इस अख़बार के हाथ में दो बेजोड़ लेखक लग गए हैं। एन रघुरामन और जयप्रकाश चौकसे। सौ गज स्पेस में इनका लेख होता है। सौ गज से मेरा मतलब पांच से आठ सौ शब्दों के बीच। फुल पेज यानी तीन हज़ार स्क्वायर फुट जितने फ्लैट की जगह में लिखे गए लेख। जिनमें एक कमरा इंट्रो का होता है। एक कमरा कंक्लूज़न का और कई कमरे अलग अलग पैरे के लिए होते हैं। पता नहीं क्यों इन दिनों मेरे प्रिय हो चुके रघुरामन और चौकसे जी को दैनिक भास्कर ने सौ गज ज़मीन ही दी है जिसमें सिर्फ उनके लेखों से एक कोठरी मुश्किल से बन सकती है।
फिर भी इस कोठरी(वन रूम सेट भी कह सकते हैं)में इनके लेख पूरे लगते हैं। जैसे आम लोगों की ज़िंदगी की बातें थोड़े में पूरी लगती हैं। पहले भास्कर के आखिरी पन्नों में से एक पर दोनों जय-विजय की तरह अगल-बगल छपते थे लेकिन अब अलग-अलग पेज पर छपने लगे हैं। एन रघुरामन मैनेजमेंट का फंडा लिखते हैं। हिंदी मानस को बिजनेस की दुनिया के तरीके बताते हैं और उद्यमिता के संस्कारों से परिचय कराते हैं। आज के ही लेख से उनके लिखे का एक टुकड़ा पेश करता हूं।
पिछले दस वर्षों में टाटा समूह की टाइटन कंपनी घड़ी बनाने वाली आम इकाई से आगे बढ़कर वॉच-ज्वेलरी या वॉच-प्रेसिशन इंजीनियरिंग कंपनी बन चुकी है। अब यह कंपनी दुनिया की सबसे स्लिम घड़ी बनाने में अग्रणी है। इससे पहले कोई घड़ी निर्माता इस कदर स्लिम घड़ी नहीं बना पाया। आपको याद रखना होगा कि वॉटरमैन ने पेन का आविष्कार किया लेकिन रेनॉल्ड्स ने इसी पेन को डिस्पोजिबल बनाकर इससे काफी पैसा कमाया। इसी तरह टाइटन को पैसा कमाने से कौन रोक सकता है।
ये रघुरामन के लेख का एक हिस्सा भर है। हिंदी के अखबारों में बिजनेस पन्नों की पत्रकारिता में सुधार आया है। लेकिन अभी भी ये हम पाठकों को महज़ उपभोक्ता से ज़्यादा नहीं समझते। कहां निवेश करें और कहां खरीदें टाइप की सूचनायें। रघुरामन कहां से आएं हैं या किनकी खोज है इसकी जानकारी मुझे बिल्कुल नहीं हैं। लेकिन जो लिख रहे हैं वो आज कल आदतन पढ़ने लगा हूं। हिंदी पत्रकारिता के चिंतनवादियों के बीच इस लेख की तारीफ करना किसी जोखिम से कम नहीं जिसका शीर्षक यह हो-धन कमाने से कोई नहीं रोक सकता। तुरंत मेरे आलोचक दोस्त लिखेंगे कि भाई साहब का क्लास बदल गया है। सत्तर फीसदी गरीब हैं। उन पर लिखे लेखों को उलाहना देते हैं। ये मेरा मकसद नहीं है। ग़रीबी पर भी लेख होने चाहिए। नक्सल समस्याओं पर भी होने चाहिए। मगर इस तरह के विषयों पर भी होने चाहिए जिनपर रघुरामन जी लिख रहे हैं।
फिल्मों पर जयप्रकाश चौकसे का लेख भी किसी दायित्वबोधिय दबावो से मुक्त लगता है। आज उनका लेख अमिताभ बच्चन पर है। नायक की आधार भूमि। बिना किसी वैचारिक प्रतिस्थापना गढ़ते हुए। लेकिन उनकी बातें इन्हीं प्रतिस्थापनों के आस-पास होती हैं। बस दावा नहीं करती। हांकती नहीं कि चलो अगंभीर किस्म के फालतू इंसान,लेख को पढ़ो और बालकनी में जाकर चिंतन करो। इस चक्कर में पाठक बेरोजगार भी हो सकता है। चौकसे जी हर दिन इसी तरह के लेख लिखते हैं। उनके लेख का एक अंश पेश कर रहा हूं-
