तस्वीरों को देखकर लगता है कि मीरा कुमार हैरान हैं। अचानक से उनके महत्व पर लिखा जाने लगा है। यह भी कहा जा रहा है कि १९८५ में उन्होंने बिजनौर में मायावती और पासवान को हरा दिया। २४ साल तक वो इधऱ उधर से हारती जीतती रहीं लेकिन न तो दलित होने के नाते और न ही महिला राजनीतिज्ञ होने के नाते उनकी कोई बड़ी भूमिका सामने आई।
अब लोग उनमें दोनों वर्गों के लिए अपार प्रतिभायें देखने लगे हैं। कांग्रेस को दलित वोट बैंक चाहिए तो मीरा कुमार का नाम चलेगा। महिला होने के नाते मीरा कुमार कॉम्बो खूबियों वाली नेता बन गई हैं। चुनाव में किसी भी नेता ने दलित वोट के लिए मीरा कुमार को प्रचार के लिए नहीं बुलाया। वे अपने इलाके में ही प्रचार करती रहीं। हालांकि इस बार भी उन्होंने सासाराम में बीएसपी के महासचिव गांधी आज़ाद को हराया है। लेकिन क्या मीरा कुमार सांकेतिक राजनीति की एक अजीबो गरीब उदाहरण नहीं हैं। क्या सिर्फ पद पर बिठा देने से सामाजिक चक्र पूरा हो जाता है? मीरा कुमार किसी एक की इच्छा का नतीजा हैं या लोकतांत्रिक प्रक्रिया का?
वो भी तब जब देश में राष्ट्रपति के पद पर नारायणन रह चुके हैं। जी एम सी बालयोगी को नहीं भूलना चाहिए। देश के पहले दलित स्पीकर। क्या इससे चंद्राबाबू नायडू को दलितों का वोट मिल गया? कोई बालयोगी को याद कर रहा है? नहीं क्योंकि बालयोगी दलित होते हुए भी दलित राजनीतिक आंदोलन के केंद्र नहीं थे? क्या उनके स्पीकर बनने से दलितों के राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ बदल गए? यूपीए की चेयरपर्सन से लेकर राष्ठ्रपति के पद महिलाएं काबिज़ हो चुकी हैं। सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष से लौट आईं हैं। चंदा कोचर आईसीआईसीआई की अध्यक्ष बन चुकी हैं। यूपीएससी में लड़कियां टॉप कर रही हैं। पिछले बीस सालों में भारत की महिलाओं ने गज़ब की प्रगति की है। कहीं ऐसा तो नहीं स्पीकर का पद जबरदस्ती का ढूंढा गया है कि यही बचा है पहली महिला के लिए। शायद इसलिए कि महिलाओं की कामयाबी मीडिया की सुर्खियां आकर्षित करती है।
एक नेता ने निजी बातचीत में कहा था कि पहले लोग बेटे की नौकरी की पैरवी लेकर आते थे और अब बेटी की नौकरी की पैरवी लेकर आते हैं। कारण पूछा तो कहा कि परिवार छोटा हो रहा है। लोगों ने बेटी को उत्तराधिकारी के तौर पर स्वीकार कर लिया है। समाज अभी बदला नहीं हैं। औरतें आज भी सबसे ज़्यादा काम कर रही हैं। बेगार। मैं घरों में काम करने वाली तमाम औरतों,बहनों,बेटियों और पत्नियों की बात कर रहा हूं। जिन्हें लोग हाऊसवाइफ कहते हैं। आठ घंटे की शिफ्ट वाली औरतें वर्किंग वूमन कहलाती हैं। जबकि घरेलू कामगार नातेदार स्त्रियां चौबीसों घंटे काम करते हुए भी गृहणी कहलाती हैं। भ्रूण हत्या और दहेज हत्या का ज़िक्र कर मीरा कुमार के पहली दलित महिला स्पीकर बनने की बची खुची खुशी का भी ज़ायका खराब नहीं करना चाहता। कम से कम इतिहास तो बना ही है। जिस संसद ने महिला आरक्षण बिल पास नहीं किया उसने अपना अध्यक्ष एक महिला को चुना है।
