क्या आपको भी लगता है कि साइकिल चलाती हुई औरतें बदलाव का प्रतीक है। मुझे तो पक्का लगता है। गांव हो या शहर, दफ्तर हो या खेत अब हर जगह पर औरतें काम के लिए बाहर निकल रही हैं। लेकिन लचर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के कारण औरतों को काफी धक्का मुक्की का सामना करना पड़ता है। काफी पैसा बस के किराये में खर्च हो जाता है। ऊपर से औरतों को,खासकर असंगठित क्षेत्र में,को मज़दूरी भी कम मिलती है। ऐसे में उन्हें रफ्तार की सख्त ज़रूरत हो जाती है।
मैं दिल्ली के बसंत कुंज इलाके में गया था। वहां बंगाल से आई कामगार महिलाएं पास की अमीर कालोनियों में काम करने जाती हैं। इलाका इतना अमीर है कि सरकारी डीटीसी की बस भी कम ही चलती है। महंगे आटो का इस्तमाल इनके बस की बात नहीं। बंगाल के ग्रामीण इलाकों में महिलाएं सहज रूप से साइकिल चलाती देखी जा सकती हैं। सो उन्होंने साइकिल का इस्तमाल शुरू कर दिया। इसके कई फायदे हुए। वे जल्दी पहुंचने लगीं और ज्यादा घरों में काम करने लगीं जिससे उनकी कमाई बढ़ गई।
रिक्शा और साइकिल के लिए समान सड़क अधिकार पर काम करने वाले राजेंद्र रवि और उनके साथियों की नज़र पड़ी तो उन्होंने सोचा कि दूसरी जगह की कामगार महिलाओं को साइकिल की ट्रेनिंग देते हैं। दिल्ली फरीदाबाद सीमा पर बसे गौतमपुरी गांव में पचास- साठ साइकिलों से यह प्रयास शुरू हुआ। इस काम को देख रही एक महिला ने बताया कि बसंत कुंज में सारी महिलाएं बंगाली थीं। इसलिए उन्हें संघर्ष नहीं करना पड़ा। लेकिन कहां बिहार-यूपी के कई ज़िलों के लोग रहते हैं। मर्दों ने महिलाओं को तंग करना शुरू कर दिया। ताने देने लगे। साइकिल चला रही हैं. फिर भी बस्ती की पचास साठ महिलाओं ने साइकिल चलाना सीख लिया। वो बहुत दूर तो नहीं जाती लेकिन साइकिल से नजदीक के ज़रूरी काम करने लगीं। लेकिन यहां पूर्वांचल के मर्दों ने महिलाओं को साइकिल चलाने की आजादी नहीं दी। नतीजा यहां की लड़कियां दो-तीन किमी धूप में पैदल चलकर स्कूल जाती हैं। मां बाप इतने नहीं कमाते कि बस या ऑटो का किराया भर सकें।
इसलिए आम औरतों की आज़ादी साइकिल के बिना मुकम्मल नहीं हो सकती। औरतों ने साइकिल का तरह तरह से इस्तमाल करना सीख लिया है। जो औरत साइकिल चलाना नहीं जानती वो भी इसका इस्तमाल कर रही है. दिल्ली की कई झुग्गियों में मैंने देखा है कि औरतें पानी से भरे गैलन को साइकिल की दोनों तरफ लटका देती हैं। उसके बाद पैदल खींच कर साइकिल को घर तक ले आती हैं। वर्ना उन्हें सर पर दो या तीन गैलन पानी भर कर घर पर लाने का असंभव काम करना पड़ता।
पानी के इस भयंकर संकट में साइकिल ने औरतों से खूब दोस्ती निभाई है। दक्षिण दिल्ली के बसंत विहार के खिचड़ीपुर गांव में इसे पानी की साइकिल कहते हैं। लगभग हर औरत के पास साइकिल है। इक्का दुक्का को ही चलाने की आदत है। वर्ना ज़्यादातर महिलाएं साइकिल को खींचती हैं। रिक्शे की तरह। जब से बसों का किराया महंगा हुआ है कई औऱतों को घर बैठना पड़ा है या नजदीक की कालोनी में कम पैसे पर काम करना पड़ा है। अगर सरकारें चाहें वो किसी भी शहर की हों, साइकिल के लिए अलग से ट्रैक बनाती है तो औरतों का बडा भला होगा। गोरखपुर हो या कानपुर कहीं भी कामवाली काफी पैदल चल कर हमारे आपको घरों तक पहुंचती है। कितना वक्त बर्बाद होता है। परेशान दोनों होते है।
बिहार में साइकिल ने लड़कियों की ज़िंदगी बदल दी है। जब से नीतीश कुमार की सरकार ने साइकिल बांटी है तब से बड़ी संख्या में लड़कियां समूह में घरों से बाहर निकलने लगी हैं। वो स्कूल जाने लगी हैं। रास्ते में किसी डर की वजह से या भाई के न पहुंचाने के कारण उनका क्लास नहीं छूटता। स्कूल के अलावा वो अब घरों में भी बड़ी जिम्मेदारी का काम करने लगी हैं। साइकिल लड़़कियों में आत्मविश्वास पैदा करने का सबसे सस्ता और कारगर माध्यम है।
12 comments:
बात तो सही है रवीश जी। काम में गति का होना अति आवश्यक है। गति होगी तो काम जल्दी होगा और जल्दी काम होगा तो काम ज्याद होगा।
