शायद हम भारतीय मूलत उदास प्रवृत्ति के लोग हैं। दुख को नियमित समझ धीरज के साथ चरणों में काटते हैं और सुख को एकमुश्त उल्लास में खर्च कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की जीत के बाद के कवरेज और घोर उम्मीदीकरण का जो दौर की छपाई से ऐसा लगता है कि यूपी की जनता ने कोई क्रांतिकारी बदलाव के लिए जनादेश दे दिया हो। जबकि जनता ने नए कलेवर में पुराने ही विकल्प से बदलाव की उम्मीद भर की है। अमेरिका में बराक ओबामा की जीत पर कई महीने तक अति आशावाद की लहर दुनिया भर में फैला दी गई थी। पांच साल पहले मायावती जब प्रचंड बहुमत से आईं तो उन्हें भी भारत का ओबामा लम्हा बता दिया गया। नीतीश कुमार से लेकर ममता बनर्जी तक के विजय अभियान को ऐसे ही उम्मीदों से लबरेज़ किया जाता रहा है। अब हर तरफ अखिलेश ही अखिलेश हैं। टीपू बना सुल्तान से लेकर अखिलेश प्रदेश की उपमाओं के बीच राजनीतिक और प्रादेशिक यथार्थ वहीं के वहीं बने हुए हैं। संतुलन की गुंज़ाइश छोड़ सबकुछ अति के स्तर पर चला गया है।
अखिलेश एक अकल्पनीय छवियों के सांचे में ढाले जा रहे हैं। आई पैड और आई फोन सामान्य उपभोग की चीज़ें हैं। अभी तक अमेरिका में ही साबित नहीं हुआ है कि आई फोन या आई पैड का राजनीतिक सफलता से कोई नाता है लेकिन हिन्दुस्तान की मीडिया अखिलेश के हाथों में दिख रहे इन उत्पादों को उनके विजय से जोड़ रही है। यही कि अखिलेश दो दो ब्लैकबेरी फोन रखते हैं। आई पैड पर पार्टी के प्रचार अभियान का वीडियो देखते हैं। सत्तर के दशक के अंग्रेजी गाने सुनते हैं और ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा जैसी फिल्में देखते हैं। हल्की फुल्की कन्नड बोल लेते हैं और धौलपुर के सैनिक स्कूल में मिली फुटबॉल खेलने की आदत को आज भी बरकरार रखे हुए हैं। पजेरो कार में रखी बीएमडब्ल्यू साइकिल चलाकर उम्मीद की साइकिल की नई छवि गढ़ते हैं। ऐसे तमाम प्रतीकों के बीच अखिलेश यादव के विजय अभियान की निरंतर खोज जारी है। उन्हें किस्से और मुहावरे में बदला जा रहा है। कैमरे खोज खोज कर ऐसी तस्वीरें ला रहे हैं जिसमें अखिलेश किसी रोबोट की तरह दिखने लगे। जीत ने यह काम आसान कर दिया है। यही सब उपकरण तो राहुल गांधी के पास भी थे। उन्हें जीत मिलती तो उनकी टीम और रणनीतियों के भी किस्से ख़ूब छपते। वोट देने से पहले उत्तर प्रदेश की जनता को अखिलेश यादव की इन खूबियों के बारे में कुछ नहीं मालूम था। उसे बस लगा कि उनके बीच कोई नेता आया है और गंभीर लग रहा है तो भरोसा करना चाहिए।
याद कीजिए पांच साल पहले मायावती को भी उम्मीदों की गगरी में उड़ेल दिया गया था। कहा जाने लगा कि मायावती की जीत हिन्दुस्तान का ओबामा लम्हा है। वो सारी उम्मीदें नए सिरे से अखिलेश यादव के कंधों पर हस्तांतरित हो चुकी हैं। यह जानते हुए कि राज्य का तंत्र एक स्थायी मानसिकता का शिकार हो चुका है। उसके लिए अखिलेश का शीर्ष पर आना एक अल्पविराम भर है। गनीमत है कि अभी तक अखिलेश यादव अपनी जीत की अतिरंजित व्याख्या में घोर रूप से सामान्य नज़र आ रहे हैं। वैसे ही जैसे विश्व कप जीतने के बाद महेंद्र सिंह धोनी सामान्य नज़र आ रहे थे। धोनी को मालूम रहा होगा कि विश्व विजेता होने का मतलब है जीत को निरंतरता में बदलना। मायावती के पास भी दो सौ से अधिक विधायक थे और वो भी दुनिया भर की पत्रिकाओं में सुपर वुमन से लेकर सौ शक्तिशाली महिलाओं में शुमार की जाने लगीं। अखिलेश यादव को समझना चाहिए कि ऐसी उपमाओं और अलंकारों का कोई मतलब नहीं होता। यह सब दीवाली के वक्त लगने वाले झालर हैं जो दीवाली बीत जाने के बाद दरवाज़ें पर मुरझाकर गिरने लगते हैं।
