जब से पत्रकारिता से दूर गया हूं, एक भूतपूर्व पत्रकार की तरह राजनीतिक ख़बरों को लेकर बेचैनी हो रही है। पिछले कई दिनों से बिहार के पत्रकारों,विद्वानों,जातिवादी नायकों और रिश्तेदारों को फोनिया रहा हूं। बाबा जी लोग गुस्सा में है। राजपूत लोग कबाड़ देगा। नीतीश के साथ सिर्फ भूमिहारे बच गया है। फलां सीट पर मियां जी बंट गए हैं और पंडी जी का सीन बन रहा है।
किसी ने कहा अभी सिनेरियो बना नहीं है। बिहार के लोगों के राजनीतिक विश्वेषण में सिनेरियो और माइनस फैक्टर का ज़िक्र खूब आता है। सारा भाषण देने के बाद भाई साहब लास्ट में माइनस फैक्टर भी बताते हैं। देखिये उनके साथ माइनस फैक्टर ये है कि कंडीडेट के मामले में कमज़ोर पड़ जाते हैं। जात तो है साथ में लेकिन नीतीश का सपोर्ट नहीं है।
बिहार को इस बार फैसला करना होगा। जाति के साथ जाना है या विकास के साथ रहना है। केंद्र की राजनीति में लालू ने तथाकथित रेल की कामयाबी का झंडा गाड़ा है। हावर्ड वाले भी आके देख गए हैं। नीतीश ने तथाकथित स्टेट लेभुल पर विकास का काम किया है। सब विकास की बात कर रहे हैं लेकिन सेटिंग जात के आधार पर कर रहे हैं। यह एक बड़ा और रोचक सवाल है कि बिहार की पब्लिक लोकल भर्सेस नेशनल में कास्ट का क्या करती है।
इसके लिए यह भी देखना होगा कि विकास की राजनीति के साथ नीतीश के अति दलित और अति पिछड़े की राजनीति की चर्चा क्यों हो रही है? क्या नीतीश विशुद्ध विकास की राजनीति करने में नाकाम रहे? या फिर उनसे इतना परफैक्ट उम्मीदीकरण उसी तरह की नाइंसाफी है जैसे टीवी के लखटकिया पत्रकारों से पत्रकारिता की उम्मीद। नीतीश क्यों कहते हैं कि कास्ट फैक्टर है। वो क्यों एक झूठा महादलित आयोग बनाने निकले? वो जाति के हथियार से काउंटर कर रहे थे। पासवान और मायावती को। एक नेता के तौर पर उनको यही करना भी चाहिए था लेकिन क्या सिर्फ इसी वजह से बाबाजी लोग एंटी होकर घूम रहे हैं। हो सकता है कि सब अनालिसिसि सही हो लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इसके आगे की तस्वीर नहीं देख पा रहे हैं?
पिछले विधानसभा में क्या जातिगत गठजोड़ की जीत हुई थी? क्या उसमें जाति से ऊपर उठकर विकास के लिए फैसला नहीं था? कुछ हद तक था लेकिन विकास का एजेंड़ा तभी जीत पाया जब एक खास तरह का जातिगत गठजोड़ बिखरा था। लालू और पासवान अलग हुए थे। अब दोनों एक साथ हैं। लालू की रेल छवि है। पासवान की सेल छवि है। सेल पीएसयू कंपनी का नाम है। रेल सेल मिलकर नीतीश को ठेल देना चाहते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत कहते हैं कि बिहार को तय करना होगा। जाति के साथ जाना है या विकास के साथ। एक पत्रकार ने कहा कि जादो जी टाइट है। सत्ता से हटने के बाद समझ में आ गया है कि विकास के साथ जीना और पावर के बिना जीना अलग बात है। बेतिया में साधू यादव के साथ जादो जी और कान्यकुब्ज बाबाजी मिलकर प्रकाश झा की घंटी बजा देगा। बिहार के जितने लोगों से बात करता हूं, सब कहते हैं कि कानून व्यवस्था के मामले में काफी सुधार है। विकास के नाम पर कई जगह काम हो रहे हैं। तो क्या इस पर वे फैसला करेंगे। जवाब निश्चित हां में नहीं मिलता। लोग यही कहते हैं देखिये का होगा। कुछ कहते हैं नीतीश भी जात पात की पोलिटिक्स क्यों कर रहे हैं? लालू पासवान और नीतीश सब वही कर रहे हैं। एक सज्जन ने कहा कि किसने कहा है कि जात पात पर जीत कर आए सांसद या बनी हुई सरकार विकास के काम नहीं करते? फिर बात बात में जाति को लेकर क्यों गरियाते रहते हैं? इ तो कंबिनेशन है न भाई जी। हर जीत में कंबिनेशन बनता है।
तो फिर पब्लिक के पास क्या विकल्प है? जाति के हिसाब से वोट देने का या विकास के नाम पर? बिहार पर मेरा यह लेख कंफ्यूज़िग है? जिससे भी बात करता हूं वो कंफ्यूज़ है। बाबाजी इसी बात से नाराज़ है कि नीतीश ने एक्कोगो बाबाजी जी को टिकट नहीं दिया। ये कौन सी नाराज़गी है भाई? क्या बाबाजी भी यही चाहते हैं कि नीतीश जात पात की राजनीति करें? और क्यों न चाहे जब नीतीश एमबीसी की राजनीति कर सकते हैं तो बाबाजी की क्यों न करें? लेकिन बाबाजी ने पिछली बार क्या विकास के लिए नीतीश का साइड नहीं लिया था या फिर विकासहीन बिहार से कम बाबाहीन बिहार से ज़्यादा पीड़ित थे?
