अनुसूचित जाति का पंडा-हरिद्वार का क्रांतिकारी
यह तस्वीर हरिद्वार के गंगा घाट से ली गई है। ध्यान से देखिये। अनुसूचित जाति का पुजारी पंडित गंगाराम। नज़र पड़ी तो ख़बर जानने पहुंच गया। पंडित गोपाल मिले। पंडित गंगा राम की पीढ़ी के प्रपौत्र। कहानी बताने लगे तो लगा कि कोई भारत के धार्मिक सामाजिक इतिहास के पन्ने उलट रहा हो।
बहुत पुरानी बात है। संत रविदास हरिद्वार आए। पंडितों ने उनका दान लेने से मना कर दिया। पंडित गंगा राम ने कहा मैं आपका दान लूंगा और कर्मकांड संपन्न कराऊंगा। पंडित गोपाल आगे कहते हैं- उस वक्त हंगामा हो गया। ब्राह्मण पंडो ने कहा ऐसा होगा तो आपका सामाजिक बहिष्कार होगा। मगर पंडित गंगाराम ने परवाह नहीं की और संत रविदास से दान ले लिया। संत रविदास ने उन्हें पांच कौड़ी और कुछ सिक्के दान में दिये। उसके बाद पंडों की पंचायत बुलाकर कई फैसले किए गए। फैसला यह हुआ कि अब से कोई सवर्ण और ब्राह्मण पंडित गंगाराम से कोई धार्मिक कर्मकांड संपन्न नहीं कराएगा। पंडित गंगाराम ने भी कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं लेकिन वो अपने फैसले पर अडिग हैं और उन्हें कोई पछतावा नहीं है। उसके बाद तय हुआ कि कोई पंडित गंगाराम के परिवार से बेटी-बहिन का रिश्ता नहीं करेगा।
पंडित गोपाल कहते हैं आज भी पंडों की आम सभा गंगा सभा में उन्हें सदस्य नहीं बनाया जाता। तब के फैसले के अनुसार कोई सवर्ण हमसे संस्कार कराने नहीं आता। हमारे पास सिर्फ हरिजन और पिछड़ी जाति के ही लोग आते हैं। पंडित गोपाल कहते हैं पुराने ज़माने में कोई हरिजन हरिद्वार नहीं आता था। एक तो उनके पास यात्रा के लिए पैसे और संसाधन नहीं होते थे दूसरा उन्हें गंगा स्नान से वंचित कर दिया जाता था। साथ ही पंडा लोग दलित तीर्थयात्रियों का बहिखाता भी नहीं लिखते थे। हरिद्वार आने वाले सभी तीर्थयात्रियों का बहिखाता लिखा जाता था जिससे आप जान सकते हैं कि आपके गांव या शहर से आपके परिवार का कोई सदस्य यहां आया था नहीं। बहरहाल हरिजन का बहिखाता नहीं होता था। लेकिन पंडित गंगा राम ने वो भी शुरू कर दिया। पंडित गंगाराम कहते हैं कि पिछले तीस साल से दलित ज़्यादा आने लगे हैं। दान भी ख़ूब करते हैं। हमारे परिवार का कारोबार भी बढ़ा है। अब हमारे परिवार के चार सौ युवक पंडा का काम कर रहे हैं। हमारी शादियां बाहर के ब्राह्मणों में होती है। यहां बात समझ में आ रही है कि यह वही तीस साल है जब आरक्षण से दलितों की आर्थिक हैसियत में सुधार आया होगा। और अब जब उन्होंने सत्ता हासिल कर ली है तो उनके दान की क्षमता और भावना में भी वृद्धि हुई है। पंडित गोपाल का यह सामाजिक विश्लेषण किसी भी शोधकर्ता के लिए महत्वपूर्ण हो सकती हैं। उन्हें इनके यहां रखे बहिखाते को देख कर पता लगाया जा सकता है कि कब से और कहां से दलितों ने सबसे पहले हरिद्वार आना शुरू किया? अब आने वालों का पारिवारिक विवरण क्या है? इन बहिखातों से दलितों के नामकरण में आ रहे बदलाव का भी अध्ययन किया जा सकता है।
बहरहाल आप इस तस्वीर में पंडित गंगा राम का नाम ध्यान से देखिये। लगता है कालक्रम में उनके नाम गंगा के साथ राम जुड़ गया होगा। हमारे समाज में राम के कुछ निश्चित स्थान है। एक सबके आस्था के राम हैं। एक राम राष्ट्रवादी राजनीति के हैं जिनके नाम पर इनका नाम लेने वाले कुछ भी कर सकते हैं। तीसरा दलितों के नाम के बाद आने वाले राम हैं। जब इनके साथ राम का नाम लगता है तो सवर्णों को याद आता है कि इनसे दूर रहना है।
एक सवाल और है। पंडित गंगाराम की पहल से धार्मिक व्यवस्था खत्म नहीं हुई बल्कि उसमें नए लोगों के लिए जगह ही तो बनी। सामानांतर व्यवस्था खड़ी नहीं हो सकी। पंडित गोपाल ने एक बात खूब कही। सोच कर देखिये कि उस ज़माने में पंडित गंगाराम ने यह कदम उठाया था। पंडित गंगाराम को सलाम।
गजब की चीज़ खोज लाए हैं, मेरा पुश्तैनी घर हरिजन टोला से ज्यादा दूर नहीं था, उन्होंने अपना मंदिर बना रखा था जिसमें देवी देवता वही थे लेकिन उनके देवताओं को भी सर्वण अछूत ही मानते थे, न कोई सर्वण उनके मंदिर का प्रसाद लेता था और न ही दर्शन के लिए जाता था. एक गांजा पीने वाला पंडित था जो उनके यहां पूजा कराता था लेकिन उस पंडित को सबने जात बाहर कर दिया था. सदानंद पंडित बेचारा राँची में था, हरिद्वार में होता तो कुछ बात बनती...
