पी चिदंबरम उदास हैं। दंतेवाड़ा में हुए हमले के बाद उनकी जो भी तस्वीरें छप रही हैं,उनमें एक किस्म की उदासी है। घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी की भंगिमा समझ नहीं आई। चिदंबरम ने क्या सोचा था? युद्ध भी करेंगे और जान भी नहीं जाएगी। जान तो दोनों तरफ से जानी है। यही तो कहा जा रहा था कि अपने लोगों पर गोली कैसे चलायेंगे। खून चाहे इधर बहे या उधर बहे, अपना ही है। नक्सल समस्या को सामाजिक आर्थिक बताते बताते कांग्रेस अचानक चिदंबरम के नेतृत्व में नक्सलियों को आतंकवादी बताने लगी। मीडिया का इस्तमाल होने लगा। एक भाषाई मीडिया के ज़रिये चिदंबरम अपनी बात को आखिरी उपाय की तरह पेश करने लगे। चिदंबरम को जानना चाहिए कि इंग्लिश मीडिया का असर उनके सत्ता प्रतिष्ठानों के गलियारे में है। जनता में नहीं है। अपने बगल की ताकतवर इंग्लिश मीडिया के ज़रिये एक माहौल बना रहे थे कि नक्सलवाद से लड़ना है। इस दौरान चिदंबरम ने एक बार भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि समस्या का आधार क्या है। क्या हिंसा ही आखिरी रास्ता है। बातचीत और हिंसा छोड़ने की एकाध पेशकशों को छोड़ दें तो यही लगता रहा कि गृहमंत्री युद्ध के रास्ते पर ही चलेंगे। बीच में लगे कि यह रास्ता ठीक नहीं तो पुनर्विचार करने में भी हर्ज़ नहीं है। बीजेपी के बहकावे में न आएं कि हम पूरी तरह से साथ हैं। यह पार्टी खनिज माफिया रेड्डी बंधुओं को मंत्री बनाती है।
एक राज्य की मुसीबत यह है कि वह किस संविधान के तहत किसी सैन्य आन्दोलन को मान्यता दे। इस लिहाज़ से चिदंबरम ठीक हो सकते हैं लेकिन राज्य को बताना तो पड़ेगा कि समस्या क्यों हैं। युद्ध ही आखिरी रास्ता क्यों है। साठ साल में राज्य स्थानीय परंपराओं के अनुसार विकास का मॉडल बनाने में नाकाम रहा। आदिवासियों की ज़मीन और जंगल पर उनके अधिकार पर ठीक से बात नहीं की। दो तीन साल पहले अपनी बात सुनाने के लिए आदिवासी पैदल चलकर दिल्ली आए। नक्सलवाद आज तो नहीं पनपा। नक्सलबाड़ी का उदाहरण सामने है। किसी को तो बताना पड़ेगा कि नक्सलवाद को जनसमर्थन किस बूते हासिल है। कोई लेवी देकर नक्सलवाद का समर्थन नहीं बन सकता। नक्सलवादी होने का मतलब ही है राज्य से हिंसक टकराव। इस जोखिम काम के लिए कोई लेवी देकर अपनी जान नहीं देगा। विचारधारा को आधार कैसे मिल रहा है। क्या सरकार दिल पर हाथ रख कर कह सकती है कि उसकी तरफ से या उसकी शह पर उद्योगपतियों की तरफ से आदिवासियों का शोषण नहीं हो रहा है।
