शौच के बदलते संस्कार
दिल्ली के एक अस्पताल में यह चेतावनी नज़र आई। शौचालय के इस्तमाल को लेकर सामाजिक कैटगरी तेजी से बदल रही है। फिर भी हिन्दुस्तान में तीन तरह के लोग हैं। एक जो खुले में जाते हैं,दूसरे जो इंडियन शैली की शीट का इस्तमाल करते हैं और तीसरा कमोड वाले। शौचालय के इस्तमाल को लेकर अलग अलग संस्कार रहे हैं। इंडियन शैली का इस्तमाल करने वाले जब कमोड का प्रयोग करते हैं तो गड़बड़ी हो जाती है। ज़रूरी नहीं है लेकिन ऐसे हादसे होते हैं।
अस्पताल की यह चेतावनी शौचालय के संस्कार को लेकर मरीज़ों की हैसियत में फर्क करती है। इंडियन शीट का इस्तमाल करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा रही है। शहरीकरण के दौर में शौचालय के बदलते संस्कार को लेकर कोई अध्ययन नहीं है। कमोड को लेकर कई वाकये याद हैं। पचीस साल पहले कुछ रिश्तेदारों के साथ एक गेस्ट हाउस में ठहरने का मौका मिला। उस गेस्ट हाउस में अंग्रेज़ भारत छोड़ने से पहले कमोड लगा गए थे। आज़ाद भारत की यह दूसरी पीढ़ी जैसे ही कमोड की तरफ बढ़ी अंग्रेज़ीयत के सामने ढेर हो गई। देसी शब्द में झाड़ा ही नहीं निकला। बाथरूम से लौटकर कहा कि बैठते ही ठंडा मार दिया। सटक गया। मेरा मकसद आप लोगों की नाकों को सिकोड़ना नहीं है। लेकिन इन अनुभवों को दर्ज करने का वक्त आ गया है।
दूसरे जनाब जब अंदर गए तो कमोड के ऊपर वैसे बैठे जैसे इंडियन शीट के ऊपर बैठते हैं। कमोड के ऊपर की शीट फिसल गई और वे गिर गए। धड़ाम की आवाज़ आई। सब दौड़े और इस तरह इंतज़ाम किया गया जैसे केयरटेकर को पता ही नहीं चले कि कमोड हमारी वजह से टूटा है। जब हम शहर में आकर रहने लगे तो कई रिश्तेदार इंडियन शीट वाले बाथरूम को देखकर आतंकित हो जाते थे। गंगा नदी के किनारे टहलते हुए चले जाते थे। वहां से खाली लौटते थे। फ्लश का इस्तमाल तो बहुत बाद में आया। बाथरूम से चले आए और फ्लश नहीं किया। अपने समाजिक परिवेश में इस संस्कार को डालने में कई लोगों को मेहनत करते देखा है। आज भी यह समस्या है। रेलगाड़ियों में इंग्लिश टॉयलेट की हालत देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हम कितने अनाड़ी हैं। हर सार्वजनिक स्थल पर शौचालय के इस्तमाल की चेतावनी लिखी होती है। ज़ाहिर है कि हम भारतीय अभी तक शौच संस्कारों से एडजस्ट नहीं हो सके हैं।
टॉयलेट और बाथरूम ने हमारे खुले में शौच करने के संस्कार को पिछड़ेपन के रूप में घोषित कर रखा है। सरकार की योजना चलती है कि अब बाथरूम का इस्तमाल किया जाए। सांप वगैरह के काटने का खतरा रहता है। गांव में औरतें फौ फटने से पहले शौच के लिए निकल जाती थीं। आज भी जाती हैं। खेत में फसल न हो तो शाम से पहले कोई गुज़ाइश नहीं होती।
शहरीकरण के साथ हो रही अपार्टमेंट क्रांति ने हर मकान में इंग्लिश और इंडियन टॉयलेट की युगलबंदी का इंतज़ाम किया है। इसी बहाने बड़ी संख्या में शहरी मध्यमवर्ग इंडियन से इंग्लिश की तरफ शिफ्ट हो रहा है। इंडियन शीट अब कई मायनों में प्रैक्टिकल नहीं रही। कमोड ने कई तरह के तनावों को जन्म दिया है। धोने की समस्या से जूझ रहे कई लोगों ने बताया था कि वे शीट से उतरने के बाद नीचे नहाने की जगह पर परिमार्जन का कार्य संपन्न करते थे। हमारे एक रिश्तेदार कहीं गई। कमोड के कारण दो दिनों तक टॉयलेट ही नहीं गए। नहाने जाते तो घूर घूर कर देखते और कोसते रहते। खेत से इंडियन और इंडियन से इंग्लिश टॉयलेट के इस्तमाल की प्रक्रिया से मैं भी गुज़रा हूं। अब इंडियन बेकार लगता है। खेत का इस्तमाल करने का मौका नहीं मिलता। आप सब अपने अपने अनुभव साझा करेंगे तो बेहतर होगा।
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ReplyDelete:-) globalization
ReplyDeleteघुटने भी तो जबाब दे गये है अब .
