जब भी आप मिलते हैं किसी से
तो वाकई खुश होते हैं आप
या हंसना आ गया है आपको
हर किसी से मिलने के बाद
हाथ मिलाना आ गया है
दांत फाड़ कर और गोल कर
अपनी आंखें, जब मिलती है उससे
झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है
ऐसी तमाम मुलाकातों के बाद जब
एक भी मुलाकात बिस्तर पर याद नहीं आती
गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह
जागने के बाद उसका चेहरा याद ही नहीं आता
ऐसे तमाम झूठे मुलाकातियों से हर रोज
हाथ मिलाने का मन नहीं करता
लगता है लात मार कर भगा दूं
और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को
जो फिक्र करते थे कभी मेरी,
कभी मेरे लिए चाय बना देते थे
फिल्म जाने से पहले किचन में
छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
सिर्फ मेरे लिए
अब नहीं है वे सब...
वे भी कहीं ढूंढते होंगे मुझको हर दिन
अपनी अपनी नौकरियों में मुलाकातियों से मिलने के बाद
गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह
Cliched but sadly true. Touching!
ReplyDeleteलेकिन फिर भी वो दोस्त अभी याद आते हैं
ReplyDeleteजो कॉलेज और स्कूली दिनों में
ढेर सारा प्यार और अपनापा देते थे...
आज भी बिस्तर पर याद आते हैं .
..बस एस एम् एस या ईमेल मिलने से
मन हरा हो जाता है....
वैसे दोस्त अब बनाने पड़ेगे ..
क्या बन पाएंगे
भाई रवीश जी ,
ReplyDeleteदोस्त की तलाश में अपने बहुत अच्छी ,
मार्मिक कविता लिख डाली .बधाई .
खास कर ये पंक्तियाँ अच्छी लगीं .
जो फिक्र करते थे कभी मेरी,
कभी मेरे लिए चाय बना देते थे
फिल्म जाने से पहले किचन में
छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
सिर्फ मेरे लिए
वाकई ,दोस्त ऐसे ही होने चाहिए .
हेमंत कुमार
वो कुछ और थे और ये कुछ और हैं. आभार.
ReplyDelete"अभी आप ही को सुन रहा था.......है हिम्मत तो कोई हाथ उठा ले....ग़ालिब पर|"
ReplyDeleteअपनी आंखें, जब मिलती है उससे
झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है|
कुछ याद दिला गए आप|!!
दांत फाड़ कर और गोल कर
ReplyDeleteअपनी आंखें, जब मिलती है उससे
झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है......
par...
ऐसे तमाम झूठे मुलाकातियों से हर रोज
हाथ मिलाने का मन नहीं करता
लगता है लात मार कर भगा दूं
और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को
जो फिक्र करते थे कभी मेरी, .......yahi sach hai,bahut achhi rachna
फिल्म जाने से पहले किचन में/ छोड़
ReplyDeleteजाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
ओहोहो, कितना मार्मिक.. कहां बिलाये सब दोस्त, आपकी तरह नौकरी पकड़ मुलाक़ातियों से मिलने निकल लिये?..
मनुष्यता के मोर्चे पर
ReplyDeleteरविशजी
ReplyDeleteभावुक कविता है. पद्य कहें या गद्य ?
शेक्स्पीअर बाबा तो पहले कह हिन् गए हैं की आख़िर नाम में क्या रखा है ?
बाद के दिनों में ऐसा क्या हो जाता है की पुराने दौर सरीखे भरोसे मंद मित्र नहीं मिलते ?
एक संशय है की क्या मित्र शव्द के पहले किसी विशेषण की वाकई कोई जरूरत है ?
बाद के दिनों में ऐसा तो नहीं की तंगदिली दोनों तरफ़ से हो जाती है.
असुरक्षा , रोजमर्रा के भागदौड़ , बढती आत्मा केंद्रित या फिर विशुद्ध स्वार्थ .
क्या वाकई बाद में दोस्त और दोस्ती का लुप्त प्रे हो जाना अनिवार्य परिणति है ? मेरा निजी अनुभव थोड़ा अलग रहा है.खैर अगर आप इस पर प्रकाश डालें तो बढिया होगा .
