महिलाओं का पर्यावरण से क्या संबंध हो सकता है ? क्या यह संबंध पुरुषों से अलग होता है ? यूरोप में बढ़ते पर्यावरण नारीवाद खासकर अमरीका में इस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है । विकासशील देशों में अस्तित्व के लिए हो रहे संघर्षों से महिला और पर्यावरण के संबंध का भौतिक आधार तो मिलता है और एक पर्यावरण नारीवाद के लिए वैकल्पिक पृष्ठभूमि भी । मैं इसे नारीवादी पर्यावरणवाद कहती हूं ।
इस लेख में मेरा यह तर्क है कि ग्रामीण भारत की औरतें पर्यावरण में हो रहे क्षरण के कारण परेशानियों का सामना कर रही हैं । यह परेशानिया खासतौर से लिंग आधारित हैं । दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण और पुनर्उत्पाद से जुड़े आंदोलनों में महिलाओं की खूब सक्रिय भागीदारी देखने को मिलती है । इसे देखकर हमें पर्यावरण के मुद्दों को अलग से देखने का मौका मिलता है । इस चर्चा को धारणा के स्तर पर ले जाने के लिए और यह देखने के लिए पर्यावरण के मामले में औरत को कितना भुगतना पड़ता है और वो खुद इसके नुकसान में कितना भागीदार है । मैं भारत के संदर्भों में ही इसे देखने की कोशिश करुंगी । यह मुद्दा तीसरी दुनिया के अन्य देशों के लिए भी प्रासंगिक है । मैंने इस चर्चा को पांच भागों में बांटा है । पहले हिस्से में अमरीका में चल रहे पर्यावरण नारीवाद को लेकर हो रही बहस पर चर्चा होगी और इसका भारतीय दर्शन क्या है और यह भी देखेंगे कि वैकल्पिक धारणा क्या है ।
बाकी तीन सेक्शन में हम ग्रामीण भारत में पर्यावरण के क्षरण के कारणों और प्रकृति का पता लगायेंगे । देखेंगे कि इसके वर्ग और लिंग चरित्र क्या हैं । और इस मामले में ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और सरकार का क्या रवैया रहता है । आखिर के सेक्शन में बहस होगी कि विकास का वैकल्पिक रुपांतरकारी नज़रिया क्या है ।
कुछ अवधारणात्मक मुद्दे
पर्यावरण नारीवाद
पर्यावरण नारीवाद में विमर्शों की कई धारायें आकर मिलती हैं । इनमें से कई विमर्श ऐसे हैं जिन्हें अभी ठीक तरह से समझा जाना बाकी है । साफ है पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों में इसे लेकर अलग अलग नज़रिया अपनाया जाता रहा है । इसीलिए एक धारणा के रुप में पर्यावरण नारीवाद का अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है बल्कि हो रहा है । हां लेकिन इससे हम मुहं भी नहीं मोड़ सकते । मेरा उद्देश्य यह नहीं कि मैं पर्यावरण नारीवाद के विमर्श की बारीक आलोचना पेश करुं बल्कि मैं यह चाहती हूं कि इसके कुछ महत्वपूर्ण लक्ष्णों पर ध्यान दिया जाए और यह भी देखा जाए कि जेंडर और पर्यावरण पर तीसरी दुनिया के नज़रिये में इसे क्यों और कैसे शामिल किया जा सकता है । पूरे विमर्श की कई धाराओं से हम पर्यावरण नारीवाद के तर्कों के बारे मोटी तस्वीर कुछ ऐसे देख सकते हैं । (क) प्रकृति पर प्रभुत्व और शोषण के बीच महत्वपूर्ण संबंध है । (ख) सरसरी तौर पर औरतों को पर्यावरण के करीब और मर्द को संस्कृति के करीब माना गया है । प्रकृति को संस्कृति से कमतर देखा गया है । इसीलिए औरतों को मर्दों से कमतर माना गया है । (ग) क्योंकि औरतों और प्रकृति का प्रभुत्व साथ साथ आया है इसलिए प्रकृति के खत्म होते प्रभुत्व में औरतों का खास स्टेक है । (घ) पर्यावरण और नारीवादी आंदोलन दोनों समानतावाद की वकालत करते हैं जिसमें कोई बड़ा या छोटा नहीं है । लिहाज़ा दोनों की मंज़िल एक है इसलिए ज़रुरत है कि दोनों साथ मिलकर एक समान परिप्रेक्ष्य, थ्योरी और आचरण का विकास करें ।
