ऑफिस- अ प्लेस टू लिव

दफ़्तरों की ज़िंदगी ने ख़ास किस्म की चिंताओं को साझा मुखड़ा दिया है। हर अंतरे में शब्द बदलते हैं मगर बात वही होती है। मैं दुखी हूं। मेरा कुछ नहीं हुआ। उसका ही होता है। वो करीब है। मैं किसी से दूर हूं। मुझे फर्क नहीं पड़ता,तो दूसरा कहता है कि फर्क तो मुझे भी नहीं पड़ता। कंधे की तलाश में एक सा ही कंधा मिलता है। एयरकंडीशन इमारत के नीचे वॉन हुसैन की कमीज़ और लुई फिलिप की पतलून पहनकर दुखों को एसएमएस से बांचना। अपनी बात से उसकी बात को काटना। बेहतर दलीलों की खोज। अहंकार मुझे नहीं,दूसरे को है। कहते रहना दिन भर,ताकि भरोसा बना रहे कि शिकार खोजती अनगिनत नज़रों के जंगल में मैं किसी सफेद खरगोश की तरह दुबका हुआ हूं। बचा हुआ हूं।


सब व्यर्थ लगता है। अपने तमाम वो पुराने दिन, जो काट दिये गए दफ्तरों की छोटी मोटी बातों की चिंताओं में। बचा कर रखी गई ऊर्जा किसी बड़े संकट के समय भी किसी तीस वॉट के बल्ब से ज़्यादा काम न आ सकी। किसी के करीब होने का ही फायदा मिलता होगा किसी को। मुझे तो किसी से दूर रहने की सज़ा मिलती है। सेहत के लिए मक्खन ठीक नहीं लेकिन यह मेरा स्वाभाव भी है। मक्खन नहीं लगाना। वो तो मक्खन लगाता है। फिर प्रतिभा? क्या मक्खन से फिसल कर नाली में बह जाती है?

देश के तमाम दफ्तरों में रिश्तों की खुशफहमी के बीच नाइंसाफी का एक आंदोलन चल रहा है। अन्याय के शिकार लोग नज़रों की बोली बोलते हुए चुप रहते हैं। कुढ़ते हैं। हिंसक हो चुके लोग किसी को बर्दाश्त नहीं करते। रंज को तंज में बदल कर भड़ास निकाला जा रहा है। अब वेबसाइट पर गप्पशालायें बन रही हैं। उधर फ़ैसले लेने वाला सत्ता के केंद्रीकरण करने वाला तानाशाह बताया जाता है। लोकतंत्र यस सर के दम पर जी रहा है। बीच बीच में डेयोड्रेंट की खूबसूरत महक,पास से गुज़रती किसी लड़की के चलते छू जाती है। नज़र ही नहीं पड़ती कौन गया है। ज़िंदगी का रोमांस खत्म है। एक डांस चल रहा है। रेस में पिछड़ते जाने के ग़म से लबरेज़ एक सांस्कृतिक समारोह। जिसका उदघाटन और समापन किसी कोने में खड़े केंद्रीकरण के प्रतीक के कानों में कुछ कह कर किया जा रहा है। अच्छा टाइम और बुरा टाइम के बीच शनि की साढ़े साती का द्वंद।

तरक्की। जला कर राख़ कर देने वाली चुड़ैल। उसके मना करने पर ही तो इस शब्द का इस्तमाल कर रहा हूं। सीक्रेट यानी रहस्य। हर किसी के पास उधार है। ये किसी से न कहना। सिर्फ तुमको कहा गया है। इस हिदायत के साथ ट्रांसफर होती सीक्रेट फाइलें। किसी की होठों से निकलकर किसी के कानों में। मोबाइल के इनबाक्स में बचा कर रखे गए कुछ सीक्रेट एसएमएस। किसी वक्त के साथी के किसी भी वक्त पलट जाने पर काम आयेंगे। उसके खिलाफ। इस बीच इतने तनावों को छोड़ किसी के कंधे के पीछे खड़ा होकर भरोसा पाना। अपना होने का अहसास हाथों को टिफिन बॉक्स में पड़े पराठे के एक कोने को कतरने के लिए बढ़ा देता है। दूर से कोई देख रहा होता है। कब से कोई करीब हो रहा है। सचमुच है या नहीं है। बहस नहीं है। सत्य एक शर्त की तरह ज़बान पर आता हुआ फ़रमान में बदल जाता है। अफवाह। बिना बाप के हर दिन पैदा होने वाली औलाद है। रिश्ते तहस नहस हो रहे हैं। प्रोफेशनलिज़्म और परफार्मेंस लोगों को हिंसक बना रहे हैं। जीवन का लक्ष्य कंपनियों का टारगेट बन गया है। पैसा ज़रूरी है तभी तो यह हर साल बढ़ेगा। पैसे के लिए प्रोफेशनलिज़्म ज़रूरी है। तभी तो वो हर वक्त मरेगा।

