सोनिया संकोची नहीं थी।बात करते करते उसका हाथ दोस्तों के कंधे तक चला जाता।हल्का सा स्पर्श।दीपक का कंधा ऐसे जम गया जैसे बिहार की जमी हुई सामाजिक तस्वीर।एक करंट कंधे से उतर कर पटना स्टेशन तक पहुंच गई। सोनिया का नज़दीक आकर हंसना। खुलकर बोलना।उसके कपड़े।जीन्स और टॉप। डियो की खुश्बू।पटना कालेज की गलियों में कहां ऐसी लड़की दिखती थी।दिल्ली में दिखती है लेकिन मिलती नहीं।शुक्र है सोनिया हमारी दोस्त है।चारों लड़के अब प्यार को दोस्ती के गहरे अल्फ़ाज़ों में समझ रहे थे।सोनिया को भी अच्छा लगता था एक साथ आठ आंखों का देखना।सोनिया का आस पास होना उन्हें बता रहा था कि अभी हालत इतनी नहीं बिगड़ी है।पटना सचिवालय पर ही तो साधु यादव का कब्ज़ा हुआ है।लेकिन दिल्ली में दिल के उड़ान के लिए कितना बड़ा आसमान है। बचना...बस आ रही है।कहते हुए सोनिया ने दीपक को खींच लिया। बस तो सेकेंड भर में गुज़र गई।दीपक कई घंटे तक बस की रफ्तार से बचता रहा।हर बार सोनिया उसे खींच लेती।पूरी रात गुज़र गई। पहली रात थी जब जागते हुए पिता के भेजे पैसे का अपराध बोध और राज्य के पतन का नागरिक बोध परेशान नहीं कर रहा था।पहली बार दीपक दिल्ली का हो गया था। उसे सिर्फ गोविंदपुरी कालकाजी की सड़क और उस पर गुज़रती एम-13 नंबर की बस दिखाई दे रही थी।नई दिल्ली स्टेशन जाने वाली बस।ठसाठस भरी बस। दीपक को भीड़ में सोनिया के साथ खड़े होने का मौका मिला था।कुछ देर के लिए दोनों के कंधे टकराये थे। तेजी से लगते ब्रेक के कारण करीब आए थे। तभी लेडीज सीट खाली हो गई और सोनिया बैठ गई। दीपक सीधे खड़ा बगल के भाई साहब के पसीने से आ रही गंध से परेशान होने लगा। कई दिन और कई रात सपने और हकीकत की तरह गुज़रते चले गए।
संतोष अपनी अंग्रेजी लिए घूमता रहा।दिल्ली की लड़कियां अंग्रेजी के लिए नहीं ठहरती थीं।संतोष ने अचानक कह दिया कि बाइक और पर्स में नोट हो तभी तो कोई बात करे।चाय के पैसे नहीं लेकिन घूमेंगे लड़की के साथ।राकेश ने कहा तो कौन कहता है घूमो।संतोष को गुस्सा आ गया। बोला साले मूंछ मेरे लिए मुंडवा दिए क्या। कनपटी के बगल से बाल कतर दिया है और बोलता है क्रू कट है। किसको इम्प्रैस करने के लिए रे।राकेश बोला अपने लिए किया हूं।तुम्हारी तरह पढ़ाई छोड़ कर लड़कियों के पीछे नहीं भागता।संतोष ने भी पलट कर बोल दिया अच्छा बच्चू हर शाम छत पर सूरज को अर्ध्य देने जाता है कि उसको ताड़ने जाता है रे।
ताड़ना।तुलसी का वो घटिया छंद ये सब ताड़न के अधिकारी से नहीं आया है। वहां ताड़न का मतलब मारना था।यहां ताड़ना का मतलब देर तक हसरत भरी निगाहों से देखना है।देश के मजनूओं ने अपनी दबी कामनाओं को स्वर देने के लिए शब्दकोष से बाहर के कई शब्द गढ़े हैं।ये सब शब्द साहित्यकार हैं।शब्द बनाते हैं।गोलाबाज़, माल, बम, पटाखा।शब्दकोष में मतलब कुछ और है लेकिन मजनूकोष में कुछ और।
विवाद से प्रमोद जी का दर्द और गहरा हो गया।बहस में कूदने की ललक से बोल ही दिया।राकेश दिल्ली आने की तीन महीने में मूंछ गायब।कसी हुई पतलून की जगह जनपथ से लेवाइस का डुप्लीकेट।टीशर्ट पर लिखा हुआ है कि कूल एंड केयरलेस।बाबूजी के सामने काहे नहीं पहन के घूमते हैं।राकेश बोला कि तो आप नहीं बदले का।मेंहदी लगाकर धूप में बाल सूखाते हैं शर्म नहीं आती। अगली बार सोनिया आएगी तो छत पर ले जाऊंगा बोलूंगा देखो प्रमोद के बाल सुरमई हुए जा रहे हैं।ओज़ोन परत को छेदती आ रही सूरज की किरणों और मेंहदी के मिलन से।दीपक बोलने लगा कि अरे बहस बंद कर।लड़की आती है तो अच्छा लगता है।आने दो।