ReplyDeleteravish ji aapko sadhuwad es adbhut khoj ke liye.
ReplyDeleteधर्म का धंधा अपना दायरा कभी सिकुड़ने नहीं देता, बल्कि कई शक्लों में उसे फैलाता जाता है. आपकी निगाह की तारीफ करता हूँ.
ReplyDeleteजाति-वर्ण का खुला खेल लेकिन किसी को फिक्र नहीं। जाति-धर्म के आधार पर भी भेदभाव भी एक पवित्र परंपरा बन गई है
ReplyDeleteपंजाब के डेरों से भी ऐसी ही कहानी सामने आएगी। रोचक और सोचने के लिए नया नजरिया देने वाली पोस्ट के लिए धन्यवाद रवीश जी। झारखंड-पश्चिम बंगाल में पिछड़ी जातियों के पुजारी ब्राह्मणों की भी अलग जाति है, जिनमें जाति के बाहर शादियां नहीं होतीं। सवर्ण जजमान भी उनके पास नहीं होते।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!!!
ReplyDeleteपटना स्टेशन के पास वाले " हनुमान मन्दिर" के संरक्षक और पूर्व पुलिस अधिकारी आचार्य किशोर कुनाल जी ने भी हनुमान मन्दिर का पुरोहित एक हरिजन को बनाया था ! शायद - वह पुजारी जी अभी भी वहाँ हैं ! ब्राहमणों ने भारत पर बहुत अत्याचार किया है और शायद अब भी कर रहे रहे हैं - मैथिल ब्रह्मं "जनेऊ" के वक्त 'खंसी" का मीट खाते हैं और 'भंषा घर' मी हड्डी को गड़ते भी हैं - कुछ इनके इतिहास पर भी चर्चा करें !
ReplyDeleteRavish ji, Maini abhi abhi J.N.U. se Saint Ravidas ji par Ph.D. Complete kiya hai. mai dawe ke sath kah sakta hu ki Saint Ravi das kabhi Haridwar nahi gaye. Ye jarur hai ki Brahman Dur Dristi wale hota hai. Panda Ganga Ram ne ye anuman laga liya hoga ki aane wale samay me Dalit Bhi Haridwar aana shuru karenge, isilie Ravi das ke name ka Patent Apne pas hi rakha liya jay. isilie aajkal unki Aamdani jara jyada barh gai hai. Inko Krantikari kahne ke bajay Vyapari kahna jayada thik hoga.
ReplyDeleteDr. Rajesh Paswan
paswan_rajesh@yahoo.co.in
ravish ji, itni acchi chij khoj lane ke liye aapko sadhuwad. asliyat chahe jo bhi ho par itna to tai hai ki is desh men dharm ke naam par gorakhdhandha asani se band hone wala nahi hai.
ReplyDeleteI have always lived as a neighbour to a 'Harizan Basti',which used to be part of a playground. On its wall, we had a certain Pundit's advertisement who claimed to be the 'only' Pundit for Harizans in the town. Your post reminded of that advertisement. The basti is now seperated from the playground and the playground is more famous for its Rajeev Gandhi Memorial Tarantaal.
ReplyDeleteAlso take this opportunity to invite you to www.pratilipi.in, a bilingual (Hindi-English) literary magazine.
Why it has been reserved for SC/ST only? Can Pandit Gangaramjee take a lesson from dalit priests from Bihar who serve to all.Ye ek achha example ho sakata hai lekin eenako kisi ne reserve kar diya. Dusare ko mauka nahin milega eenka ashirvad paane kaa.
ReplyDeleteAapke blog ka comment padh kar mujhe gajal gayako kee mandli yaad aati hain. Har line ke baad wo wah wah karte hain. Aapke blog par bhi log bina padhe just WAH WAH karte hain.
