कब कटेगी चौरासी- कब पढ़ेंगे आप
जरनैल सिंह ने चिदंबरम पर जूता फेंक कर सही किया। जूता नही फेंकता तो चौरासी के दंगों की ऐसी भयानक दास्तान किताब की शक्ल में नहीं आ पाती। हर पन्ने में हत्या,बलात्कार और निर्ममता के ऐसे वाकयात हैं जिन्हें पढ़ते हुए आंखें बंद हो जाती हैं। दिल्ली इतना ख़ून पी सकती है,पचा सकती है,जब इस किताब को खतम किया तो अहसास हुआ। तभी जाना कि उन्नीस साल गुज़ार देने के बाद भी शहर से रिश्ता क्यों नहीं बना। वैसे भी जिस जगह पर अलग अलग शहरों से आ कर लोग रोज़मर्रा संघर्ष में जुटे रहते हैं वहां सामाजिक संबंध कमज़ोर ही होते हैं। हर किसी की एक दूसरे से होड़ होती है। घातक। कस्बों और कम अवसर वाले शहरों में रिश्ते मज़बूत होते हैं। भावनात्मक लगाव बना रहता है। किसी बड़े शहर के हो जाने के बाद भी। लेकिन कब कटेगी चौरासी पढ़ते पढ़ते यही लगा कि कांग्रेस समर्थित दंगे का समर्थन लोग भी कर रहे थे। भीड़ सिर्फ कांग्रेसी नहीं थी। इस भीड़ में आम शहरी भी शामिल थे। जो चुप रह गए,वो भी शामिल थे। उनकी यादों में चौरासी कैसे पच गया होगा,अब यह जानने के लिए बेचैन हो गया हूं। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने पड़ोसी की किसी सरबजीत कौर की अस्मत लूटते हुए और उसकी चीख सुनते हुए अपनी रातें चुप चाप काट ली होंगी,जरनैल तुम इन पड़ोसियों से भी बात करो। उन पर भी किताब लिखो। इस किताब में पड़ोसी के बर्ताव,भय और छोटी मोटी कोशिशों की भी चर्चा है। उस पड़ोसी की भी है जिसने बचाने की कोशिश की और जान दे दी। लेकिन अलग से किताब नहीं है।
‘त्रिलोकपुरी, ब्ल़ॉक-३२। सुबह आंखों के सामने अपने पति और परिवार के १० आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यही कमीने हमारी इज़्ज़त लूटने आ गए थे।‘यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है। ‘दरिंदों ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था। हम मजबूर,असहाय औरतों के साथ कितने लोगों ने बलात्कार किया,मुझे याद नहीं। मैं बेहोश हो चुकी थी। इन कमीनों ने किसी औरत तो रात भर कपड़ा तक पहनने नहीं दिया।‘
‘इतनी बेबस औऱ लाचार हो चुकी थीं कि चीख़ मारने की हिम्मत जवाब दे गई थी। जिस औरत ने हाथ-पैर जोड़ कर छोड़ देने की गुहार की तो उससे कहा आदमी तो रहे नहीं, अब किससे शर्म करती हो।‘
जरनैल ने व्यक्तिगत किस्सों से चौरासी का ऐसा मंज़र रचा है जिसके संदर्भ में मनमोहन सिंह की माफी बेहद नाटकीय लगती है। नेताओं को सज़ा नहीं मिली। वो भीड़ कहां भाग कर गई? वो पुलिस वाले कहां गए और वो प्रेस कहां गई। सब बच गए। प्रेस भी तो इस हत्या में शामिल थी। नहीं? मैं नहीं जानता लेकिन जरनैल के वृतांतों से पता चलता है कि चौरासी के दंगों में प्रेस भी शामिल थी।
जरनैल लिख रहे हैं। इतने बड़े ज़ुल्म के बाद भी आसपास मरघट जैसी शांति बनी रही, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मीडिया मौन है और टीवी पर सिर्फ इंदिरा गांधी के मरने के शोक संदेश आ रहे हैं। तीन हज़ार निर्दोष सिख राजधानी में क़त्ल हो गए और कोई ख़बर तक नहीं। क्या लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ सत्ता का गुलाम हो गया था, या इसने भी मान लिया था कि सिखों के साथ सही हो रहा है? यह तो इंडियन एक्सप्रेस के राहुल बेदी संयोग से ३२ ब्लॉक त्रिलोकपुरी तक पहुंचे तो इस बारे में ख़बर आई।