ReplyDeleteअपनी अपनी पसंद है जी.....समस्या तो तब आती है जब कहीं बाहर किसी के घर अपने घर जैसी सुविधा ना मिले....वैसे एडजैस्ट करना सीख ही लेगें धीरे धीरे.....
ReplyDeleteअक्सर जब मैं बाहर जाता हूँ तो इस समस्या की वजह से मेरा वज़न आधा किलो कम हो जाता है.
ReplyDeleteकस्बे में पैदा हुए तो वहाँ जाजरू थे। मल चोबीस घंटे एकत्र होता था। दिन में एक बार सफाईवाला आ कर सफाई कर जाता था। गाँव में जाने पर या नदी नहाने जाने पर बाहर जाना होता था तो उस का अभ्यास हो चला था। फिर घर में इंडियन सीट लग गई। उस में और जाजरू की सीट में अंतर नहीं था। लेकिन जब इंग्लिश पर बैठना पड़ा तो पहले पहल शौच उतरा ही नहीं। फिर धीरे धीरे अभ्यास हो गया। अब घर में दोनो तरह की सीट हैं। तीनों में से जो मिल जाए उसी तरह से फारिग हो लेते हैं।
ReplyDeleteहम तो तीनों ही आजमा चुके हैं और आजमा क्या ,, अब भी समय समय पर तीनों ही प्रयोग किए जाते हैं । मगर सच है कि कि सबसे लिए ये आसान नहीं होता , हां इंडियन को तो बहुत जगहों पर बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है आखिर कमोड वाली सुविधा सभी को पसंद आ रही है न और मिल भी रही ही है
ReplyDeleteबहुत ही मेहनत से सोची और लिखी गयी इस सूचनाप्रद लेख के लिए धन्यवाद / प्रस्तुती भी अच्छी थी शुरू से अंत तक पढने में कहीं भी बोरिअत महसूस नहीं हुई / अंत में, मैं इसमें जोरना चाहूँगा की ,जिस देश की आधी आबादी भूखे सोती हो और मंत्री लोग पैसों से नहाते हो ,उस देश में झारा करना सिखाना बरा ही मुश्किल काम है /
ReplyDeleteकहते हैं कि पश्चिमी शैली के टॉयलेट का इस्तेमाल जोड़ों की बढती समस्या से निजात के लिए शुरू हुआ था। भारतीय परिवेश में यह न तो स्वीकार्य हो पाया है और न ही आवश्यक है। सबसे घिन तो तब आती है जब ऐसे शौचालयों में पानी की जगह कागज का रोल होता है-पोछने के लिए।
ReplyDeleteEnglish सीट का भी अलग मज़ा है, आप सुबह का अख़बार वही पर निपटा सकते है, घुटने भी राहत महसूस करते है,
ReplyDeleteइंडियन स्टाइल पर आप ज़ोर आज़माइश जम कर कर सकते हैं
धीरू जी, अतुल जी और सहेसपुरिया जी की सम्मिलित टिप्पणी हमारी भी मानी जाय। वैसे गर्मी में प्रात:काल समीर झँकोरों के बीच अपने खेत में लोटा ले निपटने का आनन्द ही कुछ और है :)
ReplyDeleteबचपन में अच्छे भले हेंगियाए खेत में मल दिखता तो हरवाह बताता था कि ये तुम्हारे चाचा की कारस्तानी है। कभी दूसरे के खेत में नहीं निपटते। नहीं मानने पर वह बताता कि मैं पहचानता हूँ, ऐसा वही करते हैं :) सम्भवत: चाचा घर की खाद को दूसरे के खेत में नहीं डालना चाहते थे :)
..याद आया, अपने एक ब्लॉगर भाई हैं जो प्राइवेट में बता चुके हैं कि उन्हें कमोड पर नहीं उतरता :)
फारिग होने की परम्परागत और आधुनिक स्थितियों की रोचक प्रस्तुति साथ ही बहुजन के मन के अन्तर्द्वनद का सटीक चित्रण। प्रशंसनीय।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
अजी जो आनन्द ईख के खेत में बैठकर करने और फिर नाली या जोहड के पानी में धोने में है, वो मुझे आजतक अन्यत्र नहीं मिला।
ReplyDeleteलिखने के लिए दिमाग खुला होना चाहिए विषय तो कहीं से भी लाया जा सकता है। पत्रकारिता के कोर्सों में इस लेख को एक बढ़िया उदाहरण के रुप में शामिल किया जाना चाहिए।
ReplyDeleteCommode is indeed more comfortable for pregnant women and elderly people.
ReplyDeleteब्रह्मा-विष्णु-महेश, भारत में तीनों अपनी झलक दिखा ही देते हैं आम आदमी के मायावी जीवन में...