एक जटिल समस्या का सरल समाधान बंदूक नहीं है। अमेरिका बंदूक और बम के दम पर कहीं भी आतंकवाद को खतम नहीं कर पाया। बल्कि बढ़ गया। लिहाज़ा ओबामा को मुसलमानों का विश्वास हासिल करने के लिए नौटंकी करनी पड़ रही है। मुस्लिम सलाहकार रखे जा रहे हैं, अमेरिकी दूतावास की तरफ से इफ्तार तक दिये जा रहे हैं। चिदंबरम से ज्यादा मीडिया अमेरिका के पास है। फिर भी बुश को पब्लिक की नाराज़गी झेलनी पड़ी। मीडिया का असर सीमित समय के लिए ही होता है। इसके ज़रिये जनमत बनाने वाले हमेशा धोखा खाते रहे हैं। चिदंबरम भी जाल में फंस गए। उन्हें लगा कि कुछ संपादकों और मीडिया के ज़रिये वो जनमत बना लेंगे लेकिन जंगलों में तो कोई टीवी का चैट शो नहीं देखता न। उन लोगों से संवाद तो करना ही होगा जिन्हें आप नक्सलियों के चंगुल से मुक्त कराना चाहते हैं। सलवा जुडूम नाम का मज़ाक हुआ। सुप्रीम कोर्ट तक ने आलोचना की। सरकारों ने आदिवासियों के भीतर के अंतर्विरोध का नाकाम फायदा उठाने की कोशिश की। फेल हो गया। तो अब किस उम्मीद,रणनीति और फैसले से ग्रीन हंट का आगाज़ कर दिया गया।
सत्ताधारियों को मेरी सलाह है। मीडिया के ज़रिये जनमत बनाने पर पांच पैसा खर्च न करें। प्रोपेगैण्डा सरकार कर सकती है तो नक्सली भी कर सकते हैं। क्या आपने एक भी आदिवासी सांसद की बाइट सुनी? जिनके इलाके में युद्ध होगा उन सांसदों को किसी प्रेस कांफ्रेंस या टीवी चैट शो में बुलाया नहीं गया। नक्सल प्रभावित इलाकों के विधायकों, पार्षदों से बात नहीं की गई। ऊपर से थोपे गए युद्ध का यही हश्र होता है और उनके बीच से लोगों को फो़ड़ने के बहाने हुए सलवा जुडूम का हाल तो आप देख ही चुके हैं। सख्ती के नाम पर विनायक सेन जैसों के घर छापे डालकर जेल में बंद कर आप कुछ हासिल नहीं कर सकते।
सरकार और नक्सली के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा है। एक स्टेट को बचाना चाहता है तो दूसरा स्टेट बनना चाहता है। राष्ट्रीय विचारकों का एक ग्रुप है जो नक्सलवाद के खिलाफ सैन्य अभियान का विरोध करता है। एक ग्रुप समर्थन करता है। एक ग्रुप सरकार के इस अभियान का विरोध करते हुए नक्सलवाद का समर्थक नहीं होना चाहता। एक ग्रुप नक्सलवाद के समर्थन में है। नक्सलियों ने अपनी तरफ से पेशकश नहीं कि वे सत्तासंघर्ष और सत्ता छोड़ने के लिए क्या चाहते हैं। उन्होंने ग्रीन हंट का जवाब तो दे दिया लेकिन इस समस्या का जवाब कैसे देंगे। क्या आदिवासियों की समस्या का नक्सलवाद ही एकमात्र समाधान है? स्थायी समाधान है? इस बात पर बहस तो करनी ही होगी। कोई ऐसा भरोसेमंद रास्ता क्यों नहीं निकल सकता? भरोसा नहीं है तो उसके बनने का इंतज़ार क्यों नहीं हो सकता।
सीआरपीएफ के जवानों की शहादत का सम्मान किया जाना चाहिए। इन जवानों के लिए कोई कैंडिल लाइट नहीं करेगा। स्क्रोल में नाम चलेंगे। फिर भी मीडिया ने इनकी तरफ से बात तो की ही है। इनकी समस्याओं को दिखाया है। असर हुआ या नहीं ये तो सीआरपीएफ के लोग जानते होंगे। बिना प्रशिक्षण के युद्ध में झोंक दिये गए। गोलियों से ज्यादा मच्छरों से मर जाते हैं। बस एक टुकड़ी को उठाकर यहां भेजा,वहां भेजा। अजीब अजीब किस्म की नैतिकता से टकराते रहे। अपने लोगों के खिलाफ सेना नहीं लगा सकते। अर्ध सैनिक लगा सकते हैं लेकिन सेना नक्सलियों से लड़ने के लिए अर्ध सैनिक बलों को ट्रेनिंग दे दे। नाक इधर से नहीं पीछे से घुमा के पकड़ ली। भाई सेना ही क्यों नहीं लड़ सकती है। सीआरपीएफ की बहादुरी पर कोई शक नहीं है। वे जाबांज़ हैं। लेकिन ये क्या नैतिकता है कि सेना अपने लोगों के खिलाफ नहीं लड़ सकती,अर्धसैनिक बल लड़ सकते हैं? वे क्या भारतीय नहीं है। सीआरपीएफ के सभी शहीदों को सलाम। वो कायरात में नहीं मारे गए। बहादुरी से लड़े। बस किसी और की जल्दबाजी का शिकार हो गए।