जाति हमारे लोकतंत्र की धुरी रही है। इसकी भूमिका न होती तो अन्य जातियों का लोकतंत्र में स्टेक न बढ़ता। जाति ने लोकतंत्र को गतिशील बनाया है। कई तरह के समीकरण जो बनते हैं वो जात को लेकर ही बनते हैं। जाति हटा दें तो इलेक्शन सिंपल हो जाएगा। तब तो कोई ओबामा भी मोतिहारी से जीत जाएगा। अभी तो ओबामा के पांचो गो भोट न मिली। बाबा जी न ठाकुर न बनिया,चलले ओबामा लड़े पूर्णिया। लेकिन फिर जार्ज फर्नांडिस किस जात के दम पर मुज़फ्फरपुर से जीतते रहे हैं?
शायद हम इसलिए भी कंफ्यूज़ हो रहे हैं कि हम जनता के फैसले से नतीजों को जान लेना चाहते हैं। सिनेरियो को नहीं समझना चाहते। आज सुबह एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि सिनेरियो बनने दीजिए। चार पांच रोज़ लगेगा। लेकिन सीट का नंबर मत पूछिये। अगर राजनीति को समझना है तो सिनेरियो को पकड़ना होगा। तो आप लोग सिनेरियो बताइये। देखिये और वेट कीजिए कि बिहार की जनता जाति के साथ जाती है या विकास के साथ। तो तीन चार शब्द है बिहार की पोलिटिक्स को समझने के लिए। माइनस फैक्टर, सिनेरियो, कंबिनेशन, कंडिडेड आदि।
बिहार की राजनीति में पिछले दो दशकों के बद्लालाब इस बात की पुष्टि करते हैं की यहाँ की राजनीति पूरी तौर पर बदल गयी है. ऐसा नहीं लगता है की निकट भविष्य में बिहार के राजनैतिक शीर्ष पर कोई बाबाजी , राजपूत या भूमिहार आसीन हो पायेगा.और वह बिहार को बर्बाद करे या फिर इसका विकास , यह सवाल है. इन जातियों से इतर जातिगत समूहों के सामुदायिक मानस पटल पर साठ , सत्तर और आठवें दशक के लम्पटई और नग्न जातिवादी और भेदभाव का खेल और उसकी स्मृति बरकरार है .हाँ बिहार के लोकतंत्र या लोकतंत्र के बिहारी संसकरण की यह विकृत परिणति सरे बिहारियों के लिए त्रासद है .पर इसी करना से तो यह कहा जाता है की इतिहास और सामुदायिक स्मृति बहुधा निर्णायक भूमिका में होती है.
ReplyDeleteरविशजी ,बिहार पर इस लेख के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें.
जो भी होगा, चुनाव बाद सामने आ ही जाएगा।
ReplyDelete-----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
कुछ नहीं कह सकते बिहार के बारे में अपनी जानकारी बहुत उथली है।
ReplyDeleteदरअसल इस रेल सेल ठेल के चक्कर में ही आम बिहारी भी ठेला गया है...और ठेलाते ठेलाते कहां- कहां नहीं पहुंच गया...या पहुंचा दिया गया...रवीश जी आप कनफ्यूज़ हुए तो कोई अजरज नहीं..उसी मटिया के त आप है ..दरद एतना भीतरिया है...और घउवा के खखोरने वाला लोगवा भी अपने है..दरद नहीं सहा जाता...आउर खखोरने वाला को दुरदुरा भी नहीं पा रहे है..हम सब कुरूक्षेत्र में बुड़बक बन कर खड़े वही अर्जुन हैं जो लड़ने तो जाता है ..पर हर दुश्मन उसे अपना ही नजर आता है..जाति के नाम पर बांटने वाले हमारे घर के, नाते के, हमारे ही गोतिया हैं...कृष्ण बने नेता अब मसखरे लगते हैं...या बहरूपीये..पर उनका असल रूप देखने के लिए जिस दिव्यद़ष्टि की जरूरत है..वो बिहारियों को मिला ही नहीं.. जिनको मिला वो मजबूरियों का पट्टा आंखों पर बांध धृतराष्ट्र बने हुए है...कुछ बाहुबली नंपुसकों माध्यम से मारे जाने वाले द्रोण है..जो चीर हरण के प्रत्यक्षदर्शी भी बनते हैं..और कौरवों का साथ भी देते है...बिहार का महाभारत किसका महाभारत है....समझ में नहीं आता ...कन्फ्यूज़न तो हमरो मुड़िया में है...पर एगो फैक्ट किलियर है.. लड़ईया के बाद जो भी ठेला कर मैदान में गिरेगा उ वहीं बिहारी होगा ..जिसका घर कोसी लील गई..और दिल्ली की सड़कों पर जीवन को ठेल रहे है
ReplyDeleteटिकट नहीं मिलने का दर्द सिर्फ चैनल पर ही नहीं "ब्लॉग" पर भी नज़र आया ! लेख बहुत ही बढ़िया है ! लालू राज में बाबा जी लोग भूमिहार के लाश पर बैठ के जादो लोग के दूध का मलाई खाया है -तो हर वक़्त सावन भादो नहीं होता , न !
ReplyDeleteNitish babu ke pas mauka hai ki Bihar mein we kisi jati nahi balki sachmuch ke vikas purus banein. jtiwadi rajaniti ko aaj tak koi viklap diya hai--pratiyoan or netaoan ne? job viklap hi nahi rahega to jati-dharma loktantra ki dhuri sabit hoga hi!
ReplyDelete