मुझे तो सारा वर्ल्ड स्पर्म नज़र आता है। डॉ चड्ढा की निगाह से सचमुच दुनिया टपकी हुई वीर्य बूंद लगने लगती है। लालची वीर्य, कंजूस वीर्य से लेकर वीर्यों का ऐसा सामाजिक विवरण साहित्य में भी नहीं सुना था। विकी डोनर देखते वक्त लगा कि यह हमारे समय की सामाजिक फिल्म है या वैज्ञानिक फिल्म। या फिर रूढ़िवादी या पुरातन हो चुकी आधुनिकता के बीच नई आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता के लिए स्पेस बनाती हुई फिल्म है। स्पर्म डोनर। दरियागंज की उन दुकानों में जहां लोग हिचकिचाते अपना चेहरा छुपाते जाते हैं निर्देशक शुजीत सरकार ने उसे आम मोहल्ले की दुकान में बदल दिया। औलाद चाहिए टाइप की नारेबाज़ियों को ऐसी कथा में बदल दिया कि आप पहली बार उन दुकानों और उनमें बैठे चड्ढे भल्ले की शक्लों को भी देखने लगे। अचानक आपकी शर्मसार सी होने वाली हैरानी एक ऐसी कथा में बदल जाती है जिसके साथ आप भी खुलने लगते हैं। मेरे सीट की बगल में बैठी तीनों महिलाओं एक दूसरे के कंधे पर लोट पोट होने लगती हैं। विकी डोनर खूबसूरत फिल्म की तरह सामने चलने लगती है।
सिनेमा में दिल्ली के आगमन ने कैसे कैसे किस्सों को जगह दी है। कई शहरों, गांवों, बोलियों और संस्कृतियों से आए लोगों से दिल्ली बसती चली जा रही है। ज़ाहिर है इसके किस्से में इंसानी ज़िंदगी के भावनात्मक उतार-चढ़ाव ही होंगे। लाजपत नगर फोर और सी आर पार्क के बीच बनती प्रेम कथा, रोहिणी की दुकान, दरियागंज, डीवीडी के ज़रिये आर्यपुत्र का वीर्योत्पादन,निराकार भाव से नौकरी करती डॉ चड्ढा की क्लिनिक में बैठी वो महिला। जिसके सामने सबकुछ एक रोज़मर्रा के दफ्तरीय कर्मकांड की तरह गुज़रता चला जा रहा है। विकी डोनर का जन्म सिनेमा की कहानी के आधुनिकतम नायकों का जन्म है। सास बहू का साथ शराब पीना और दहेज़ के सामान के साथ सास के लिए ब्रीफकेस न आने का दर्द आज भी तमाम घरों में बचा हुआ है लेकिन पहली बार किसी ने इस दर्द को दारू की बोतलों के साथ साझा करवाने की कोशिश में सास बहू की बराबरी के पुराने पड़ चुके सारे पैमानों को तोड़ दी है।
लाजपत नगर के भीतर भी सी ब्लाक टाइप मेंटालिटी की मौजूदगी और उसका ज़िक्र बताता है कि हम बिना पूर्वाग्रहों के नहीं रह सकते। बी ब्लाक और सी ब्लाक टाइप पूर्वाग्रहों की खोज आधुनिकतम है। इसी के साथ पूर्वाग्रहों का पुराना नैरेटिव भी मौजूद है। बंगाली बनाम पंजाबी । दारू नहीं तो मछली नहीं। बंगाली मर्द नहीं होते तो बंगालियों की फटती है। एक उत्तर आधुनिक दादी की मौजूदगी बता रही है कि अब हमारे घरों में ऐसी पीढ़ी बुढ़ा रही है जिसने आधुनिकता का मज़ा चखा है और वो इसे नई पीढ़ी के साथ बांटना चाहती है। सी आर पार्क के बंगाली बाबा, बंगाल की उस शानदार आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए पुरातन दिखने लगते हैं, एक ऐसा किरदार है जो इस फिल्म में फिर से अपनी आधुनिकता को परिभाषित करता है। खोजता है। विभाजन की बची खुची स्मृतियां गुरुद्वारा रकाबगंज और दुर्गापूजा के पंडाल में घुलने मिलने लगती हैं। पगड़ी बिना सरदार और संस्कृति बिन बंगालन की दिल्ली अतीत से पूरी तरह मुक्त हो चुकी है।