ReplyDeleteआजादी के आरंभिक काल में, एक बस्तर से संसद सदस्य दिल्ली में होटल का पश्चिमी-शौच-पात्र देख २ दिन तक अपना माल (मल?) रोके रखे, अपने ही 'तशरीफ़ के टोकरे' में, और लौट कर हमारी सास को बताये, "वो इतना साफ़ था कि मैं तो उसमें भात भी खा सकता था" :)
और ऐसे ही एक भारतीय न्यू यॉर्क के होटल की १०० वीं मंजिल की इतनी साफ़ सीट कैसे खराब कर देता?
उन्होंने अपना जुगाडू दिमाग का उपयोग कर मोज़े में ही कर ली! उन्होंने सोचा कि यदि इतनी ऊंचाई से उसे घुमा के दूर बाहर फेंकेंगे तो वो हवा में ही गायब हो जायेगा,,,किन्तु बाद में, ऐसा करने से पाया कि चारों दीवारों पर पीले-पीले दाग पड़ गए थे!!!
उन्होंने रूम सर्विस को फ़ोन कर जमादार को बुला उसे दस डॉलर में उन्हें साफ़ करने को कहा तो उल्टा वो बोला कि वो उन्हें बीस देगा यदि वो बता दें कि वो ऐसे कैसे 'शिट' कर पाये :)
मैं भी खेत से वाया देसी होते हुए कमोड संस्कृति में ढल गया हूं...कमोड से मेरा जब परिचय हुआ तो वहीं हालात मेरे सामने भी थे जैसा कि आपके रिश्तेदार के साथ। मुझे भी पाला मार दिया...और जो प्रेशर बना था.वो सटक गया। आखिरकार कई दिनों तक पांव को एडजस्ट कर कमोड पर इंडियन स्टाईल का मोजाहिरा करता रहा। बाद में ठंठ लेने की आदत हो गई। हालांकि पहले जल्दी ही उठ जाता था ताकि टायलेट सीट गिला न हो। अब तो सुबह अखबार का फ्रंट पेज टॉयलेट में ही खतम होता है। जिस दिन अखबार नहीं उस दिन बोरिंग लगता है।
ReplyDeleteआदिमानव यानि हमारे पूर्वजों ने पशुओं से ही सीखा होगा प्राकृतिक खाद बनाने की विधि,,,किन्तु जैसे- जैसे मानव का खान पान विषैला होता चला गया, उसने नए- नए तौर तरीके सीखे और केवल अपनी ही सुविधानुसार अपनाये (भारतीय रेल में एक समय संडास नहीं होते थे - स्टेशन में बने शौचालय में जाना होता था,,, और इस कारण कुछेक यात्री कभी- कभी छूट भी जाते थे :)...
ReplyDeleteअपनी नासमझी के कारण, इस प्रकार मानव पृथ्वी को ही नहीं अपितु उसके वातावरण और अंतरिक्ष को भी विषैला बनाता चला गया है,,,जबकि पशु जीवन में इतना बदलाव उनके खान- पान और रहन- सहन में नहीं आया: गाय का गोबर आज भी आदमी द्वारा उपयोग में लाया जाता है,,,किन्तु उनसे हमने सीख नहीं ली, जिस कारण आदमी का मन आज जहरीला हो गया है, सांप के जहर से भी अधिक खतरनाक,,,ज्ञानी कह गए कि 'यथा ब्रह्माण्ड / तथा पिंडे' यानी जैसा बाहर है वैसा ही मानव के भीतर भी है,,,और कलियुग में पहले विष ही उत्पन्न हुआ था कह गए ज्ञानी ध्यानी...
इंडियन शौचालय बाहर ही होते है , सुबह सबेरे खेतो की सैर का भी अपना ही आनंद है ! :)
ReplyDeleteचुपके से शीट-पोट देशी तरीके वाला लगा दिया जाये तो, विज्ञापन सार्थक हो जायेगा. भारतीय तो अन्दर ही जायेंगे, और अंग्रेजों के भारतीय संस्करण इन्डियन'स बाहर का रास्ता नापेंगे
ReplyDeleteगजब नजरें और नजरिया है आपका. शानदार.
ReplyDeleteBahi Main rahta jarur dilli main hun, magar mauka milte hi khete ki taraf daud laga deta hun.
ReplyDeleteMain Neeraj Jat ji se sahmat hun
सर जी आप वेस्टर्न और इंडियन toilet की बात कर रहे हैं, मैं आपको अपना अनुभव बताता हूँ, जब पहली बार US गया तो पता चला की यहाँ तो पेपर ही यूस करना पड़ेगा, मुझे तो जैसे काटो तो खून नहीं, रूम मेट से बहुत वाद विवाद हुआ की कुछ बाल्टी या मग रख सकते हैं पर बाथरूम में उसके रखने की जगह ही नहीं थी, एक तरफ बाथटब और एक तरफ वश बेसिन, तो मैंने फैसला किया की ऑफिस में करूंगा, वहां गया तो हालत और भी बुरी लगभग मेरी ऊंचाई की दीवारों वाले cubes थे, थक हार कर घर आये और पेपर से ही काम चलाया कुछ दो हफ्ते बाद एडजस्ट हो पाए, वापस भारत आये तो सबसे बड़ा चैन मिला की पानी तो मिला भाई|
ReplyDeleteRaed in office, I will give my detailed comments after reaching home in evening.