पास बैठे लोग अब कानाफूसी छोड़ एसएमएस करने लगे हैं। दीवारों के कान बेकार पड़े हैं। कोई दीवारों के लिए आंखें तलाश रहा है। छोटे छोटे कैमरे लटका कर। ग्रुप बन रहे हैं। बिगड़ रहे हैं। हाइड्रा की तरह। एक सर कटता है तो दूसरी आकृति बनती है। दोस्तों का नाम लेने में घबराहट से निकले पसीने को पोछे जाने के बाद रूमाल छुपा लिया जाता है। दोस्ती भी छुप कर की जाती है। दोस्ती गुट है। सीढ़ियों पर चलते वक्त बनाई गई दूरी रिश्तों में हर वक्त एक डिस्टेंस का आभास बनाती है। बीच बीच में कोई नज़र छिप कर देख जाती है। मिल जाती है तो बदल जाती है।

आजकल इससे,कल तक तो उससे। फिर कोई बात है। तभी तो मुलाकात है। सारे फायदे उसी को। यही राज़ है। नौकरी के बाद तरक्की जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार के लिए किये जाने वाले फर्ज़ की तमाम कोशिशें किसी साज़िशखाने की कालिख से पुती हुई लगती हैं। हर पल कोई किसी से आगे जा रहा है। हर पल कोई नज़रें चुरा कर कहीं चला जा रहा है। कोई रातों को ठीक से सोता क्यों नहीं? दफ्तरों के भीतर एक आग सुलग रही है। किसी का सुगर लेवल बढ़ जाता है तो किसी का ब्लड प्रेशर। घर पहुंचने से पहले ही कार में बीयर की बोतल खत्म। एक जगह जो मिलकर करते हैं, दूसरी जगह ठीक वही दूसरे लोग मिलकर करते हैं। पता नहीं कब तक चलेगा। इस वाक्य के सहारे उतराती निराशा। आशा क्या है? मेरा दुख तुम्हारे दुख से बड़ा है। जैसे नहाने का ओके साबुन। सचमुच काफी बड़ा है। सबकुछ आजकल है। परेशानी रोज़ पैदा होने वाली कहानी है।

गीता ने कहा है कि कर्म करो,फल की चिंता मत करो। कृष्ण,तुमने नौकरी नहीं की। की होती तो बात नहीं करते। लाखों सरों को तीर से कलम कर देने का कर्म ही फल की चिंता से मुक्त हो सकता है। बस तीर चल जाए। किसी न किसी का सर तो कलम होगा ही। फल की चिंता के बिना किया जाने वाला कर्म एक किस्म की सांस्कृतिक लापरवाही है। किस लिए कर्म करें। उद्यम करें। कहीं ये भी एक साज़िश तो नहीं। फल नहीं देने की। संतोष और डिज़ायर की लड़ाई है। भूख और हंगर में अंतर है। सड़कों के किनारे सूखी अंतड़ियों में लिपटे हुए लोग भूख की तस्वीर हैं। दफ्तरों में टाई सूट में लिपटे हुए कुछ पाने की अभिलाषा में कर्मयोगी हंगर की तस्वीर हैं। उनके पेट का हंगर उन्हें शिखर पर ले जाने की बेचैनी है। एक रास्ता है। अंडर पास है। गीता को मत पढ़ो। भजन भजोगे तो वैराग्य से दफ्तर नहीं चलेगा। किसी को पा लेने की ख्वाहिश हर पल पलती रहे। बारी का इंतज़ार सबसे बड़ा धीरज है। खुद को महान घोषित करने का धीरज। है न।

कितनी नज़रें उठती हैं अस्तित्ववाद के समर्थन में। कितनी मुकर जाती हैं उसके विरोध में। बीच के एक रास्ते पर चलने का रास्ता फिसलन भरा है। बिसात पर बिछी चालों के बीच से बच कर निकलना। सामने बैठा सिपाही घोड़ा बनने के इंतज़ार में है। कब ढाई घर चल कर मात दे दे कहना मुश्किल है। हर वक्त कोई किसी आशंका की सूचना देता है। पहले वैसा था लेकिन अब वैसा नहीं। कोई कुर्सी है,जो घूम रही है,जो देखने वालों की नज़रें बदलती हैं। उन्हें नचाती है। हर बात की खिचड़ी है। जो खाने के लिए नहीं,उतारने के लिए पकती है। दूसरी खिचड़ी चढ़ेंगी तभी तो फिर से उतारने की क्रिया शुरू होगी। इन सबके बीच एकाध रिश्ता बचा लेना कितनी बड़ी कामयाबी होगी। वर्ना उधार के दोस्तों के साथ खुशियों को बांटना होगा।सारे संबंध किराये पर लाये हुए लगते हैं। अपनी अपनी चिंता में। इस छोटे से ब्रह्मांड में मैं कहां हूं। पता पूछते रहते हैं। भटकने के डर से मरे रहते हैं। छाती पर अपने पदनामों की तख़्ती लगाये हर दिन ईमेल से जारी होने वाले फरमान। इतिहास के किस काल में मानव मस्तिष्क की संरचना को समझने के काम आयेंगे। शक की बुनियाद पर बने रिश्तों की कहानी कब लिखी जाएगी।

