रिक्शेवाले का किराया

तुम्हारी पीठ दिखती रही
हांफते हुए
भागते हुए
कहां तो तुम जकड़े रहे
उसी सीट पर
हुमच हुमच कर
तुम्हारे पांव पैडल पर
दौड़ रहे थे
नीचे गुज़रती सदियां थी
दिन बदलने की आस में
आगे का पहिया निकला जा रहा था
पीछे का पहिया भागते हुए भी
इस दौड़ में छूटता जा रहा था
मंज़िल की तरफ....
पहुंच मैं रहा था
पहुंचा तुम रहे थे
इसी तरह पहुंचा है मानव
मानव की पीठ पर सवार होकर
कहीं राजा बन कर
कहीं घुड़सवार बन कर
कहीं हमलावर बन कर
कहीं कारोबारी बन कर
कहीं दिलदार बन कर
कहीं सेनापति बन कर
तुम्हारी भागती हुई पीठ
सिर्फ तुम्हारी नहीं है
रिक्शावाला
उन सबकी है
जिन्हें हर सवारी के बाद
दे दिया जाता है किराया
मंज़िल से लौट आने के लिए
हमारे पहुंच जाने के बाद

26 comments:

  1. SARAL BHASA ME ACHCHA VERNAN HAI ......rAVISH JI....

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  2. चौंकाती है आपकी यह कविता रवीशजी। कवित खुद अपना बयान है। किसी टिप्‍पणी की मोहताज नहीं।

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  3. Bahut achchi kavita hai, ya yoon kahen ki rickshaw valon ki dardnaak kahani hai.

    anuragi-anurag.blogspot.com

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  4. सच्ची प्रस्तुति !! साथ में बेबाकी से कहने की हसरत भी समेटे हुए!!!

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  5. हमम् ....बात तो सच है। वैसे मैं जिन लोगों से पैसे के बारे में खिच-खिच नहीं करता उन लोगों में रिक्शे वाले सबसे पहले आते हैं। जो मांगे दे देता हूँ। देते हुए भी लाज लगती है कि इतना ही दे रहा हूँ जबकि उनकी काठ की हाड-तोड मेहनत के लिये ज्यादा देना चाहिये।
    और जिन लोगों से पैसे के बारे में खिच-खिच नहीं करता वह है बडे शो रूम वगैरह, क्योंकि वहां फिक्स रेट होता है। शो रूम में घुसने से पहले जेब तौल लेता हूँ ताकि वहां मुझे न लज्जित होना पडे।
    मेरे लिये रिक्शेवाले और शो-रूम को जोडने वाली कडी लाज ही है।

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  6. बेजोड़। बिना कवि होने की दावेदारी के साथ अपनी बात कह जाते हैं। कभी-कभी ग्लानि होती है कवि के नाम पर किस-किस को पढ़ा औऱ पढ़ाया जा रहा है।

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  7. बहुत ही खूबसूरत और अर्थपूर्ण. आभार.

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  8. आपके लेखन में हमेशा बेबाकी झलकती है रविश जी...लगे रहो.

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  9. सच कहूं तो एक बार में पल्ले ही नहीं पडी आपकी कविता
    कुल चार बार पढा; तो लगा कि ये कविता रिक्शावाले के ऊपर नहीं लिखी है आपने
    वो तो एक माध्यम भर है
    यह मानवता के इतिहास में हर उस "आम आदमी" की कविता है जिसे "सफल" लोगों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में इस्तेमाल किया है. बधाई !