फिर भी मायावती और मीरा कुमार में फर्क है। बहुजन समाज पार्टी खड़ी ही इस बुनियाद पर हुई थी कि कांग्रेस दलितों को सिर्फ पद देती है और भूल जाती है। कांशीराम ने साइकिल चलाकर आंदोलन खड़ा किया। कांशीराम ने इस तरह के संकेतवाद के खिलाफ दलितों को जगा दिया। मायावती एक दलित महिला होते हुए भी ब्राह्मणों को अपने नेतृत्व में ले आईं। यहां पहली बार कोई दलित किसी ब्राह्मण को दे रहा था। कांग्रेस में किसी दलित को दिया जा रहा है। यह तो होता ही रहा है। मायावती लोकतांत्रित प्रक्रिया के ज़रिये पीएम का सपना देख रही थीं। ये और बात है कि उनकी अपनी गलतियां और कमज़ोरियों ने उन्हें इस चुनाव में डूबा दिया लेकिन फिर भी दलितों की पार्टी को दूसरे समाज तक ले जाकर यूपी की सत्ता में चार बार पहुंचना कम बड़ी कामयाबी नहीं है। हां बहस हो सकती है कि क्या ये भी संकेतवाद नहीं है? शायद उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में मीरा कुमार का मनोनयन हैं। मायावती का सत्ता में होना दलितों को एक अलग भाव से भरता है और मीरा कुमार का स्पीकर बनना एक अलग भाव से भरेगा।
खुद सांसद होने के अलावा दलित राजनीति में इनका क्या योगदान रहा है? जब कांग्रेस के अनुसार यूपी के दलित बिना मीरा कुमार के राहुल गांधी के नाम पर पार्टी को वोट दे सकते हैं तो मीरा कुमार क्या कर लेंगी? पांच साल तक सामाजिक आधिकारिता मंत्री रहते हुए कांग्रेस को कभी नहीं लगा कि इनका राजनीतिक महत्व है या कोई यह तो बताए कि सिर्फ मंत्री रहते हुए ही मीरा कुमार ने क्या क्या क्रांतिकारी काम किए? हो सकता किये हों लेकिन तब कांग्रेस ने मीरा कुमार को क्यों नहीं पोजेक्ट किया। बल्कि इस बार तो उन्हें जलसंसाधन मंत्री बना दिया जो कम महत्व का विभाग माना जाता है। तब मीरा कुमार ने नहीं कहा कि एक दलित आईएफएस अफसर, दलित मंत्री और दलित सांसद की काबिलियत को कम आंका गया है। श्रीकांत जेना ने कम से कम विरोध की बत्ती तो जलाई।
इसीलिए मीरा कुमार तमाम चैनलों के फुटेज में किसी गांव से निकल कर अचानक एफिल टावर के नीचे खड़ी महिला की तरह भकुआई हुईं लग रही हैं। भौंचक्क का भोजपुरी रूप है भकुआना। सुर्खियां बटोरने के लिए पहली महिला,पहली ग्रामीण,पहली शहरी,पहले चाचा टाइप की कैटगरी ढूंढी जा रही है। बीजेपी भी दबाव में आ गई। लगा कि जब संकेत का ही खेल चल रहा है तो किसी पहले आदिवासी को निकालो। जिस करिया मुंडा को बीजेपी ने कभी भाव नहीं दिया,उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मकता के लिए पूछा जा रहा है। न्यायपालिका में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व के खिलाफ करिया मुंडा ने एक रिपोर्ट तैयार की थी,बीजेपी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। तमाम योग्यता के बाद भी झारखंड का मुख्यमंत्री नहीं बनाया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ज़माने में भी करिया मुंडा अपनी उपेक्षाओं को लेकर बाइट देते रहे। किसी ने मुड़ कर देखा तक नहीं। लेकिन अब पहले आदिवासी उप स्पीकर हैं। जबकि उनचास साल की उम्र में पी ए संगमा स्पीकर की कुर्सी पर बैठने वाले पहले अनुसूचित जनजाति के नेता बन चुके हैं।
सामाजिक विश्लेषण होता रहेगा लेकिन मीरा कुमार एक हकीकत बन गईं हैं। उनका शांत स्वभाव क्या पता उग्र होते सांसदों को भी धीमा कर दे और सदन का माहौल बदल जाए।
सिर्फ पद पर बिठा देने से सामाजिक चक्र पूरा हो जाता है? मीरा कुमार किसी एक की इच्छा का नतीजा हैं या लोकतांत्रिक प्रक्रिया का?
