शांघाई। जय प्रगति,जय प्रगति,जय प्रगति। राजनीति में विकास के नारे को कालर ट्यून की तरह ऐसे बजा दिया है दिबाकर ने कि जितनी बार जय प्रगति की आवाज़ सुनाई देती यही लगता है कि कोई रट रहा है ऊं जय शिवाय ऊं जय शिवाय । अचानक बज उठी फोन की घंटी के बाद जय प्रगति से नमस्कार और जय प्रगति से तिरस्कार। निर्देशक दिबाकर स्थापित कर देते हैं कि दरअसल विकास और प्रगति कुछ और नहीं बल्कि साज़िश के नए नाम हैं। फिल्म का आखिरी शाट उन लोगों को चुभेगा जो व्यवस्था बदलने निकले हैं लेकिन उन्हीं से ईमानदारी का इम्तहान लिया जाता है। आखिरी शाट में प्रसनजीत का चेहरा ऐसे लौटता है जैसे आपको बुला रहा हो। कह रहा हो कि सिस्टम को बदलना है तो मरना पड़ेगा। लड़ने से कुछ नहीं होगा। उससे ठीक पहले के आखिरी शाट में इमरान हाशमी को अश्लील फिल्में बनाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है। कल्की अहमदी पर किताब लिखती है जो भारत में बैन हो जाती है। अहमदी की मौत के बाद उसकी पत्नी चुनावी मैदान में उतर आती है। अहमदी को मारने वाला उसकी पत्नी के पोस्टर के नीचे भारत नगर की पुरानी झुग्गियों को ढहाता हुआ एक फिर से हत्या करने में जुट जाता है। झुग्गियों का टूटना और शांधाई का बनना ही तय है। अहमदी की मौत के वक्त का फ्रेम लाजवाब है। एक नज़र में लगता है कि सब स्टिल हो गए हैं। मगर कैमरे की बजाय अभिनय से स्तब्धता का जो स्टिल माहौल रचा है वो पूरी कहानी को फिर से रिवाइंड करती है। हमारी स्मृतियों पर ज़ोर देती है कि यही होता है। होता कुछ नहीं है। लड़ाई एक व्यर्थ प्रयोजन है। बस इसी यथार्थ की स्वीकृत पोजिशन को साबित कर देने के बाद एक बहुत अच्छी फिल्म पहले बनी फिल्मों की तरह लगने लगती है। फिल्म हमारे भीतर की राजनीतिक निराशा का आईना है। हीरो पैदा नहीं करती। नए राजनीतिक आदर्शों और विकल्पों की तलाश में चलताऊ नहीं होती। सारे विराट दृश्यों को आस पास का बना देती है।
दिबाकर ने कोई नया प्रयोग नहीं किया है। बल्कि अपने दौर में साहस किया है कि राजनीति के इस क्रूर चेहरे को पर्दे पर उतारने का । हम अपने शहर के बसने और उजड़ने की राजनीति को नहीं समझते। यही बता रहे हैं दिबाकर कि कितना आसान है इस पोलिटिक्स को देख पाना। शांघाई कोई ग्रैंड फिल्म नहीं है। फिल्म अपने दृश्यों या कहें तो फ्रेम के लिहाज़ से भी नए मानक नहीं बनाती। ऐसे मसले पर बनी पहले की फिल्मों से चली आ रही दृश्यों को नए तरीके से संयोजित ही करती है। एक कुनबे और एक मोहल्ले की लड़ाई के बीच की राजनीति का सीमित संदर्भ है। अगर इसे पोलिटिकल थ्रिलर कहा गया है तो मैं सहमत नहीं हूं। इसमें कुछ भी थ्रिल करने लायक नहीं है।
जो कमाल है वो इसकी स्थिरता में है। इसके सामान्य होने में है। एक प्लाट पर शांघाई बसाने के लिए मुख्यमंत्री और विरोधी का अंदरखाने हाथ मिलाये रखना रोज़मर्रा की सियासत है। दिबाकर ने उस सियासत को जस का तस धर दिया है। इसीलिए जब वो मुखर होने लगता है तब दर्शक आनंद लेने लगते हैं। उनकी राय बदल जाती है जो इंटरवल के पहले इसे डाक्यूमेंट्री बताकर हंसने लगे थे। चटने लगे थे। बाद में जब समझ आती है तो कुर्सी की हैंडिल पकड़ लेते हैं। आज के शहरीकरण के दौर के इतने शेड्स हैं। उसकी राजनीति की क्रूरता के टूल बदल चुके हैं। लेकिन फिल्म में नेताओं के टट्टू भी वही हैं और वैसे ही हैं जो कई भारतीय फिल्मों की यात्रा करते करते शांघाई तक पहुंचे हैं। मतलब कुछ भी नहीं बदला