पहली बार यह फिल्म दिल्ली के पूर्वाग्रहों की पोल खोल देती है। चड्ढा ने अरोड़े का भी धंधा कर लिया। भल्ले चड्ढे अरोड़े। धंधे में सब एक दूसरे के सामान हैं। हम समझते थे कि धंधा करने का इनके पास कोई सामाजिक प्रशिक्षण यानी आइडिया है। पर विकी डोनर ने अरोड़े को भी चड्ढे का कस्टमर बना दिया। विकी डोनर आधुनिक घोषित हो चुकी दिल्ली की मानसिकता में आधुनिकता की नई गुज़ाइशें खोजती है। डा चड्ढा को वाकई हर शख्स स्पर्म की तरह दिखता है। हमारी जीन्स में ही नौटंकी है। इस फिल्म में सबलोक जाना किसी शर्मनाक गली से गुज़रना नहीं है बल्कि उस शर्म के पीछे मौजूद किस्सों को पर्दे हटा कर देखना है। प्राचीन विज्ञान। जिस शहर के मंदिरों ने अपनी पहचान प्राचीन शब्द से बनाई हो वहां वीर्यदान कैसे आधुनिक वक्त की खोज होकर मान्य हो सकता है। उसे भी प्राचीन तो होना ही था। महाभारत के टाइम्स से।
इतने जटिल प्रसंगों को सरलता से आपके दिलों तक उतारत देती है यह फिल्म। और हां आशिमा रॉय की सादगी पर लुट आया हूं। दिल्ली में प्रेम कहानियां ऐसे ही बनती हैं। मेरे लप्रेक की तरह। सी आर ब्लाक और लाजपत नगर फोर के बीच की प्रेम कहानी। काफी संयमित अभिनय है। उसका अलग होना सूटकेस बांध कर भयंकर ड्रामेबाज़ी का एलान नहीं है बल्कि विकी डोनर की कहानी को नया मोड़ देना है। हर फ्रेम में वो अच्छी लगती रही। मालूम नहीं कि वो दिल्ली टाइप लगी कि नहीं मगर कहीं न कहीं सी आर पार्क कोलकाता और लाजपत नगर के बीच इतने पलायन के बाद भी उस सादगी के बचे रहने का भी दस्तावेज़ है जो बच जाता है। हमारे लाख तथाकथित आधुनिक हो जाने के बाद भी। जितनी अच्छी फिल्म लगी है उतनी अच्छी आशिमा राय। असली नाम क्या है मालूम नहीं। मगर मार्डन दादी के शब्दों में मुनमुन सेन से भी खूबसूरत। अंशुमान ने भी सहज अभिनय किया है। एक ऐसा दिल्ली वाला जो अपने स्पेस में खुश है। अंशुमान का ही लिखा है पानी दा रंग वाला गाना। कंपोज़ भी किया और गाया भी है। लंबे संघर्ष के बाद विकी डोनर ने अंशुमान को ऐसी अनेक नई कहानियों का दावेदार नायक तो बना ही दिया है।
तो इस फिल्म को ज़रूर देखियेगा। हमारी आधुनिकता के सामने नए सवालों का सामना करने की चुनौती देती है। अब तक मैं इस बात से इंकार करता रहा कि दिल्ली से मेरा कोई रिश्ता नहीं है। रिश्ता हो नहीं सकता। विकी डोनर को देखते हुए लगता रहा कि कुछ तो है मेरे भीतर जो दिल्ली है। मेरे फेसबुक स्टेट की लघु प्रेम कथाएं सचमुच कहीं न कहीं घट रही हैं। कोई रोहिणी वाला किसी जनकपुरीवाली से मिलने के लिए निकल पड़ा है। ऑटो लेकर,कनाट प्लेस। विकी डोनर एक शानदार फिल्म है।
It seems that I'm seeing a film through your blog. How did you write such monologue? Give some tips I wanna learn.
ReplyDeleteविक्की डोनर को सामान्य फिल्म मानकर चल रहा था. आपने सुन्दर भाषा शैली में वर्णन किया है तो देखने का मन हो रहा है। आभार !
ReplyDeleteAsli naam Yami Gautam hai :)
ReplyDeleteAsli naam Yami Gautam hai :)
ReplyDeleteThanks for wonderful review of film. I have seen this movie. Lekin aapki najar se dekhne me jyada maja aaya.
ReplyDeleteThanks for wonderful review of film. I have seen this movie. Lekin aapki najar se dekhne me jyada maja aaya.
ReplyDeleteThanks for wonderful review of film. I have seen this movie. Lekin aapki najar se dekhne me jyada maja aaya.
ReplyDeleteha ha ha !!!! ab ravish ki report, prime time ke bad sinema india me bhi aa jaoge kya....chalo achcha likhte ho sir ji....