टूटी चप्पल पहनना एक रियायत है हमारे समय में। बिजनेस और इकोनोमी दो ही क्लास है। बाकी सब जात पात हैं। कुर्तों के नीचे से झांकते मर्दों की निगाहें,उनसे बचती औरतें। उनकी कामयाबी के पीछे कोई एक औरत। इनकी कामयाबी के पीछे कई मर्द। छी। नहीं,मुझे घिन नहीं आती। तरस भी नहीं। दफ्तर में रिश्ते दफन नहीं होंगे तो और कहां होंगे। कब्रिस्तान से लेकर श्मशान तक सब सिमेंटेड हो गए हैं। रिश्ते से रिसने वाली राख ज़मीन में नहीं मिलती। काले पोलिथिन में उठाकर गंगा में बहा दी जाती है। सब के सब जटिल हैं। कुटिल हैं। हम अच्छे हैं। काम से खुद को बचा लेने की दलीलें। हर कत्ल प्रोफेशलन होने के नाम पर। हर साज़िश प्रोफेशनल होने के नाम पर। हम सब ख़राब होने के इस दौर में आमसहमति से एक दूसरे को नीचा दिखा कर हैसियत के टांके से खुद टांक कर अस्पताल से छोड़े गए मरीज़ की तरह लगते हैं। पट्टियों में लिपटा हुआ हमलावर भी तो मरीज़ है।
(कुछ दिन पहले मेरे घर पर दोस्त आए। तीन मित्र भारत की सबसे बड़ी कंपनियों में नौकरी करते हैं। जब बात हुई तो लगा कि नौकरी और ऑफिस को लेकर सब एक ही तरह से परेशान हैं। सब शिकायतों से भरपूर हैं। सब शक करते हैं और शक किये जाने को मसला बनाते हैं। उन्हीं की बातचीत के बात ये लेख निकल आया। हम मिले थे मस्ती के लिए लेकिन सबका मन भारी हो गया। कई लोग सोच रहे हैं कि ये मेरी आपबीती है। बिल्कुल नहीं है। पर ऐसा भी नहीं कि अपने अनुभवों को सामने नहीं रखा। ज़रूर रखा लेकिन उनकी बातों के लिए। और फिर जो भी है आपके सामने है)

44 comments:

मुनीश ( munish ) said...

analytical , thought provoking indeed ! agreed !

डॉ .अनुराग said...

काफी सेंटी मेंटा लाना पोस्ट है .आध्यात्मिक लिबास ओढे हुए ..... ऑफिस की धकापेली में विण्डो ए सी के शोर में जो दब जाती है जमीर के छिपे हुए जुमले है ...बाजारी मजबूरी भी .....कुल मिलकर दुनिया एक सी है .बस कही शीशो पे क्राफ्टेड पेंटिंग है .....या दीवारों की छतो पे प्लास्टर ऑफ़ पेरिस पर उनके पार आदमी वही है ..... वही बासी दिमाग वही बासी दिल ....सड़क पे चलता आदमी हो या दुकानों पे बैठा आदमी .....कहानी वही है एक सी ......मुखड़े बदले हुए है .अंतरे भी ......पर क्या कहते है .पटकथा एक ही है ....

Aadarsh Rathore said...

हंगर और भूख का फर्क...
लाजवाब बात कही है। लेखन में वो मनोभाव भी दिख रहे हैं जो लिखते वक्त रहे होंगे। शानदार अभिव्यक्ति

शशांक शुक्ला said...

यही कॉर्पोरेट कल्चर है रविश जी, क्या करें, यहां लोगों की भूख सच में वो भूख नहीं है, जिसके लिए वो वहां पर है असल में पेट की ही भूख है जो ऑफिसों की तरफ ले जाती है लेकिन वहां जाते ही लोगों की भूख के हिस्से कई हो जाते हैं....आपने अपने मनोभाव को बड़े ही अच्छे ढंग से लिखा है। इस कल्चर में कई लोग इसी तरह के मनोभाव के साथ जीते है क्या करें????