ReplyDeleteमूलरूप से भारतीय, त्रिनिदाद में १९३२ में पैदा हुए, सर वी एस नाइपौल (विद्याधर सूरजप्रसाद) भारतीयों की नज़र में आये और प्रसिद्धि प्राप्त किये भारत में रेल-मार्ग के निकट लोटा लिए खेतों आदि में बैठे लोगों के बारे में लिख कर...
ReplyDeleteऐसे ही बचपन में एक चुटकुला सुना कि कैसे रूस से एक राजदूत दिल्ली पहुँच पांच सितारा होटल में ठहराए गए,,,किन्तु जैसे ही उन्होंने सवेरे- सवेरे ताज़ी हवा खाने के लिए खिड़कियाँ खोलीं तो बगल के खुले स्थानों पर लोटा बगल में रखे लोगों को बैठे देख तुरंत खिड़की बंद कर मोस्को वापिस लौटने का निर्णय ले लिया!
फिर भारत से जो राजदूत रूस गए गए उनका अजेंडा था रूस में किसी लोटा-धारी को पकड़ना :) उनके निवास का अंतिम दिन भी आ गया किन्तु निराश थे कोई दिखाई नहीं दिया था... आखिरी दिन मोस्को से बाहरी क्षेत्र की ओर कार में उन्हीं राजदूत के साथ जाते उन्हें आखिरकार मौका मिल ही गया जब एक खेत में दूर से एक दिख गया! उन्होंने रूसी से कहा कि आप हमारे देश से लौट गए थे, जबकि आपके देश में भी यह होता है! किन्तु, जब गाड़ी तुरंत रोक वहाँ पहुंचे तो पाया कि वो एक भारतीय ही था :)
मुझे खेत या मैंदान में जाने का कभी मौका नहीं मिला,इसलिए इस बारे में कुछ कह नहीं सकता। लेकिन कमोड पर बैठना ज्यादा सुविधाजनक और बेहतर लगता है। जहां इंडियन और कमोड दोनों के विकल्प हों वहां मैं कमोड को ही प्रीफर करता हूं।..
ReplyDeleteइस या उस शौचालय के इस्तेमाल में लोचा नही दिक्कत है जब इंसान को संक्रमण भुगतना पड़े... आखिर कोई विदेशी ही कहॉं जीवन में दो या तीन बार 'पॉटी ट्रेंड' होना चाहेगा।
ReplyDeleteRavish ji
ReplyDeleteKya socha aap ne...wah
waise main delhi main hoon but aayaa gaon se hoon ..khule jhadee ke peeche doston ke sath gappain laggate huye baith kar karne ka apna hee maza hai ..jab bhi time milta hai..bass purani yaadain taza kar leke hain...
http://www.naturesplatform.com/health_benefits.html?sid=NP378543-19603-1272291027&a=&p=health_benefits.html&s=&c=&x=1
ReplyDeleteसच कहा रविश जी !
ReplyDeleteपहली पहली बार तो मैं भी ठिठक कर रह गया था , समझ ही नहीं पाया कि कैसे प्रयोग करूँ इस कमबख्त का - लेकिन भला हो उस भले आदमी का जिसने बाकायदा मुझे प्रयोग करके दिखाया
बात 1984 की है - स्थान है जम्मू का कोई होटल और वो भला आदमी था होटल का रूम बॉय जिसे इस ज्ञान के बदले मुझे २ रूपये इनाम भी देना पड़ा
बहुत अच्छा हो अगर अन्य सूचनाओं की तरह कमोड के प्रयोग की विधि भी सचित्र लगा देनी चाहिए ताकि पहली बार जो प्रयोग करे वो शर्मिन्दा न हो...........
- अलबेला खत्री
इस लेख में अभी कई गुंजाइश बाकी है. कमोड विदाउट वाटर ओनली ट्वायलेट पेपर. मैंने तो खुले आसमान, नदी, नाला, सीटिंग, फिंटिंग, इंग्लिश, कमोड सबसे निवृत हो चुका हूं.
ReplyDeletedarasal hum na to poori tarah se western ho paye aur na oriental hi rah paye, hamara samaj baaten to sanskar aur parampara ki karta hain lekin nirlajjta aur lalach to pashchim se bhi zyada hain, shauch me bhi hum bahar se dikhawa karte hain adhunik banane ka lekin hum wahan par bhi sirf aavaran hi rakhte hain, ravish ji hum bharteeya nahi rahe hum to indian ho gaye hain IPL ki tarah.
ReplyDeleteहा हा हा! रोचक!