मैं सामान्य रहने में यकीन रखता हूं। समभाव ही बेहतर है। सत्ता के चरित्र ने मायावती को बदल दिया। ममता बनर्जी को बदल दिया। लालू यादव भी क्रांतिकारी परिवर्तन के प्रतीक बनकर उभरे थे। वो बदल गए। चुनाव बाद के विजेताओं को मिली सुर्खियों और पांच साल की उपलब्धियों में गहरा अंतर रह जाता है। टिकते हैं वहीं नेता तो सामान्य भाव से राज्य की बुनियादी समस्याओं का हल खोजते रहते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह से वे प्रचारों के दौरान स्टैंड ले रहे थे उसी तरह से प्रशासनिक फैसलों के समय भी स्टैंड लेगे। उन्हें उत्तर प्रदेश में अब तक सबसे ईमानदार प्रशासन देना है। उन्हें उस सामंतवादी मानसिकता से लड़कर दिखाना होगा जो जीत के नशे में किसी दलित का घर जलाने के लिए उकसाती है। यह कानून व्यवस्था के डर से दूर नहीं हो सकता। जब तक सम्मान की जगह नहीं बनेगी ज़मीन पर नया माहौल नहीं बनेगा। उनका बहुमत सभी जातियों का है। मायावती ने यही समझने में चूक कर दी। इसीलिए अखिलेश यादव को युवा नेतृत्व जैसे जुमलों की पैकेजिंग से सतर्क रहना होगा।
हमारे विचारक यहीं पर अखिलेश को समझने में चूक जाते हैं। यह जीत किसी रणनीति का परिणाम नहीं है। जनता के पास तो सिर्फ एक रणनीति थी। वोट उसको देना है जो बहुमत से सरकार बनाए। उसके पास एक ही विचारधारा और कार्यक्रमों वाले कई दल थे। यूपी की जनता ने उन तमाम दलों में से एक सपा को चुना। सपा की जीत यूपी की जनता की रणनीतिक जीत है न कि अखिलेश के हाई टेक आदतों की। अखिलेश यादव ने इसे समझ लिया था। इसलिए वो जनता से एस एम एस या ईमेल से संबंध नहीं बना रहे थे। उनके बीच जा रहे थे। नेता का सपर्क कार्यकर्ताओं से जितना बेहतर होगा उसकी योजनाएं सफल होती चली जाएंगी। यहां पर अखिलेश ने खुद को साबित किया है।
लोकतंत्र में नए दल बनते हैं और गायब हो जाते हैं। जनता दल अमीबा की तरह टूटा और बनता रहा। समाजवादी पार्टी को पुरातन कहा जाने लगा तो वो अखिलेश ने उसे आधुनिक बना दिया। पर पार्टी का ढांचा कितना आधुनिक हो गया होगा। हमारे देश में यह करिश्मा हर दौर में होता रहा है। शरद पवार भी सैंतीस साल की उम्र में महाराष्ट्र की राजनीति के करिश्मा थे। मायावती भी उनतालीस साल की उम्र में उत्तर प्रदेश की चमत्कार थीं। असम में प्रफुल्ल मंहत ने तो इन सबसे कम उम्र में जनमत के ज़रिये सत्ता हासिल की थी। अब कोई चमत्कार नहीं कहता। अगर सारा नमस्कार सत्ता के लिए ही है तो फिर अतिरंजित विश्लेषण क्यों? राष्ट्रीय नेता बनाम लोकल नेता के सवाल के जवाब में अखिलेश यादव ने जवाब दिया कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को ऐसे ही इंटरनेशल और नेशनल बताकर भरमाते रहते हैं। वो चाहते हैं कि उनकी तुलना उत्तर प्रदेश के अंदर हो। अखिलेश यादव को मालूम है कि पांच साल बाद उनकी तुलना होगी। उनकी राजनीति की राजधानी सैफई ज़रूर हो सकती है मगर याद रखना होगा कि राजधानी एक है। लखनऊ जहां से उन्हें पूरे उत्तर प्रदेश के लिए काम करना है। अखिलेश ही अखिलेश जैसे अलंकरणों से बचकर प्रदेश ही प्रदेश जैसे यथार्थों में विचरना होगा।