अजीत चिश्ती said...

aapki ab tak ki sarvshreshtha post hai raveesh ji . hunger aur bhookh , kya kahi hai aapne .

Sanjay Grover said...

apradhbodh ho to kam-uz-kam itna to ho. aatm-sweekruti ho to kam-uz-kam aisi to ho. aatm-vishleshan ho to kam-uz-kam teer ki tarah dusroN meN ghuste huye apne paar to nikle.
SALAAM !

सागर said...

गीता लगभग रोज़ पढता हूँ और जब भी यह लाइन पढता हूँ की 'कर्म किये जाओ फल की चिंता मत करो' तो सोचता हूँ की शायद अब यह प्रासंगिक नहीं है... और है भी तो थोड़े ही दायरे में या सिर्फ परिवार में... जिस दोगलई की बात हो रही है वो अब हर जगह है पर लगता है ऑफिस में कुछ ज्यादा ही है...

मुनीश ( munish ) said...

@Ajit Chishti -- u have my vote of confidence .

Kulwant Happy said...

नईसड़क स्थित कस्बे के निवासी रवीश कुमार आपकी ये पोस्ट किसी सुपर डुपर हिट फिल्म की तरह है। शब्दों में आपने इस बार हर किरदार को जीवंत कर दिया। शुरू से अंत तक बिल्कुल अद्भुत है। ऑफिस की स्थिति का शब्दी चित्रण, किसी बड़े पर्दे पर होने वाले वीडियो चित्रण से भी ज्यादा उम्दा है। मैं हमेशा ही बागियों की गिनती में आता हूं, और आता रहूंगा, क्योंकि मेरे भीतर कुत्ते वाला गुना एक गुना नहीं, तलबे चटने वाला, वफादारी वाला है। जो ऑफिसों में चलता हूं।

गिरिजेश.. said...

One Of the BEST till date !!!

Batangad said...

रवीश
ये आपकी पोस्ट हमारे-आपके जैसे जाने कितने लोगों की भावनाओं को मिल गया शब्द है। शानदार !

कही- अनकही... said...

प्यारे रविश जी ,
काले शीशे वाली ऊँची , ठंडी इमारतों के अन्दर का बखूबी वर्णन किया है आप ने, सच में यही सब चल रहा है हर जगह ... कभी कभी लगता है असलियत कम बची है मुखौटे ही रह गये हैं ...दस साल छोटे शहर की पत्रकारिता में गुजरे है, मित्र लोग बड़े आफिसों में पहुचने का दबाव डालते हैं लेकिन सोचता हूँ जिन्दगी का सुख - चैन बेच कर आखिर क्या कमा लूँगा .... घर -बार छोड़ ,तरक्की की चाहत में अपनों से दूर हुए लोगों को आईना दिखाता है आप का लेख .... लाख टके का सवाल ये है की आखिर इस का सर्वव्यापी समस्या का समाधान क्या है.... एक पुराने गीत की पक्तियां हैं ..

क्या मिलिए ऐसे लोगों से, जिन की फितरत छिपी रहे ...
नकली चेहरा सामने आये ,असली सूरत छिपी रहे . >sunil monga jind (hr) <

Arvind Mishra said...

ये बेदिल दिल्ली है -अभी अभी दिल्लीआयी एक मित्र ने फोन पर यही बांचा है -ये दिल्ली वालों को हो क्या गया है ?क्या वहां जीवन और जीवन्तता खत्म हुयी ?

kabad khana said...

BHAI THODA BHARI PAD GAYA AAPKE OOPER KAM JACHA HO SAKTA HE MERI BUDDHI CHHOTI PAD RAHI HO AISI CHEEJE SAMAJHNE KE LIYE.KHUDA HAFIZ

manishs@ndtvmi said...

bahut acha aur sahi likha sir
abhi tajurba to nhi kia hai aisi bato ka par mehsus zarur kar skta hu aisi bhavnaye logo k bich

Prabuddha said...

पोस्ट पढ़ के याद आ गया वो 'थॉट ऑफ़ द डे' जो दफ़्तर के साइन इन कियॉस्क पर लिखा था- "Self promotion is not only desirable but also essential. Advertise yourself" लगा रोज़ रोज़ के बेतुके विचारों के बीच शायद किसी 'समझदार' ने ये लिख दिया है। यानी बेचारे जो कृष्ण की बात मान के चले, उनका परलोक सुधरे तो सुधरे, इहलोक में तो वो गए काम से !

सुशीला पुरी said...

manushyon ke beech devta banne ki jang jo jhidi hai..........

डॉ टी एस दराल said...