ये है महान भारत की महान पत्रकारिता। हर बात में अपनी पीठ थपथपाने वाली पत्रकारिता। मनमोहन सिंह की तरह इसे भी माफी मांग कर नाटक करना चाहिए। कम से कम खाली स्पेस ही छोड़ देते। यह बताने के लिए कि पुलिस दंगा पीड़ित इलाकों में जाने नहीं दे रही इसलिए हम यह स्पेस छोड़ रहे हैं। इमरजेंसी के ऐसे प्रयासों को प्रेस आज तक गाती है। ८४ की चुप्पी पर रोती भी नहीं।
शुक्रिया पुण्य प्रसून वाजपेयी का। उन्हीं की समीक्षा के बाद जरनैल सिंह की किताब पढ़ने की बेकरारी पैदा हुई। सिख दंगों को देखते,भोगते हुए एक प्रतिभाशाली क्रिकेटर अच्छा हुआ पत्रकार बन गया। वर्ना ये बातें दफन ही रह जातीं। जिस लाजपत नगर में जरनैल सिंह रहते हैं, उसके एम ब्लॉक में अपना भी रहना हुआ है। दोस्तों के घर जाकर रहता था। कई साल तक। कभी अहसास ही नहीं हुआ कि यहां ज़ख्मों का ऐसा जख़ीरा पड़ा हुआ है। ये जगह चौरासी की सिसकियों को दबा कर नई ज़िंदगी रच रही है। हम सब प्रवासी छात्र लाजपतनगर के इन भुक्तभोगियों को कभी मकान मालिक से ज़्यादा समझ ही नहीं सके। दरअसल यही समस्या होती है। महानगरों की आबादी अपने आस पडोस को संबंधों के इन्हीं नज़रिये से देखती है। कई साल बाद जब तिलकविहार गया तो लगा कि सरकार ने दंगा पीड़ितों पर रसायन का लेप लगाकर इन्हें हमेशा के लिए बचा लिया है। तिलकविहार के कमरे,उनमें रहने वाले लोग इस तरह से लगे जैसे कोई हज़ार साल पहले मार दिये गए हों लेकिन मदद राशि की लेप से ज़िंदा लगते हों। ममी की तरह। त्रिलोकपुरी से रोज़ गुज़रता हूं। तिलकविहार की रहने वाली एक महिला ने कहा था कि वहां हमारा सब कुछ था। यहां कुछ नहीं है। हर दिन खुद से वादा करता हूं कि त्रिलोकपुरी जा कर देखना है। अब लगता है कि चिल्ला गांव जाना चाहिए। जहां से आई भीड़ ने त्रिलोकपुरी के महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। महसूस करना चाहता हूं कि यहां से आए वहशी कैसे अपने भीतर पूरे वाकये को ज़ब्त किये बैठे हैं। बिना पछतावे के। कैसे किसी एक ने भी अपने गुनाह नहीं कबूले। अगर पछतावे को लेकर कांग्रेस और मनमोहन सिंह इतने ही ईमानदार हैं तो त्रिलोकपुरी जाएं, तिलकविहार जायें और दंगा पीड़ितों से आंख मिलाकर माफी मांगे। संसद की कालीन ताकते हुए माफी का कोई मतलब नहीं होता।
ख़ैर। मैं इस किताब का प्रचारक बन गया हूं। इस शर्म के साथ मैंने उन पत्रकारों की बहस क्यों सुनी जिनसे आवाज़ आई कि जरनैल को अकाली दल से पैसा मिला है। जरनैल का पोलिटिक्स में कैरियर बन गया। शर्म आ रही है अपने आप पर। जरनैल ने जो किया सही किया। जो भी किया मर्यादा में किया। जरनैल के ही शब्दों में अभूतपूर्व अन्याय के ख़िलाफ अभूतपूर्व विरोध था। आप सबसे एक गुज़ारिश है। पेंग्विन प्रकाश से छपी निन्यानबे रुपये की इस किताब को ज़रूर पढ़ियेगा। त्रिलोकपुरी और तिलकविहार ज़रूर जाइयेगा और हां एक बात और,पढ़ने के बाद अपने अपने पूर्वाग्रहों से संवाद कीजिएगा।
समीक्षा से लग रहा है कि किताब ने आप में कितना गुस्सा भरा है। पर पहला विचार यह आया है कि यह व्यवहार मुहम्मद गजनवी के वंशजों का था या पृथ्वीराज के वंशजों का? या दंगों में हर कोई ऐसा ही हो जाता है?