इसीलिए पर्यावरण नारीवाद के तर्क में औरतों और प्रकृति के प्रभुत्व के बीच के संबंध को वैचारिक स्तर पर देखा जाता है । यह आप सभी तरह के विचारों, मूल्यों मान्यताओं में पाएंगे कि औरतों और गैर मानवीय जगत को मर्दों से कमतर माना गया है । यह मांग करता है कि औरत और मर्द अपने बारे में फिर से विचार करें । यह पुनर्मूल्यांकन ऐसे संदर्भ में हो जिसमें बराबरी की बात हो ।
फिर शायद हम पूछ सकते हैं- प्रकृति और औरतों के बीच के संबंधों की जड़ कहां है ? शेरी ओर्टनर ने समकालीन नारीवादी दृष्टिकोण में इस बात को शामिल किया है कि औरतें मर्दों से ज़्यादा प्रकृति के करीब हैं ।
शेरी के शुरुआती तर्कों में औरत और प्रकृति के संबंधों की जड़ पुनर्उत्पादन की जैविक प्रक्रियाओं में है । लेकिन तब भी ओर्टनर ने यह बात मानी थी कि मर्दों की तरह औरतें भी प्रकृति और संस्कृति में हिस्सा लेती हैं । मध्यस्थता करती हैं ।
तब से ओर्टनर ने अपना नज़रिया थोड़ा बदला भी है जिसकी अन्य ने आलोचना की है । खासकर सामाजिक नृतत्वादी लोगों ने आलोचना की है । क्योंकि प्रकृति और संस्कृति में अंतर सार्वभौम नहीं है । सभी संस्कृतियों में यह बात लागू नहीं होती । न हीं औरत, मर्द, संस्कृति और प्रकृति के मायनों में कोई सार्वभौम समानता है । फिर भी कुछ पर्यावरण नारीवादी जैविक धारणा को मानते हैं और अलग अलग तरह से दोहराते रहते हैं । एरियल के सल्लेह तो इस धारणा को एक और छोर पर ले जाती हैं । उनका कहना है कि -
औरतों का माहवारी चक्र, गर्भ की पीड़ा, मां बनना, बच्चे को पालने का आनंद..ये वो चीजें हैं जो औरतों की चेतना को प्रकृति से जुड़े ज्ञान के करीब ले आती हैं । हो सकता है कि औरतें इसके बारे सचेत न हों मगर यह जीवन का एक सत्य है ।
येनेस्ट्रा किंग और कारोलिन मर्चेंट का तर्क है कि प्रकृति और संस्कृति का अंतर ग़लत है । यह सब एक तरह पितृसत्तात्मक विचारधारा की देन है जो एक समय में लिंग आधारित प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए इस्तमाल हो रहा था ।लेकिन दोनों यह भी मानते हैं कि औरतों को उनकी बायॉलजी के कारण वैचारिक रुप से प्रकृति के करीब माना गया है ।
मर्चेंट अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में दिखाते हैं कि पूर्व आधुनिक यूरोप में औरत और प्रकृति के संबंधों की धारणा दो तरह की छवियों पर आधारित है। एक छवि है प्रकृति को नष्ट होने से रोकने की और दूसरी नष्ट होने देने की । दोनों में प्रकृति को औरतों से जोड़ा गया है । पहली छवि, जो काफी प्रभावशाली थी, में धरती को मां माना गया और फिर संस्कृतियों में यह भी जुड़ता गया कि इस धरती मां के साथ क्या और कैसा बर्ताव किया जाए । कोई मां का शोषण नहीं करता । उसकी हत्या नहीं करता । इसके उलट छवि थी कि प्रकृति हिंसक है, आंधी तूफान, सूखा और अराजकता लाती है । फिर संस्कृतियों में यह शामिल हो गया कि प्रकृति पर काबू पाना चाहिए । इस पर इंसान का प्रभुत्व होना चाहिए।...अनुवाद अभी जारी है ।
अच्छा है आप इतने महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा कर रहे हैं ।
ReplyDeleteहोली की शुभकामनाएँ ।
घुघूती बासूती