मैं किसी शराबी के अड्डे की बात नहीं कर रहा। अपने उस अड्डे की बात कर रहा हूं जहां हर शाम कटती है। दिल्ली के आश्रम से गाज़ीपुर के बीच। जाम में। बेतरतीब और कतार में सरकती कारों के बीच। हार्न की आवाज़ और अंदर चलती एसी की खामोशी के बीच। डेढ़ घंटे के इस जाम में शाम तमाम हो जाती है।
दस किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हुई कार चलती कम रूकती ज़्यादा है। पूरा सफर नौकरी की तरह हो जाता है। मंज़िल दिखती नहीं फिर भी चले जा रहे हैं। बीच में कार छोड़ भी नहीं सकते। बगल वाले को देख भी नहीं सकते। तब तक सामने वाली कार खिसक जाती है और पीछे वाली कार हार्न बजाने लगती है।
कार चलती है। कारवां बन जाता है। बैक मिरर से पीछे की कार में बैठे किसी खूसट का चेहरा या फिर किसी सुंदरी का चेहरा दोनों को देखना पीड़ादायक लगता है। पांव की एड़ियां क्लच और ब्रेक पर सताए जाने की पीड़ा कहती भी है तो पांव फैलाकर रक्त संचार बढ़ाने की कोई जगह नहीं होती। काश जाम में कार की छत पर बैठने का इंतज़ाम होता। या कार में कवि सम्मेलन का। बोर हो जाता हूं तो मोबाइल फोन का बैटरी डिस्चार्ज करने लगता हूं। एफएम चैनल सुनते सुनते बंद करता हूं। दो कारों के बीच फंसे बाइक पर पीछे बैठी लड़की। हेल्मेट में सर फंसाए उसका ब्वाय फ्रैंड। संकरी गली खोजते नज़र आते हैं।
निकल जाने के लिए। इसी बीच सरकती कारों को कोई पैदल यात्री हाथ देकर रोकता है। भाई ज़रा और धीरे हो जाओ। धीरे तो हो ही लेकिन मैं सड़क पार कर लूंगा। तभी बगल में आटो में दस बीस लोग धंसे लटके नज़र आते हैं। आगे दिखता नहीं मगर कोशिश करते रहते हैं। जिनके पास स्कार्पियो,सूमो खानदान की कारें होती है वही देख पाते हैं। सरकने की बनती हुई थोड़ी सी जगह। और सरक लेते हैं। उनके पीछे हम भी होते हैं।
आपका ध्यान कहीं और होता है। तभी खिड़की पर कोई नॉक करता है। मैगजीन किताब खरीदेंगे। तो कोई शनि के नाम पर मांग रहा होता है। जीवन के इस कष्ट से मुक्ति पाने के लिए दान देने का भी मन नहीं करता। पता भी नहीं चलता कि जाम में इंतज़ार कर रहे लोग व्यवस्था से नाराज़ होते हैं या नहीं। या सिर्फ घर पहुंचना चाहते हैं। अपनी नियति मानकर। सरकार बदल कर क्या होगा, सड़क तो बदलती नहीं।
सरकना धैर्य का काम है। हम जाम में फंस कर यही सीखते हैं। तरह तरह के नंबर प्लेट। कार के पीछे भगत सिंह की तस्वीर और आसाराम बापू की तस्वीर। मुक्ति के लिए क्रांति और भक्ति का विकल्प। जाम में मिलता है। मेरे पास जाम के कारण किताब पढ़ने का वक्त नहीं है। इसीलिए सोच रहा हूं कि हर शाम जाम को ही पढ़ा जाए।
आपको नहीं लगता कि सारा देश जाम हो गया है । जिंदगी भी इस जाम में चलने की तरह बन गयी है । जाम में किताबें पढ़ने का वक्त नहीं मिलता, जाम न हो तब भी कहां किताबें पढ़ी जा सकती हैं । जिंदगी के जाम में किताबें पढ़ने, कविता सुनने किसी भी रचनात्मकता का वक्त सुलभ नहीं । जाम को पढ़ना त्रासद है । आपकी तरह हम भी हर चीज़ के जाम से आहत हैं ।
ReplyDeleteरवीश जी गहमें तो जाम में फंसना नहीं होता मेट्रो ही हमें सरकाती है यहां से वहां !जहां गति बहुत तेज है और जहां वक्त किसी के लिए नहीं रुकता ...जहां हर 4 मिनट में दूसरी मेट्रो के स्टेशन पर आ पहुंचने से भी यात्रियों की बेकली नहीं थमती और आप खुद भी शायद बह जाते हैं उस गति में ...
