसका असर दिखता लोगों पर । चुनाव परिणाम इसका फैसला करेंगें ही ।
ReplyDeleteरविशजी
ReplyDeleteआपके लेख में निहित बहुत बिन्दुयों पर सार्थक बहस की गुन्जायीस है .पर इतना जरूर कहा जा सकता है की आपका हाथ जनता की नब्ज पर है.बिहार की भोली भाली जनता पहले भी बहुत चमत्कार कर चुकी है जो की
अंततः सारे विश्लेषणों पर भरी पड़ा .बिहार की सामजिक राजनैतिक और सांस्कृतिक पटल पर लालूजी की क्या भूमिका रही इसका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण अंततः इतिहास तो कर ही देगा . पर फिलहाल इनके कार्यकाल ने नीतिश कुमार को एक ऐतिहासिक भूमिका अदा करने का अवसर जरूर दे दिया है.और हर सत्ताधारी के हर छद्म और नकारात्मक प्रवृत्तियों पर पैनी नजर रखना लोकतांत्रिक संघर्ष और विकास की पहली शर्त है .
अंत में यह बेहद जरूरी है की जिस आदमी से ज्यादा अपेक्षा उससे उतनी ही शिकायत भी होगी .इसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए .रही बात तोहमत की तो इन सारी बातों से फूलप्रूफ होना और नजरअंदाज कर एकला चलो रे के तर्ज पर चलते जाना आपके पेशे की मांग है .
सादर
नीमन. अइसे ही जोर लगाके हइसा!
ReplyDeleteबचपन में सुना था सो अपने दो वर्ष के नाती को भी सुना दिया! उसको कब्ज़ की शिकायत है. अब वो भी कहता है दम लगाके हेइसा, जोर लगाके हेइसा:)
ReplyDeleteलालु ने जो अनाज बोया वो अब ह्जम नही हो रहा सही भी है जिसे चारा खाने की आदत हो उसे अनाज हजम होने दिक्कत तो आएगी
ReplyDeleteYe bata dijiye... Lalu ya Nitish... aap kisko vote denge....aur kyon?
ReplyDeleteलालू की बात पर घूम-फिर के यदुवंशी कृष्ण पर लौटना होता ही है. द्रौपदी परेशां थी दुर्वासा को क्या खिलाएगी क्यूंकि घर में चावल का दाना भी नहीं था! कृष्ण आये और बर्तन के नीचे चिपके चावल के दाने को खा गए! और दुर्वासा क्या, उनकी पूरी टीम भी आउट हो गयी और भाग ली! लालूजी ने चारा शायद वैसे ही खा लिया तो हो सकता है तकलीफ दुर्वासा और उनकी टीम को हो रही हो!
ReplyDeleteCalling Lalu a lost leader is a bold statement...but one thing is sure if he and his allies win, they can't ignore the seething public anger and hatred for political leaders. To survive the wrath of their patience they have to pull their socks and work for the betterment of society or else get ready for "jooton ki baarish." Either way I am happy:)
ReplyDeleteEk joote ne Tytlor or Sajjan Kumar ki gaddi kheench li...samajhdaar ko ishaara kafi hai.
नाऊ-नाऊ केतना बार....
ReplyDeleteनाऊ बोला जजमान अबहीं सामने आवत है.....
तो भाई लोग काहे लोटा थरिया लेके नेतवन के पीछे पड़े हौ.....नागनाथ जीतें या सांपनाथ कटिहैं दूनौ
यदि आदमी 'समझदार' होता तो पहले विनाशकारी विश्व युद्ध - नहीं तो कम से कम दुसरे महायुद्ध के बाद युद्ध नहीं करता. केवल UNO बनाने का नाटक न करता (बुश पर जूता चलने से ही सब नेता सीधे हो जाते)...कृष्णलीला का अंत हो जाता - कभी का :)
ReplyDeleteहमको शब्द खाने की और उलट देने की आदत कहें या बीमारी है - प्रकृति के नियमानुसार. कृष्ण भी कहते हें की सारी प्रकृति उनकी नक़ल कर रही है.