बाद में यह भी लग रहा है कहीं आप सपाई तो नहीं हो गए। नेताजी ने फोन करके तो यह अप्रत्यक्ष पोस्ट नहीं लिखवाई।
रवीश जी,
अस्सी ओस्सी के दशक में पूर्वांचल में किन्ही बूल्लू यादव का गाया बिरहा की द्विअर्थी पंक्तियां थीं कि- लड़कियाँ जबसे साईकिल चलाने लगीं....तबसे आगे का डण्डा खतम हुई गवा।
यूँ तो मिस्टर बूल्लू यादव ने प्रत्यक्ष रूप से साइकिल के फ्रेम में गद्दी और हैंडल को जोड़ने वाले वाले डंडे का जिक्र किया था लेकिन यह गाना द्विअर्थी के साथ साथ एक और अर्थ दे रहा था कि लड़कियों ने अपने अभिभावकों के द्वारा लादे गए बंधन...रोक छेक के प्रतीक डंडा संस्कृति को ठेंगा दिखाने के लिए साइकिल चलाना शुरू किया और उसका असर था कि साइकिल की कंपनीयों ने फ्रेम में लगने वाले डंडे को निकाल कर लेडीज साइकिल का उत्पादन शुरू कर दिया।
बिरहा की पंक्तियां शायद बूल्लू यादव की थीं या किसी और की इस पर थोड़ा मुंझे संशय है....तब मैं उम्र में काफी छोटा था....काफी पहले यह गाना सुना है।
अच्छी पोस्ट।
वैसे कल आपने शायद धयान नहीं दिया की उस रिक्शे क पीछे CNG लिखा था , CNG ने भी काफी कायापलट केर दी है , पेट्रोल क अनुपात में यह आधे दम में ही मिल जाता है और प्रयावन को भी मजा , इस पर कुछ हो जाये तोह अच्छा है , आप को जानकारी हम देता हूँ , में इसी field का इंजिनियर हूँ , महज १० सालो में इस उर्जा क स्रोत नें कितनो की नैया पर लगा दी है सर ,
कल आपकी रिपोर्ट देखी ,रिक्शे वाले पर , सब कैलोरी का खेल है सर , कुछ लोग जहा कम कैलोरी में निभा रहे ,चाय में २ रुपये की पारले जी डूबा कर लाइट खाना खा कर भी वो रिक्शा वाला डार्विन की थेओरी survival of fittest को चरितार्थ कर रहा है , यहाँ कोई वजन कम करने की समस्या नहीं है ,क्योक यहाँ समस्या भूख है ,चर्बी नहीं .
साईकिल तो साहब हमारी बहने भी चलाती थी, इतनी तेज़ की हमे भी पीछे छोड़ देती थी कही...रेसिंग साईकिल जो थी उनके पास, समय के साथ वो स्कूटर चलाने लगी, लेकिन आज आपकी पोस्ट पढ़कर बड़ा आश्चर्य हुआ की ऐसी भी जगहे है आज भी जहा साइकिल जैसी बेसिक साधन की भी अनुमति नहीं ...कभी कभी लगता है जाये और जरा झकझोड़ आये जोरो से,ऐसे संकुचित विचारधारा के लोगो को...
अहा ! क्या फ़ुहार छोड़ी है नास्टेल्जिया की ! मैंने दिल्ली आकर एक स्पोर्टस् सायकिल लिया था। किसी ने चुरा लिया। ग़रीबी-रेखा से भी नीचे की किसी रेखा का चोर रहा होगा। एफ. आई. आर. कराने की हिम्मत नहीं पड़ी।
अब नयी लूंगा। याद दिलाने के लिए आपका भी शुक्रिया और उन कामवाली महिलाओं का भी।
साइकिल पर अस्सी के दशक में मणिपुर में अधिकतर लड़कियों को सुबह-शाम देखा था सड़क पर, जहां औरतों को अधिक आजादी थी, या कहिये घर वो ही चलाती हैं और 'ईमा बाज़ार' में स्त्रीयां ही सामान बेचती दिखाई पड़ती हैं...
और पता चला था कि भारत में सोनीपत से बहुत साइकिलें बर्मा में भी बिकती थीं जहां पर भी उनकी बहुत मांग थी...
एक तस्वीर होती तो और बढ़िया रहता...सिर्फ महिलाएं ही क्यों....पुरुष भी साइकिल चलाते हैं तो मुकम्मल लगता है....मुझे साइकिल के अलावा कुछ और चलाना ही नहीं आया....मैं आखिरी आदमी ही सही...
किस तरह एक छोटी सी चीज जिंदगियां बदल सकती है न?
nice.......
sir, maine bhi cycle pr ek report likhi thi ittefaakan vo aajtak mere channel pr nahi chali or aapki rikshwa ki report chal gayi such a nice report n nice article.
In Orissa also cycles have changed the life of Dalit girls. The government has been giving free cycles to tribals girls in schools. This has checked school dropout ratio.
नमस्कार रविश जी ,आपकी बात सही हैं की नितीश सरकार ने साईकिल देकर लडकियों में आत्मविश्वास पैदा किया हैं . आज गाँव की बच्चिया जब साईकिल से विधालय जाती हैं जिसे देखकर सुखद अनुभूति होती हैं.
ravish ji mazaa aa gayaa
kuch naya likhane me aapka javaab nahi hai.
bas aise hi likhate rahan aur ham se jude rahana.
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