ReplyDeleteजहाँ भारतीय पद्धति में शरीर को व्यायाम मिलता है, वहीं hygiene की समस्या तो है ही. अगर हाथ ठीक से नहीं धोये तो बीमारी फैलने का डर है. तो पूर्व और पश्चिम के बीच कोइ संगम निकलना बहुत आवश्यक है.
ReplyDeleteमेरे एक मित्र जब पहली बार मशरिक की तरफ आये तो कमोड में पानी की सुविधा न देख कर बड़े चिंतित हुए. बोले घर में तो जुगाड़ कर लेते हैं पर दफ्तर में कभी जाना पड़े तो सूखे कागज़ से काम चलाना पड़ता है. मैंने उन्हें सलाह दी कि क्यों न आप शौचालय में जाने से पहले एक कागज़ वाले napkin को पानी में भिगा कर अपने साथ ले जाएँ. निवृत्त होने के बाद पहले सूखे कागज़ से सफाई और अंत में अपने गीले कागज़ से. तो ये रहा पूर्व और पश्चिम का संगम.
यहाँ कहना उचित होगा कि बहुत से अँगरेज़ भी इस सूखे कागज़ से पोंछने की समस्या से परेशान हैं. कुछ तो बच्चों के लिए इस्तेमाल में आने वाले moist napkin वगैरह इस्तेमाल करने लगे हैं, जो मेरी समझ में बड़ा उत्तम उपाय है. फिर जापानी लोगों ने तो बहुत ही उच्च तकनीक इजाद की है जिसमें निवृत्त होने पर नीचे से पानी की फुहार आती है (अधिक जानकारी के लिए विकिपीडिया पर लेख देखें). फ्रेंच लोग भी bidet जैसी तकनीक तो पहले से उपयोग में लाते रहे हैं.
रवीश भाई.. नमस्कार..
ReplyDeleteमुद्दा तो नाक भौं सिकोड़ने वाला ही है.. पर सच तो यही है की शहरीकरण की इस आपा धापी में और आराम की उस ललक में आदत सी हो गई है.. पाखाने का जोर बने ना बने पर शरीर के आराम के लिए सब कुछ मंज़ूर है..
आज शहरों मे बसे ज्यादातर लोग ग्रामीण पृष्टभूमि से मिल जायेंगे , उनके लिए यह एक यात्रा रही जिसमे लोग शौच जैसा आवश्यक काम खुले से देशी शीट और अब इंगलिश कमोड तक उन्नति का सफ़र तय किये हैं । एक टाइम था दिल्ली के मकानों मे भारतीय स्टाइल के ही शीट लगी होती थी , लेकिन अब वह पूरी तरह गायब हो गयी है , उसकी जगह कमोड ने ले लिया है । कुछ दिन पहले जब वैशाली के हमारे फ्लैट पर गृह प्रवेश की पूजा पर हमारी माताजी गयीं तो दोनो टॉयलेट कम बाथ मे अंग्रेजी स्टाइल देख कर नाक भौं सिकोड़ने लगी , बोली एक तो यह नहाने और शौच को एक साथ कर दिया है उपर से यह अंग्रेजी स्टाइल यहां रह नहीं सकते , अपना डीडीए वाला ही ठीक है जहां शौच और बाथ अलग है और वो भी देशी स्टाइल । अभी पुराने लोग टॉयलेट कम बाथ की संस्कृति से भी समझौता नहीं कर पाये हैं ।
ReplyDeleteवैसे उत्तर प्रदेश मे १९९० के बाद से गांवो मे शौचालय बनाने के लिए सरकार ने बहुत अनुदान और प्रोत्साहन दिया है और ज्यादा तर घरों मे शौचालय हो गया है , फिर भी कुछ पुरानी सोच और पुराने शौक वाले बाहर ही जाते हैं । हां इसने महिलाओं को बहुत ही राहत दिया है क्यों कि उनके लिए बहुत ही तकलीफ़देय स्थिति थी , शायद बचपन मे जो कुछ देखता था उसे पूरा समझ नही सकता था लेकिन अब समझ सकता हूं कि जो परेशानी वे झेलती थीं जब दिन मे मजबूरी मे उन्हे जाना पड़ता था और उधर से कोई गुजरता था तो खड़े हो जाना पड़ता था । शुक्र है , अब वह सब बदल गया है या तेजी से बदल रहा है ।
वैसे पिछले दिनो इसी विषय पर शाहरुख खान ने भी अपने एक इंटरव्यू कहा था कि अगर उन्हे ईश्वर सामर्थ्य दे तो जो एक काम करना चाहेंगे वह है - महिलाओं के लिए पूरे देश मे जगह जगह टॉयलेट बनवाना । मेरी तो ईश्वर से प्रार्थना है कि ईश्वर उन्हे यह पूरा कर दिखाने योग्य क्षमता दे , हम सब भी इसमे सहयोग दें ।
तीनों के अलावा वो चौथी नाली वाली, पांचवी खुले वाली, छठी रेल की पटरीवाली, सातवीं मटके वाली भूल गए क्या। ढूंढिये और गिनिए। अभी अभी और शौचविविधता सामने आएगी।
ReplyDeleteravish Ji
ReplyDeleteis badlo ke samantar aur ek badlo chal rahi thie jis apr apka dhayan nai gaya wo hai socha ke k bad hata dhone ka . gaon me mitti se bad me soap se abit to hath done ke liye pani me jharrot nahi
सबको मालूम है किन्तु याद करना पड़ता है बीच बीच में कि भारत विशाल ही नहीं अपितु सबसे प्राचीनतम सभ्यता का एक विशेष नमूना है...यहाँ किसी भी काल में हर किसी क्षेत्र में विभिन्नता देखने को मिलेगी, भले ही वो भाषा / शौच के विषय में ही क्यूँ न हो...