ReplyDeleteआज केवल जैन मुनि ही मौन रहने का प्रयास करते हें - कम से कम पब्लिक मैं. और भूतकाल मैं भी बेताल को विक्रमादित्य भी तभी तक कंधे पर ले जा सकता था जब तक वो अपना मुंह न खोले - बेताल फिर से वृक्ष पर लटक जाता था..:) और इतिहास दोहराता है - जरूरी नहीं की 'भारत' में ही दोहराए...पश्चिम में विकास के कारण ही पृथ्वी विनाश के कगार पर है - ऐसा आधुनिक ज्ञानी अब मान ने लगे हें. किन्तु सिक्के के कम से कम दो चेहरे तो हर कोई देखता है और उसी भांति मानव समाज दो भाग में हमेशा बंट जाता है...कृष्ण भी कहते हें की उन्होंने दो तरह के आदमी बनाये हें...
फिल्म में 'हिन्दू' बंद 'गीता' पर हाथ रख कचहरी में कहते दिखाया जाता है कि वो सच और केवल सच ही बोलेगा - और फिर झूट पर झूट बोलता दिखाया जाता है :) उस से कोई नहीं पूछता की उसने गीता पढ़ी भी है कि नहीं? और हो सकता है वो किसी झूटी गीता नामक कन्या की सोच रहा हो :)
ReplyDeleteकुरान कम से कम मदरसे में पढाई तो जाती है.
पता नहीं 'हिन्दू पत्रकारों' ने गीता पढ़ी भी हो या नहीं...
एक कहावत और भी है: पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ/ पंडित भया न कोई...गीता पढ़ी हो भी तो आवश्यक नहीं कि समझ आगई हो...क्यूंकि नन्दलाल नटखट भी है :) "हरी अनंत/ हरी कथा अनंता.." ऐसे ही नहीं कहा गया...और पृथ्वी में विविधता यूं ही नहीं आगई...
ReplyDeleteसर्व धर्म सम भावः सिद्ध योगी ही समझ सकता है...कृष्ण भी कहते हें कि सब त्रुटी का कारण अज्ञान ही है...और संपूर्ण ज्ञान केवल अनंत के पास है...उससे कनेक्शन केवल विघ्नहर्ता गणेश या संकट मोचन हनुमान ही दिला सकते हें:) (ऐसी मान्यता है)...
इसमे कोई दो राय नहीं है की लालू जी की चमत्कारी जलवा कम हुआ है | और वे भी विकाश की बात कर रहे हैं | लेकिन बीच बीच में वो अपना एम् वाई आर फार्मूला के बीच पड़ जाते हैं | बिहार की जनता को आडवानी, मोदी और वरुण से कोई लेना देना नहीं है और वो हैं की तुष्टिकरण के चक्कर में बिहार में मोदी-आडवानी का गाना गाते रहते हैं | रामविलास जी को भी इस बार हकीकत का पता चल सकता है की उनकी जो जादू थी वो असली थी की लालू के त्रासदी से लोग उब कर उनको पकडे थे| कांग्रेस पार्टी का क्या कहना | चुनाव के पहले शर्मा जी / सिन्हा जी लोगो को पकड़ कर लाती है और चुनाव के बाद उनको ऐसे फेकती है की पता नहीं चलता है ५ साल वो किधर गिरे | लेकिन इस बार कहीं कहीं मामला उल्टा भी पड़ गया है जैसे साधू जी और कुछ और लोग जो इनके यु पी ए का ही मामला साफ़ कर सकते हैं | वैसे लालू जी रेलवे के द्वारा काम कर के नीतिश जो को टफ competition दे रहे हैं | इस बार बिहार में मामला सच मच टक्कर का होगा | देखने में आएगा की जनता अभी भी दिल को तरजीह देती है या दिमाग को |
ReplyDeleteraveesh ji lalu paswan ka my sameekaran is baar ke chunavo me safal nahi ho payega. neetish kumar bihar me achcha kaam kar rhae hai . unka vikas ka mudda is chunav me unko bihar me achchi seato ko dilvayega. lalu pasvan kisi bhii keemat me neetish ke kile ko nahi dhaha sakte hai.... aapki post achchi lagi ... shukria
ReplyDeleteजातिवाद सम्प्रदायवाद से भी एक स्तर नीचे गिरी हुयी छेछेडी व ज्यादा संकुचित चीज़ है . लालू के MY (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक की राजनीति में दोनों का सम्मिश्रण मिलता है . पर चुकि हमारे देश में सिर्फ हिन्दुवाद(हिंदुत्ववाद नहीं !) को भी साम्प्रदायिकता कहा जाता है और मुसलमानवाद और जातिवाद को धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरवाद इसीलिए लालू को सेकुलर कहा गया है.