विगत दशकों में सुपरमैन,बैटमैन इत्यादि फिल्मों से आम आदमी को नायक की तरह प्रस्तुत करने की परंपरा अवरुद्ध हुई है।(लगता है किसी साहित्यिक प्रतिभाशाली संपादक की नज़र नहीं पड़ी,वरना एक वाक्य में इत्यादि,प्रस्तुत और अवरुद्ध को ठांय कर देता,सिम्पल हिंदी के लिए) पूरी दुनिया में बच्चों के बाक्स आफिस मूल्य ने इस तरह की फिल्मों को खूब पनपने दिया। ऋतिक रोशन की कोई मिल गया और क्रिश की विराट सफलता का आधार भी बच्चे ही रहे। दरअसल आज नायक कौन हो,का मामला बाज़ार और विज्ञापन की ताकतों ने बहुत उलझा दिया है। नकली समृद्धि का हौव्वा खड़ा कर दिया है,हर छोटे-बड़े शहर में शापिंग मॉल अपने मोहक मायाजाल में मनुष्य को गैर-उपयोगी वस्तुओं को खरीदने के लिए भरमा रहे हैं और इन्हीं शक्तियों ने जीवन-मूल्यों में भी भारी परिवर्तन किया है। दूसरी ओर राजनीति में कोई आदर्श नहीं है,इसलिए नायक की आधार भूमि ही फिसलन भरी हो गई है।
हिंदी में इस तरह की नॉन-कॉन्क्लूसिव गैर-अंतिम दावों के साथ कम ही लेख खतम होते हैं। चौकसे और रघुरामन इसी तरह हर दिन दिलचस्प सामग्री प्रस्तुत करते हैं। पढ़ने में मज़ा आता है। संपादकीय पन्नों में ये लेख नए बदलाव का रास्ता बताते हैं।
इनके लेखों में कई तरह की नई जानकारियां होती हैं। सिर्फ सत्तर के आपातकाल की नहीं। आजकल की जानकारियां।
हिंदी अख़बारों ने न्यूज़ चैनलों के साथ खूब दादागीरी की है। जब हिंदी के न्यूज चैनल शुरू हो रहे थे,रात दिन दफ्तर में गुजार कर शारीरिक श्रम युक्त पत्रकारिता करने वालों की भाषा से लेकर हाव भाव तक पर नज़र रखी गई। अखबारों में टीवी के वॉचडॉग बनाए गए। एक तरह की लड़ाई चली। बाद में वो लड़ाई नियमित हो गई तो रूटीन टिप्पणी में बदल गई। संपादकों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया। ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं। क्योंकि वॉचडॉग ने ज्यादातर टीवी पत्रकारों का मज़ाक ही उड़ाया। ये वो हिंदी के टीवी पत्रकार थे जो अपने पहले चरण में हिंदी के अखबारों और अंग्रेजी के अखबारों और पत्रकारों से लोहा ले रहे थे। खबरों को लेकर उड़ जाते थे। कोई खबर किसी सूत्र युक्त पत्रकार तक पहुंचती उससे पहले ही वो दरवाज़े पर खड़े होकर ख़बरों को लोक (कैच का बिहारी देशज ब्रांड शब्द)लेते थे। इन परिश्रमों को किसी ने नहीं सराहा। ये और बात है कि हिंदी न्यूज़ चैनल अपने इस बेहतरीन काल को छोड़ जल्दी ही फटीचर काल में प्रवेश कर गए। जिसकी कई वजहें रही हैं। जिस पर बहुत बातें कही जा चुकी हैं और कहीं जा रही हैं।
लेकिन इस दौरान अखबारों का मूल्यांकन ही नहीं हुआ। अख़बारों ने उन नंगे फंगे बाबाओं का विज्ञापन परोसा जिनका पता ढूंढते न्यूज़ चैनल वाले पहुंच गए। जो नहीं होना चाहिए था। लेकिन जिस तरह की बुराई टीवी पर है उसी तरह की बुराई अखबारों में भी हैं। कई चीज़े बेतुकी और खराब छपती रही और छप रही हैं। उन पर कोई कुछ नहीं कहता। अच्छा हुआ कि लोकसभा चुनावों के बाद प्रिंट और ब्लॉगजगत के ही पत्रकारों ने अखबारों के बिकने के सवालों को मुखर किया। अब लगता है कि अख़बारों की भी समीक्षा हो और इसके लिए समीक्षक हो। ब्लॉग ही जगह हो सकती है। लेकिन उन रास्तों को ढूंढने की कोशिश की जाए जिनसे इस पेशे को फायदा हो। अखबार बाज़ार में बिकता है। अच्छी पत्रकारिता को बाज़ार से ही कोई रास्ता निकालना होगा। जिस तरह अधिकतर विज्ञापन बेहतरीन होते हैं। प्रतियोगिता में कंपनियों के माल बेहतर होते हैं। यह सिर्फ हिंदी टीवी पत्रकारिता में हुआ है कि प्रतियोगिता के चलते उत्पाद यानी माल खराब हुए हैं। फिर भी इस तरह की समीक्षा का मकसद कुछ नया करने का होना चाहिए। बहुत गरिया लिये हम सब यारी और दिलदारी में। चौकसे और रघुरामन के लेख इसी श्रेणी में आते हैं। अच्छा लिखते हैं। पढ़ते रहिए बस लाइफ फिट रहेगी।
रघुरामन जी और चौकसे जी के लेखों में एक जीवन दर्शन भी छिटका होता है,...दैनिक भास्कर के दोनों मोतियों को ठीक पहचाना आपने ,,मै भी इनके लेखन का कायल हूँ...