ऑफिस सरकारी हो या गैरसरकारी, आजकल सबका यही हाल है. चमचों का राज़ है. सारी मलाई चमचे ही खा जाते हैं. कहते हैं एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है. लेकिन यहाँ तो ज्यादातर मछलियाँ गन्दा करने वाली ही हैं. पर फिर भी कर्म तो सब के अपने ही होते हैं और फल भी खुद ही भुगतना पड़ता है. वैसे भी कर्म किसी दूसरे को देखकर नहीं किया जाता. आदमी को जो सही लगता है वही करना चाहिए.
अच्छी भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

अनिल कान्त said...

वही पुरानी कहानी...बस दौर बदल जाता है....लेकिन अफ़सोस

रज़िया "राज़" said...

कल रात 'विनोददुआ के साथ' वाले एपीसोड में चलते चलते पर उसने कहा था फ़िल्म का आपका पसंदीदा गीत सुना,
आज का आपका पोस्ट उससे काफ़ी मिलता है।

एक संवेदनशील रीपोर्टर का संवेदनशील पोस्ट।

Virus said...

Best Part of Blog..

गीता ने कहा है कि कर्म करो,फल की चिंता मत करो। कृष्ण,तुमने नौकरी नहीं की। की होती तो बात नहीं करते।

Overall post is awesome, illustrating true situation of so called modern professionalism.

अनिल ओमप्रकाश सिंह said...

aaj pehali baar aapka article padhaa bahut kuch samajhane jaisaa tha jivan ka nichod tha par kuchh baate samajh me nahi aai shayad uske liye mujhe abhi vakt lagega

ANIL O. SINGH
NEWS24

SACHIN KUMAR said...

SACHIN KUMAR
MAINE SOCHA THA KI' AAPNE BAHUT AACHA LIKHA HAI' LIKHNE KE LIYE KABHI POST NAHI LIKHUNGA. LEKIN AUR KUCH NAHI LIKH PAA RAHA HOON.O KAHTE HAI EK BEHTAR WAQTA HONE KE LIYE AACHA SHROTA HONA JAROORI HAI EK AUR BAAT BEHTAR WAQTA HONE KE LIYE BEHTAR LIKHNE WALA HONA BHI JARRORI HAI. ONE OF THE BEST BLOGS I HAVE EVER READ.THANKS.

anil yadav said...

प्रतिभा भी मक्खन की मोहताज हो गई है....
लेकिन मक्खन बिना प्रतिभा के भी सफलता की सीढ़ियां चढ़ने में समर्थ है....
एक अदभुत पोस्ट के लिए ह्रदय से साधुवाद....

Democracy Monitor ( डेमोक्रेसी मॉनिटर ) said...

आपने सच उतार दिया है शब्दों के माध्यम से।

दस्तक said...

रवीश जी मैं समझता हूँ की यह सब मानव स्वभाव है. इसलियें मैं आपके लियें हरिवंश राय बच्चन की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ भेंट कर रहा हूँ. जो थोड़ा बहुत आपको राहत पहुंचायेगी.


हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती
लहर से डर कर नैया पार नहीं होती।
नन्हीं चिटी जब जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़ कर गिरना गिर कर चढ़ना न अखरता है
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

अभी मैं हूं..."मोबाइल के इनबाक्स में बचा कर रखे गए कुछ सीक्रेट एसएमएस। किसी वक्त के साथी के किसी भी वक्त पलट जाने पर काम आयेंगे।" आपकी पोस्ट नें दिल के छालों को हरा कर दिया। प्यार, ज़़ज़्बात, दोस्ती, एहसास सभी की असलियत को बयां कर देनें वाले लेख को सलाम। नौकरी से छोकरी तक रोटी से दोस्ती तक की गर्दों की कहानी है। प्रतिभा भी मक्खन की मोहताज़ हो गई...गज़ब। वास्तविकता कहें की मज़बूरी? पता नहीं...अम्मा के मुंह से कहावत सुनी थी जब कहा था कि "मैं अब और गाली नहीं सुनूंगा, नहीं करनी नौकरी किसी चैनल में"
वो बोली सब जगह सुनना पड़ेगा, इसी को नौकरी कहते है... "हां जी की नौकरी औऱ ना जी का घर"।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बहुत दिन बाद आफिस आई हूं, लगता है जैसे किसी नई जगह हूं, कोई अजनबी शहर हो, एक जंगल जहां हर नजर अपना शिकार खोज रही है।
कहना होगा आपकी अब तक की पोस्ट में बेहतरीन लेकिन रवीशजी आप अपनी पोस्ट में कभी इतना दुखी और इतने परेशान साउंड नहीं हुए

विजय प्रकाश सिंह said...