ReplyDeleteरविश जी बिहारी जनता ने लालू के MY आधारित सांप्रदायिक और जातिवादी जंगलराज से बहार निकल कर विकास का स्वाद चख लिया है . अब यह व्यसन जल्दी छूटने वाला नहीं है जो कि लालू के लिए बहुत बुरा है .
१)"दिल यानी जात और दिमाग यानी विकास। मेरा मानना है कि बिहार की जनता दिमाग से सोच रही है। हर जाति में बड़ी संख्या में लोग जातिगत स्वाभिमान से ज्यादा प्रेरित होते हैं लेकिन इसी के बीच एक बड़ी संख्या वैसे लोगों की भी छिटक रही है जो दिमाग से सोच रही है. यही पब्लिक जीत तय करेगी। "
चलिए आपने माना तो कि नीतिश का शासन ,सांप्रदायिक लालू यादव की तरह ,सांप्रदायिक और जातिवादी विचारधारा को बढावा नहीं दे रहा है . माने आपने स्वीकार किया कि नीतिश की धर्मनिरपेक्षता नौटंकी नहीं .
२)"अब उन्हें नीतीश के पूरी तरह चूक जाने तक इंतज़ार करना होगा। फिलहाल वो रातों को ज़रूर बेचैन होते होंगे कि पंद्रह साल तक क्यों नहीं कुछ किया। केंद्र ने मदद नहीं दी तो खुद क्यों नहीं पहल की।"
नीतिश विकास कर रहे हैं तो बिहार के बारे में थोड़ा शुभ शुभ सोचिए रविश जी . .उनके चूक जाने की आशा अभी से मत लगा कर रखिये .बल्कि खुद भी धीरज रखिये और लालू जी से थोड़ा रेस्ट लेने को कहिये ताकि आत्ममंथन और आत्मसुधार कर सकें .
३) "नीतीश ने अच्छा काम किया है तो फिलहाल अच्छे हैं। देखते हैं कि कब तक अच्छे रहते हैं। कोसी बाढ़ में इनकी अच्छाई देखकर आया था। नीतीश की आलोचना ज्यादा होगी क्योंकि नीतीश से उम्मीद भी ज्यादा है। बिना पैसे के करूंगा। "
धत ! आप तो अभी से नीतिश को बिगाड़ने की धमकी देने पर तुल गए .आप तो जानते हैं कि १९४७ से भारत या बिहार में सारा काम तो अधिकतर कागजों पर ही होता चला आया है .यह जमीन पर तभी उतरता है जब कोई हादसा हो जाता है .और तो और उन्ही कार्यों को प्राथमिकता दी जाती हैं जिससे नेताओं का सरोकार जुडा हो .अब देखिये न नेताओं कि सुरक्षा के लिए NSG का गठन पहले हो गया था और देश कि सुरक्षा के लिए मुंबई हमलों के बाद . नेताओं के लिए एयरफोर्स १ विमान पहले खरीद लिए गए हैं और देश और आमजन की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान के मुजाहिदीन रेजिमेंट और सेना के बराबरी वाले हथियार की खरीद दुसरे श्रेणी की प्राथमिकता है . कोसी कि त्रासदी बेहद दुखद है .अब कोसी बाँध का ठीकरा भले ही नीतिश के मत्थे फोड़ा जाता हो पर ६० साल पुराने बाँध के मिति का इति तो नीतिश शासन के बहुत पहले ही हो चूका था पर सारी सरकारों को हादसे का इन्तजार था .अब नीतिश के लिए विरासत में मिले आर्थिक शोषण से बीमार जीभ लटकाए बिहार और नेपाल में राजनैतिक उथल पुथल भी तो बड़ा अवरोध था.