सादर
हां यही सच है।रोज़ मिलने वाला दोस्त नही हो सकता। हर मुलाकाती दोस्त नही हो सकता और यूंही ढूंढने से कंही कोई दोस्त नही मिल सकता।दोस्त तो रहता दिल के अंदर और शायद दिमाग के भीतर यादों के जंगल मे।बहुत सही बात कही आपने।
ReplyDeleteरविश जी,
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक बर्णन किया है आपने सच्ची दोस्ती का. पुराने दोस्तों की तो बात ही कुछ और है, लेकिन अब तो आपके दर्शक ही आपके सच्चे दोस्त है जो आपको बुलंदियों पर पहुँचा रहे है..
फिल्म जाने से पहले किचन में
ReplyDeleteछोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
सिर्फ मेरे लिए
अब नहीं है वे सब...
वे भी कहीं ढूंढते होंगे मुझको हर दिन
अपनी अपनी नौकरियों में मुलाकातियों से मिलने के बाद
गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह
बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है दोस्त
बहुत सुंदर लिखा है....
ReplyDeleteआपकी कविता बिल्कुल मेरी कहानी मालूम पड़ती है, मेरे शब्दों में शायद उतनी ताकत नही की मैं ये बता सकू की आप ने कितना शानदार लिखा है.. बिल्कुल ही मेरी कहानी और शायद मेरे जैसे और भी कितने लोगो की कहिनी बयां करती है आपकी कविता .....
ReplyDeleteहाय..... क्या याद दिला दिया आपने...
ReplyDelete- आनंद
आओ इसके लिए वक़्त को ज़िम्मेदार कहें...
ReplyDeleteएक वक़्त था
जब हम साथ रहते थे हमेशा
घर में
स्कूल में
मैदान की धूल में।
लेकिन आज
चाह कर भी मिल नही पाते।
ना जाने तुम कहाँ हो...
पर मुझे ख़ुद की भी तो ख़बर नहीं .....
जाने क्या हुआ है
ख़ुद को खो चुका हू
ऐसे में कैसे ढूंढूं तुम्हें
कहां ढूंढूं तुम्हें ?
सोचता था पहले
की तुम बदल गये हो
या फिर मैं ख़ुद बदल गया हू
लेकिन आज
दफ़्तर से आकर एहसास हुआ
कि ग़लती हमारी नही
जीने के लिए पैसा चाहिए
सिर्फ़ दोस्ती और भावनाएँ नही
और मजबूरी में सभी बंधे हैं
आप भी और मैं भी।
जिम्मेदारियों के बहाने
हम खुद तक सिमट जाते हैं,
फिर भी खुद को दोष न दें
आओ इसके लिए वक़्त को ज़िम्मेदार कहें
इसके लिए वक्त को जिम्मेदार कहें को सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं, एक बार अवश्य सुनें
ReplyDeletehttp://boltachittha.blogspot.com/2008/11/blog-post_21.html
तसले में खिचडी / तहरी छोडकर जाने वाले दोस्तों से इलाहाबाद में अबकी मिल आया हूँ। पट्ठों ने तहरी तो मेरे लिये बना दी, खुद आश्रम के भोग लगाने मेला क्षेत्र चले गये। सुना है कम्पटीशन की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स मेला चलने तक भोजन बनाना, अपने लिये घोर पाप मानते हैं। (अल्लापुर क्षेत्र कम से कम इस मामले में अपने नियम का पक्का है, जहाँ टिक कर पढने वाले स्टूडेंट्स की संख्या अच्छी खासी है :)
ReplyDeleteबढिया पोस्ट।
और काश,
ReplyDeleteइस शहर में अदद एक दोस्त होता
कम से कम एक कंधा ही सही
जिस पर बेचैन होते ही रख देता अपना सिर
और सारा दर्द पिघल जाता धीरे-धीरे
सर आप बहुत अच्छा लिखते हैं
ReplyDeleteस्कीन पर बहुत अच्छा दिखते हैं
प्रोग्राम तो बस आप ही के बिकते हैं
आपके सामने बाकी एंकर कहां टिकते हैं
यानी सब आपकी ही माला जपते हैं।
मैं गलत तो नहीं शायद
कड़ी ढंड में इन्हीं भाटों और
चारणों से आपके कान सिकते हैं।
भांडों की इस खिचड़ी में तुम वो वाले
दोस्त ढूंढ रहे हो मेरे भाई
तुम छोटे हो या बड़े, वो तो बिना
मतलब की दोस्ती रखते हैं।
लेकिन उनको तुम कहां ढूढ पाओगे...