ReplyDeleteओह, कैसा तो मार्मिक चित्र कि कैसा-कैसा तो महसूस होने लगा.. लग ही नहीं रहा पीसी के सामने हूं.. सीधे जाम में पहुंचा दिये या हाथ में ज़ाम थमा दिये जैसे? आप भी सीट के नीचे एक क्वॉर्टर वाली बाटली लेके क्यों नहीं चलते? या आसाराम बापू का कोई टेप? या ये सब न जमे तो पत्नी से कहिए रोज़ की संभावित बातचीत का एक घंटे भर का टेप रिकॉर्ड करके टिफिन के बतौर हाथ में थमा दिया करे? या खुद गायन का अभ्यास शुरू कीजिए! हां?
ReplyDeleteलिखा मस्त है लेकिन फिर भी मैं आपसे असहमत हू। जहा से आप निकलते हैं वह से gajipur आने में मुझे नही लगता है कि ३० मिनट से ज्यादा का समय लगेगा । ४ फ्लाई ओवर, एक एक्सप्रेस हाईवे और उसके बाद किनारे से कटती हुई मस्त सड़क आपको कल्याणपुरी तक ३० मिनट में जरुर पंहुचा देगी ।
ReplyDelete"जाम में जाम" का प्रबंध सरकार को सख्ति से लागू कर देना चाहिये
ReplyDeleteराजेश् जी काहे परेशान हो भाइ ,बुलावा तो दिया है ना रवीश जी ने,कवि सम्मेलन का पहुच जाओ लगे हाथो वो मिठाई भी खा आना अभी मिले पुरुस्कार की,वही देख भी लेना इतना टाईम कहा लगा कर घर मे ज्यादा की रिपोर्ट देते है..:)और इहा हम सब को भी गारंटी के तौर पर बुला रहे है.
ReplyDeletehar sham jam ke nam....satik hai aur aapne jam ka jo chitran kiya hai vo kabile tarif hai...ab rajesh ji aapse asahamat hai to uski vajah sirf yahi lagati hai ki vo us dard ko us tees ko samajh nahi sake hai...rajesh ji ye dard sirf ravish ji ka hi nahi hai sari delhi ka hai...
ReplyDeleteभाई साहब जी, इस से बढिया तो आप पैदल ही निकल जाया करों। तब जाम की पीड़ा भी कम हो जाएगी।
ReplyDeleteJaam ko padana!!! Idea bura nahin hain... gyan ka gyan badhega aur is gyan se dhande me barakkat bhi hogi.
ReplyDeleteis naye school me dakhile par shubhakamna.
जाम की कहानी अच्छी लगी
ReplyDeleteआपको पढकर लगता है कि छोटी सी बात को भी किस खूबसूरती से लिखा जा सकता है
आशा है कि देश दुनिया के साथ आप रोजमर्रा की जिंदगी को भी हम लोगों से इसी तरह शेयर करते रहेंगे
धन्यवाद
ravishji jam ka jo manjar aapne khincha hai vo to roz sabki aankhon ko numaya ho rha hai. lekin dada har dus lakh ki gadi mein ek ravish kumar safar kar rha hai or fir sabko fatafat rasta chihiye.. kisi shaiyr ne kaha hai ki ..is shahar mein har koi bheed ki taraf bhag raha hai ..or koi nya rasta chahta..
ReplyDeleteHaan ! Bahut maza aata hai JAAM ko dekh ! Tarah Tarah ke chehare milenge ! Thaka -hara Chehara , OFFICE SPOUSE ke baare me sochata huaa chehara ! jis CAR ko chalane ki UMMID me woh GOPALGANJ se NCR aaya hai , woh Kitana Khushi de raha hai , yeh to oosako hi pata hai , Lekin ant me oosako pata hai ki KAFAN me JEB nahi hai !
ReplyDeleteमैं भी कई बार जाम में फंसा हूं,अब मजा आने लगा है क्योंकि वौ पढ़ने को मिलता है जो किताबों में नहीं है और जो टीआरपी के फेर में न्यूज आइटम भी नहीं बन पाता।बेरसराय पर तमाम बच्चे मिलते हैं मौसमी धंधा करते हुए।शनि को लोक सुधारते तो सोम को बहुत भूख लगी है का जाप करते।कभी खीजता हूं ,कभी एकटक देखता रहता हूं मगर सच कहूं अब भीख देने का जी नहीं करता।नहीं मेरी संवेदना नहीं मरी है।ये बच्चे गजब का अभिनय करते हैं, शायद भूख सब कुछ सिखा देती है।.......जाम में मिलते हैं भागमभाग में भरपूर सांस लेना भी भूल चुके चेहरे....जाम के दौरान आता है इलेक्ट्रानिक मीडिया की मजदूरी पर बेहद गुस्सा क्योंकि जाम पर हमारा बस नहीं चलता.....
ReplyDeleteSahi hai Ravish Bhai... kya khoobsoorti se us Jam ko shabdo me piroya hai aapney. mujhey aisa laga jaise mai hi us jam ka chitran kar raha hoon .. laga jaise aapney meri baat apni kalam se kah di...
ReplyDeleteBahut mubarak