रवीश जी , बिल्कुल यथार्थ । हर वक्त दिल सहमा सहमा सा रहता है । कोई न सच बोलता है न सुनना चाहता है । न दोस्त का पता चलता है , न सहयोगी का, लेकिन हर समय टीम स्पिरिट पर ग्यान मिलता रहता है । यही कारपोरट कल्चर है ।आपने जैसा चित्रण किया है, मैं उसमे और कुछ जोड़ने की आवश्यकता नहीं समझता हूं ।

Unknown said...

Your post reflects the frustrating and venomous atmosphere of society where everyone doubts everybody and mistrust is everywhere.Only few good people are the only hope.

Regards,
Pragya

दीपक चौबे said...

एक बेहतरीन रचना,

में उन महारथियों में नहीं जो खास होकर खुद को आम कहते हैं। पर जहां तक मुझे लगता है कि ये
बेशक 21वीं सदी के किसी भी काबिल कर्मयोद्धा की ब्रेन मैपिंग रिपोर्ट है ये।
जरा सोचिए 1909 में हमारी आपकी तरह का एक भारतीय क्या करता था, हमारे बच्चों की उम्र वाले उनके बच्चे कैसे रहते थे। 1809 में जन्मे एक आम भारतीय की लाइफ स्टाइल और उसकी समस्याएं कैसी होंगी। क्या ये मुमकिन नहीं कि 1109 ईस्वी में हमारी आपकी तरह के नौजवान सुबह का नाश्ता कर होते होंगे, फिर अचानक कहीं नगाड़ा बजता होगा वो सबकुछ छोड़ हाथ में तीर कमान या भाला या चाहे जो भी कुछ मिले लेकर दौड़ पड़ते चलो आक्रमण.... हिस्ट्री में हीरा हूं, लिहाजा तथ्यों के बल पर तर्क नहीं दे सकता। सिर्फ कल्पना करने की जरूरत है।
जाहिर तौर पर हर समाज की अपनी समस्याएं रही होंगी, जिनसे जूझना उनलोगों की नियति, लाचारी या फिर ड्यूटी रही होगी। बदले रुप में आज भी है। ये एक बेहद जटिल और लंबी विषयवस्तु है और स्यादवादियों की तरह हर कोई पहली को अपनी तरह से बनाता और हल करता है।
लेकिन कुछ बातों पर एक व्यावहारिक नजरिया रखते हुए जरूर सोचना चाहिए।

- आज जो कुछ हो रहा है क्या वो रातोंरात हुआ है?
- उससे भी पहले, क्यों हुआ?
- किसके लिए हुआ?
- और फिर होश संभालते ही, यही सब करने के लिए क्यों मरे जाते हैं?

आज की जिंदगी में जो जहां हैं कुछ करने के लिए ही है और आगे की उम्मीद उसी कुछ पर टिकी होती है। वो कुछ क्या होगा ये कौन तय करेगा?

अमिर खुसरो नहीं हूं फिर भी एक छोटी सी पहेली ही सही..
आपने जिस किस्म के इंसान की ब्रेन मैपिंग की है.. उसके लिए नीचे लिखे चंद गानों का क्या मतलब रह गया. जिन्हें सुन सुनकर वो बड़ा हुआ है।

नन्हा मुन्ना राही हूं..देश का सिपाही हूं...
झूठ बोले कौआ काटे..
कोई हसीना जब रूठ जाती है तो...
जब हम जवा होंगे..
ये गोटेदार लहंगा...
पापा कहते हैं...
चोली के पीछे क्या है..

और आज आपके मन का रेडियो कौन सा स्टेशन पकड़ता है...

संक्षेप में लाजवाब विश्लेषण,
मैं जैनेंद्र या सुरेंद्र यादव की स्टाइल के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता.. तुलना करुं तो श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी पढ़ने की आदत के बाद विश्रामपुर का संत पढ़ना। दोनों ही उम्दा लेकिन दो छोर पे।

मधुकर राजपूत said...

रवीश तो हमसे भी घणे दुखी हैं भाई। व्यंग्य लिखो महाराज मन को सकून मिलेगा। इतना मत सोचो, लेकिन जितने गहरे उतर कर लिखा है उससे तो यही लगता है कि एक जिम्मेदार पोस्ट पर होने के नाते आप शिकार भी हैं। जंगल में सफेद खरगोश और पट्टियों में लिपटा हमलावर मरीज़ भी। कोई बात नहीं है जी कुर्सी बचाने वालों को देखकर(राजनीति पर लिखते-लिखते) कुर्सी बचाना तो आप भी सीख ही गए होंगे। वैसे इस तंत्र का आप भी एक हिस्सा हैं और तंत्र से लड़ने के बजाय कदमताल तो करनी पड़ेगी। एक और बात समझ आ रही है। जब आप हमलावर हैं तो कहीं यह पोस्ट अपने आप को रिप्रेजेंट करने के लिए तो नहीं लिखी गई।

नवीन कुमार 'रणवीर' said...
This comment has been removed by the author.
Nikhil said...