ReplyDelete___________________________
भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में आपने बेहद सार्थक मुद्दा उठाया है. दुर्भाग्य से हम लोकतंत्र और उसके मानदंडों की की खोज प्रतीकों में करने लगे हैं और यही हमारी भूल है.
भकुआई शब्द से परिचय पाकर अच्छा लगा। मीरा कुमार के सम्बंध में आपका विश्लेषण सटीक है। और हॉं, आज एनडीटीवी पर आज आपकी स्पेशल रिपोर्ट देखी, अच्छी लगी। हालॉंकि शुरू का काफी भाग छूट गया था, फिरभी कुछ तो मिल ही गया।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत कुछ सीखने को मिला।
ReplyDeleteधन्यवाद।
कांग्रेस का दलित प्रेम किसी भी दलित नेता को सक्रीय राजनीति से अलग करना ही होता है,पहली बार तो कांग्रेस या भाजपा में दलित नेताओं की उपस्थिति केवल एक मंत्रालय में सामाजिक न्याय के संदेश देनें भर के लिए होती है, जिन पार्टियों में आज भी मनुवाद जिंदा हो,वहां राहुल गांधी का किसी दलित के घर में ठहरना या मीरा कुमार को स्पीकर बनाना एक समान लगता है।
ReplyDeleteये आधुनिक मनुवाद है, जिसमें आप को सत्ता कि शक्तियों से दूर रख काम निकाला जाता है। कांग्रेस ने कोई पहली बार ऐसा काम नहीं किया, दिल्ली के अंबेडकर नगर से 44 साल से जीतते आए चौ.प्रेम सिंह को जब दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस की जीत हुई, लेकिन जब उन्हें दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत किए जानें की बात हुई तो,विधानसभा अध्यक्ष बना कर उन्हें सक्रीय राजनीति से अलग कर दिया।
कांग्रेस अपनें दलित नेताओं को न तो प्रचार के लिए उतारती है औऱ न ही दलितों से सीधे संपर्क साधनें की आज्ञा देती है। नारा आज भी वही है जिसको लेकर बाबा साहब अम्बेडकर ने विरोध जताया तो गांधीजी अनशन पर बैठ गए थे "नेता हमारा वोट तुम्हारा". बीजेपी की तो क्या कहें पहली बार किसी दलित को अध्यक्ष बनाया ओर उसी का स्टिंग ऑपरेशन करवा कर बता दिया कि आने वाले समय में कभी किसी दलित को कोई बड़ा काम नहीं दिया जाएगा।
इस विषय पर और अधिक आप मेरी पोस्ट पर पढ़ लिजिएगा।
ठीक भी है कुछ हद तक। सैकड़ों सालों से पुरुष (दर्जी दुकानों पर) कपड़े सिल रहे हैं और रोटियां पका रहे हैं (होटलों/ढाबों में)। क्या उनका मर्दाना अहं चला गया ? प्रतीकात्मकता की अपनी हदें हैं।