कैसे हुआ कि अस्सी जवानों को मार कर नक्सली तीस किमी पैदल चल कर जाते हैं और लापता हो जाते हैं। विश्वरंजन साहब ज्ञान दे रहे हैं कि इंटेलिजेंस जासूसी किताबों से पढ़कर नहीं आता। एक पूरी कंपनी खतम हो गई और आप अब भी कहते हैं कि बिना चूक के यह सब हो गया। नक्सलियों के तीन सौ लोग मोर्चे पर थे। पांच मिनट में तो कार्रवाई खतम नहीं हुई होगी। जब कोई घायल सिपाही यूपी के मुज़फ्फरनगर फोन कर सकता है तो किसी सेंट्रल कमांड तक बात कैसे नहीं पहुंची होगी। तब सीआरपीएफ ने क्या एक्शन लिया। कितने हेलिकाप्टर आसमान में उड़ाए गए नक्सलियों की तलाश में। यह तो बताना होगा न। जबकि हमला तो सुबह हुआ था।
नक्सलियों ने प्रेस रीलीज में लिखा है कि उनकी तरफ से आठ कमांडर मारे गए हैं। सबका शहीद की तरह गांव के सैंकड़ों लोगों के बीच अंतिम संस्कार किया गया। क्या सरकार को नहीं मालूम था। अगर वाकई सरकार को पता नहीं चला तो उसे यह अभियान वापस ले लेना चाहिए और विश्वरंजन जी को जासूसी उपन्यास पढ़ने चाहिए। जितनी तैयारी चिदंबरम और उनकी सेना ने प्रेस कांफ्रेस और टीवी स्टुडियो के ज़रिये माहौल बनाने के लिए की,उससे कुछ कम तैयारी में सैनिकों को प्रशिक्षित करने में करते तो इतने जवानों की शहादत नहीं होती। नक्सली राजधानी एक्स्प्रेस की पटरी उड़ा देते हैं, ट्रेन को अगवा कर लेते हैं। सरकार को क्यों नहीं पता चलता है। सरकार को अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है। इसका मतलब है कि यह समस्या जंग से दूर नहीं होगी।
नक्सलवाद के समर्थन और सरकार के विरोध में लाइन ली जा सकती है। ठीक इसके उलट भी लाइन ली जा सकती है। सरकार ने असम समस्या का हल भी तो बातचीत से ही निकाला था। सिख आतंकवाद से लड़ने के लिए किया गया आपरेशन ब्लू स्टार देश पर कितना भारी पड़ा। अंत में बातचीत तो करनी ही पड़ी। मुस्लिम आतंकवाद के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश ने इस देश को क्या दिया। गोधरा से गुजरात तक के दंगे। कश्मीर में भी संवाद करना पड़ा। आज एकतरफा बातचीत के कारण मोदी गुजरात में ही सीमित रह गए। चिदंबरम भी एकतरफा फैसले के कारण आज खुद को कमज़ोर महसूस कर रहे हैं।