है। हम सब टट्टू ही बने रह जाते हैं। अफसरों के बीच की राजनीति की कहानी भी नई उत्सुकता पैदा नहीं करती है। अभय देओल के शानदार अभिनय के अलावा उस प्लाट में ऐसा कुछ भी क्रांतिकारी नहीं है जो फिल्म को सत्यमेव जयते से अलग करती हो। बस सादगी और नाटकीयता का फर्क रह जाता है। अभय देओल के अभिनय की जितनी तारीफ करें कम हैं। फारूख़ शेख का अभिनय अच्छा है लेकिन ऐसा अभिनय तो वो करते ही रहते हैं। वो सिर्फ रोल में शूट करते हैं। उनका पात्र और अभिनय आपके भीतर कोई नया शेड्स नहीं बनाता। कल्की का अभिनय साधारण भर है। वो एक करप्ट बना दिये गए या करप्ट बाप की एक बेटी है जो ईमानदारी के रास्ते पर चल निकली है। लेकिन उसका इस यथार्थ से कोई संघर्ष नहीं है। अंग्रेजी सीखने की तमन्ना रखने वाला टैंपो ड्राइवर ने आकांक्षाओं की उड़ान की अच्छी पैरोडी की है। इमरान हाशमी में बहुत संभावनाएं हैं। शांघाई उनकी यादगार फिल्म होगी।
इसीलिए दिबाकर की शांघाई कई बार सत्तर अस्सी के दशक में बनी फिल्मों जैसी लगने लगती है। कोई तो है जो दोहराने का साहस। दोहराना भी पोलिटिक्स है। कुछ संवाद बेहतरीन है। कुछ फ्रेम बहुत अच्छे हैं। लेकिन मैं इसे महान फिल्म नहीं मानता। महानता इसी में है कि इसने फार्मूले का सहारा नहीं लिया लेकिन जिस पैमाने का सहारा लिया है उस पर ऐसी कई फिल्में पहले भी बन चुकी हैं। पिछले एक साल में पाकिस्तान फिल्म बोल के समानांतर हमारे यहां एक भी फिल्म नहीं बनी है। जिसे देखते वक्त आपका दिमाग झन्ना जाएं। आपका सीना कमज़ोरी महसूस करने लगे। फिर आप तुरंत एक आनंद के लम्हों में तैरते हुए फिल्म देखने लग जाएं। आप पहले बोल देख लीजिए।
शांघाई नहीं चल पाएगी तो मुझे हैरानी नहीं होगी। यही हमारा दर्शक संस्कार है। लेकिन निर्देशक जब जोखिम उठाता है तब दर्शक को भी जोखिम उठाना चाहिए। एक बार कुछ दर्शकों से बातचीत में उलझा था। सब मीडिया से उम्मीदों की लंबी लंबी सूची गिना रहे थे। मैंने एक ही सवाल किया। आप तो हमसे बहुत उम्मीद करते हैं ये बताइये हम आपसे क्या उम्मीद करें। सब चुप। तभी एक दर्शक जो डाक्यूमेंट्री बताकर खारिज कर रहा था बाद में टायलेट में कहता है कि राजनीति इससे अच्छी थी। शांघाई बड़ी फिल्म होती तब जब इसकी कहानी की राजनीति कोई ग्रैंड नैरेटिव पेश करती । इस फिल्म का एक ही संदेश है। इतना सबकुछ होने के बाद भी हम देखते रह जाते हैं। वो भी ठीक से नहीं देखते। अहमदी मारा जाता है तो अपनी व्यक्तिगत लड़ाई में मारा जाता है। जनता तो उसी राजनीति की गुलाम है। टट्टू है जो जय प्रगति जय प्रगति के नारे लगाते हुए अपना टैंपो को कर्ज मुक्त करने के मकसद से उसका हथियार बनती है और फिर उसी हथियार से मारी जाती है।
काश मैं इस फिल्म को देश के तमाम झुग्गी बस्तियों में ले जाकर दिखा पाता। क्योंकि जिनके लिए यह फिल्म बनी है वही नहीं पहुंच पायेंगे। जिनके लिए नहीं बनी है जो समीक्षा और स्टार देखकर या इस लेख की तरह ज्ञान बांटकर खुश हो लेंगे। शांघाई ज़रूर देखिये। अच्छी फिल्म है। लेकिन यह मत बताइये कि ऐसी फिल्म बनी ही नहीं है। बन गई है मैं तो इसी से खुश हूं। दिबाकर पहले हिस्से को और बेहतर कर सकते थे। बेहतर से मेरा मतलब बस इतना ही है कि कहानी जब शुरू होती है तभी सभी को जोड़ ले तो अच्छा है। शायद यही वजह थी कि कुछ मूर्खों को यह डाक्यूमेंट्री लगी थी।
मैं जितनी बार गाँवों या बस्तियों में जाता हूँ ऐसी फिल्में ले जाता हूँ. इस बार शांघाई की बारी!