आप पेज-3 पार्ट 2 बनाइए....खूब चलेगी....

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

दोस्तों
"आई-आई आरूषि आई..."
पढ़ लें, थोड़ा मन हल्का हो जाएगा
सेंटी होनें की बजाए मज़े लो, खोट ढूंढ़ों,
पिन मारो, सुलगाओं सालों को, दुखी मत होना,
अपनें दर्द को उनकी कमीं बनाओ...बस।

ritu raj said...

घोडे की चाल की तरह सधी हुई पोस्ट. ढाई कदम के बाद दूसरा ढाई कदम फिर तीसरा ढाई कदम फिर और उसके बाद फिर, फिर और फिर. एक एक शब्द सच लगा सिर्फ़ सच. एक बात सोच रहा हूं कि इस पोस्ट को लिखते समय की आपकी मनोदशा कैसी रही होगी? अभी अभी दोस्त के साथ बकझक हुई की इंडिया में पैसा खूब है. लोगों की सैलरी बढ रही है. मैंने भी तर्क दिया कि हां एक की ५० तो बकी बचे नब्बे की सिर्फ़ ५. बडा अजीब विकास हो रहा है. दुनिया में. और दुनिया के विकास के शुरुआत ही औफिस से हो रही है. सा.. औफिस और औफिस की राजनीति. खैर कहानी हर जगह वही है और पात्र भी वही है. हम सब के सब मरीज है. खुद को खींच खींच कर कुर्सी तक पहुंचा रहे हैं. हम मरीज सब के सब औफिस के मरीज. दुनिया के विकास की शुरुआत ही औफिस से होती है.

ritu raj said...

बहुत बुरा विकास है कि दुनिया के विकास की शुरुआत ही औफिस से हो रही है.

Mahendra Singh said...

Aaj kal offices main galakat professionalism hai. Yah samajh main hee nahin aata ki agla apna dost has ya dushman. woh hamari unnati chahta hai ya avnati. Kisee shayar ne kya khoob likha "mujhe dushmanao ke sitam ka khof nahin main doston ki wafaon se darta hoon"

Pawan Nara said...

गीता ने कहा है कि कर्म करो,फल की चिंता मत करो। कृष्ण,तुमने नौकरी नहीं की। की होती तो बात नहीं करते। kaya khub kaha hai sir .....

Payal Khare Bhatnagar said...

कितना अजीब सिलसिला है मेरी तुम्हारी बातचीत का...
तुम मेरी आँखों में देखकर कुछ कहते हो,
तो मुझे तुम्हारी नज़रों पर शक होता है...
लेकिन जब तुम वही बात लिख कर देते हो,
तो मैं समझ जाता हूँ....
मैं क्यों हँसा, तुम्हे इससे मतलब नहीं,
तुम तो, मुझे हसाने वाले को ढूंढते हो...
तुम,खुद को मुखौटों से अनजान कहने वाले,
मेरे आंसुओं से भरे चेहरे में, एक गैर को देखते हो...
लेकिन जब किसी कागज़ पर मेरे अश्क गिर जाते हैं,
तो मुझे अपना सा पाकर, कितनी बेचैनी से उसी कागज़ पर,
तुम अपना हाल-ऐ-दिल बयान कर देते हो....-payal khare

Payal Khare Bhatnagar said...

aur haan,t best thing is...that t post seems to represent no perspective or judgement as such...just simple facts laid down...moreso, by giving a miss to the main words &without using any adjectives..& even t nouns,in a manner :), u've sustained its meaning quite beautifully and appealing!! Interesting...rgds,payal

baadlav.blogspot.com said...