सरकार को बातचीत की मेज़ पर आना ही होगा या फिर यह बताना होगा कि जब बाकी समाज से आप इतनी सहानुभूति रखते हैं तो आदिवासियों से क्यों नहीं रखते। बाकी समाज में तो इतने सारे संगठन और नेता सक्रिय हैं जो मोर्चा संभाल लेते हैं। क्या आप एक भी आदिवासी नेता का नाम बता सकते हैं जो अपने स्वतंत्र विचार से ग्रीन हंट का समर्थन या विरोध करता हो। सुना ही नहीं होगा। संवाद ही आखिरी रास्ता है। संवाद होगा तो आप आदिवासियों के अधिकार की बातें सुनेंगे। यह नहीं कहेंगे कि यह रही गरीबी हटाने की साठ साल की नाकाम योजना। इसे ले लीजिए। पीएम ने बनाया है। जंगलों पर उनके अधिकार की बात दिल्ली से कीजिए। माइनिंग कानून बनाने की बात से पहले आदिवासियों से कीजिए। कर्नाटक के रेड्डी बंधु का उदाहरण बताता है कि खनन के नाम पर चोरी कौन कर रहा है।
सरकार को साफ करना होगा कि मुंबई हमले के बाद जब अमेरिका के दबाव में बातचीत हो सकती है,युद्ध को टाला जा सकता है तो नक्सलियों से क्यों नहीं बातचीत हो सकती है। उन पर युद्ध थोपने का दबाव कहां से आ रहा है। जबकि इस सरकार के अनुसार नक्सल भी आतंकवादी है। एक आतंकवादी के खिलाफ आप युद्ध नहीं करते और दूसरे के खिलाफ करते हैं। नक्सल समर्थकों के नाम पर पत्रकारों और समाजसेवियों को बंद कर देने से काम नहीं चलेगा। मीडिया के ज़रिये दिल्ली के मध्यमवर्ग के बीच नक्सलवाद के विरोध में हवा खड़ा कर इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मध्यमवर्ग को पार्टी मत बनाइये। नक्सल प्रभावित इलाके के लोगों को पार्टी बनाइये। बात कीजिए। चोर पुलिस का खेल मत खेलिये।
29 comments:
namaskaar!
donon kaa khoon apanaa hii hai.
kisake liye roye kisake liye hase.
maafiyaa raaj kaa jamaanaa hai.
chidambaram bhii to maafiyaa ke hii saath hain.
samasyaa ke jaDa men jaayen.
nishpaksh hokar samaadhaan dhuudhe.
namaskaar.
सही कह रहे हैं। बातचीत ही रास्ता है। बशर्ते,यह बात दोनों पक्ष समझ सकें।
जब युद्ध ठान दिया गया है तो लाशें गिरेंगी ही…दुख यह कि हर लाश किसी ग़रीब के बेटे की ही होगी!
ravish ji aapki marmantak report parhi. dantewada me mere kuch students bhi shahid hue hai. Bulandshahr se. aapki vedna me sahbhagi hu.
Dr. Rajesh paswan
Khurja Bulandshahr
चिदम्बरम बनाम संसद की नकली उदासी बनावटी दुख
क्या लौटा पाएगा उन जवानों को और उनके परिजनो के खाक हो चुके सपनों को ?
एक विचारोत्तेजक आलेख।
रवीश जी, आपकी टिप्पणी की पूर्णता इसी में लगती है कि कोई टिप्पणी न की जाए। इतने संक्षेप में अत्यंत समसामयिक और समुचित। एक साथ ढेर सारे सवालों का जवाब। बधाई।
नक्सलवाद के पैदा होने के कारणों के बारे में क्यों नही सोचा जाता? उन कारणों को खत्म करने के लिए क्यों नहीं कोई ठोस कदम उठाए जाते?
जब तक इस ओर न सोचा जाएगा तो आज के सारे नक्सलवादी खत्म हो जाने पर भी फिर से पैदा हो जाएँगे। कारण को मारना पड़ेगा।
फर्स्ट किलासी वाला लिखे हैं. हलांकि सवधान रहिए कि चिदम्बरम का लोक सब कवनो रबीस कोमार का खोजाई तो नै कर रहा है ?
आप पत्रकार है - जिस 'बेहतर ढंग' से आप अपनी बात - यहाँ 'ब्लॉग' पर लिखते हैं ...वैसा ही कुछ ..टी वी पर देखने को क्यों नहीं मिलता है ??