ReplyDeleteहमारे देश में इतनी विषमता पैदा हो गई है कि उसकी कल्पना करने के लिए हमारी बुद्धि छोटी साबित हो गई। अब खांटी दलित तो दिल्ली में मिलेगा नहीं-वो मिलेगा मीरा कुमार टाइप का-जिनके पिता 1946 लेकर(जी हां, पहली केबिनेट से)साल 1979 तक भारत सरकार के मंत्री रहे।माफ कीजिए-मेरे कहने का ये मतलब नहीं कि दलित सिर्फ 'दलित' के रुप में ही 'दिखने' और 'जीने' को अभिशप्त है। मीरा कुमार हर तरह से हिंदुस्तान के एलीट वर्ग का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं-संस्कार से भी और आचरण से भी। कुल मिलाकर ये वो दलित हैं जिन्हे कांसीराम ने कभी 'सरकारी दलित' कहा था और जिनका दलित हितों और आंदोलनों से कोई वास्ता नही।
ReplyDeleteहिंदुस्तान का हर सत्ताधारी दल और हर प्रधानमंत्री ऐसे दलितों को कलेजे से चिपका कर चलता है और ज्यादातर मौकों पर साथ-साथ फोटो खिंचवाना चाहता है। ज्यादा दिनों तक ये रोल जगजीवन राम ने निभाया था, उसके बाद इसे रामविलास पासवान ने हाईजैक कर लिया। लेकिन जब मायावती टाईप की कोई वास्तविक लेकिन अपने एजेंडे से भटकी हुई नेता इस स्थिति को चुनौती देती है तो तमाम राजनीतिक दलों को खुजली होने लगती है।
दूसरी बात ये कि अभी जो दलित-पिछड़ा और युवाओं पर आधारित संगठन बनाने का आभास कांग्रेस पार्टी दे रही है उसमें तमाम कुलीन दलित और युवा घुसपैठ कर गए हैं। शायद जिंदगी के दूसरे क्षेत्रों में भी यहीं स्थिति है-कई व्यवसाय सिर्फ परिवारों की बपौती हो गए हैं। ये नए तरह की एरिस्टोक्रेसी है-जो इंग्लैंड में राजतंत्र की वास्तविक सत्ता खत्म होने के बाद 17वीं 18वी शताब्दी में आई थी।
लेकिन इसके साथ साथ हिंदुस्तान नई करवट भी ले रहा है। मजबूरी में ही सही-कांग्रेस को तकरीबन आधा दर्जन दलितों को केबिनेट में जगह देनी पड़ी है जो शायद हाल के दिनों में या इतिहास में ही-सबसे ज्यादा है। केबिनेट में सवर्णों का दबदबा कम हुआ है। लेकिन ये अभी भी प्रतीकात्मक ही है। जमीन पर दलितों की स्थिति में सुधार के लिए कई कदम उठाने होंगे-जिसके लिए बड़े साहस और जुझारुपन की जरुरत है।
सवाल है योग्यता हो तो भी उस पद रहते योग्य काम किये जाते हैं या राजनीतिक लक्ष्य साधे जाते हैं?
ReplyDeleteउन पर इससे पहले कभी उस मीडिया का ध्यान गया कहां जो लालू की नौटंकी पर दांत निपोरता नज़र आता था...मीरा कुमार पढ़ी लिखी हैं और संभवतः राजनीति में आने से पूर्व अच्छे ओहदे पर भी रह चुकी हैं। अगर आप उनकी किन्हीं खराबियों के बारे में भी जानते हैं तो उनका उल्लेख भी करते।
बंगाली बाबू ने ही क्या परिवर्तन ला दिया इस कुर्सी पर बैठकर...हर सत्र में एक बार पद छोड़ने की धमकी वाली नौटंकी वो भी करते रहे। क्या ये कुर्सी कोई परिवर्तन लाने लायक अधिकारों वाली है भी?