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  10. सतीश की तरह मेरा भी हाल कुछ ऐसा है कि कविता को कुल पांच दफे पढ़ा, तबजाकर रिक्शेवाले पर ध्यान गया।
    यह हमारी-आपकी-सबकी कहानी है, जो इस दुनिया में काफी कुछ भोगते हैं। आपने जिस यूं कहा है-
    जिन्हें हर सवारी के बाद
    दे दिया जाता है किराया
    मंज़िल से लौट आने के लिए
    हमारे पहुंच जाने के बाद

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  11. रविशजी
    अगर किसी शहर और उसके मिजाज को जानना हो तो जरा गौर करें की आम शहरी वहाँ के रिक्शे वाले ने कैसा व्यहार करता है. रिक्शे वाले का किसी भी वजह से कहीं जाने से इनकार करना अमूमन हर शहरी अपनी शान में गुस्ताखी मानता है . अच्छे भले लोग भी पुरे सामंती रूआब में रहते है . मुजफ्फर पुर में तो बेचारे रिक्से वाले पहले आदमी ही नहीं माने जाते थे .पटना का हाल भी थोडा ही बेहतर था .
    सुंदर बिम्व योजना कविता को मर्मस्पर्शी बनाती है .
    महाकवि निराला की "वह तोड़ती पत्थर "और "भिक्षुक" कविता याद आ रही है.
    वह आता
    दो टूक कलेजे को करता
    पछ्छ्ताता पथ पर जाता
    पेट और पीठ मिल कर हें हैं एक
    लिया लुकाठी टेक
    सादर

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  12. रिक्सेवाले का पैसा मेहनत का होता है वजिब दे देना चाहिये पर कितनी बार आपको सहर मे नया जान के लूटते भी है १० का १०० लेते है

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  13. To Raveesh ji..

    I heard you at IIMC's Hindi Journalism Class on this 9th feb.

    You said there " people say I am getting bored...Oh yaa..really.. ask any Ricshawwala if he gets bored.." it gave me a sense of comfort because I always thought tha same way around.

    Your poem was written after a ride on his back.. I can see that in those lines.

    I won't appreciate that cause I have always expected this from you..

    Thanks.
    Gajendra Singh Bhati

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  14. Sattar ke dashak mein Kolkata mein ricksha aadmi kheenchta tha. Ek ricksha mein baithte hi meine, see-saw saman, chalak ko hava mein uthte paya aur khud ko zameen ki ore jate!

    Bhala ho ek aur pas mein kharde rickshawale ka jisne use dharti per la diya aur yun mujhe girne se bacha liya!

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  15. This comment has been removed by the author.

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  16. sach "chhotey" logon ki dasha kiraye ke tattoo ke samaan hoti hai.Doosron ke liye sopaan kaa kaarya karne waale logon ki bhoomikaa,kriti yaa pehchaan aarohi wetan ke niche dafan kar dete hain.

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  17. हर किसी में एक रिक्शे वाला छुपा है बस हम उसे मानने से इंकार कर रहे हैं....सुबह से शाम तक आदेश सुन कर हम भी तो एक गाड़ी खींच रहे हैं

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  18. एन डी टी वी पर कल रात साढे नौ बजे डार्विन की दो सौंवी जयन्‍ती के उपलक्ष्‍य में प्रस्‍तुत आपकी रिपोर्ट बहुत शानदार रही, बधाई स्‍वीकारें।

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  19. लगता है एनडीटीवी इंडिया को अपनी ही बनाई हुई अपनी अच्छी छवि (इमेज) हजम नहीं हो रही है। इसीलिए एनडीटीवी अपनी इमेज तेजी से बदल रहा है। एनडीटीवी ने अपना चोला उतारना शुरु कर दिया है। कल तक जो एनडीटीवी भूत-प्रेत और मनोहर कहानियाँ छाप खबरों पर अन्य खबरिया चैनलों की खबर लेता था, अब वही एनडीटीवी उन्हीं की तर्ज पर खबरें परोसने लगा है। दो दो कौड़ी के सवाल पूछकर लोगों को हीरा जीतने के लिए उकसाया जा रहा है। सवाल भी ऐसे कि सरकारी और म्युनिसिपल स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से भी अगर ये सवाल पूछ लिए जाएँ तो वे अपने आपको शर्मिंदा महसूस करें। मगर एनडीटीवी को तो हीरे बाँटने की ऐसी धुन सवार हुई है कि हर घंटे सवाल पूछे जा रहे हैं। एनडीटीवी के दर्शक भी इतने होशियार और बुध्दिमान हैं कि धड़ाधड़ जवाब देकर हीरे जीत रहे हैं। लेकिन एनडीटीवी ने अभी तक यह नहीं बताया कि जो हीरे बाँटे जा रहे हैं उन हीरों की कीमत क्या है। कहीं वे हीरे पूछे जाने वाले सवालों के स्तर के तो नहीं है।