रवीशजी नमस्कार,
आपका ब्लॉग देखा... नडीटीव्ही आपकी रिपोर्ट देखते-देखते मै आपका फॅन हो गया हूं. आज आपका ब्लॉग देखा और आपके ब्लॉग को http://blogvishwa.maaybhumi.com/ पर लगाने से खुद को नही रोक पाया. आप बहुत अच्छा लिखते है... मै खूद एक मराठी पत्रकार हूं... इसी तरह लिखते रहे...
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 10.04.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
Fairly Balanced analysis !
अच्छी पोस्ट
इस सरकार के लोग आंकड़ों और उसके विश्लेषण की भाषा समझते है, वर्ल्ड बैंक, आई.एम.ऍफ़ जैसे संस्थान सरकारों को यही सिखा रहे हैं......भाव, जीवन मूल्य, रिश्ते, सामाजिक ताना बाना, संवाद आदि इनके लिए कोई मायने नहीं रखता. .... तो आइए एक बार आंकड़ों का खेल भी देख लें...... जब से नक्सलवाद शुरू हुआ है तब से हथियारों की संख्या, हथियारों पर किया गया खर्च, सुरक्सा कर्मियों की संख्या बढ़ी है या कम हुई है.... ज़ाहिर है बढ़ी है. ... तो जैसे जैसे तथा जब से यह संख्या बढ़ी है, नक्सली हिंसा, अशांति, आम लोगों की मौत, सुरक्षा कर्मियों की मौत का आंकड़ा बढ़ा है या घटा है? ... ज़ाहिर है बहा है.... ग्राफ बनाकर देखेंगे तो एक सीधी रेखा ऊपर की उठती हुई निकलती है..... आंकड़े भी बताते है कि नक्सली हिंसा के जिस समाधान पर सरकार चला रही है वह समस्या को बढ़ा.रहा है. पता नहीं इस आकंडे का विश्लेसन करने का वक्त हमारे हुक्मरानों के पास क्यों नहीं है..... शायद इसीलिए कि .......बकौल निदा फाज़ली - "सात समंदर पार से कोई करे व्यापार... पहले भेजें सरहदें फिर भेजे हथियार'
sir, sahi likha hai aapne ,kisi bhi desh ki sarkar ko agar desh ki kisi bhi samsya ka karan pata nahi hai to yah us desh ke nagriko ka durbhgya hai.....ankah ke badle ankah ke sidhant se puri duniya andhi ho jayege
thanks a lot
बहुत बढ़िया लेख रविश जी. सारी बातें एकदम साफ़...
जब हम फ्रेंच पढ़ रहे थे तो हमने सीखा एक शब्द 'रोमैं फ्लव्', शब्दों का नद, जो ऐसी स्तिथि में मीडिया बना देता है...प्रश्न यह उठाना चाहिए कि समस्या नयी है क्या? यदि उत्तर नहीं में है तो फिर वैज्ञानिक की भांति सोचना होगा क्या इसका निदान पहले भी पाया गया था या नहीं? सब जानते हैं कि आज भी कई बीमारियाँ हैं जिनका इलाज पश्चिमी वैज्ञानिक नहीं ढूंढ पाए हैं और इस कारण हम, माफ़ करना, 'नकलची बन्दर' भी नहीं जानते,,,किन्तु पूर्व में, इसी धरती पर, ज्ञानी लोग गहराई में जा प्रतीत होता है सभी समस्याओं का निदान खोज पाए थे, जिसकी कुछ कलियुगी झलक आपने भी हाल ही में कुछेक अन्य प्रदेशॉ में, कुछ हद तक बातचीत कर सुलझाये जाने का संकेत दिया,,,हांलांकि वो स्थायी थे या अस्थायी इसका सत्य केवल कालोपरांत ही जाना जा सकता है, क्यूंकि राख़ से भी चिंगारी हवा पाने से भड़क सकती है जानते हैं सभी!...