जिस दिन से पता चला है
मीडिया पर मंदी की मार है
वो तो तुम्हारी सलामती के लिये
मंदिर से गुरद्वारे तक मारे-मारे फिरते हैं।
सर ! मैं नोस्ताल्जिक हो गया/ दिल बहुत करता है की वक्त मिले तो पटना घूम आयें/ लोयोला स्कूल के दिन के उन पुराने दोस्तों से मिल उनका हाल पूछ लें/ इस पुरे नोस्टाल्जिया एक कमी बाकी रह गई है वो अपने लोयोला के पड़ोस का स्कूल.. ..अगली बार उसे भी पूरा कर दीजियेगा सर/
ReplyDeleteबहुत खूब /
रविश जी ,
ReplyDeleteदोस्तों के बारे में आप के दर्द को पढ़ा . वाकई इस मतलबी दुनिया में एक सच्चा दोस्त मिलना काफी मुश्किल काम है . यहाँ पर मै अपने पिताजी द्वारा लिखे गए शायरी के कुछ अंश का जिक्र करना चाहता हु
तुम्हारे सामने जो दोस्त नज़र आते है .
वही पे छिपा ,तेरा लुटेरा होगा .
रविश जी , दोस्त अब दर्द का नाम बन कर रह गया . आज की तारीख में मुझे लगता है , की सच्चा धनवान वही है ,जिसे कोई सच्चा दोस्त मिल गया हो . मै यहाँ पर दिवंगत कथाकार कमलेश्वर जी कुछ पंक्तियों का जिक्र करना chata हु , जो दोस्त पर तो नही है लेकिन दुसरे नज़रिए से देखे तो मतलब वही निकलता है .
सब को तलाश है , आख़िर kushi है क्या ,
तुमको कही मिली हो , तो बोलो पता है , क्या .
आज के दौर में जहा लोग दुसरे लोगो को अपने घर इस लिए लेकर नही ले जाते , की कही वही दोस्त उसकी पत्नी को pata कर भाग न जाए , ऐसे दौर में सच्चे दोस्त की तलाश मत कीजिये ,
आप ख़ुद के ही अच्छे दोस्त बनिए .
लतिकेश
मुंबई
जिस मुकाम पर आप हैं, वहां मतलबी ढोंगी दोस्त हजारों मिलेंगे, मगर जिनकी तलाश है वो तो बहुत पिछे छूट गए होंगे.. सब के साथ ऐसा ही होता है..जिनको दोस्त कहकर मन खुशी से झिलमिला उठाता है. जिनके जिक्र से सीना फूल जाता है..वो दोस्त तो मिलने मुश्किल है रवीश कुमार जी... नौकरी के दौरान मिलने वाले दोस्त तो कल के अख्बार की खबर जैसे होते हैं..
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है आपकी.
ReplyDeleteयुवा शक्ति को समर्पित हमारे ब्लॉग पर भी आयें और देखें कि BHU में गुरुओं के चरण छूने पर क्यों प्रतिबन्ध लगा दिया गया है...आपकी इस बारे में क्या राय है ??