    एनडीटीवी अपना चोला बदले यह उसकी मर्जी है। लेकिन एनडीटीवी को अपने दर्शकों से धोखाधड़ी और उनको अपमानित करने का कोई हक नहीं। एनडीटीवी ने पर्यावरण बचाने, देश में हरित क्रांति लाने और देश भर के हजारों लाखों गरीब लोगों को सौर उर्जा के लालटेन देकर घरों को रोशन करने और बिजली बचाने का अभियान भी चलाया ग्रीनाथॉम के नाम से। इस अभियान को इस तरह से प्रचारित किया गया मानो यह कार्यक्रम देश के लाखों करोड़ों लोगों में पर्यावरण और ऊर्जा संरक्षण की दिशा में जागरुक बनाएगा। मगर कार्यक्रम शुरु होते ही ऐसा लगा मानो यह कोई बौध्दिक या वैचारिक कार्यक्रम नहीं बल्कि गीत-संगीत, नाच गानों, ऑर्केस्ट्रा और फूहड़ कॉमेडियनों को मंच देने का कार्यक्रम है। 24 घंटे लगातार चलने का कार्यक्रम बताकर प्रसारित किए जाने वाले इस कार्यक्रम में एनडीटीवी जैसे लीक से हटकर चलने वाले, खबरों को अलग अंदाज में पेश करने वाले और तमाम अच्छाईयों को अपनी विशेषताओं में शामिल करने वाले चैनल ने जिस वैचारिक दिवालिएपन से पेश किया, वह ऐसा ही था जैसा इन दिनों किसी छोटे शहर में कोई स्थानीय कैबल वाला कुछ नेताओं और नाचने गाने वालों को बुलाकर कोई कार्यक्रम कर ले।

    एनडीटीवी ने यह कार्यक्रम बनाया तो अपने अंग्रेजी चैनलों के लिए मगर इसे जूठन की तरह हिन्दी भाषी दर्शकों पर जबरन परोसा गया। इस कार्यक्रम को प्रचारित करते समय एनडीटीवी ने कभी यह नहीं कहा कि यह कार्यक्रम इस देश के उन 6 करोड़ अंग्रेजी भाषियों के लिए होगा, जो आज भी भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी की गुलामी में साँस ले रहे हैं। पूरे कार्यक्रम में कहीं कोई कल्पनाशीलता नहीं थी। इस कार्यक्रम से एनडीटीवी की शोध टीम से जुड़े लोगों की पोल भी खुल गई कि किस तरह किसी कार्यक्रम के लिए शोध किया जाता होगा। पर्यारवरण और ऊर्जा संरक्षण के लिए एनडीटीवी ने चुन चुनकर उन लोगों को बुलाया जो गलती से भी हिन्दी का एक शब्द भी नहीं बोल सके। आश्चर्य और दुःख तो इस बात का है कि एनडीटीवी ने अपने सभी हिन्दी एंकरों और पत्रकारों को अछूत की तरह इस कार्यक्रम से दूर ही रखा। कई बार लगा कि विनोद दुआ, रवीश कुमार, अभिज्ञान प्रकाश, कमाल खान और इनके जैसे वैचारिक प्रतिबध्दता और दर्शकों की नब्ज पर पकड़ रखने वाले लोग इस कार्यक्रम में दिखाई देंगे, मगर एनडीटीवी ने इन हिन्दी वालों को इस कार्यक्रम में फटकने तक नहीं दिया। हिन्दी भाषी दर्शक एनडीटीवी हिन्दी इसलिए देखते हैं कि उस पर उन्हें विनोद दुआ, नगमा, पंकज पचौरी, दिबांग, लखनऊ के कमाल खान, रवीश कुमार या अभिज्ञान प्रकाश, मयूरी डोंगरे जैसे लोगो को देखने और सुनने का मौका मिलता है।