ReplyDeleteपहले जब आदमी ने गुफा से निकल कृषि के उपाय जान घरों में एक स्थान पर, किसी नदी के किनारे पानी की व्यवस्था कर, जंगल काट कर रहना शुरू किया होगा तो पहले तो जनसँख्या कम रही होगी और जमीन की कोई कमी नहीं रही होगी,,,यानि, जैसा सबको मालूम है, पहले विकास आकाश की ओर नहीं होता, एक बिंदु के चारों ओर, आठों दिशा में फैलता है,,, और इस प्रकार आदमी ने जाना होगा प्रकृति की विभिन्नता के बारे में - हर दिशा में अलग अलग समस्याएं और अलग अलग समाधान,,,
और ऐसे, अंततोगत्वा, खगोलशास्त्र और ज्योतिष विद्या में उन्नति हुई होगी...किन्तु सोचने वाली बात है कि आदमी अपने लघु जीवन काल में सदैव परेशान रहा है क्यूंकि धरती पर, किसी भी दिशा में, यद्यपि प्रकृति अरबों वर्ष से चलती आ रही है, कोई भी मानव प्रणाली ऐसी नहीं बन पायी है जो बिना किसी कमी के हो, उसमें कुछ और करने को न रहा हो,,,और सबसे कठिनाई है समय के साथ हर वस्तु या सोच जब नयी होती है तभी आनंद देती है, किन्तु काल के साथ पुरानी हो अधिक कष्ट ही देती प्रतीत होती है - आदमी भिखारी के समान 'कुछ नया' चाहता / मांगता रहता है - और यूं पैदा रोते होता है और सारी उम्र रोता ही रहता है :(
भारत की विशेषता यदि है आज भी तो वो है आत्मा और परमात्मा पर विभिन्न विचार और कहानियाँ...
ReplyDeleteशौचालय घर से बाहर स्थित होने की परंपरा आरम्भ हुई होगी सफाई को ले कर, और बीमारी के स्रोत को दूर रख...
ऐसे ही '८०-'८१ में गौहाटी (अब गुवाहाटी) में एक १०-१२ वर्ष की लड़की के बारे में सुनने को मिला जिसके ऊपर कोई आत्मा हर मंगल और शनिवार को आती थी जब उसके घर में लोगों की भीड़ लग जाती थी अपने-अपने भौतिक कष्ट के विषय में प्रश्न कर उनका निवारण जानने के लिए... कहते हैं कि एक रात जब वो घर से बाहर निकल शौचालय की ओर जा रही थी उसे एक पीपल के पेड़ के नीचे से निकलते समय किसी (अच्छी) आत्मा ने पकड़ लिया! और उस दिन से यह सिलसिला आरंभ हो गया था...यद्यपि मैं कभी वहाँ नहीं गया किन्तु मेरे एक सहकर्मी की चिंता दूर करने में वो अवश्य सहायक रही, जब उसके कुछेक गोपनीय मानचित्र मिल नहीं रहे थे,,, उसके अनुसार घर में बैठे-बैठे उसने बता दिया कि कैसे किसी ने शैतानी करी थी उसे परेशान करने के लिए,,, और दूसरी बार अंत में वो स्थान बता दिया जहां उन्होंने उसे रख दिया था!
आप सबकी मज़ेदार प्रतिक्रियाओं में व्यक्तिगत संस्मरणों को ही ढूंढ रहा हूं। व्यापक संदर्भ की बातों से किस्से नहीं पनपते। अलग-अलग किस्से होंगे तो समझ में आएगा कि इंग्लिश बनाम इंडियन टॉयलेट के संघर्ष को हमने कैसे जीया है। ज़रूरी है कि इस तरह के अनुभवों पर भी हिन्दी में लेखन हो।
ReplyDeleteकई मोका पर यह् कहा जाता है कि अन्ग्रेज़् चले गये और कुछः परेशानी दे गये ,लेकिन आजाद भारत में कम से कम इस बात की आज़ादी तो होने चाहिए की आदमी पुराने विकल्प छोड़ने के लिय मजबूर न किया जाय,नए चाहे जो भी तरीके अपनाया जाय ?