जहाँ तक पुलिस का सम्बन्ध है, एक रेल यात्रा के दौरान जहां दीन दयाल जी की हत्या हुई, उसी मुगलसराय यार्ड से, एक अफसर ने स्वयं बताया कि कैसे डाकू और पुलिस के बीच एक मूक समझौते के अनुसार, लाखों का माल यार्ड से गायब होता था और उसके एवज में रेल-यात्रियों और पुलिस केम्प को नहीं छूआ जाता था! और ऐसे पता नहीं कितने मूक समझौते अनंत काल से चल रहे हैं विभिन्न विपरीत शक्तियों के बीच,,,और मानव को इस पृथ्वी पर आये पश्चिमी वैज्ञानिक कहते हैं लगभग पचास लाख साल तो हो ही चुके हैं,,,यद्यपि हिन्दू जोगी युगों युगों कि बात करते हैं जहां तक मानव का प्रश्न है यद्यपि भगवान शून्य से जुड़ा होने के कारण इस चक्र से परे है...
bahut badhiya. samajik aur aarthik samasyaon ka samadhan kabhee bhee golee naheen ho sakati.
jan neta ab sarkaro mein nahi hai...sirf shasak hai....angrejo ke dna wale so.......
आपके पोस्ट का हमेशा इंतजार रहता है क्योकि हमेशा कुछ न कुछ ऐसा पता चलता है जो शायद हमारे लिए नया होता है........
रवीशजी, आपकी नजर में नक्सलवाद का अंत बातचीत ही है। यहां हमें आपसे सहमत होने में थोड़ी दिक्कत हो रही है। वजह ये है कि आपने जिक्र किया है कश्मीर समस्या, पंजाब में आतंकी गतिविधियों की, असम समस्या की। हम कुछ पल के लिए ये स्वीकार कर लेते हैं कि बातचीत ने समस्याओं को कुछ हद तक शांत किया है। लेकिन सवाल ये है कि क्या नक्सली ऐसे हैं जो बातचीत से मान जाएंगे। नक्सल प्रभावित इलाकों में जो कत्ले-आम हो रहे हैं वे रुक जाएंगे। आपकी ही पोस्ट के मुताबिक हम भी ये मानते हैं कि ये सरकार की कमी है कि वो ये पता नहीं कर पा रही है या करना नहीं चाहती कि नक्सलियों के पनपने और बढ़ने के क्या कारण हैं। कैसे आदिवासियों और नक्सल प्रभावित इलाकों की जनता के दिल जीते जा सकते हैं। कश्मीर की समस्या में सिर्फ पाकिस्तान या आतंकी संगठनों से बातचीत से समस्या का समाधान नहीं होगा। अगर ऐसा होता तो इस समस्या का कब का समाधान हो गया होता। सरकार ने बातचीत में कोई कमी नहीं छोड़ी है। अब बातचीत का ये मतलब नहीं होना चाहिए कि भारत कश्मीर को उठाकर पाकिस्तान को दे दें या फिर कश्मीर को भारत से अलग कर दे। ठीक इसी तरह नक्सल प्रभावित इलाकों की जनता लोकतंत्र में जी रही है। हरेक को अपनी बात कहने का हक है। नक्सली भी अपनी बात कह सकते हैं। लेकिन उनके कहने का तरीका आपको भी पता है। वे अपनी बातें लाशें बिछाकर कहते हैं। उन्हें लगता है कि लाशें बिछाकर वे समाज और देश में क्रांति कर रहे हैं। अगर हम ये कहें कि सरकार को नक्सल प्रभावित इलाकों की जनता का विश्वास जीतना इस वक्त जरूरी हो गया है तो हम समझते हैं कि आपको इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जो हमारी समझ है वो ये है कि जो भी नक्सल समस्या विकराल रूप धारण किए हुए है वो सरकार के प्रति जनता के अविश्वास के चलते ही है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो नक्सल प्रभावित इलाकों में जनता का विश्वास हासिल करने के लिए युद्धस्तर पर ऐसा अभियान छेड़े जिसमें किसी के सीने से खून की एक बूंद भी न निकलती हो।
सहमति।
Namaskar,
Samaik tipani ke liye dhanyawad.Lekin is samasya ka hal baat cheet se ho payega isse main sahmat nahi hoon. Idiology ka patan ho chuka hai. LTTE aur Punjab ke udahran hamare samne hai. Naksalwad ka area kafi bada ho gaya hai iska hal itna asan bhi nahi hai lekin batcheet se samsya nahi khatam hone wali hai.Bandook bandook ki hee bhasa samjhatee hai. Iske liye chane sena laganee pade ya CRPF.