    बात निकली है तो हम यह भी कहना चाहते हैं कि देश भर में होने वाले अलग-अलग पुरस्कार समारोहों में जिनमें मीडिया वालो को पुरस्कार बाँटे जाते हैं, (हालांकि हमारी नजर में पुरस्कार देने वाली इन संस्थाओं की कोई विश्वसनीयता नहीं है) एनडीटीवी की ओर से कभी अपने हिन्दी पत्रकार या एंकर का नाम नहीं भेजा जाता है। अगर एनडीटीवी में कभी पुरस्कार भी मिलता है तो इसके अंग्रेजी चैनल से जुड़े पत्रकारों को ही मिलता है। हम आज यह बात चुनौती देकर कह सकते हैं कि देश के किसी भी चैनल के पास एनडीटीवी के लखनऊ के कमाल खान के मुकाबले का कोई पत्रकार नहीं है, लेकिन कमाल खान को आज तक किसी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया है। कमाल खान जैसे पत्रकार को पुरस्कार की जरुरत भी नहीं क्योंकि सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठकर भी उन्होंने अपने खास अंदाज से अपने दर्शकों और चाहने वालों से वो रिश्ता बनाया है जो आज तक किसी भी चैनल का कोई पत्रकार नहीं बना पाया होगा। खबरों को परोसने के नाम पर बक बक करने वाले संवाददाताओं की फौज तो हर खबरिया चैनल के पास है मगर कमाल खान जैसा कमाल किसी में नहीं है जो अपनी खबर को उसकी पूरी गरिमा, संवेदनशीलता और गहराई के साथ पेश करते हुए सुनने-देखने वाले को झकझोर कर रख दे।

    एनडीटीवी अगर इस बात का दावा करता है कि वह इस देश के करोडों लोगों तक पर्यावरण प्रेम, पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति के संरक्षण का संदेश पहुँचाना चाहता है तो उसको अंग्रेजी की गुलामी छोड़कर इस देश के करोडों लोगों की भाषा में ही बात करना होगी। नाच-नागा दिखाकर और फूहड़ कॉमेडियों से मुंबई-दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों में तीसरे पन्ने पर छपने वाले विदूषकों को मंच पर बुलाकर देश के आम लोगों तक कोई संदेश नहीं पहुँचाया जा सकता। इस देश के करोड़ों लोगों के साथ इससे बड़ा मजाक और क्या होगा कि एनडीटीवी ने अपने पर्यावरण प्रेम को लेकर जो वेब साईट बनाई है वह भी अंग्रेजी में है। शायद एनडीटीवी वालों को पता नहीं कि अंग्रेजी में इससे कई गुना बेहतर और जानकारियों व सूचनाओं से भरी हजारों वेब साईट इंटरनेट पर मौजूद हैं। अगर उनको वाकई अपनी बात इस देश के करोड़ों लोगों तक पहुँचानी है तो वे हिन्दी भाषा में वेब साईट बनाना थी। अगर यह वेब साईट हिन्दी में होती तो एनडीटीवी को अपने कार्यक्रमों के लिए फिल्मी सितारों के नाच गानों और विदूषकों के भरोसे नहीं रहना पड़ता, उनको वे असली लोग मिलते जो अपने दम पर अपने अपने क्षेत्र में पर्यावरण की रक्षा करने में जुटे हैं। और इन लोगों को यह अड़ी भी नहीं है कि वे अपने मीडिया मैनेजरों के माध्यम से एनडीटीवी तक अपनी उपलब्धियाँ पहुँचाएँ, अगर एनडीटीवी को गरज हो तो वह उन लोगों तक खुद जाए। एनडीटीवी ने खुद कई बार ऐसे लोगों को अपनी खबरों में दिखाया है तो फिर उनको यहाँ इस मंच पर क्यों नहीं बुलाया गया, क्या इसलिए कि वे अंग्रेजी नहीं बोल सकते थे?