ReplyDeleteसब परिस्थिति पे निर्भर करता है ..आप बीमार है या बैठने की स्थिति में नहीं है तो इंग्लिश से बेहतर क्या होगा
ReplyDeleteगर बैठ सकते है तो इंडियन ही बेहतर और सुविधाजनक है .
खुले जंगल में दूर निकल जाओ उसका अपना अलग ही मजा है ..बाकी सब परिवेश पे निर्भर करता है सब सही है ऐसा भी हो सकता है कभी आपको ये सोचने तक का वक़्त भी न मिले
जनाब जब वैश्वीकरण के साथ आये 'फिरंगीवाद' ने हमारे खाने ,रहने और जीने के ढंग पर इतना 'इफ्फेक्ट' डाला है तो ये भला कैसे बच सकता था
ReplyDeleteADARINEYA RAVISH G
ReplyDeleteSADR VANDE
AAPANE SOUCH KE SASANKER PER KALAM CHALA KAR SOCH KE DAYARA KO BADA DAYA H. PRESANSNYE LAKH H.
RAVISH G
ReplyDeleteSADER VANDA
LAKH AACHA H. SOCH KA SASANKAR SOCHANE KA VISHA H. AAPAKA CHAANTAN SARANYA H OR ANUBHAV BHI.
hmare ghar k commode me jet pump hai, jo dhone ki samasya se nijat dilata hai. pr hme toilet me saraswati-gyan ka abhipray smajh nhi ata???
ReplyDeleteकुछ लोग टोइलेट में अधिक समय नहीं गुजारते, तुरंत बाहर आ जाते हैं,,,जबकि कुछ को कब्ज़ की शिकायत होने के कारण अधिक समय लग जाता है...ऐसे लोग समाचार पत्र अथवा पुस्तकें पढ़ समय का सदुपयोग कर लेते हैं,,,ऐसा पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त के बारे में भी प्रसिद्द था...
ReplyDeleteभारत योगियों का देश रहा है जो 'चमत्कार' किया करते थे...अब यदि कोई भूख-प्यास के ऊपर विजय प्राप्त कर ले तो उसे शौचालय जाने की आवश्यकता ही नहीं होगी,,,ऐसी एक कहानी मुझे परमहंस योगानंद की पुस्तक में पढने को मिली थी जिसमें एक लड़की ने योग द्वारा बिन खाए-पीये जीवन व्यतीत किया और इस कारण उस किताब में लिखा है कि उसको देखने, अपनी तसल्ली करने, अमेरिका से भी लोग बंगाल के एक गाँव में पहुंचे...और वैसे भी कुछ कहानियाँ प्रसिद्ध हैं पहुंचे हुए ऋषि मुनि आदि के बारे में जिनके ऊपर दीमक अपना घर बना लेती थी,,,यानि वो अपनी जगह से हिले डुले नहीं होंगे कंद, मूल, फल की खोज में अथवा शौच के लिए :)
Ravish ji saadar parnaam.....bhai ji bharatvarsh me bahas k liye zaruri nahi ki vishay khoza hi jaaye....uttam soch....aur saath hi kamyab nazar.....
ReplyDeleteरविश जी, शाम को जब टिप्पणी डाल मैंने टीवी देखा तो इंडिया टीवी में कहानी चल रही थी ८२ वर्षीय हठयोगी प्रहलाद जानी की जिन्होंने कथनानुसार ६७ वर्ष से भोजन नहीं किया था और केवल हवा में ही जी रहे हैं, और इसलिए शौच की भी उनको आवश्यकता नहीं होती ,,,इस कारण फौजी इच्छुक हैं और अनुसंधान चल रहा है उनके माध्यम से कि यह कैसे संभव कराया जा सकता है फौजियों को भी,,,क्यूंकि ऐसी स्तिथि उनकी भी होती है कई बार जब वो मोर्चा थामे होते हैं...
ReplyDeleteइससे पहले किसी फौजी अफसर से यह भी जाना था कि कैसे उनके पास भोजन होते हुए भी वो नहीं खाते जब वे किसी बंकर में होते हैं क्यूंकि वे शौच के लिए नहीं जा सकते...
और हाँ, यह यदि आम आदमी के लिए भी संभव हो जाए तो भूख / भोजन की समस्या हल हो जाए...
रविश जी,"शौच के बदलते संस्कार" ko padha badhut acha laga mai chhta hu ki mia ise hamar chhattisgarh.com masik patrika me bhi prkashit karu bahut achaa laga padh ke
ReplyDeleteरविश जी,
ReplyDeleteबढ़िया विषय चुना है। अभी पिछले हफ्ते भर से जौनपुर में था। घर में शौचालय होने के बावजूद पेप्सी के बोतल में पानी लेकर खेत की ओर जाता था। साथ में कैमरा भी रहता था। फारिग होने के बाद वहीं नेचर की कुछ जीती जागती तस्वीरें भी खींच लाया.