नक्सल समस्या पर आपके विचार पढ़े, आप से काफ़ी हद तक असहमत हूं :
आप के विचार मे सरकार का यह स्टैंड कि सेना अपने ही नागरिको के विरुद्ध नहीं लड़ सकती तो फिर अर्धसैनिक बल कैसे लड़ रहे हैं और उन्हे सेना से प्रशिक्षण प्राप्त हो रहा है , इसलिए सरकार के स्टैंड मे विरोधाभास है , ठीक नही है । आप शायद जान बूझकर असलियत की उपेक्षा करके अपनी बात को साबित करने के लिए अर्धसत्य का सहारा ले रहे हैं क्योंकि आप भी जानते हैं कि सेना को आंतरिक युद्ध मे न इस्तेमाल करने का ऐतिहासिक कारण है । १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे सेना के विद्रोह के बाद इस पर गहन विचार के बाद आन्तरिक सुरक्षा के लिए पुलिस का गठन हुआ । पुलिस एक्ट बना । १९६२ के चीन युद्ध के बाद यह महसूस किया गया कि सेना को हमेशा सीमाओं की सुरक्षा मे नहीं लगाना चाहिये बल्कि केवल युद्ध के समय ही लगाना चाहिए इस लिए सीमा सुरक्षा बल का गठन हुआ और अन्य बल , जिन्हे अर्धसैनिक बल कहते हैं वे अस्तित्व मे आये । इनकी सबसे अन्तिम कड़ी सी आई एस एफ है । मै विस्तार से नही लिख रहा केवल मुख्य बात कह रहा हूं कि इसी परिप्रेक्ष मे कोई भी सरकार द्वारा सेना का इस्तेमाल आन्तरिक लड़ाई मे इस तरह करना , इस १५० साल की नीति से हटना होगा । हां यदि विदेशी घुसपैठ हो जैसे कि २६/११ या कश्मीर मे हो , ऐसे अपवाद वह अलग बात है ।
"मरीचिका - www.mireechika.blogspot.com
Paart II -
दूसरी बात नक्सलियों से बातचीत की तो वे भारत के नागरिक हैं बात तो होनी ही चाहिये । लेकिन नक्सली जिस विचार धारा को लेकर चल रहे हैं उसमे जनतंत्र को पूरा निरस्त करके नया निजाम लाने की बात है । यह बात विकास की नहीं है मतलब यह कि समाजिक कारण होगा पर वह केवल बहाना मात्र है कारण केवल और केवल राजनैतिक है वह भी माओवादी विचारधारा की नीति है । इसका गरीबी , विकास से कुछ लेना देना नहीं है । मेरा मानना यह है कि जब कोई नयी विचारधारा ( जिसे मै राजनैतिक धर्म कहता हूं ) या नया धार्मिक पंथ ( जिसे मै सामजिक राजनीति कहता हूं )अस्तित्व मे आते हैं तो उसके प्रवर्तक उसमे सारी अच्छी बातें रखते हैं और समाज कल्याण व उत्थान की धारा पर आगे बढ़ते हैं , लेकिन जैसे ही वे प्रवर्तक नेपथ्य मे जाते हैं और उनके चेले लीडरशिप संभालते हैं तो मुख्य बात से भटक कर आडंबरों को बढ़ाया जाता है और उनके नाम पर समाज का शोषण ही होता है । मै इस भूमिका के समर्थन में किसी धर्म , पंथ , सामाजिक संगठन या राजनैतिक दल का उदाहरण देकर सिद्ध करने नही जा रहा , यह शाश्वत सत्य है और सब पर लागू है । इसी परिप्रेक्ष मे नक्सल वाद को देखिए , आज यह आन्दोलन १९६७ का गरीबों को अधिकार दिलाने वाला आन्दोलन नही रह गया है इसमे वेस्टेड इन्टेरेस्ट पैदा हो गये हैं जो भारत के संविधान को निरस्त करते हैं । आप नक्सल आंदोलन के जनक कानू सान्याल ( वे नक्सल शब्द के इस्तेमाल से नाराज होते थे , इसे जन अधिकार आन्दोलन के नाम से ही बुलाना चाहते थे ) के आखिरी दिनों के