ReplyDeleteचौरासी का संबंध तो युगों युगों से चला आ रहा है। चौरासी तो कभी नहीं कटेगी। चौरासी लाख जून भोगने के बाद मानस जन्म मिलता है। शायद मेरे जीवन में तो चौरासी का हटना मुश्किल है क्यों मेरा जन्म तो चौरासी में ही हुआ है। चौरासी को याद करता हूं तो ब्लू स्टार, दिल्ली कतलेआम के किस्से सुने हुए याद आते हैं। आपने श्री वाजपेयी का शुक्रिया अदा किया, तो मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। इस किताब को पढ़ने के लिए एक ऐसी पोस्ट लिखी, जिसको पढ़ने के बाद किताब पढ़नी लाजमी होगी है।
ReplyDeleteअहिंसा का सही अर्थ
""लेकिन कब कटेगी चौरासी पढ़ते पढ़ते यही लगा कि कांग्रेस समर्थित दंगे का समर्थन लोग भी कर रहे थे। भीड़ सिर्फ कांग्रेसी नहीं थी। इस भीड़ में आम शहरी भी शामिल थे। जो चुप रह गए,वो भी शामिल थे। उनकी यादों में चौरासी कैसे पच गया होगा,अब यह जानने के लिए बेचैन हो गया हूं। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने पड़ोसी की किसी सरबजीत कौर की अस्मत लूटते हुए और उसकी चीख सुनते हुए अपनी रातें चुप चाप काट ली होंगी,जरनैल तुम इन पड़ोसियों से भी बात करो। उन पर भी किताब लिखो। इस किताब में पड़ोसी के बर्ताव,भय और छोटी मोटी कोशिशों की भी चर्चा है। उस पड़ोसी की भी है जिसने बचाने की कोशिश की और जान दे दी। लेकिन अलग से किताब नहीं है।""
ReplyDelete" "
रविश जी, आपका लेख पढ़कर दिल में डर लगने लगा है. हम भी बिहार से आकर देल्ली में रह रहे है. पता नहीं कब हमारे साथ भी वही हो जो १९८४ में सिख लोगो के साथ हुआ. गुरु अन्गंद नगर में रहता हु, डर लगता है कभी ये भी राज ठाकरे की तरह बदला लेने न निकल परे पुरे समाज से.
ReplyDeleteगौरव जी
ReplyDeleteसिखों ने कभी बदला लेने की बात नहीं की है। यह रिकार्ड है। इतना ख़ून कैसे पी गए,उनकी सहनशीलता को सलाम। एक हिम्मतवाले समाज का यही व्यवहार होना चाहिए। आने वाली सदियां याद रखेंगी कि सिखों ने बदला नहीं लिया. इंसाफ की आस लगाई जो नहीं मिली।
तहलका में इसके बारे में पढ़ी थी अब आपने लिखी है... पढने की तमन्ना और बढ़ गयी है... जरनैल सिंह ने भावना और पत्रकारिता दोनों झोंक दी है इसमें... एक लेखक और पर्त्रकार मिलता है तो ऐसा ही होता है... एक आम पाठक भी विचलित हो जायेगा इससे...
ReplyDeleteरविश जी
ReplyDeleteसादर वन्दे
उस किताब को तो नहीं पढ़ा लेकिन आपके इस पोस्ट ने इन सफेदपोशों के अन्दर की हैवानियत की झलक जरुर दिखा दी,
और मिडिया के होते हुए मिडिया के लिए की गयी आपकी निष्पक्ष टिप्पड़ी ने आपके विचारों का एक नया रूप प्रदान किया है
इस सार्थक लेख के लिए आभार
इसी आशा के साथ की शायद हमारी मानवता जगे और हम दोषियों को दंड दे सकें.