४)"जितना मौकापरस्त नीतीश है उतना तो लालू को आता भी नहीं है। यही नीतीश सूरजभान या आनंद मोहन में से किसी से समर्थन लेने गए थे। जब तक विकास करते हैं तब तक तो ठीक है लेकिन उनका अहंकार अब दिखता है। ओढ़ी हुई विनम्रता दो चार माइल सड़क बनाने के बाद उतर गई है। "
पासवान ,मुलायामर ,शरत पवार ,मायावती....फेहरिस्त लम्बी है, से तो कम ही मौका परस्त हैं नीतिश.
साधू,पप्पू,तसलीमुद्दीन और सहाबुद्दीन तो लालू के अपने हैं न ?.आनंद मोहन जैसों को तो हमने नीतिश शासन में ही न लप्पड़ खाते देखा है.
"गाजर और मूली उखाड़ने वालों ....घास छिलने वालों ...ए चल हट...चमड़ी उधेड़ दूंगा ...छाती पर रोलर चला दूंगा "जैसे नरम नरम शब्दों का प्रयोग करने वाले विनम्र के आगे नीतिश कैसे टिक सकते हैं हाँ ?.. असल में वो लालू जैसे विनम्र तो कभी रहे ही नहीं !
वैसे आप चिंता न करें यदि नीतिश के अंहकार का बलून जब पूरी तरह से फूल जायेगा तो वो खुद ब खुद बलून सहित उड़ जायेंगे . उनका भी पाँव उखड जायेगा .
५)"नीतीश की आलोचना ज्यादा होगी क्योंकि नीतीश से उम्मीद भी ज्यादा है। बिना पैसे के करूंगा।"
नीतिश से उम्मीदें रखना एकदम जायज़ है .रविश जी हलाकि आप शुंगलू टाइप के पत्रकार तो नहीं हैं पर बिहार को बड़ी मुश्किल से विकास की पटरी पर लाने वाले नीतिश की ज्यादा और निराधार आलोचना करेंगे तो MY आधारित राजनीति करने वाले सांप्रदायिक और जातीवादी शक्तियों को लाभ होगा .
अगर बिहार की जनता या फिर कहें कि सारे देश की जनता जातिवाद से ऊपर उठकर वोट करे तो समझो वह दिन लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा मौका होगा। काश ऎसा होता, लेकिन ऎसा होने की संभावना कम ही नजर आती है। चलिए बिहार में ही सही...हो तो। इंतजार करते हैं। यह बात सही है कि लालू और नीतीश में सो कोई दूध का धुला नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि तीसरा विकल्प भी तो नहीं।
ReplyDeleteaapne sahi bola lalu ji bahut aage hain apne chiefminister. inke bare me yahi kaha jaata hai ki inke daat munh me nahi balki inke pet me hain.