ReplyDeleteRAVEESH Bhai, Koi Badi baat nahi kahoonga magar ye to kahna hi padega ki jo bhi aap ke review ko padhega...vo film zaroor dekhega...main bhi oon me se ek hoon. badhayi..badhiya likha hai..sateek bhi.
ReplyDeleteRAVEESH Bhai, Koi Badi baat nahi kahoonga magar ye to kahna hi padega ki jo bhi aap ke review ko padhega...vo film zaroor dekhega...main bhi oon me se ek hoon. badhayi..badhiya likha hai..sateek bhi.
ReplyDeleteरवीशजी, कल Prime Time में आपका कथन सत्य था "FCI, काम का न काज का, दुश्मन अनाज का"
ReplyDeleteNice article to read.
ReplyDeleteसच की बारी आ गयी..
ReplyDeleteडिम्पल यादव चुनाव जीतीं:
ReplyDeleteजब मुलायम सिंह की अपनी बहू को चुनावों में चुनाव जीतीं तो हमें उनका वो बयान याद आता है....जिसमे उन्होंने कहा था की अगर "महिला विधेयक बिल पास हो गया तो संसद में ऐसी ऐसी औरतें आएँगी जिन्हें देख के लोग सीटियाँ बजायेंगे..."
... दोगली मानसिकता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा ?
अब मुलायम सिंह यादव की बहू को देखकर सांसद सीटिया बजायेगे तब क्या हो होगा ??????
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Deleteरिव्यू अच्छा लगा, शांघाई देखने का मन पहले से था, रिव्यू के बाद इच्छा प्रबल हो गई है।
ReplyDeleteपॉलिटिक्स और ब्यूरोक्रेसी की और परतें खोली जा सकती थीं| अच्छा प्रयास
ReplyDeleteफिल्म के बारे में फिल्हाल तो कुछ नही कह सकता पर हां समक्षिा संतुष्त करती हैं ..
ReplyDeleteकाश मैं इस फिल्म को देश के तमाम झुग्गी बस्तियों में ले जाकर दिखा पाता। क्योंकि जिनके लिए यह फिल्म बनी है वही नहीं पहुंच पायेंगे।
ReplyDeleteइस शुभेच्छा में मैं आपके साथ हूं :)
अपन अच्छी या बुरी फिल्म देखने नहीं गए थे वरन उस बेचैनी से साक्षात्कार करने गए थे जिसने रवीश जैसे नित छवियों में ही गिरे व्यक्ति तक को सुबह से शाम तक घेर लिया था और एक मायने में कनफ्यूज भी कर दिया था।
ReplyDeleteहमने अपना मत यहॉं लिखा है
sir sorry, bura mat manana par, "my name is khan" se achi hai....
ReplyDeleteतुम्हें सिनेमा से कम फुरसत है, हम ट्यूशन से कम खाली,
ReplyDeleteचलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली न हम खाली
ME iss tarah ki film hi mostly dekhta hu aur ye bhi jaroor dekhunga jab hamaare sehar ke hall me lagegi. Manoj Uniyal Rishikesh
ReplyDeletebadhai
ReplyDeleteसच सच सच...
ReplyDeleteaap agar savere savere tilismi tabiz
ReplyDeletebechenge to kaise kahenge
namaskar main ravish kumar
nagdi le lo ya le lo udhar
ha ha ha..ha. vaise kavita acchi hai.thankyou.