"क्या कोई पद बचा है जहां कोई पहली बार न पहुंचा हो"?
ReplyDeleteशून्य से आरंभ कर अनंत तक पहुँचने वाले केवल एक ही दलित को (निराकार ब्रह्म को) ६० वर्ष के इतिहास में नहीं हिन्दू मान्यता अर्थात 'सनातन धर्म' में ढूंढ़ना होगा...सूई यदि अंधकार में खोई हो तो उसे वहां जहाँ उजाला हो ढूँढने वाले को क्या कहोगे?
ब्राह्मण, अथवा सगुण ब्रह्म केवल अनेक अटकलें लगा हार कर उसे अजन्मा और अनंत मान अत्म-समर्पण का सुझाव दे शांत हो गए...
इतिहासकार केवल सांकेतिक अक्षरों/ शब्दों और संख्या आदि से उलझते रहे और कह गए कि शब्दों से सत्य का वर्णन असंभव है, यद्यपि ज्ञानी के लिए इशारा ही काफी हो सकता है. पर 'मिस्टर बेन्जो' को शब्दों में ही ऐसा रस मिलता है कि वो सारे जगत को भुला, 'सत्य' को गोली मार भून के खा जाए - उसका बस चले तो :)
क्या इस में कृष्ण का नटखट कहलाया जाना दिखता है?
SACHIN
ReplyDeleteWELL NOW MADAM MAYAMWATI TAG HAS BEEN SHARED. SHE IS NOT ONLY MADAM. ITS MEIRA KUMAR TOO WHO HAS DEFEATED HER IN 1985 IN BIJNOR . IN 15th LOKSABHA SHE HAS BEATEN HER TOO. MEIRA WAS A CABNIET MINISTER LAST TIME BUT SHE HAS A PROBLEM THIS TIME IN HER CONSTITUENCY WHILE CONGRESS IS FIGHTING ALONE IN BIHAR JUST LIKE UTTARPRADESH. SO HER WINNING WAS ALSO A QUESTION. CONGRESS WIN TWO SEATS OUT OF 40. AND THIS LADY IS ONE OF THEM. WHILE AFTER THE RESULT MAYAWATI WAS THINKING WHAT TO DO MADAM MEIRA WAS ALL SET TO BE A PART OF CABINET. SHE TOOK OATH TOO. SHE WAS GIVEN MINISTERY CHARGE AS WELL. BUT IN THE LAST MOMENT CONGRESS THINKTANK THOUGHT OTHERWISE. BJP SHOULD BE GIVEN SOME CREDIT FOR THIS.IF THEY HAVE NOT THOUGHT FOR SUMITRA MAHAJAN AS DEPUTY.THIS MIGHT NOT HAPPEN. SOME SAYS ITS CONGRESS MASTER STROKE WHILE GIVING CONGRESS A LIFE IN UP AND BIHAR. IT WILL REMAIN TO BE SEEN WHAT EFFECT THIS WILL DO. COGNRESS GOT DALIT VOTE IN UP THIS TIME AS WELL AND ITS RAHUL BABA CREDIT TO GO FOR DINNER AND NIGHT STAY IN THEIR KUTIA. AS IF LORD RAM HAS CAME AND WENT TO MEET SOCIAL DOWNWARD PEOPLE. WELL.
ONE CAN SEE THIS AS A BEAUTY OF DEMOCRACY AND DEMOCRACY BEST DEFINITON SEEMS TO BE TRUE IN INDIA. QUESTION REMAIN TO BE SEEN WHETHER HER PERSENCE ON THIS CHAIR CAN DO SOMETHING BEETER IN THE LIFE OF DALITS OR THEY WILL REMAIN TO BE DEAL AS VOTE CARD.