दस्तूर हैं झूठी मुलाकातें , दुनिया का कारवां पीछा कर रहा है इस दस्तूर का। सफलता का मंत्र है यह, खासकर खबरनवीसों की दुनिया में। जहां योग्यता होने पर भी जुगाड़वाद का झंडा उठाकर चलना मजबूरी है। ज्ञान आधारित रोजगार के इस जगत में आज भी चाटुकारिता और संबंधों के आधार पर नौकरी बनती और बिगड़ती है। झूठा आदर। बेमन चरण धूलि में लोटना, ये टॉनिक की तरह काम करते हैं, लेकिन आज भी हैं कुछ मेरे जैसे बेवकूफ हैं जो इस कला में पारंगत नहीं हो सके। खुद में झांको तो पिछड़ने का एक कारण ये भी लगता है, लेकन उसी पल स्वाभिमान के बचे रहने का गर्व भी आल्हादित कर देता है। मेरा भी वक्त आएगा कभी, मुझे भी मिलेंगे झूठे मुलाकातिए, लेकिन उस झूठ में सच को पहचानने की कोशिश जरूर करूंगा।
ReplyDeleteहाँ मैं भी याद करने लगाहूं , शामिल होगया हूँ कारवां मैं, हर रोज कुछ कोस तय करता हूँ, और एक दिन के ख़त्म होती रात और उगने वाले नए दिन के दरमियान ही साथियों के साथ समय मिल पाता है, फ़िर दिन भर मुलाक़ात नहीं और बात नही, थोड़ी सी फुर्सत मैं सब याद करते करते काम की सुद आते ही खोजाते है काम मैं, अपना और दोस्तों का निशाँ नहीं रहता, फ़िर होती है रात, रात के बाद आधी रात और उसके बाद अगले दिन की सुबह, यही वक़्त होता है मेरा और दोस्तों का ....... तब आपस मैं बैठ याद करते हैं अच्छे बुरे दिन .......रविश आपके साथ भी ऐसी ही यादें हैं शायद उन दिनों को याद दिलाने का शुक्रिया ............
ReplyDeleteऔर ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को
ReplyDeleteजो फिक्र करते थे कभी मेरी,
कभी मेरे लिए चाय बना देते थे
फिल्म जाने से पहले किचन में
छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
सिर्फ मेरे लिए.
बहुत करीब लगी ये पंक्तियाँ. आपकी पिछली कई पोस्ट में सहमती नहीं बन पाती थी. इसलिए टिपण्णी नहीं कर पाता था. आज बहुत दिनों बाद ये मनमुताबिक पोस्ट मिल गई.
पूरी पोस्ट और सभी कमेंट्स में यही शिकायत है कि सच्चे दोस्त अब नही मिलते हैं....और जो दाँत निकालकर और आँखे गोल कर मिलते हैं सब फरेबी हैं.....लेकिन पोस्ट और पोस्ट पर कमेंट करने वाले ये भूल गयें कि वो भी दिन भर में कितनी बार आँखे गोल करते होंगे और पीले दाँत निकाल कर नकली हँसी हंस कर असली दोस्त होने का दंभ भरते होंगे.....
ReplyDeleteकोई हाथ भी ना बढ़ायेगा
ReplyDeleteजो गले मिलोगे यूं तपाक से
ये नये मिजाजों का शहर है..
जरा फांसले से मिलो....
ये सही है कि आज के दौर में..कागजी दुनिया..दौड़ती-भागती जिंदगी में...जहां हम काम करते हैं...दो वक्त की रोटी के लिये जद्दोजहद करते हैं,(रोटी घर की हो या फिर फाइव स्टार में लंच डिनर)...वहां सच्चे दोस्तों की कमी है...आमतौर पर औपचारिक,पेशेवर तरीके से लोग मिलते हैं...झूठी हंसी,दोस्ती की फीकी चादर ओढ़े हुए ऐसे बहुत से लोग हमें रोज मिलते हैं...हम भी जानते हैं..वो भी जानते हैं कि ये रिश्ता..या दोस्ती महज काम निकालने या काम करने के लिये हैं..हम अपने कॉलेज के..बचपन के,मौहल्ले के उन दोस्तों को याद करते हैं...जो हमारे लिये अपने घर में डांट खाते थे...कहीं शादी में गये तो..हमारे लिये भी साइड से एक थैली में गाजर का हलवा भर लाते थे..पैसे मिलाकर पिक्चर देखना,होटल में दस-दस रूपये मिलाकर बिल चुकाने वाले...उन दोस्तों की जगह कोई कभी नहीं ले सकता...लेकिन ऐसा भी नहीं है कि समय और जगह बदलने के साथ हमें नये और भरोसमंद दोस्त नहीं मिलते...सौ की भीड़ में एक या दो लोग अब भी ऐसे निकाल आते हैं..जो पुराने दोस्तों की याद ताजा कर देते हैं...उनकी कमी को पूरा करने की कोशिश करते हैं...उन्हें गले लगाकर वही अपनापन,भरोसे और इत्मिनान का अहसास होता है...वो भी मुश्किल में साथ देते हैं..सुख-दुख में गले लगाते हैं...जरूरत बस...दोस्ती की उस नजर,उस शख्स को पहचानने ओर उस हाथ को पकड़ने की है...