ReplyDeleteरघुरामन जी को ज्यादा पढना नहीं हुआ... पर जे प्रकाश चौकसे को पढना सुखद लगता है...
ReplyDeleteरघुरामन जी को प्रतिदिन पढ़ता हूँ बहुत सटीक चिन्तक हैं आभार
ReplyDeleteबहुत गरिया लिये हम सब यारी और दिलदारी में।
ReplyDeleteबिलकुल सही कह रहे हैं आप जयप्रकाश जी फिल्मों के बहाने समाज के स्याह पहलु को उजागर करने वाले एक मात्र फिल्म समीक्षक हैं, उनके विषय में जितना कहा जाये कम है....
ReplyDeleteआप सही कहते हैं रघुरामन साहब और चौकसे जी जिस पृष्ठ पर प्रकाशित होते हैं, उसमें जान फूंक सी जाती है। मैं पत्रकारिता के साथ-साथ एग्जीक्यूटिव कोर्स के तहत प्रबंधन की डिग्री में अध्ययन कर रहा हंू। आपको जानकर ताज्जुब होगा, रघुरामन साहब के संदर्भ हमारी प्रबंधन कक्षाओं में अकसर चर्चा में रहते हैं। साथ ही उनके लेखों के संग्रह की डिमांड प्रबंधन शिक्षा से ताल्लुक रखने वाले प्रोफेसर्स की भी उतनी ही रहती है, जितनी की विद्यार्थियों की। वे विद्यार्थी जो फ्रेशर्स नहीं है, बल्कि अपनी-अपनी कंपनियों में अच्छे ओहदों पर हैं। जिनमें से कई तनख्वाह के रूप में जयपुर में रहकर लाखों रुपए महीना पाते हैं। कई अपनी कंपनी के रीजनल हैड हैं। लेकिन सब के सब रघुरामन जी के फैन हैं। आपने सही मुद्दा उठाया है। शुक्रिया।
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन को सब सलाम करते हैं। रघुरामन जी को हमारे आर.ए.पोद्दार इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के सभी पसंदकर्ताओं की ओर से सलाम।
चौकसे जी की समीक्षायें आम फिल्मी समीक्षाओं की भाषा और 'गॉसिपबाज़ी' से हट कर है । जयप्रकाश जी पढ़े-लिखे व्यक्ति है और उनमे दायित्व-बोध भी है इसी लिये वे पसन्द किये जाते है । रघुरामन जी रोचक शैली मे बड़े बड़े ' फंडाओं' को प्रस्तुत करने की क्षमता रखते है इसीलिये दोनो पसन्द किये जाते है । वास्तविकता यह है कि बहुत से पाठक इन्हे पढने के लिये ही अखबार खरीदते हैं ।
ReplyDeleteapan to kai salo se pad rahe hain
ReplyDeletedono hi bahut shandar likhte hain
बड़े भाई आप कोयले की खान से हीरे खोज लाते है बाजेवाली गली के मालिक के बारे में जानकारी दी तो मेरा इतिहास संरक्षण वाला भाव और छलांगें मारने लगा और चीजों को रखने का सबूर भी केशवानी जी से सीख लिया
ReplyDeleteएन. रघुरामन से संबंधित ये पोस्ट भी पढ़ें -
ReplyDeletehttp://raviratlami.blogspot.com/2008/01/blog-post_25.html
इसमें उन्होंने घटिया ईमेल फारवर्ड चुटकुले का रूप रंग संवार कर किस तरह मैनेजमेंट का फंडा बताया था और जिस पर उन्हें बाद में माफ़ी भी मांगनी पड़ी थी.
