बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है
तुम्हारी हल्की फुहारें ही
भीतर तक हल्का कर देती हैं
मन की गहराई भी भर जाती है
खालीपन के ऊपर बूंदे छलकने लगती है
बारिश तुम्हारे तेज हो जाते ही
ज़िंदगी बेकाबू रफ्तार लगती है
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है
साथ आना तुम्हारे
समंदर की हवाओं का
पहाड़ों से उठकर
हल्की सर्दियों का
और फिर इन सबका
ठंडी हवाओं में बिखेरना
छोटी छोटी बूंदों में तुम्हारी
आसमान में दबी बेसब्री का पिघलना
जिनके खारे पानी पर अक्सर
अपने नंगे बदन किसानों का नाचना
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है
हमारी खिड़की से धीरे धीरे सरकना
छतों की सीलन से धीरे धीरे टपकना
टीन के कनस्तरों में उन बूंदों को उठाना
कभी पांवों को भींगाना फिर बिस्तर पर सूखाना
अचानक ज़िंदगी में कितना कुछ होने लगता है
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है
मगर अच्छा लगना सब पुरानी बाते हैं
तुम्हारा आना सिर्फ इतज़ार की राते हैं
आती ही नहीं हो तुम बारिश
आकर भी बिना भींगाए चली जाती हो तुम
सूखे खेतों और बेकरार किसानों को छोड़ कर
राह देखती मेरी छत की सीलन
और छेद वाले टीन के कनस्तर
तुम्हारी फुहारें मन को भारी कर देती हैं
मन की गहराई और गहरी हो जाती है
कि तुम इतना कम कम क्यों आती हो
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है
रवीश जी, आप तो कविता भी बखूबी कर लेते हैं जनाब।
ReplyDeleteबढ़िया रचना।
आभार
सरल , सुन्दर - साधुवाद ।
ReplyDeleteरवीश जी..
ReplyDeleteभावनाओं के कुशल चितेरे हैं आप। एक ही रचना में बारिश का सुख और बारिश के न आने की पीडा को जिस तरह से आपने उकेरा है वह प्रसंशनीय है। मैनें आपकी रचना की दोनो ही झलकों को उद्धरित किया है:
"हमारी खिड़की से धीरे धीरे सरकना
छतों की सीलन से धीरे धीरे टपकना
टीन के कनस्तरों में उन बूंदों को उठाना
कभी पांवों को भींगाना फिर बिस्तर पर सूखाना
अचानक ज़िंदगी में कितना कुछ होने लगता है
बारिश तुम आती हो
तो अच्छा लगता है"
"आकर भी बिना भींगाए चली जाती हो तुम
सूखे खेतों और बेकरार किसानों को छोड़ कर
राह देखती मेरी छत की सीलन
और छेद वाले टीन के कनस्तर
तुम्हारी फुहारें मन को भारी कर देती हैं
मन की गहराई और गहरी हो जाती है"
बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत ही सुन्दर सरल रचना । पढ़कर बहुत अच्छा लगा । आज ही मैंने भी बारिश पर कविता लिखी थी ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती