मुझे एक दुख हो रहा है। दो दिन पहले तक इस दुख का नाम भी नहीं सुना था। अब पता चला है। इसका नाम है- विमोचन का दुख। मैंने कोई किताब नहीं लिखी। विषय का चुनाव नहीं हो पाया या प्रकाशक का प्रस्ताव नहीं आया, दोनों के जवाब नहीं हैं। ज़ाहिर है विमोचन के अभाव से ग्रस्त हूं। लेकिन अब मैं लिखना चाहता हूं। किताब। रविवार को हमारे वरिष्ठ सहयोगी प्रियदर्शन जी की कहानी का विमोचन था। उसी में गया तो यह दुख के लेकर लौटा हूं।
इससे पहले अभिरंजन की पुस्तक का भी विमोचन था। दिल्ली में नहीं होने के कारण नहीं जा सका। जाता तो अब तक विमोचन का दुख चार महीने पुराना हो चुका होता। अभिरंजन की पुस्तक पहले छप चुकी थी। अभिरंजन और प्रियदर्शन दोनों साहित्य जगत के नाम हैं। मैं बड़ा छोटा नहीं मानता। ये दोनों भी नहीं मानते हैं। क्योंकि दोनों ही सहयोगी बहुत पहले से साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। पहली नज़र में किताब की महक, उसके विषय से ज़्यादा मोहक लगी। कवर का रंग देखकर खरीद लिया। कहानी की विषय वस्तु नहीं देखी। किताब का नाम- उसके हिस्से का जादू। विमोचन समारोह में बड़े पत्रकारों और साहित्यकारों को देख विमोचन युक्त हीनभावना का शिकार हो गया। विमोचन के बाद संक्षिप्त तालीवादन के बाद चर्चा शुरू हुई। यह मेरी पहली विमोचन यात्रा थी।
विमोचन से पहले चाय और चिप्स के साथ बड़े साहित्यकारों पत्रकारों से मिलना। चंद विषयों पर सरसरी टिप्पणी के साथ बार बार बुलाये जाने के बाद कुर्सी पर बैठना। किसी को खुद जाकर नमस्कार करना तो अपने किए गए नमस्कार के जवाब का इंतज़ार करना। अनजाने लोग को देख हल्का मुस्करा देना। पहचाने लोग से ऐसे मिलना जैसे आज ही पहली बार मिले हैं। क्या माहौल बंध रहा था।
जो लोग विमोचन के लिए बुलाये गए शायद वो पढ़ कर आए थे। या फिर लेखक के बारे में पहले से भी जानते रहे होंगे। प्रियदर्शन नया नाम तो नहीं है। पहले से जाने और पढ़े जाते रहे हैं। मिडनाइट्स चिल्ड्रन का हिंदी में अनुवाद कर चुक हैं। यह जानकारी उनके साथ काम करते हुए नहीं थी। पता चला किताब के आखिरी पन्ने पर छपे संक्षिप्त परिचय से। संक्षिप्त में ही इतनी बड़ी जानकारी। खैर उनकी किताब की चर्ची सुनकर खुद का हौसला बढ़ने लगा। उसके हिस्से का जादू मेरे हिस्से आ चुका था।
काश हम भी एक किताब लिखते। संक्षिप्त परिचय छपता। किसी को समर्पित करते। यही सब सोचता हुआ घर के लिए निकल पड़ा। कम से कम लेखक तो होते यार। वरिष्ठ न सही युवा ही। युवा न सही उदयीमान ही। सिर्फ टीवी में चेहरा दिखाने से क्या होता है? चेहरे बदल जाते हैं। किताब नहीं बदलती है। कापीराइट के साथ छपती है। आप लेखक कहलाते हैं।
विमोचन कोई मामूली समारोह नहीं होता। लेखक का दिल भी धड़कता होगा। उसका लिखा हुआ कितनों के घर जाएगा। लोग पढ़ेंगे। पता नहीं वैसा समझेंगे या नहीं जैसा विमोचन के वक्त कहा गया है।प्रियदर्शन से तुरंता विषयों पर रोज़ बात हो जाती है। उनका लिखा मशहूर है। मगर किताब देखकर मेरी नज़र बदल गई। पहले भी बेहतर थी और बाद में और बेहतर हो गई। साक्षात लेखक के रूप में देखने का अनुभव अच्छा लगा। तभी अहसास हुआ बाबू तुम भी लेखक होते। कोई तुम्हें भी लेखक समझता। किताब आती। विमोचन होता। कोई आता या न आता, प्रियदर्शन और अभिरंजन तो आते ही। कुछ अच्छी बातें तो कह ही जाते। तब से विमोचन समारोह के दुख से मरा जा रहा हूं। जल्दी ही किताब लिखूंगा। तब तक विमोचन युक्त हीनभावना का शिकार होते हुए सारे किताबों को नई नज़र से देखूंगा। खुद को सज़ा दूंगा। काश मैंने भी लेखकों को गंभीरता से लिया होता। किताब लिखी होती। तो मंच पर मेरी भी एक कुर्सी लगती। किताब का नाम होता- मेरी पहली रचना यात्रा। या पहला विमोचन। नाम तो समझ में आ गया विषय का सुझाव कौन देगा?