जब आप रोज फंडे देने लगेंगे तो मसाला कहाँ से मिलेगा?
वैसे, रघुरामन जी के फंडों का मैं भी नियमित पाठक हूं. मसाला चाहे रीसायकल्ड ही क्यों न हो... :)
मैं ही उल्लू निकला जो इनके बारे में नहीं जान पाया। लेकिन कई महीनों से मैं भी इन दोनों को पढ़ने लगा। मैं भी भास्कर इनके कारण ही खरीदता हूं। देर से जानने का जो सुख है वो बहुत दिनों से जानने से ज़्यादा होता है।
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ReplyDeleteरविश जी अभी तक तो मैने इन्हे पढ़ा नही है जैसे ही पढ़ लूंगा तो कुछ न कुछ तो ज़रुर कहूंगा कि कैसे है
ReplyDeleteबात तो बरोबर सही है कि अभी तक टीवी चैनलों मे कमसे कम मसाज पार्लर का विज्ञापन नहीं आया है, जैसा कि बड़े-2 स्वनामधन्य संपादकों और संपादिकाओँ के अखबारों में रोज ही दिखता है। हां, टीवी वाले मसाज पार्लर पर पड़ने वाले छापे के विजुअल को जरुर लूप में डालकर दिखाते हैं। अब यहां किसको दोष दिया जाए। जो अखबार वाले टीवी वालों को भूतप्रेत और ग्रह नक्षत्र की बात पर पानी पी-पी कर गालियां देते हैं उनसे कोई पूछे कि राशिफल का कालम कितने दशक पुराना है। लेकिन एक बात है कि अच्छे लोगों की तारीफ करनी ही चाहिए। चौकसेजी और रघुरामनजी को मैने खूब पढ़ा है-कई बार लगता है कि एक कारपोरेट का बंदा कैसे इतना उम्दा लिखता है-वो भी हिंदी अखबार के लिए!(मुझे जहांतक जानकारी है, रघुरामनजी भास्कर के पेरोल पर हैं कोई बाहर से संबद्ध नहीं)दूसरी तरफ चौकसेजी के लेखों की बात की जाए तो हमेशा समाजिक सरोकार ढूंढ़ती उनकी कलम हमें एक अलग दुनिया में ले जाती है-जहां फिल्म का मतलब खालिस मनोरंजन नहीं होता, वो तो कई मुद्दों को समेटकर चलने वाला आख्यान होता है! रवीशजी इस पोस्ट के लिए साधुवाद स्वीकार करें।
ReplyDeleteसुशांत
ReplyDeleteसहमत हूं। दोष से कौन मुक्त है। हम भी नहीं। लेकिन जो अच्छा रच रहा है अब उसी में मन रमाने का जी करता है। कुछ सीख लिया जाए। आप लोग अच्छा लिखते हैं,पत्रकारिता में अब उनकी बात कीजिए तो बहुत कुछ कर रहे हैं।
इसमें छपने वाली संडे को जाहिदा हीना को भी पढ़ना जी...बहुत शानदार है।
ReplyDeleteयह महज इत्तफ़ाक है कि पत्रकरिता में आने से पहले जिस पत्रकार से पहली बार मिलकर इस फ़िल्ड में आने का निश्चय किया, वह हैं जयप्रकाशजी. हां यह अलग बात है कि उन्होंने जो दिशा अपने ड्राइंग रूम में बैठकर दिखाई थी,वह मैने नहीं किया. दूसरा दिलचस्प मामला यह है कि जामिया से पास करने के बाद रघुरामनजी ने भास्कर में पहली नौकरी दी थी.
ReplyDeleteहालांकि दोनों के लेखन का का कायल हमेशा रहा है और अब तो व्यक्तित्व का भी.
me jab bihar se delhi aya to hindustan aur jagran padne ki hi adat thi. yaha akar bhaskar se parichay hua or saath hi in do pratibhao se bhi... aj bhaskar keval inhe do logo ke karan padhta hu.. pichle do barso se adat barakrar hai age bhi rahegi....
ReplyDeleteसिर्फ इन दोनों के कारन ही दैनिक भास्कर खरीदता हूँ और कुछ पढ़ा जाये या न इनके लेख हर हाल में पढने का समय निकल लेता हूँ. आहा जिंदगी से जब से यशवंत व्यास जी गए हैं वो बात ही नहीं रही. किसी भी संसथान के लिए कुछ लोग ही मील का पत्थर होते हैं.
ReplyDeleteगुरविंदर मित्तवा