मायावती की बीएसपी जैसे दल समाज में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं लाते। वे केवल मौजूदा शासक वर्ग की सरकार से दलितों के लिए कुछ पद और कुछ रियायतें दिलवा पाने में सफल होते हैं और फिर इतिहास के गर्त में खोकर संग्रहालय की वस्तु बन जाते हैं।
ReplyDeleteyah congres hai raveesh bhai.iske rajneetik khel se ham sabhi vakif hai.jati-pati.ghaplo-ghotolo.dharm ka rajneeti me istemal"kameeshankhori -bhrastrachariya ki janamdatri.karporet hito ki sarvsershth posk.aaj bhi sabhi tabko ke hito ki kshadam poshak banne ki apar kushalta hashil hai use .aap ka visleshan theek hai 'parantu meera kumar bhakua gaee hai sayad theek nahi hai, kyoki hame nahi bhoolna chahiye ki vo cogresi sanskriti me hi paida huee aur pali badhi hai, Cogres ko usi ke khel se mat dena; bahut hi muskil hai.cogres prateeko mukhaoto ke khel me sabse mahir parti hai. uski katimandar loktantrik rajneeti me hisambhav hai
ReplyDeleteबढिया लिखा है।
ReplyDeleteRavish Ji
ReplyDeleteCongress ne meera kumar ko dalit neta ke roop mein jitna project nahi kiya usse jyada to media walo ne kar diya. Ekke Dukke ko chod de to aisa lagta hai election ke bad need mein doobi media ko meera ne jaga diya hai. Kya rajnitic faislon ko samajic pahloan se jorna jaruri hai.
Ravish Ji
ReplyDeleteCongress ne meera kumar ko dalit neta ke roop mein jitna project nahi kiya usse jyada to media walo ne kar diya. Ekke Dukke ko chod de to aisa lagta hai election ke bad need mein doobi media ko meera ne jaga diya hai. Kya rajnitic faislon ko samajic pahloan se jorna jaruri hai.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकांग्रेस मीरा कुमार को स्पीकर बना कर इतना इतरा रही है कि जैसे उसने देश भर के दलितों का उद्धार कर दिया हो....हालांकि मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं कि मीरा कुमार के नाम पर दलित शायद ही कांग्रेस को वोट दे....और मुझे तो लगता है कि देश के 80 फीसदी दलित शायद ही मीरा कुमार के नाम से परिचित हों....
ReplyDeleteआज शायद पहली बार आपसे पूरी तरह सहमत हूं....और पोस्ट भी बेहतरीन है.....
औपचारिक स्तुति गान -वाह !क्या लिखा है वाकई आप गजब के बुद्धिजीवी हैं !!एकदम सटीक लेख !!!
ReplyDeleteटिप्पणी -
1)वाह क्या बुद्धिजीवी लोग हैं ,जातिवाद में धंसकर जात पात गिन गूथ रहे हैं . जब बुद्धिजीवी लोग का इ हाल है तो हमरे जैसन देश के बुद्धूजीवी वर्ग का का हाल होगा ??!.
दलित ब्राह्मण के खींच तान से ओत प्रोत आपके लेखों को पढ़ कर मुझे भी मनुष्य जंतु से दलित प्राणी होने के लिए जी ललच रहा है .
मायावती आ लालू के हार जाने से हमरा भी दिल चकनाचूर गया है .
2) निश्चित रूप से पार्टियों के प्रतीकात्मक खाना पूर्ती एक तरह से ठगी का काम ही है .
योग्य को उचित स्थान जरूर मिले पर प्रमोशन आ सैलरी का वास्ते हमेशा नोचा-नोची छीना-झपटी का असंतोषी स्वाभाव छोटापन है .
आप बताएं कि मीरा कुमार का कौन सा आचरण या अवगुण स्पीकर पद पर पदासीन होने के अनुकूल नहीं है ?