ReplyDeleteराजेश पासवान जी
ReplyDeleteबिल्कुल हो सकता है कि रविदास हरिद्वार नहीं गए हों। लेकिन कहीं न कहीं से यह उस पंडा परिवार की स्मृतियों में आ गया होगा। वहां बाबू जगजीवन राम की लगाई रविदास की प्रतिमा है। हो सकता है कि इससे बाद की पीढ़ियां समझने लगी हों कि संत रविदास का दान लिया गया होगा। या हो सकता है कि उस हरिजन का नाम भी संयोग वश रविदास हो। कई बातें हो सकती हैं।
पंडा गंगा राम के अनुमान की बात से सहमत नहीं हूं। यह अनुमान कोई कैसे लगा सकता है कि आने वाले समय में दलित हरिद्वार आयेंगे। किसी को इतनी जल्दी खारिज नहीं कर देना चाहिए। आखिर यह परिवार हरिजन का दान लेकर बहिष्कृत क्यों होना चाहेगा? क्या वो बाकी जातियों के दान से नहीं कमा सकता था? जब बाकी सारे कमा रहे हैं तो वह क्यों नहीं कमा सकता था? रही बात धर्म के गोरखधंधे की तो उसे लेकर कोई झगड़ा नहीं है।
मेरे मित्र उमाशंकर ने पाकिस्तान से नुसरत फतेह अली का एक कैसेट लाकर दिया है। उसका एक गाना है- तू एक गोरखघंधा
सबसे पहले तो यह चीज गजब की है, इसके लिए आपकी प्रशंसा जितनी की जाए कम है. रविदास गए थे की नही यह शोध तो हमारे हमनाम कर ही रहे हैं लेकिन गंगा राम ने जो भी किया वो भी काबिले तारीफ़ है. ये जग अँधा तू है गोरखधंधा
ReplyDeleteAsli ‘Brahmin’ wo kahlaya jo ‘Param Satya’ ko ‘satya’ se bhinna jan paya…
ReplyDeletePauranik kal ke Gyani ne prakriti ke ‘satya’ ko ‘asatya’ jana. Is karan prithvi ko maya athva ‘mithya jagat’ kaha…aur jo ise ‘vartman’ ka satya mante hain, unhein mayavi rakshash kaha…
Shukracharya (paschim ke liye Venus, jinka satva kantha athva gale mein bataya gaya, mayavi rakshashon ke Guru kahlaye gaye.
Unke shishyon ka karya yehi jana gaya ki we ‘Param Satya’ tak athva Shunya tak unhin manav ko pahunchne dein jo devta swaroop hon, jo birle kabhi kabhi kisi kal mein ikka-dukka utpanna hote hain…umhain Vishnu ka avatar mana gaya…Ram aur Krishna jaise… Aur ‘moorkha’ athva agyani bahusankhyak mane gaye kisi bhi kal mein! Aur, Ganatantra mein bahushankhyak rajya karte hain, prakriti ke niyamanusar! Gita mein Krishna is liye karma ko Prabhu per samarpan karne ko kahte hain – jaise ap cinema hall mein hath per hath dhare baithne mein sharmate nahin hain! Kisi ne ise kaha, “Majboori ka nam Mahatma Gandhi.”
हरिद्वार हमारी ननिहाल है और बरसों से हम वहां जाते रहे हैं। इस तस्वीर वाले स्थान को भी देखा है और इसकी कहानी को भी अलग-अलग आयाम से सुना है। ये समाजशास्त्रीय आयाम ज़रूर है पर सभी बातें सौ फीसद तथ्यपरक नहीं हैं।
ReplyDeleteसौ फीसद तथ्यपरक नहीं हैं ऐसा लगता है- पढ़ें।
ReplyDeleteआज सुबह जब एक लड़्की को जिन्दा जलाने कि न्यूज देखी तो उसको समझ नहि सका, लेकिन जब ओफ़िस आया ओर एन डी टीवी खबर का पॊर्ट्ल देखा ओर न्यूज को डिटेल मे पड़ा तो हेरान रह गया कि हमारे देश मे ये क्या हो रहा है । एक लड़्की को सिर्फ़ इस लिये जिन्दा जला दिया गया क्योकि वो एक दलित थी ,ओर एक उची जाति वाले के घर के सामने से गुजर रहि थी । उसके बाद जब आपके ब्लाँग पर आया तो आपका यह अर्टिकल पड़ा । दोनो को जोड़्ने की कोशिश कि ओर समझ मे आया कि समाज मे दलित होने कि क्या कीमत चुकानी पड़्ती है । आज शहरो मे रहने वाले दलितो का जीवन स्तर मे बहुत सुधार आया है लेकिन आज एक सम्पन्न दलित भी शायद अपने आपको छुपा लेता है क्योकि वो समाज को जानता है कि अगर वो अपने आस पास के लोगो को अपनी जाति बता दे तो शायद उसको वो सम्मान नही मिले जो उसको अभी मिल रहा है ओर वो अपने को सर्वण मे कन्वर्ट कर लेता है । आज हमे जरुरत है सोच बदलने कि लेकिन क्या यह सोच बदल पायेगी ।
ReplyDeleteरविस जी जरा बताइए क्या यह समाज बदलेगा ।