नोट- उसके हिस्से का जादू, राधाकृष्ण प्रकाशन से आई है। कीमत एक सौ पचास रु है। कहानी बहुत अच्छी है। पूरी नहीं पढ़ी। मगर पढ़ रहा हूं।
क्या अदा है, अपने दुख के विमोचन का! मान गये जनाब।
ReplyDeleteहमारी शुभकामनायें। आपको विमोचन के अभाव का दुख इस दुख से बदल जाये कि अभी एक ही किताब का , एक दर्जन किताबों का ही विमोचन हो पाया।
ReplyDeleteअभी देर नही हुई है। अब से किताब लिखना शुरू कर दीजिए।
ReplyDeleteaj to apne ye baat sach ker di ki hum apne dukh se jayada dusre ki khushi se dukhi hote hai apke mitra ne vemochan kiya uska sukh nahi dikha per apne kitab nahi likhi iski itni pida ki aap pareshan ho gaye yahi aj hum sab ka sach hai
ReplyDeletesach ke liye shukriya. kitab isper hi likh dijiye ki hum ek dusre ke sukh se kaise sukhi ho. topic aacha hai aur likhte aap bhi aacha hi hai
स्कूल के दिनों एक कहानी पढ़ी थी 'अखबार में नाम'। घीसू का नाम जब अखबार में छपा तो इस तरह मानो वो अखबार में नाम छपवाने के लिए जानबूझ कर वकील की मोटर के नीचे आ गया हो। जबकि हुआ हादसा था।
ReplyDeleteअब आपको चाहिए 'किताब में नाम'। तो प्लीज़ कुछ ऐसा मत करना। घीसू की तरह महत्वाकांक्षी होने से आपका नाम अख़बार में तो आ सकता है पर किताब में नहीं!!!
पर भाई जान ने जो लिखा है उसमें क्या हम सब अपना अक्स नहीं निहार रहे हैं?
ReplyDeleteरवीश जी आपका कहा ही कह रहा हू, कोई काम छोटा बड़ा नही होता, काम अपनी तन्मयता से कीजिये पुरा हो जाएगा । वैसे सरिता सोनी जी ने बात सही पकड़ी है।
ReplyDeletemai aapko subhkaamana aur salaah dono dena chaahta hoon.Subhkaamana jald hi lekhak banane kaa aur salaah ki lekhan me jyadaa se jyadaa vivaadaaspad mudon ko rakhna mat bhulienga.
ReplyDeleteravish ji sahi kha pr sukh se peeda hona aam baat ho gayi hai or aapne samaj ki vahin nabaj pakdne ki sarthak koshish ki hai.. vimochan ke apne dukh ke zariye aapne kitabo ke vimochan samarohon ka achchha chitr khincha hai..
ReplyDeletevaise dada aap jo bolte hai special report me agar vo sab aap hi ka hota hai to aap kahan kisi lekhak ya sahityakar se peeche hai..
सरिता जी
ReplyDeleteमुझे दूसरे के सुख से पीड़ा नहीं हुई है। प्रेरणा मिली मगर अपनी प्रतिभा की सीमा जानता हूं इसलिए दुखी हो गया। वैसे लिखना का विषय अच्छा है। उमाशंकर- मैं किताब में नाम के लिए गाड़ी के नीचे नहीं आने वाला। उससे कम में किताब छपवा लूंगा।
कसक क्या है? दुख है या दुख से पहले की पीड़ा? मुझे लगता है कि किताब न लिखने की कसक का शिकार हुआ हूं। मगर कह गया कि दुखी हो गया हूं।
priyadarshan ki kitaab apme kasak jagaati hai
ReplyDeleteaur apki hindi ham me
sachchi sir, jab screen par apko dhuandhaar hindi bolte dekhte hai to 3 baate ek saath hoti hai----
1- chalo koi to hai, jo hindi ko uske gaurav ke saath bol sakta hai
2- irshiyaa hoti hai ki aisi hindi hamaari kyon nahi
3- kaash apse kuch seekhne ka mauka mil jaata
जिसका बोला हुआ साहित्य से कम नहीं उस व्यक्तित्व पर आगे कोई ना कोई तो लिखेगा ही।
ReplyDeleteAap to peshe se reporter/journalist hai lekin apki likhane, bolne, reporting,sunkar/dekhkar yahi lagata hai ki aap dil se ek sacha kavi/lekhak hi hai, nahi to kaljakar jakar ho jayenge sayad.
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