ReplyDeletesabse pahale jab mai is post ko padh raha tha to mai ne paya jitne bhi comment aye hai o sabhi so called forward class ke hai (jatiwadd nahi kar raha hu) kya ye sach nahi ki 75% avadi rahane ke badd bhi sansadhan par matra 10% (Fwd.)logo ka kabja hai? Aaj bhi mujhe o din yadd hai jab lalu pahali barr Bihar ke chif minister bane the in logo ka kahana tha " ek gaye charane wala raj-pat kya chalayega" us din logo ne yesa kuo kaha? Mayawati bhi jab chief minister bani to un logo ka khyal kuch yasa hi tha.
ReplyDeleteKuch chiz hamare yaha bahut saff hai jaise ki .... Gujrat ho jaye par Bajpai jee... Doodh ke datt nahi toote ho par..yuvaraj jee.
Laloo ke beta poltics me yaee to parivarwad..????.
Nitish ji ko app kya samajhte hai o laloo ke bhi bapp hai. Ek barr laloo ka bihar se safaya to ho jaye app log hi inka 36 karam kar denge.
App sochate honge kayse?.....
Bhai appko laloo ke khilaf ek muhara cahiye jo nitish ke roop me mil chuka hai..
App jisko jatiwad kahte hai hum usko swabhiman ki ladai kahate hai.
Jara app soche .... yadi appke maa - bahan ki gali de ke khub vikash ka geet gaya jaye to kya app yase vikash ko sweekar karenge?
LALOO ne us rikhshow wale ko awaze di jispar baith kar log pisa nahi dete the or mangane par use ma-bahan ki gali hi nahi chta bhi jar dete the. Aaj koi ma ka lal nahi hai jo yesa kare.
Rahi vikash purush banne ki batt to dekhana hai ye MEDIA ka vikasha purush kitne dino tak appki najar me vikash purush bana rahata hai.
Yese bhi Nitish ji jis samudaye se ate hai use bihar ka naya forward kaha jata hai....
Or jis din is naye forward ki neend khulage tab tak bahut der ho chukage.
sabse pahale jab mai is post ko padh raha tha to mai ne paya jitne bhi comment aye hai o sabhi so called forward class ke hai (jatiwadd nahi kar raha hu) kya ye sach nahi ki 75% avadi rahane ke badd bhi sansadhan par matra 10% (Fwd.)logo ka kabja hai? Aaj bhi mujhe o din yadd hai jab lalu pahali barr Bihar ke chif minister bane the in logo ka kahana tha " ek gaye charane wala raj-pat kya chalayega" us din logo ne yesa kuo kaha? Mayawati bhi jab chief minister bani to un logo ka khyal kuch yasa hi tha.
ReplyDeleteKuch chiz hamare yaha bahut saff hai jaise ki .... Gujrat ho jaye par Bajpai jee... Doodh ke datt nahi toote ho par..yuvaraj jee.
Laloo ke beta poltics me yaee to parivarwad..????.
Nitish ji ko app kya samajhte hai o laloo ke bhi bapp hai. Ek barr laloo ka bihar se safaya to ho jaye app log hi inka 36 karam kar denge.
App sochate honge kayse?.....
Bhai appko laloo ke khilaf ek muhara cahiye jo nitish ke roop me mil chuka hai..
App jisko jatiwad kahte hai hum usko swabhiman ki ladai kahate hai.
Jara app soche .... yadi appke maa - bahan ki gali de ke khub vikash ka geet gaya jaye to kya app yase vikash ko sweekar karenge?
LALOO ne us rikhshow wale ko awaze di jispar baith kar log pisa nahi dete the or mangane par use ma-bahan ki gali hi nahi chta bhi jar dete the. Aaj koi ma ka lal nahi hai jo yesa kare.
Rahi vikash purush banne ki batt to dekhana hai ye MEDIA ka vikasha purush kitne dino tak appki najar me vikash purush bana rahata hai.
Yese bhi Nitish ji jis samudaye se ate hai use bihar ka naya forward kaha jata hai....
Or jis din is naye forward ki neend khulage tab tak bahut der ho chukage.