(published in rajasthan patrika)
Media ab Akhilesh ki buraiyan bhi dhoondh raha hai.
ReplyDeletechar din ki chadni phir adheri raat hai....sir i m miss ur ravish ki report.
ReplyDeleteवही अधिकारी है वही व्यवस्था है वही पुरानी कैबिनेट है कुछ नहीं बदलेगा नई बोतल मे पुरानी शराब है खाली ब्रांड (अखिलेश) नया है असल मे यूपी मे शासन घाघ नौकरशाह चलाते हैं ।
ReplyDeleteकाफी अरसे बाद आपकी लेखनी चली....जल्द ही स्वस्थ होइए और TV पर भी आइये..
ReplyDeleteआपके लिए ये संकलन प्रस्तुत हैं:
अपनी धुन में रहता हूँ मैं भी तेरे जैसा हूँ
ओ पिछली रुत के साथी अब के बरस मैं तन्हा हूँ
तेरी गली में सारा दिन दुख के कंकर चुनता हूँ
मुझ से आँख मिलाये कौन मैं तेरा आईना हूँ
मेरा दिया जलाये कौन मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ
तू जीवन की भरी गली मैं जंगल का रस्ता हूँ
अपनी लहर है अपना रोग दरिया हूँ और प्यासा हूँ
आती रुत मुझे रोयेगी जाती रुत का झोंका हूँ- नासिर काज़मी
Kaash iss lekh ko akhilesh padh lein.
ReplyDeleteविराट शतकिया पारी खेलता है तो स्टार न्यूज रिपोर्टर धोनी को उससे रिपेल्श करने की बात कहती है, जिसका कोई वाजूद नहीं, धोनी एक अच्छे कप्तान हैं, और अभी उनके पास समय, धोनी को तब कप्तानी मिली थी, जब राहुल ने जिम्मेदारी से पल्लू खींचा, मीडिया है सर जी, कुछ भी करता है, अभी में जीता है,
ReplyDeleteI typed a sooo long comment,but by mistake it has been erased due to power cut:) let me try in brief:( I believe that its nither akhilesh lahar like obama or maya wave but its just a sattlement deal between rahul gandhi and AY.'i think so'. a.q. 'ram-kevat' 'dhandha bhai' ek yahan paar karaye duja upar paar karaye types of compitition:) and it seems in todays suppoart to the govt isn't it? ….. aur ha,aap se kai baar suna hai jaati vyavastha ke baare main 'jabtak samman ki jagah nahin banegi jamini badlaav nahin hoga' please define this ' samman' by LAW if any or please let me know your own defination of this 'sammaan'….aur ha,jo buniyadi samadhan chahte,laate ya dikhate hai vah shayad ipad ke saath nahin milenge,sach kaha aapne,log itne murkh nahin rahe ab,jo ipad,bolero,young age ya white colour dekh ke vote denge:) aur rahi baat media ki,to pahle kabootar,fir akhbaar,fir tv,fir 2G:) aur aage whatever,lekin kaam to ek hi hai,'sachchi sachhi khabar dena' jo yah hai,vahi visvasniy aur lokpriya hai,hoga.safalta ke mulank mujhe nahin pata….:)safalta ke m
ReplyDeleteआई पैड और आई फोन सामान्य उपभोग की चीज़ें हैं।
ReplyDeleteजब ये सामान्य उपभोग है तब विलासिता कहाँ से शुरू होती है ? रवीश की बात में सामान्य को इस तरह कहा जा रहा है जैसे वे खुद इन चीजों को रखें तो कोई उन्हें गलत या विलासी न करार दे, इससे बचने का विकल्प वे रख रहे हैं...