इंटरव्यू सुनिये कि इस भटकाव से वे कितने दुखी थे । शायद इसी दुख के कारण उन्होने आत्महत्या कर लिया । इस लिए यह केवल युद्ध है और इसे भारत को अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए लड़ना ही होगा और जीतना ही होगा । पिछड़ापन, शोषण और अधिकारों की लड़ाई तो चलनी ही चाहिए और समाधान होना चाहिए । इस बात मे सारे बुद्धिजीवी और प्रबुद्ध लोग आगे आयें लेकिन इस के नाम पर भारत का विखंडन स्वीकार नहीं होना चाहिए । इस तरह की बातें अपने मक़सद को जायज ठहराने के लिए हर कोई करता है , हम यही बात पंजाब मे सुनते थे , आसाम मे सुनते थे और कश्मीर मे भी यही सुनते हैं । यह लड़ाई श्रीलंका की लिट्टे के विरुद्ध हुई लड़ाई जैसे लम्बी , रक्तरंजित और कष्ट दायक होगी । कृपया धैर्य रखें और अतिइमोशनल न होवें । यह लड़ाई भारत का संविधान और जनतंत्र बचाने की लड़ाई है और इस पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थन को भी आपने मज़ाक मे उड़ा दिया ( शायद पूर्वाग्रह के कारण ) । बहुत अजीब बात है ।
इस सरकार द्वारा मीडिया के इस्तेमाल खास कर अंग्रेजी मीडिया के और उनसे अभिभूत होने की बात है तो शायद आज पहली बार आपने इस सरकार के छ: साल के कार्यकाल के सबसे बड़े गुण की तरफ इंगित किया है । जहां तक आदिवासी क्षेत्र के सांसदो व विधायकों को अंग्रेजी चैनलों पर न बुलाने की बात है तो यह तो जग जाहिर है , अंग्रेजी मीडिया का अपना मायावी संसार है जहां वे सरकार चाहे कोई भी हो उसके बगलगीर रहते हैं और उनका व्यवहार हमेशा एलीटिस्ट होता है कोई नयी बात नहीं है । सारी ब्रेकिंग न्यूज , सारी ऑफ द रिकार्ड ब्रीफ़िंग और सारे विश्वस्त सूत्रों वाली बातें उन्हे आसानी से प्राप्त हैं , यहां आप से सहमति है ।
मरीचिका - www.mireechika.blogspot.com
Hi Ravish ji,
U always come with a new topic on ur blog, which really reflects the true picture of our society. Ur new presentation on NDTV " Ravish Ki Report" is also very interesting. Ur special way of expression may be summarized as " saralta me Sampurnta". But u have yet not paid attention to my request to write on the apathy of "stray animals", which I am really looking forward to read from ur pen. Plz. do consider my request.
Ur true admirer ever,
Neelendu,
socialcanvass.blogspot.com
Ravish ji,
App jo likhte hain apne blogs par unhe keya aapki barkha dutt, pranav roy, abhigyan prakash, vinod dua jaise sathi bhi padhte hain keya...
aap ko yeh comment accha nahin lagega woh log aapke sathi hain aur aapke sath kaam karte hain. lekin unhe hindi ke akhbar aur aapke jiase blogs padhne ki sakht zaroorat hai.. warna NDTV, Times Now hota ja raha hai.. fir toh Arnnav ji bhi barkha ji se achhi angrezi bol lete hain.. log unhi ko dekhenge..
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