bahut hi badiya hai......hal hi mai apka taliban ka tamasha dekha...puri special report ki drafting aur apne hi pale mai khade logo ki alochana adbhut hai
ReplyDeleteऐसी तमाम मुलाकातों के बाद जब
ReplyDeleteएक भी मुलाकात बिस्तर पर याद नहीं आती
गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह
जागने के बाद उसका चेहरा याद ही नहीं आता ...Bahut Khubsurat likha hai apne...!!!
bahut khoob Ravish ji,
ReplyDeletePar aaj ke zamane mein ab achche dost milte kahan hain..
Ravish ne asahaj or nakali daur ko thik se ukera IS rachana mein.jivan jab tez or gatiman hota jata hai to nakalipan badhata jata...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव हैं.आपके ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ, अच्छा लगा.
ReplyDeleteदरअसल, सवाल यह भी है की क्या हम ख़ुद किसी के दोस्त रह पाए हैं? क्या हमारे पास किसी का ख्याल रखने का वक़्त है? अगर हम किसी के अच्छे दोस्त हैं तो तय मानिये आप को आज भी अच्छे दोस्त जरूर मिलेंगे. आख़िर दुनिया में हम ही अकेले भले आदमी नहीं हैं न!
ReplyDeleteआदरणीय रवीश जी,
ReplyDeleteएक बेहद मार्मिक वर्णन है पर शायद लगता है कहीं हम सब जिंदगी की रेस में दोस्ती जैसे रिश्ते को नज़रंदाज़ करे बैठे हैं. हम सिर्फ़ चाहत की उम्मीद लगाए रखते हैं और भूल जाते है कि चाहत के लिए पहले किसी को चाहना पड़ता है फिर चाहत कि उम्मीद की जा सकती है.
बधाई हो रवीशजी लिखते रहिये.
एस.के. वर्मा
team-skv.blogspot.com
Ravishji, apne kuchh sher yaad aa gaye...kuchh aapke paksh meN khade ho jayeNge to kuchh vipkshi banKar chirhaa bhi sakte haiN..fir bhi parhane meN koi buraayi bhi nahiN..lijiye puri ghazal hi pesh kiye deta huN :-
ReplyDeleteग़ज़ल
चार दिन तो आप मेरे दिल में भी रह लीजिए
पाँचवें दिन फ़िर मेरे घर में बसेरा कीजिए
राज़े-दिल दुनिया से कहने ख़ुद कहाँ तक जाओगे
बात फैलानी ही हो तो दोस्त से कह दीजिए
आपका-मेरा तआल्लुक अब समझ आया मुझे
कीजिए सब आप और इल्ज़ाम मुझको दीजिए
दोस्त बनके जब तुम्हारे पास ही वो आ गया
खुदको अपने आपसे अब तो अलग कर लीजिए
मय मयस्सर गर नहीं क्यूं मारे-मारे फिर रहे
जिनका दम भरते थे उन आँखों से जाकर पीजिए
wo dost yaad aate hain...
ReplyDeletejinki baatein gaali se shuru hoke gali pe khatam hot thi. Cigrette pite wqut haat se cheen lete the. abe akale marna chahta hai kya?....
...aur bhi kai baatein....
.....yaad aati hai gulzar sahab ki nazm
"dil dhoondta hai..."
bahut badiya lekh...
so very nostlagic....
अंतरमन से निकले शब्द एक बेहतरीन कविता बन गए हैं।
ReplyDeleteSACHIN KUMAR
ReplyDelete..................