भला बंद कमरे में कौन सा नेचर ?
और हां, बीच में एक दो बार आधे पर छोड़ उठना भी पड़ा था क्योंकि कुछ लोग उस ओर आ रहे थे और अपन ठहरे एकांत में नेचरावली रचने वाले भला उन लोगों के बीच कैसे बने रहते :)
वैसे कभी बच्चों को खेत में झाड़ा फेरते ऑब्सरव किजिए....उनमें कभी कभी एक रोचक कंपीटीशन भी होता है कि कौन कितनी दूर तक छिड़कते हुए आगे आगे सरक सकता है :)
अब जो लोग इस खेतायन का अनुभव न लिए हों तो गुजारिश है कि भई हो आओ अपने अपने गाँव....एकदम अलग अनुभव होता है....ठंडी बयार बह रही है...उपर सूरज.....बगल में कोई पेड़, रूख, चिरई-चुनमुन, चिड़ियों की चहचहाअट और तभी कोई अपनी भैस को खेदता, भगाता वहीं पहुँच जाय.....
रवीश जी,
ReplyDeleteएक शेर अर्ज है--
" करता था मैं आराम से पीपल की छाँव में
किसने ये पत्थर मार के लोटा गिरा दिया "
1984 में जब दिल्ली पहुंचा तो सबसे पहले जो चीज तलाशी वह थी-- खुले में दिशा-मैदान की जगह.गर्व से कह सकता हूँ कि आज जहाँ द्वारका और पप्पनकलां की बहुमंजिली इमारतें खड़ी हैं वहाँ मैं निपट चुका हूँ . इसी बात पर एक और शेर सुनिए, चोरी का है --
"चिरकिन मटर के खेत में करते अलग-अलग
हर गू अलग-अलग बदबू अलग-अलग"
है ना कमाल का observation.
पहली बार दिल्ली में ही बिना पूंछ की गाड़ी (मारुति)और बोतल में पानी लेकर निपटान से परिचय हुआ था.गांव में तो लोटा या मेटी(मिटटी का बर्तन) ही चलता था .
इस सन्दर्भ में एक बहुत गंभीर बात ध्यान में आ रही है-- इंडियन हो या वेस्टर्न लगभग दस लीटर पानी लेता है एक बार में जबकि अपने देसी स्टाइल में एक लीटर में दो का काम चल जाता था .
hehe... truly amazing write-up Ravish ji.. m thoroughly enjoying the comments... :)
ReplyDeleteबाथरूम के संस्कार के बहने आप ने बहुत ही उपयोगी विषय को उठाया है |
ReplyDeleteहमारे देश मे घर घर मे शौचालय का नही होना एक भारी समस्या का विषय है|मैं भी गांव से हूँ |वैसे हमारे घर मे तो शुरु से ही शौचालय रहा लेकिन कभी कभार गांव के अन्य दोस्तों के साथ् खेतों में शौच का अनुभव रहा है मुझे | गान्धीजी की एक बात मुझे याद आती थी ऐसे वक्त |गान्धी ने देश का अध्ययन काफी करीब से किया था |वे जानते थे की पुरे देश में घर घर में शौचालय का बनना इतना आसान नही है इसलिए उन्होने देश के लोगों को खेतों में शौच करने के नाए संस्कार देने की कोशिश की |उन्होने कहा की जब भी हम खेतों में शौच करने जाएँ तो एक गढ़ा करीब एक फीट का खोदें और शौच के बाद उसके उपर मिट्टी डाल दें|उसे खुला न छोडेँ | इससे दो फायदे हैं |पहला की शौच खुला न रहने से बीमारियों से बचाव भी होगा और दुसरा खेतों को अच्छी खाद भी मिलेगी |
हमारे देश का दुर्भाग्य रहा रविश जी की देश को समझते थे गान्धी लेकिन देश के विकास की नीतियाँ बनाने मे गान्धी को किनारे कर दिया गया |शायद इसिलिए विकास की दौड में आगे बढने के बाद भी हमारा देश बुनियादी सुविधाओं के मामले में फिसड्डी है |
कुछ बातें कमोड वाले शौचालय के बारे में | काफी पहले की बात है |पटना में एक बडे चिकित्सक से हमारी बात हुई थी|उन्होने कहा की हमारे देश में साठ फीसदी लोग बवासीर के मरीज हैं जबकि पश्चिमी देशों में बवासीर के मरीज कम मिलते हैं |उन्होने बताया की इसका कारण शौच के संस्कारों में फर्क है| कमोड वाले शौचालय पैर की एडियों पर जोर नही पडता| इसके कारण बवासीर की सम्भावानाएं काफी कम हो जाती हैं| अब सच् क्या है मैं भी निश्चित नही हूँ |लेकिन सरकार को चाहिए की इस विषय पर विचार करे और देश मे जागृति लाई जाए इस विषय मे |