संतोष का गुस्सा कम नहीं हुआ था।बोल उठा कि दीपक जी घर में बता दीजिए कि दिल्ली में गर्लफ्रैंड मिल गई है।क्यों बता दें? शादी करने जा रहे हैं का? अरे फ्रेंड है बस।दीपक के इस जवाब पर संतोष फिर तुनका।बोला अरे घर वाला बाकी दोस्त को जानता है न जी।इसके बारे में भी बता दीजिए।काहे लिए जब होली में बाबूजी आए तो सोनिया को बोल रहे थे कि थोड़े दिन बाद आना। सेंटी हैं का जी। दीपक चुप। गुस्से में बाहर चला गया। चारों में से कोई मानने को तैयार नहीं कि उन्हें कोई लड़की अच्छी लगती है। सोनिया अच्छी लगती है।वो मन की बातों को बोलना नहीं चाहते। लड़ कर दूसरे के मन को खोलना चाहते थे। बहस बंद हो चुकी थी। मन के दरवाज़े से सोनिया आ चुकी थी। कभी कभी सोनिया जैसी और भी लड़कियां होती थीं।
ये वो लड़कियां थीं जिनके बारे में प्रमोद जी अक्सर बोला करते थे।पालिका बाज़ार में तो बूढ़ी औरतें भी जवान लगती है।उनके कपड़े, हेयर स्टाइल।उफ। दिल्ली में हमारे अलावा कोई बूढ़ा नहीं हुआ का रे।एनसीईआरटी को कब तक सीने से लगाए रखेंगे।दो अटेंप्ट हो गया है।दो के बाद तो गुप्त काल भी साथ छोड़ देगा। लगता है बिना काल ही काल में समा जाएंगे।
दीपक बस स्टैंड से घर आ रहा था। सोनिया नहीं थी। मगर सोनिया साथ साथ आ रही थी। दीपक मन ही मन सोनिया से बात कर रहा था। बहुत देर बाद लगा कि सामने वाली सोनिया नहीं है। कोई और है। कालकाजी की तरफ से आने वाली हर बस की लेडीज सीट पर सोनिया बैठी नजर आने लगी। सोनिया वाकई बस से उतरी। लेकिन कोई और था साथ में....दीपक को काठ मार गया। रात और दिन के वक्त अलग अलग पहर में देखे गए सारे सपने ढह गए। उसे अचानक यूपीएससी के सपने आने लगे।मन ही मन बोलने लगा..दिल्ली की लड़कियों का भरोसा नहीं। वो कब आती हैं और कब जाती हैं..पता नहीं लगता। वो जल्दी से घर पहुंचता है। थोड़ी देर बाद घंटी बजती है। राकेश ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला उठा अरे सोनिया तुम। अकेले आ गई। क्या बात है भई। हमारे बिहार में लड़की किसी के घर चली जाए और वो भी अकेले हो नहीं सकता। बेगूसराय में तो गोली ही चल जाए। सासाराम में काट देगा। सीवान में तो शहाबुद्दीन उठवा लेगा। सोनिया हैरान थी। इतनी जघन्य प्रतिक्रिया क्यों। वो अपने दोस्त के घर ही तो आई है। सोनिया को पता नहीं था कि उसका आना सिर्फ उसका आना नहीं है। उसके साथ बहुत सारी नई चीज़े आती थीं जो पुरानी हो चुकी चीज़ों को धक्का मारती थीं। लेकिन असली बात सिर्फ सामाजिक संदर्भों के हवाले से ही निकल पाती थी। सोनिया समझ नहीं पाती थी। कभी नहीं कि क्यों लड़के सासाराम और सीवान का ज़िक्र करने लगते हैं? वो कहने लगती तुम लोग पास्ट से निकलो।बिहार जाओ ही नहीं।यहीं रहो।प्रमोद जी को लगा कि काश सोनिया का साथ मिल जाता तो दिल्ली हमेशा के लिए ठहर जाते।तभी सोनिया का हाथ प्रमोद के कंधे पर टिक गया।धरती अपनी धुरी पर रूक गई। प्रमोद अपने सपनों में घूमने लगा। उसका कंधा कई साल के लिए फ्रीज़ हो गया। सोनिया का हाथ हटने के बाद भी।दीपक सोनिया से बात करने लगा। शक करने लगा।सोचने लगा बस उतरते वक्त सोनिया के साथ कौन था?..