DOSTI HAI HI BADA PAVITRA RELATION. JISE AACHE DOSH MIL JAYE UNKA JIWAN BEHTAR HONA TAY JANIYE. KHUN KE SAMBAND JISE KABHI-KABHI HAME DHONA PADTA HAI LEKIN YE DOSTI HUM APNI PASAND KA CHUNTE HAI. IS RELATION PER JITNA LIKHA JAY KAM HAI. O KHICHARI WALI BAAT DIL KO TOUCH KAR GAYI
Manav jiwan ka satahi satya yehi hai - bachpan mein titliyon ke peeche bhagta hai, her naya khilona pehle achcha lagta hai, aur phir bore ho jata hai anant 'Mayajaal' se, jis mein wo khud ko bandha pata hai!
ReplyDeleteHan bilkul, jinki aap bat karte hai vo to matalab ke liye hote hai aur sachche Dost aaj kahan milte hai?kahan Bachapan aur Kishorpan ka bhola pan aur kahan Aaj ki Matlabi dosti are AASMAN-ZAMEEN ka fark hai. chalo kher pata to chal hi jata hai yahi bahot hai, Aage se pahchan payenge In logon ko ,
ReplyDeleteBadhai ek sachchi bat ke liye.
बहुत सुन्दर लिखा आपने, बधाई.
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग शब्द-शिखर पर भी आयें !
नई प्रस्तुति है- अभी से चढ़ने लगा वैलेंटाइन डे का खुमार!!
wakayi me...ye sachai hai... har kisi ko ko talash hoti hai ek dost ki..aise dost ki jo uski bhawnao ko samjhe...
ReplyDeleteहाथ मिलाना आ गया है...
ReplyDeleteZindgi me ek mukammal mukam ki talash me,
Doston ke bagair,
Hame badbdana aa gaya hai.
Shayad ye zingadi ka khel hai,
Use bhi isi bahane apna man bahlana aa gaya hai.
Nikhil.
Raveesh Bhaiya
ReplyDeletehila diya aapki
kuch panktiyo ne
ek sher fir yaad aa gaya
jinka duniya main koi dost nahi
sabse badaker garib hote hain
Dikshant
मेरठ में हो रहा है हिन्दी ब्लागिंग पर भव्य सेमिनार
ReplyDeleteकही अनकही बातों की अदा है दोस्ती,
ReplyDeleteहर गम की सिर्फ़ एक दवा है दोस्ती,
सिर्फ़ कमी है महसूस करनेवालों की,
महसूस करो तो ज़मीन पे जन्नत है दोस्ती
फुटनोट: ये मेरा स्वरचित नहीं है।
लात तो मार नही सकते, रिश्ते दिल मिले ना मिले हाथ तो मिलाना ही पड़ता है। रविश आपने बहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeletereally good one abt friendship...keep writing...
ReplyDeletei was searching for Hindi typing tool and found 'quillpad'.do u use the same for typing in ur blog...?
:) kahi na kahi ye bhi dev d ka hi asar dikhta hia dost!
ReplyDeleteYou have a multi-skilled personality. You are a good orator, good anchor, good writer and now i came to know that you are a superb poet too.
ReplyDeleteरविशजी किसी विद्वान ने कहा है कि सच्ची दोस्ती सिर्फ बचपन की होती है... क्योंकि वो बिना किसी लाभ-हानि के समीकरणों को देखे हुए होती है... लेकिन बचपन की दहलीज पार करने के सिर्फ संबंध बनते हैं दोस्ती नहीं होती.
ReplyDeleteAadmi shayad khud hi apna sabse achchha dost hota hai! Aur shayad khud hi sabse khatarnak dushman bhi!
ReplyDeleteRAVISH JEE
ReplyDeleteAAJ KEE DUNIYA KEE HAKEEKAT HAI KAVITA. DOST AUR MULAKATEE MEIN ANTAR HAI. EK DOST KA INTJAR KARNA HEE PADTA HAI. KAVITA DEL KO CHUTEE HUI YADON MEIN BALAT LEE JATEE HAI. YAHEE ESKEE SAFALATA HAI.
ravish jee,
ReplyDeletedostee ke maynai badal chukea hai. mulakatee aur dost mein fark hai. hal yeh hai ke na dost hai na rakeeb hai.kavita behad marmeek hai. lakeen fark kise hai.
Aapki is rachana mein bedhanewali awaj hai. dikkat yeh hai ki sahaj log kam hote ja rahe hain.apni is marak rachana ke liye badhayee lein.
ReplyDelete