रत्नेश त्रिपाठी
क्या कोई चौरासी से पहले और बाद में भी पंजाब और अन्यत्र सिख आतंकवादियों के द्वारा मारे गये 10000 से ज्यादा हिंदुओं के बारे में भी किताब लिखेगा और चर्चा करेगा या सिर्फ एक तरफ की ही बात की जायेगी? आखिर चौरासी के दंगे किस कारण हुये ये भी तो देखना चाहिये।
ReplyDeleteउस ८४ को भूलना बहुत मुश्किल है.....आप की बेबाक और निष्पक्ष पोस्ट पढ़ कर आप को धन्यवाद देना चाहूँगा.....हम तो इस त्रासदी को भोग चुके हैं....लेकिन इस किताब को जरूर पढ़ना चाहेगें....
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका एक बार फिर से धन्यवाद।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletesateek baat....
ReplyDeleteji aap nae bahut theek likhaa hai. bhumat jub bheed mae tabdeel hoota hai to apni maryada bhul jata hai. yae sikh dango ki kahani nahi har dange ki yahi kahani hai. aap nae likha hai to jrur padhuga yae kitab
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
रवीश जी,
अच्छा सवाल उठाया आपने,
पर सही मायने में न्याय तब होगा जब आजाद भारत के पहले दंगे से लेकर आज तक के, सभी दंगों के दोषियों को ठीक उसी तरह खोज खोज कर सजा दिलाई जाये जिस तरह का निश्चय दुनिया ने द्वितिय विश्वयुद्ध के युद्ध अपराधियों को सजा दिलाने को दिखाया था... अन्यथा ८४ हो या गोधरा या गुजरात या मुम्बई या मलियाना... दंगे होते रहेंगे और अपने निहित स्वार्थों के लिये उन्हें जस्टीफाई किया जाना भी जारी रहेगा।
"महसूस करना चाहता हूं कि यहां से आए वहशी कैसे अपने भीतर पूरे वाकये को ज़ब्त किये बैठे हैं। बिना पछतावे के। कैसे किसी एक ने भी अपने गुनाह नहीं कबूले।"
रवीश जी, वहशी केवल एक ही भाषा समझते हैं वह है ताकत और खौफ की, पछतावा और गुनाह कबूलना तो दूर की बात है... यह तो ताक लगाये होंगे अगले सुनहरे मौके की... जब एक बार फिर उन्हें बिना किसी डर से वही सब करने को मिल जाये... छोटा भाई होने के नाते सुझाव ही दे सकता हूँ... मत जाईयेगा उन वहशियों के बीच...
सत्य की खोज में यदि रवीश जी जा सकें तो शायद पा सकते हैं कि कमजोरी, या दोष, इतिहासकार के कारण है जो भूत काल में अधिक दूरी तक नहीं जा सकता...मजबूर है कई प्राकृतिक कारणों से...
ReplyDeleteहमारी, यानि 'आधुनिक' मानव की, जडें काशी में हैं, जहां से शिव अर्धनारीश्वर रूप में आरंभ हुए थे...अपनी अर्धांगिनी, यानि सती की, मृत्यु और तदोपरांत उनके रूपांतरण के बाद उन्होंने उन्ही के परिवर्तित रूप, पार्वती, से विवाह किया - उनसे अलग हो कर एक नए रूप में...जैसे एक सुक्षमाणु विभाजित हो दो विभिन्न रूप में जीवन व्यतीत करने लग पड़ता है...फिर हालात सही हों तो २ से चार और चार से आठ, आदि आदि बन वातावरण में व्याप्त हो जाता है...जैसे हम भारतीय आज ३३ करोड़ से बढ़ एक सौ करोड़ के ऊपर हो गए हैं, और हम बट गए हैं - हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई आदि गुटों में, अज्ञानता वश असमर्थ पाते हैं खुद को खुदा से जोड़ने में, जहां से हमारे पूर्वज आरंभ में बटना शुरू हुए थे...और जैसे आजादी के बाद कांग्रेस ही केवल एक पार्टी थी, जो आज टूट-टूट कर कई पार्टी के रूप में दिखाई पड़ती है...
"एक नूर तों सब जग उपजा/ कौन भला, कौन मन्दे?"