आशुतोष जार्ज मुस्तफा।
अभी हंस में राजेंद्र यादव की तेरी मेरी उसकी बात पढ़कर खत्म ही किया था कि यह पोस्ट खुलते खुलते खुल गया। वैसे भी मैं ब्लाग एकाध लोगों की पढ़ता हूं और किसी को कुछ लिखने से कतराता भी हूं। लेकिन रहा नहीं जा रहा इसलिए लिख दे रहा हूं। मैं पटना में ही एक टीवी पर आने को प्रतीक्षारत चैनल में काम कर रहा हूं। बहुत कम दिन काम किए इस फिल्ड में लगभग चार या पांच साल। मुझे पता भी नहीं आप दूसरे के कामें ट को पढ़ते भी होंगे या नहीं। क्योंकि आफिस से आने के बाद सबसे बड़ी प्रेमिका या प्रिय बिस्तर और बच्चे हो जाते हैं।
सर मैं आफिस से गायब होकर कुछ गिलहरियों को पटना में पाल रखा है। खैर जाने दिजिए। बुंदेलखंड़,सीमांचल के नेपाल से सटे इलाके के गांवों के तस्कर बनते बच्चे. पंचायती राज स्तर पर बिहार में छोटी सी नौकरी के लिए मुखिया के साथ हमबिस्तर होने वाली लड़किया. कल तक साईकिल को तरस रहा पंचायत का प्रतिनिधि आज बोलेरो खरीद लिया है। चारो ओर भ्रष्टाचार। वह भी आकंठ तक। एक दूसरे के हिस्से को खा लेने की होड़। दिमाग फट जाएगा ज्यादा सोचने पर। चारों ओर खाने चबाने का दौर जारी है।
पत्रकारिता में अब कभी अखबारों में स्टेट्समैन और द हिंदू की बात याद आती है, वरना बिहार से छपने वाले अखबार तो कोसी में पानी बढ़ने की खबर छापने की वजाए मैनकाईंड का विज्ञापन छापना ज्यादा पसंद करते हैं। किसी की बात मत किजिए। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि देश के एक बहुत बड़े घराने के अखबार में सिर्फ मूर्ख भरे हैं पत्रकार नहीं. जाने दिजिए। आफिस में कैसे कैसे इनफेक्सनस पल रहे हैं प्रोफेशनलिज्म के नाम पर उसे आपने उकेर तो दिया ही हैं। सर आपके मित्रों का जो हाल है न वहीं चारों ओर है ............................बाकी बच्चोंके साथ आराम से आपका दिन बीते .......तथाकथित लोकतंत्र के हाईटेक पहरुओं को कभी औकात दिखाने का मौका मिले पत्रकारिता के जरिए तो जरुर दिखाईए क्योंकि उनकी संपति बीना टेंशन के कई गुना फिसदी बढ़ रही है।

baadlav.blogspot.com said...

आशुतोष जार्ज मुस्तफा।
अभी हंस में राजेंद्र यादव की तेरी मेरी उसकी बात पढ़कर खत्म ही किया था कि यह पोस्ट खुलते खुलते खुल गया। वैसे भी मैं ब्लाग एकाध लोगों की पढ़ता हूं और किसी को कुछ लिखने से कतराता भी हूं। लेकिन रहा नहीं जा रहा इसलिए लिख दे रहा हूं। मैं पटना में ही एक टीवी पर आने को प्रतीक्षारत चैनल में काम कर रहा हूं। बहुत कम दिन काम किए इस फिल्ड में लगभग चार या पांच साल। मुझे पता भी नहीं आप दूसरे के कामें ट को पढ़ते भी होंगे या नहीं। क्योंकि आफिस से आने के बाद सबसे बड़ी प्रेमिका या प्रिय बिस्तर और बच्चे हो जाते हैं।
सर मैं आफिस से गायब होकर कुछ गिलहरियों को पटना में पाल रखा है। खैर जाने दिजिए। बुंदेलखंड़,सीमांचल के नेपाल से सटे इलाके के गांवों के तस्कर बनते बच्चे. पंचायती राज स्तर पर बिहार में छोटी सी नौकरी के लिए मुखिया के साथ हमबिस्तर होने वाली लड़किया. कल तक साईकिल को तरस रहा पंचायत का प्रतिनिधि आज बोलेरो खरीद लिया है। चारो ओर भ्रष्टाचार। वह भी आकंठ तक। एक दूसरे के हिस्से को खा लेने की होड़। दिमाग फट जाएगा ज्यादा सोचने पर। चारों ओर खाने चबाने का दौर जारी है।
पत्रकारिता में अब कभी अखबारों में स्टेट्समैन और द हिंदू की बात याद आती है, वरना बिहार से छपने वाले अखबार तो कोसी में पानी बढ़ने की खबर छापने की वजाए मैनकाईंड का विज्ञापन छापना ज्यादा पसंद करते हैं। किसी की बात मत किजिए। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि देश के एक बहुत बड़े घराने के अखबार में सिर्फ मूर्ख भरे हैं पत्रकार नहीं. जाने दिजिए। आफिस में कैसे कैसे इनफेक्सनस पल रहे हैं प्रोफेशनलिज्म के नाम पर उसे आपने उकेर तो दिया ही हैं। सर आपके मित्रों का जो हाल है न वहीं चारों ओर है ............................बाकी बच्चोंके साथ आराम से आपका दिन बीते .......तथाकथित लोकतंत्र के हाईटेक पहरुओं को कभी औकात दिखाने का मौका मिले पत्रकारिता के जरिए तो जरुर दिखाईए क्योंकि उनकी संपति बीना टेंशन के कई गुना फिसदी बढ़ रही है।

syahi said...

ravish ji idhar bhi dekh lein ..kya hal hai duniya ka

http://www.youtube.com/watch?v=5fCsWml5ZkY