vaise title cute select kiya hai :) RKR
ReplyDeleteनमस्कार रवीशजी..! लेख तो हमेशा की तरह ही बेहतर पकड़ के साथ लिखा गया है. पहली दो पंक्तिया न केवल इस देश के बल्कि पूरे विश्व के मध्यम-वर्गीय लोगो की वैचारिक लाचारी को दर्शाती है. लेख का शीर्षक शायद मीडिया के पेज भरने और २४ घंटे दिखाने की कहानी का उपज है. जीवन जीने के लिए ऊपर वाले ने मानव मात्र में 'उम्मीद' का गुण डाल रखा है और इसी कारण चाहे लालू हो, माया हो या अखिलेश, लोगों में फिर से नयी उम्मीद जग जाती है.यह लाइन थोड़ी उदासीन लगती है की "यह जीत किसी रणनीति का परिणाम नहीं है।", UP के लोगों ने संभवतः अखिलेश के परिश्रम से प्रभावित और उन पर विश्वास कर ही वोट दिया है. जल्द स्वस्थ होकर आइये और Prime Time का माहौल बनाइये. :-)
ReplyDeleteआदरणीय रविश सर,
ReplyDeleteअखिलेश यादव के माताजी का देहांत बचपन में ही हो गया था। जिस की वजह से वो माँ का प्यार तो नहीं पा सके लेकिन यूपी के मतदारों का प्यार जरुर पा सके।
इंजीनियरिंग की पढाई करने वाले अखिलेश ने बहनजी(मायावती)के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को बदल के रख दिया।
गुजरात से,
सवजी चौधरी।
९९९८० ४३२३८.
कभी मायावती हूं...कभी अखिलेश हूं....मैं उत्तर प्रदेश हूं....
ReplyDeleteमहाजन----नाउ नाउ कितने बाल .....
नाउ----जजमान अभी सब सामने आते हैं.........
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ReplyDeleteકાચઘર KachGhar said... अखिलेश की माता जी का देहांत अखिलेश के बचपन में नहीं हुआ था....वो 2000 के बाद ही स्वर्गवासी हुई हैं....अखिलेश को अपनी मां का प्यार भरपूर मिला है...और अब गुप्ताइन माता जी का भी भरपूर प्यार मिल रहा है
ReplyDeleteआप सही हैं और wikipedia गलत।
ReplyDeleteगलती कबूल।
निचे दी गई लिंक हिंदी विकिपीडिया की हैं।
http://www.google.co.in/#hl=hi&sclient=psy-ab&q=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9+%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A5%80+&oq=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9+%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A5%80+&aq=f&aqi=&aql=&gs_l=hp.12...2722l6881l6l8418l4l4l0l0l0l0l112l434l0j4l4l0.frgbld.&pbx=1&bav=on.2,or.r_gc.r_pw.r_qf.,cf.osb&fp=37b759f0aac17683&biw=1360&bih=614