इस देश की विडंबना है... यहां दस फीसदी बेईमान हैं, शायद मेरी तहह... तो दस फीसदी ईमानदार हैं... शायद आपकी तरह... लेकिन अस्सी फीसदी लोगों का कोई चरित्र नहीं है... वो भीड़ के हिस्सा भर हैं... जो कभी उन्मादी तो कभी लुटेरे तो कभी सितम सहने वाले भी होते हैं... लेकिन इस देश में सारे नियक कानून उन्हीं को डूबाने और बचाने के नाम पर बनता हैं... ये बिन पेंदी के लोटे जब तक नहीं सुधरेंगे... इस देश में कभी सिख दंगा तो कभी अयोध्या तो कभी कंधमाल होता रहेगा... जैरनैल सिंह की आर्थिक आहुति के लिए कोटि कोटि नमन...
ReplyDeleteSACHIN KUMAR
ReplyDeleteनिश्चित तौर से 1984 पर हमे शर्म आती है और आती रहेगी। इतना सब कुछ पढ़ने के बाद किताब पढ़ने का मन हो रहा है। गौरव जी की बात में मजा नहीं आया. लेख पढ़ने के बाद डर लग रहा है कि वो बिहार से दिल्ली में आकर रह रहे है.खैर रविश जी ने उन्हे जवाब दे दिया है। इंदिरा गांधी की हत्या दुखद थी। इसमें भी शक नहीं लेकिन उसके बाद जो हुआ वो नहीं होना चाहिए था। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने इस कत्लेआम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। इससे शायद ही इंदिरा की आत्मा को शांति मिली होगी। मीडिया की भूमिका भी इस मामले में संदेह के घेरों में आती है। शायद यह उन गिन-चुने घटनाओं में से एक है जहां मीडिया ने सच्चाई पेश नहीं की। लेकिन हमारा देश कितना महान है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस सिखों के प्रति कांग्रेस पार्टी ने कत्लेआम मचाई थी आज उसी पार्टी की सरकार की कमान एक सिख के हाथ में है। लेकिन यह बात भी सच है कि हम आज भी कुछ नहीं सीखे और अक्सर छोटी-मोटी बातों पर देश में दंगे हो जाते है। 84 के पीड़ित न्याय की आस अब भी लगाए है। अगर यह एक सिख प्रधानमंत्री के शासनकाल में नहीं हुआ तो अफसोसजनक होगा।
एक कानुन लागु हो कोई हिंदु मुस्लमान नही हे एक धर्म होगा जो भार्तिये ओर जो रिस्वत ले उस की स्जा फ़ाशी हो बस य्ही हे देस का भ्ला वर्न बैइमानी कभी इस देस को पाक ओर मज्बुत नही रहेने देगी ओर १०० रुप्यो मे मोत का शोदा हो जाता हे पेट भर रोटी मिले तो ईज्जत कोई नही बेचे स्र्कार तो नही शोचेगी पर एक ना एक को तो आगे आना होगा मे या आप सब जानते हे इस देस मे क्या होरहा हे पर आके कोई ईस देस को अप्ना प्रीवार कियु नही स्मज्ता
ReplyDeletekoi bhi danga ya jansanhaar ho uske piche kai swaarth ya unke natije chhupe hote hai
ReplyDeleteindira gaandhi ke swaarth ke kaaran blue star hua
jinna nehru ke swaarth ke kaaran desh banta
bjp ke swaarth ke kaaran baabri masjid giri
सन 84 के दंगे सरकार की सरपरस्ती में खेले गये ख़ूनी खेल के गवाह थे। हालांकि सच यह भी है कांग्रेसियों के नेतृत्व में संघी गुण्डों ने भी अपना रोल बख़ूबी निभाया था और इस ट्रेनिंग का मुज़ाहरा फिर गुजरात में किया गया।
ReplyDelete84 पूर्वपीठिका थी 2002 की।
'इस भीड़ में आम शहरी भी शामिल थे। जो चुप रह गए,वो भी शामिल थे। उनकी यादों में चौरासी कैसे पच गया होगा,अब यह जानने के लिए बेचैन हो गया हूं। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने पड़ोसी की किसी सरबजीत कौर की अस्मत लूटते हुए और उसकी चीख सुनते हुए अपनी रातें चुप चाप काट ली होंगी'
ReplyDelete"समर शेष है,नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध"
-दिनकर
Dilli me Panjabi hinduo khaskar Sharma sarname walon se hi ye sunkar main bhi hatprabh rah gaye thee ki in sardaaron ka bahut sir chadh gaya thaa, wo to accha hua 84 ke karan inkka dimag thekane par hain nahi to abhi Dilli par inhi ka raaj hota Madam!