3) अशिक्षा के कारण अपने देश में तो जन समर्थन व लोक समर्थन कभी कभी दंगा -फसाद कर्मी और भ्रष्ट सज्जन व बाहुबली सज्जन को भी मिल जाता है .लोकतंत्र और दलित के नाम पर इन्हें घोटना सेहत के लिए ठीक न होगा .
jaisa ki lalu yadav haar kar bhi yadavo ka ppartinitava karte hai or sharad yadav jeet kar bhi Nitish ke chamache lagate hai.
ReplyDeleteयदि बचा हो तो कांग्रेस को बता दो, वो इस पद पर किसी नारी को बैठा देंगे और ‘प्रथम बार’ का गौरव कांग्रेस के खाते में होगा:)
ReplyDeleteप्राचीन भारत में स्त्री को शक्ति (अर्धनारीश्वर का बाम-अंग, सती) का प्रतिरूप समझा. सिक्के के दो चेहरे समान, माँ काली (लाल जिव्हा वाली) को - जो शिव के हृदय में निवास करती हैं - एक भयावह रूप में प्रस्तुत किया और दूसरी और माँ गौरी, अष्ट-भुजा धारी - शिव की दूसरी अर्धांगिनी - को पालनकर्ता के रूप में...
ReplyDeleteइस प्रकार अपने पुरातन काल में यदि थोडी सी गहराई में जाने से शायद यह समझना संभव हो कि मायावी श्रृष्टि-करता को शक्ति रूप में समझा ज्ञानियों ने. और निराकार होने के कारण, यानि शून्य काल और स्थान से सम्बंधित होने के कारण निर्गुण नादबिन्दू भी...
ब्रह्माण्ड को आधुनिक खगोलशास्त्री भी एक अंधकारमय महा शून्य जैसा ही पाते हैं...और मानव को इसका प्रतिरूप समझा गया, इसलिए प्राचीन ज्ञानियों ने कहा कि जो बाहर है वो ही सत्व के रूप में भीतर भी विद्यमान है - जिसको (दलित को) हम और आप बाहर खोज रहे हैं वो आपके भीतर ही है :)
लेकिन भीतर अंधकार व्याप्त है (सिनेमा हॉल समान) जिस कारण मन रुपी बत्ती जलानी आवश्यक है मन कि आँख से उसे खोजने हेतु...कहते हैं नैनहीन सूरदास के लिए यह संभव हो पाया!
तथाकथित आधुनिक 'बुद्धिजीवी' क्या यूँही अँधेरे में भटकते रहेंगे या थोडा प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे? वैसे भी काल घोर कलियुग में समाने जाता प्रतीत होता है...और आरंभ में 'समुद्र मंथन' से विष ही पैदा हुआ था, जिसे पीने की सामर्थ्य केवल शिव में ही है...लेकिन वो घोर समाधी के लिए विश्व विख्यात है, कामदेव और भस्मासुर को जला चुके है. इस कारण 'माँ' की शरण ही सुझाते ज्ञानी लोग (योगी, सिद्ध पुरुष आदि कुण्डलिनी जगाने की सलाह दे गए)...
जय माता की :)
महिला आरक्षण बिल के विरोध में मुलायम सिंह यादव का तर्क याद आ गया कि मीरा कुमार और सोनिया गांधी क्या आरक्षण के बूते यहां तक पहुंची हैं ?
ReplyDelete24 घंटे काम करने वाली 'गृहणी' की ओर ध्यान आकृष्ट करना अच्छा लगा।
महिलाओं को पद देकर सम्मान करना अच्छी बात है, लेकिन यह शुरुआत तब हुई जब उपाध्यक्ष पद के लिये किसी महिला का नाम सामने आया, पहले तो किसी पुरुष का नाम ही चर्चा में था, बाजी मारने की राजनीति में कम से कम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सदन को संभालने का मौका एक महिला को तो मिला। सामाजिक चक्र पूरा हो जाने वाली बात सटीक लगी।
ReplyDeleteवैसे अब आजादी के ६० साल बाद भी दलित, पिछड़ा आदि-आदि की राजनीति बंद होनी चाहिये।