भाई-भाई का झगड़ा- लघु कहानी
कौन। मैं। मैं कौन। तू कौन। खोल दरवाज़ा। बाप का घर है। क्यों? तेरे बाप का है? हां है। अभी यह घर बंटा नही है। भारत पाकिस्तान बंट गए घर क्यों नहीं बंटा। वसीयत है मेरे पास। तेरे पास क्या है? मेरे पास स्टे आर्डर है। सड़क पर भाई भाई लड़ेंगे? अंदर आने दे। तो क्या भीतर आकर लड़ेगा? हां वर्ना पिताजी की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। उससे पहले घर को मिट्टी में मिला दूंगा। बड़े भाई से तमीज़ से बात कर। छोटे भाई से बात करना सीख। मैंने तेरे लिए बहुत कुछ किया है। मैंने भी हर बात मानी है। तो अब मान। अब नहीं। क्यों नहीं। बात हक की है। ओहदे की नहीं। तू लड़ेगा मुझसे। हां मैं लड़ूंगा। तू नहीं तेरी बीबी बोल रही है। मैं नहीं बोलता अगर तुम्हारी बीबी न बोलती। अच्छा भाभी अब बीबी हो गई। जब मेरी पत्नी बीबी हो सकती है तो भाभी भी बीबी कही जा सकती है। लाशें गिरेंगी। किसलिए। घर के लिए। रहेगा कौन। जो बच जाएगा। दोनों मर गए तो। घर बच जाएगा। खोल दरवाज़ा। नहीं खोलता। खोल। नहीं। खोल। नहीं।
रवीश जी आप ने जो कहानी लिखी है, ये कहानी नही है घर घर की हकीकत है! आप का प्रयास सार्थक हुआ!
ReplyDeleteये लघु कहानी है या लम्बी कहानी?
ReplyDeleteअच्छी लघु कथा है। बड़े और व्यापक अर्थों के साथ
ReplyDeleteकहानी घर्र घर्र की, क्योंकि बैरी भी कभी भाई था, कसौटी ज़िंदगी की, करम अपना-अपना...एक महल हो सपनों का...सबका सार संक्षेप, आपका यह आलेख.
ReplyDeleteसरजी
ReplyDeleteनये टाइप के भाई-भाई दाऊद भाई बनाम छोटा राजन भाई हो लिये हैं। बाप का बनाया मकान अब परिवार को जोड़ता नहीं है, तोड़ता है भाईयों को कि मेरा इत्ता, तेरा इत्ता।
इस सूरत का एक इलाज यह है कि बंदा घर-वर, जमा-जत्था करे ही नहीं, जो कमाये, सो उड़ा दे। लो बेट्टा लड़ लो, किस पर लड़ोगे।
यानी बंदे को जवानी में कुछ ऐब पाल लेने चाहिए, न रकम बचेगी, ना बच्चे झगड़ेंगे।
कैसी कहानी , कोई कहानी नही है । सब हक़ीकत है । ये हमारे आपके बीच की कहानी है । कहा ना , कहानी नही है । सब हक़ीकत है ।
ReplyDeleteरवीश जी, समाज की इस सर्व व्यापक समस्या का यह एक संक्षिप्त परन्तु सार गर्भित कटु सत्य हॆ. कहानी कहने का यह शिल्प व्यर्थ के आडंबरों से रहित हॆ.
ReplyDeleteये तो पता नहीं कि यह लघु कहानी हॆ कि लम्बी कहानी, इसका विश्लेषण करने की क्षमता ऒर विद्वता तो नहीं परन्तु ये अवश्य लगा कि शायद इस घटना को कहीं देखा हॆ, कहीं सुना हॆ, मेरे जॆसे एक आम पाठक के लिये कहानी की यह स्थानीयता ही प्रशंसनीय हॆ ऒर स्वीकार्य हॆ.
लघु नहीं, कहानी. वैसे प्रो. पुराणिक का नुसखा ख़राब नहीं है.
ReplyDeletekatha laghu bhale hoye lekin mar kare ati gahri..samsamyik..sargrbhid or prasangi bhi...saduvad
ReplyDeleteघर के साथ तमाम संवेदनाएं जुड़ती हैं पर एक अहम् इस घर को तोड़ने के लिए काफी होता है। घर भले बंट जाए पर हमारी संवेदनाएं जाने अनजाने बंटवारे का ये दर्द के इर्द गिर्द घुमा करती हैं। कुछ लोग तो टुटन के लिए नये तर्क गढ़ लेते हैं पर कुछ के साथ ये दर्द हमेशा के लिए नत्थी हो जाता है।
ReplyDeleteरवीश भाई,
ReplyDeleteघर-घर की कहानी है या देश और हिन्दुस्तानी समाज की। अभय जी के शब्दों में लम्बी है, लघु नहीं।
सच है, लेकिन पूरा नहीं- आधा। जूतम-पैजार कंगाली में होती है। टाटा-बाटा और अंबानी जैसे पिता के चश्मे-चिराग एसी रूम में बैठकर भी फैसले कर लेते हैं।- क्योंकि उन्हें बाप के कर्ज का नहीं, मुनाफे का बंटवारा करना होता है...
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