    हमने इस कार्यक्रम के शुरु होने के कुछ देर बाद ही एनडीटीवी को उनके नंबर पर फोन करके इस बात का विरोध जताया था कि आप इस कार्यक्रम में अंग्रेजी क्यों परोस रहे हैं तो जवाब देने वाले को यह पता ही नहीं था कि यह कार्यक्रम अंग्रेजी में हो रहा है, फोन उठाने वाले ने मासूमियत से जवाब दिया कि आप हमारा हिन्दी चैनल देखें, उस पर यह कार्यक्रम हिन्दी में आ रहा होगा। अब उसको हम कैसे समझाते कि हम एनडीटीवी का हिन्दी चैनल ही देख रहे थे जिस पर अंग्रेजी परोसी जा रही थी।

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  20. waah,magar jee aapne to meri man ki baat kah di.NDTV me pehle saa bahoot kooch nahi hai.
    acche patrakaar awardo ke mohtaaz nahi ,kaaryoparaant santosh hi unkaa param sukh hai.Waise bhi aajkal koi bhi award kaa mulya nahi reh gaya hai jahan kukurmutte jaise kai award ghoos-pairwi par,lottery nikaal kar yaa chaaploosi-jhoothmooth mahimaamandan ke waaste aise hi khairaaton ki terah baatein jaa rehe hon.


    Kamaal khan aur Ravish sachmuch patrakaaritaa karte karte khabron ki aatmaa aur sanwednaa tak pahooch jaate hain aur Vinod dua kaa kataaksh to laajawaab hota hai.

    Angreji bhale hi roji roti aur duniyaa se baat karne ke liye jaroori ho hindustaan ke marm ko jaanane gaaon-dehaat pahoochnaa ho to hindi hi maadhyam hai.
    NDTV ki sewaaon ke gunwatta me aayi giraawat se lagata hai koi jansaadhaaran se prithak koopmanduk hi ise chalaa rehaa hai
    yaa channel kisi aarthik sankat se joojh reha hai.

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  21. रवीश जी ,
    आपकी दोनों कवितायें पढी अच्छी लगीं .खास कर रिक्शा वाले का किराया .
    रिक्शे वाले की संवेदनाओं ,मजबूरियों को वही लिख सकता है ,जिसने उनके जीवन को नजदीक से देखा और उनकी पीड़ा को महसूस किया हो .ये कविता पढ़ कर मुझे अपने मित्र नंदल हितैषी की कविता की कुछ पंक्तियाँ यद् आ गयीं -----
    रिक्शे वाले के पैरों में पडी गांठें
    देख कर मैंने पूछा
    तुम्हारे पैरों में दर्द नहीं होता
    रिक्शे वाले ने जवाब दिया
    बाबू जी
    रिक्शा मैं
    पैरों से नहीं
    पेट से चलाता हूँ .
    ......आपके अन्दर एक संवाददाता के साथ एक संवेदनशील कवि भी बैठा है तभी एपी रिक्शे वाले के दर्द को समझ रहे हैं .बधाई .
    हेमंत कुमार

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  22. ravish ji
    sarvahara kee yhi khani hai. lekeen ab to yeh madyamvarg per bhee lagu hotee hai.rekesevalea ke madyam se aapne logo ko hakekat se rubaru karaya hai is ke leye dhanyavad kavita kafee acchee hai.

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  23. bohot achchaa likhtey hain aap... aapke thoughts apne liye or dusero k liye avismaraniya hain.. i lik ur feeds in Hindustan[hindi]also.

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