ReplyDeleteरवीशजी, एक लम्बे समय से मन में ये अभिलाषा थी की prime time पर जयप्रकाश चौकसे साहब को सुनूं जो आपने सिनेमा के १०० साल के सन्दर्भ में उन्हें आमंत्रित कर पूरी की. हलाकि ४५ मिनट के छोटे से समय में उन्हें ज्यादा वक़्त न मिल सका. मैं उन्हें १७ वर्षों से अनवरत दैनिक भास्कर में पढ़ रहा हूँ. वो सिनेमा के encyclopedia हैं. आशा करता हूँ भविष्य में आप "हम लोग" का एक पूरा.episode "सिनेमा" पर लायेंगे और जयप्रकाश चौकसे साहब को बुलाकर भरपूर सुनने का अवसर जनता को देंगे. बहरहाल,"डोनर" का आपने शानदार विश्लेषण किया..साभार अखिलेश
ReplyDeleteआज की दिल्ली - डोनर भी हो गयी, सुंदर समीक्षा ....
ReplyDeletebahut achhee sameeksha kee hai aapne...dekhna hi hoga..
ReplyDeleteitni sari baat kh di aapne... likhte bolte aap accha hai... tareef nayi nhi hogi lekin anshuman ke abhinay ke bare mein ek line bhi nhi likhi afsos delhi ka ek sandaar ladka aapki nazar mein aakar kyun nhi dikha aapko... kuch line ka hakdaar tha....
ReplyDeletehave been trying hard to see the film but in vain. Hope to watch it soon. Good review indeed. Hindi is definitely your forte.
ReplyDeleteNamskar Sir !
ReplyDeleteAapka ye rivew behad alag andaj me likha gaya hai. khair aapka to andaj sabse alahda waise hi hai. main aapko TV par daily nahi dekh pata hun, par aapki prime time ki debaut internet par agle din jaroor dekhta hun ji. aap mere hi sabdo ko aawaj dete hai sir. aapki "Misile or Mahatma" debut suni sach me is desh ko aaj ke paripreksh me Gandhi nahi balki Subash or Bhagat or Aajad chahiye. aapko vyakits kab mil paunga pata nahi par thanks for aal.
Manoj Charan.
mkcharan11@gmail.com
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ReplyDeleteरोटी का परमात्मा तक पहुचना
ReplyDelete"रोटी से रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थी, मज्जा, वीर्य, मन, बुद्धी, चित, अहंकार, प्राण, आत्मा, माया, परमात्मा यह पूरा हुआ |" यह मेरा कथन है | अब यह यात्रा कैसे होती हैं बताते हैं - रोटी से रस बनता है | रस से खून बनता है | खून से मांस बनता है | मॉस से हड्डी बनती है | हड्डी से बोन मेरो बनता है | बोन मेरो से वीर्य बनता है | वीर्य जो कुंड में इक्कठा होता है | जब वीर्य का शोधन किया जाता है तो वह मन बनता है | इसलिए कहते है जैसा खाए अन्न वैसा हो मन | मन का शोधन होने के बाद बुद्धी बनती है | बुद्धी का शोधन होने से चित्त बनता है | चित्त का शोधन होने से अहंकार बनता है | अहंकार का शोधन होने से प्राण बनता है | प्राण का शोधन होने से आत्मा बनती है | आत्मा का शोधन होने से माया | माया का शोधन होने से परमात्मा बनता है | यह सभी की रोटी के साथ होता है |
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ReplyDeleteइतने दिनों आपको प्राइम टाइम पर ही सुन रहा था, और पहले रवीश की रिपोर्ट के कुछ अंश देखे हैं, आज पहली बार आपका ब्लॉग पढ़ा | आपकी सामाजिक समझ का शुरू से ही कायल हूँ, जिसमें पत्रकारिता का तड़का लगा हुआ है और वह गहरी समझ आपके इस ब्लॉग से भली भाँति छलकती है| इसे आप प्रशंसा समझकर मेरी भावनाओं का अपमान ना कीजिएगा |
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ReplyDeletehttp://meriauraapkibasti.blogspot.in/2012/05/blog-post.html#comment-form
ReplyDeleteSir maine bhi ek blog shiru kiya hai plis nazar mariyega :) aur thoda tips de dijiyega agar ho sake baki jesi apki marzi.
Well said sir especially first intro muje sab sperm nazraa rha hai
ReplyDeleteHero- Ayushman (Anshuman nahi)
ReplyDeleteHeroine- Yami Gautam
Script Writer- Juhi Chaturvedi
Hero- Ayushman (Anshuman nahi)
ReplyDeleteHeroine- Yami Gautam
Script Writer- Juhi Chaturvedi