ये सब अपने अपने हिसाब से सोनिया की ज़िंदगी तय करना चाहते थे।बिहार के जर्जर हालात से निकलने का रास्ता खोज रहे थे।दिल्ली की लड़की के करीब जाना चाहते थे।तभी दिल्ली आते वक्त मां, पड़ोस की चाची की बात याद आ जाती कि पंजाबी लड़की से बच कर रहना।फंसा लेती है।गुप्ता जी का लड़का इश्क में बर्बाद हो गया। लव मैरिज कर लिया।आईएएस भी नहीं बना।इस पूरे लेक्चर का उद्देश्य था एक किस्म का पुरुषार्थ बनाना जिसे आईएएस बनने के रास्ते में किसी पंजाबी या दिल्ली की लड़की से बचाना था।एनसीईआरटी की पुरानी किताबों को पढ़ना था जिसका सिलेबस पंद्रह साल से नहीं बदला था। लड़के एक बदले हुए वक्त की बांहों में जाने के लिए छटपटा रहे थे।दिल्ली की लड़कियां उन्हें बुला रही थीं।मगर अपना पता नहीं देती।कहां आना है।इसलिए सबके मन में एक मकान बनता चला गया।जहां कोई न कोई लड़की आती रहती। जाती रहती।नाम और चेहरे बदल जाते।वेलेंटाइन डे के दिन क्यों शेव किया गया कोई नहीं जानते।वेलेंटाइन डे पर कालेज क्यों समय से पहले पहुंचा गया, कोई बोलना नहीं चाहता।पूरे दिन किसी का इंतज़ार करना...कोई नहीं मान रहा था। चार यार आर्चीज़ की दुकान से पता नहीं क्यों बिना कार्ड खरीदे लौट आए थे? सिविल सर्विस, खानदान का नाम, पिता जी का ख़ौफ....दिल्ली की लड़कियों ने इतना तो कर ही दिया कि चार यार अपनी सामाजिक स्थितियों, राज्य के राजनीतिक हालात के आलोचक बनते चले गए। कुछ था जो उन्हें उनके परिवेश का विरोधी बनाता चला गया। वो बहुत कुछ नया चाहने लगे। सोनिया कब घर चली गई। किसी को होश भी नहीं रहा।
क्रमश....
हम तो आपके मुरीद हो गये है
ReplyDeleteरवीश भाई...छा गए....बिहारी दोस्त रोज़ "दिल्ली की लड़की" के इंतज़ार में कस्बा तक आते हैं....मैं मुखर्जी नगर में रहता था, वहाँ भी कमोबेश ऐसा ही होता था.....लेकिन आपने हम सब बिहारियों के भावनाओं को शब्दों के माध्यम से सही अभीव्यक्ति दी है..
ReplyDeleteTRP badh gaya , Guru :) Mast hai ! bole to "JHAKAAS" ! Bahut hi badhiya hai !
ReplyDeleteranJan
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ReplyDeleteबताने के लिए लिख रहे हैं कि आए थे.. गाल में उंगली धंसाये उदास चित्त पढ़ते रहे.. और पढ़के फिर से उदास हो गए..
ReplyDeleteआह, बिहार का छौंड़ामन केने जा रहा है, रवीश? छौंड़ी सब नजीके आके भी काहे ला दूर चल जा रही है?
ham toh sonch mein pad gaye hai...
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