हमरी न मानो..रंगरेज़वा से पूछो...
२६५ साल से हमारे ख़ानदान में सभी रंगरेज़ ही होते रहे हैं। आज तक किसी ने कोई दूसरा काम नहीं किया है। जयपुर बसा था तब हमारे पूर्वजों को दिल्ली से लाया गया था। हम रंगरेज़ ही हैं। पहले राजपरिवार के रंगरेज़ हुआ करते थे और अब हर किसी के हैं। हमारा काम बढ़ता ही जा रहा है। कम नहीं हुआ है। रंगों के शौकीन हमारे ही पास आते हैं। मैं एक साड़ी में कम से कम दो सौ रंगों के शेड्स दे सकता हूं। हम किसी भी रंग को आपको कपड़े प उतार सकते हैं। उत्साह से बोले जा रहे थे अब्दुल राशिद चांद साहब। बताने लगे कि उनके अब्बा मरहूम अब्दुल लतीफ मिट्ठू जी से जयपुर के ख़ानदानी लोगों से सीधे ताल्लुकात रहे। अब्बा साल में एक दिन भोज करते थे तो जयपुर राजपरिवार के सदस्य हमारे घर खाने आते थे।
हम गए थे कहानी खोजने। जयपुर जैसे शहर में जहां हर किस्सा टूरिस्ट गाइड की मानिंद रटा रटाया हो गया है,वहां हम बचे हुए कुछ किस्से ढूंढ रहे थे। बात जमी नहीं तो कहानी बीच में ही छोड़ शूटिंग कैंसिल कर दी। लेकिन अब्दुल रशिद से बात करने में मज़ा आया। ऐसा रंगरेज़ जो रंगों से किसी खिलाड़ी की तरह खेलने में माहिर लगा। खूब बातें बताईं। कहा कि लोग पत्थर के टुकड़े, साबुनदानी,अंगूठी के नग लेकर आ जाते हैं और कहते हैं कि इस रंग को साड़ी पर उतार दो। कुछ लोग तो ब्रा और पैन्टी लेकर आ जाते हैं और कहते हैं कि इसकी मैचिंग साड़ी बना दो। राशिद ने अपने पिता का एक किस्सा भी सुनाया। जयपुर की किसी महारानी ने उन्हें बुलाकर कहा कि मिट्ठू जी हमें इंद्रधनुष के रंगों में ढली एक साड़ी चाहिए। अब्बा ने सागर लहेरिया बना दी। बाद में जिसे फिल्मों में नायिकाओं ने भी पहना और उसके बाद आम महिलाओं ने भी। अब्बा को सोनिया गांधी ने भी बुलाया था लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
चांद ने कई रंगों के खत्म होने की कहानी बताई। कहा कि एक ज़माने में मलागिरी नाम का रंग हुआ करता था. सौ से अधिक जड़ी-बूटियों से बनता था। दस दिनों तक बूटियों को पकाने के बाद रंग बनता था। रंग चमड़ी की तरह इतना असली लगता था कि बिल्ली नोचने लगती थी और सांप कपड़े से लिपट जाते थे। इस रंग के तीन ही कपड़े जयपुर में मौजूद हैं। वक्त के साथ कई रंगरेज़ों ने असली काम छोड़ नग बनाने के काम में लग गए मगर अब वे धीरे-धीरे रंगरेज़ बन रहे हैं। हमारा धंधे में काफी मांग है। जब हमने लोगों से पूछा कि रंगरेज़ों का मोहल्ला जाना है तो एक सज्जन ने कहा कि पुरानी दिल्ली जाना है। पुरानी दिल्ली का मतलब क्या होता है? हमरी न मानो..रंगरेज़वा से पूछो...
आप हमेशा कुछ नया लाते जो हमें "इंडिया" दिखाता है.
ReplyDeleteभागलपुर से सीधे जयपुर के रंगरेज के हाथो का हुनर दिखा कर आप ये साबित कर देते है.
रंगरेज के रंगों की तरह ये रिपोर्ट भी "पक्का" है.
मस्त पोस्ट है। रोचक।
ReplyDeleteवैसे कभी मिलों के रंगाड़ी खाते जाएंगे तो पाएंगे कि जो वर्कर जिस रंग के कपड़े रंगता है वह उसी रंग से सराबोर होता है। इनके लिये साल भर होली ही होती है।
ReplyDeleteजीवन में रंग भरता , रंगरेज़।
ReplyDeleteबहुत रोचक.....
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट
ReplyDeleteमस्त पोस्ट। जयपुर की याद दिला दी आपने...
ReplyDeleteजीवन के रंग ,रंगो सा जीवन ,रंगरेज है फिर भी रंगविहिन जिदंगानी-
ReplyDeleteजयपुर हम भी गये दो बार , मगर दोनों बार के तीन-चार दिन जयपुर घूमने-देखने-महसूसने में ही बीत गये, कुछ नया चाह कर भी ढूँढ तलाश नही सके आपकी तरह...!आपकी नज़र से एक बार फिर गुलाबी शहर को देखना-जानना सुखद है.... आभार!
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर पुराणी परम्परे राओ को जीवंत रखने वाली रपोर्ट और तस्वीरे देखकर मन तृप्त हो जाता है |कभी मध्य प्रदेश भी आइये और यहाँ गावो में बाटिक ,बंधेज ,बाग प्रिंट की कला भी देखिये |
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