ReplyDeleteचाहे जिन्ना को दोष देलें, अंग्रेजों को, या किसी अन्य नेता आदि को, 'भारत' विभाजित हुआ और 'स्वतंत्र' भारतियों के दिलों में जख्म छोड़ गया जो अभी तक भरे नहीं हैं, और शायद कभी भी भरेंगे नहीं...एक कहावत है कि चोर कि खोह चोर ही जानता है...
ReplyDeleteहमारा भूत ही हमें चैन से नहीं रहने देता. आदमी भूल भी सकता है, यानि वो आम बातें तो आराम से भूल जाता ही है किन्तु कष्टदायक बातें वो भूल नहीं पाता. किन्तु हो सकता है कि पुरानी बातें जिसे वो सोचता है उसने भुला दिया था वो सालों बाद भी किसी एक शब्द से ही प्रकाशमान हो सकती हैं...
और कुछ कथन आदि भी पत्थर क़ी लकीर समान बार बार मष्तिष्क में उठती रहती हैं...
सिखों में भी "राज करेगा खालसा" एक ऐसा ही कथन है शायद, जो मुझे एक होशिआरपुर वाले सिख मित्र ने ही बताई थी (इस नजदीकी के पीछे शायद यह कारण है कि 'जोशी' भी सिखों के सामान चारों दिशा में फैले हुए हैं, और वर्तमान में पंजाब में उनका मूल होशिआरपुर ही है जहां कभी वेद आदि लिखे गए)...उसने बताया था कि कैसे यह मान्यता थी कि जब 'भारत' की आबादी ७५ लाख हो जाएगी, खालसा राज करेगा!
खालसा शब्द 'खालिस' यानि 'शुद्ध' से बना है, इस कारण 'शुद्ध भारतीय' तो आवश्यक नहीं है कि कोई 'जटा-जूट धारी' सिख ही हो, यानि कोई भी शुद्ध विचारधारी, किसी भी गुरु का शिष्य, भी 'खालसा' हो सकता है...जिसके लिए आपको अंतर्मन में झांकना आवश्यक है, सतही तौर पर निर्णय लेने वाले को पुनर्विचार, सत्य कि खोज, आवश्यक है...
Dear Ravish ji,
ReplyDeleteReally touched with your words. Jiske antar vivek jinda ho, chetan parmatma ki awaaj sunne ka sahas aur imaandari ho wohi is tarah se likh sakta tha, jaisa aapne likha.
Aapki samiksha padhne ke baad mujhe laga ke shayad kuch had tak insaniyat ka farj nibha paya hoon. Khoon kisi bhi nirdosh ka bahe, chup rehne wala gunahgaar hai. chahe gujarat mein muslims ke saath julam hua ho, chahe kashmir mein paniton ke saath ya kandhmaal mein christians ke khilaaf hinsa. mera dil rota hai, jab koi nirdosh bekusoor mara jata hai. Aisa hi hoon. 15 Saal patarkarita kar patarkitar mein bhi shipe baithe bhedhiye or Communalism ke pairokaar dekhe hein. Aam aadmi hamein doodh ka dhula maanta hai, par hum apne girebaan mein nahin jhankte. Har khabar ko angle, Bias. kehna bahut kuch chahta hoon. punya prasaun vaajpyee ji ko bhi sadhuaad
jarnailsingh16@gmail.com par mail kar apna mail address dijiyega.
Regards,
Jarnail Singh
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html
ReplyDeleteश्री जरनैल सिंह के विचार सुन कर बहुत अच्छा तो लगा, किन्तु उनके शब्दों से लाचारी भी झलकती है...एक ज़माना था जब पेन को तलवार से भी ताकतवर माना जाता था...किन्तु काल के प्रभाव के कारण शायद अब जूते-चप्पल ही चल सकते हैं.
ReplyDeleteकिन्तु दूसरी ओर राजा राम के चप्पल की महिमा कौन भारतीय, और शायद कुछ विदेशी भी, नहीं जानता? १४ वर्ष तक इनको अयोध्या की गद्दी पर रख, परोक्ष रूप से उनके भाई भरत ने राज्य किया था और राम-सीता और लक्ष्मण जंगल में भटके थे - हम भी जैसे भटक रहे दीखते हैं आज और इंतज़ार कर रहे हैं की कब काल ऊँट की तरह करवट बदलेगा :)