अख़बार का एक पुराना कतरन मिल गया। मनोहर श्याम जोशी का एक बयान छपा था। गंभीर लेखन से व्यंग्य को नुकसान पहुंच रहा है। पता नहीं इस कतरन को क्यों मैं दस साल से संभाल कर रखा हुआ था। मेरे भीतर कभी कभी गंभीरता की पैकेजिंग को लेकर चिढ़ मचती रही है,हो सकता है इस कारण से मैंने कतरन संभाल रखा हो। अक्सर हम यह समझते हैं कि गंभीरता से समाज का भला हो रहा है, साहित्य का भला हो रहा है। लेकिन बकौल जोशी जी गंभीर लेखन ने तो व्यंग्य लेखन में डेंट मार दिया है। जबकि गंभीर युक्त साहित्य रचने वाले लोग यह समझते हैं कि उनकी गंभीरता से विचारोत्तेजक( कामोत्तेजक नहीं) विचारवासना पनपती है जिससे समाज में सुधार पैदा होता है। गंभीरता के हर आकार प्रकार का विरोध होना चाहिए। है ऐसा कोई माई का कार यानी साहित्यकार जो बिना चेतना के रच दे। वह रचना में चेतना चाहता है। वाह,मंगल की बजाय साहित्य में लाइफ़ की तलाश। दिलचस्प है। अंबेडकर को भी संविधान साहित्य का पहला वाक्य यही लिखना चाहिए था- हम भारत के सीरीयस लोग।
ग़लती हमारी भी कम नहीं। हम गंभीर लेखन को इतना सीरियसली लेते क्यों हैं? नहीं लेते हैं। गंभीर पाठक पढ़ने के बाद उसका छिछालेदर कर देते हैं। दो चार दोस्त न हों तो गंभीर लेखन के समर्थन में टिकना मुश्किल हो जाए। मेरी राय में गंभीर लेखन को भी व्यंग्य की गंभीर विधा के रूप में देखा जाना चाहिए। पढ़ कर हंस दिया जाए कि भाई अपना दुनिया बदलना चाहता है। मुफ्त में बिना कुछ किये धरे चाहता है कि वो जैसा चाहता है वैसी हो जाए दुनिया। जबकि उसे यह पता ही नहीं होता कि आखिर दुनिया वैसी हो ही गई तो वो कैसे रिएक्ट करेगा। कभी आप गंभीर लेखकों ने सोचा है कि अगर दुनिया आपकी तरफ हो गई तो आप क्या करेंगे? सन्यास लेंगे क्या? भई अपना तो काम हो गया। दुनिया बदल गई। मेरा आइडिया चल गया। अब हरिद्वार जाकर वहां फ्लैट खरीद कर ईश्वर के बुलावे का इंतज़ार करूंगा। जोशी जी इस बात को नहीं समझ सके।
दोस्तों भगवान लोग भी यह नहीं समझ सके। कितने ऐसे प्रसंग है जब असुरों ने तप करना शुरू किया तो गॉड लोग डर गए। टेंशन में आ गए कि भई ये राक्षस क्यों तप कर रहा है? क्या इरादा है इसका? आय मीन इंटेशन। फिर क्या होता है? देवतागण या कहें तो गॉडगन राक्षसों की तपस्या भंग करने लगते हैं। क्यों भई? आप तो यही चाहते थे कि दुनिया तप करे, सत करे। फिर क्यों टेशन भई। एक बार कुछ ऐसा ही हुआ इंद्रलोक में। ( कहीं ग़ाज़ियाबाद वाला आज का इंदिरापुरम तो नहीं) । असुर तप कर रहे थे। इंद्र और अन्य देवता शिव से रिक्वेस्ट करने पहुंच गए। कहा कि आप एक ऐसे जीव की रचना कीजिए जो दैवी. शक्तियों का अनुचित प्रयोग करने वालों की राह में रोड़े अटकाए। और शिव ने गणेश की रचना की। बताइये भला। कल रात ही गणेश की कथा पढ़ रहा था। समझने के लिए क्यों मेरे दफ्तर की लड़कियां गणेश को क्यूट कहती हैं,सोसायटी के बच्चे लिटिल गणेशा का नाम सुनते ही झूमने लगते हैं। देखा भगवान ने गणेश की रचना की सीरियस काम के लिए। और हमने इस्तमाल कर लिया फन या मज़े के लिए। ऐसा नहीं भक्ति पर असर पड़ा। भक्ति तो गंभीर रूप में भी वही थी और व्यंग्य रूप में भी वही है। गणेश रेलवेन्ट बने हुए हैं।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते। हम गंभीरता को लेकर इतना लोड क्यों लेते हैं? गंभीरता ही व्यंग्य है यार। पढ़ो और हंसो। मैं आज कल कई गंभीर लोगों से टकरा जाता हूं। देश का इतना लो़ड ले रखा है कि मिलते ही घबराहट होने लगती है। सोचता हूं जब इसको इतना टेंशन है तो मनमोहन सिंह को केतना होगा रे। तभी कहूं कि गंभीर लोग निश्चिंत क्यों लगते हैं? मनमोहन सिंह की तरह बाहर से। भीतर से तो बेचैन होते ही है। नहीं होते
गम्भीर लेखन बिल्कुल न हो, तो मेरे विचार में केवल व्यंग या हँसी मज़ाक से भी दिल ऊब जायेगा. थाली में विभिन्न पकवान हों तभी भोजन का आनंद अधिक आता है. :-)
ReplyDeleteहा हा हा. अन्तिम पंक्ति पढ़कर गुलाम अली की का गजल याद आ गया,
ReplyDeleteतुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो...क्या गम है जो छुपा रहे हो
हां बिल्कुल सहि बोले रविश जी. हम लोग हमेशा टेन्शनियाये रहते हैं. वैसे कभी कभी दरवाजे कि घन्टी टाइप पोस्ट सिरीयस माहौल को हल्का बना देता है.
ReplyDeleteगंभीरता ही व्यंग्य है यार। पढ़ो और हंसो।
ReplyDeletehasya mev jayte !!
Her sikke ke teen chehre hote hain: Manushya (aam aadmi) do hi dekh pata hai. Birle hi, athva ‘Buddha’ hi, nirguna madhya-marg apna sake hain. Bhagavad Gita mein unhein stithapragya kaha gaya hai (wo Ishwar, nirakar ‘shakti’ ko, sab sakar mein ‘tapasya’ se dekh pate hein, aur tabhi her samaya param-anand ki anubhuti kar sakte hain :-)…Yogiraja Krishna yeh bhi kah gaye ki unhein her koi pa sakta hai…(‘but, terms and conditions apply’:-) Shesha Bhagavad Gita se janiye aur pehle ‘manas-manthan’ kijiye – her koi janata hai ki pani mein mathni ghumane se makkhan nahin nikalta :-)
ReplyDeletePunash. Ravishji, savdhan; Kali Yuga (Andhergardi ke Kal) mein ‘Bharatiya’ itni tarakki ker gaya hai ki ‘urea’ aur ‘detergent’ se bhi doodh banane laga hai (Channel walon ke nitya naye rahasyodhghatan ke liye dhanyavad :-) Aur maza yeh hai ki phir bhi concrete ke jungle roopi shahar mein aadmi vishpan ker hara bhara ho raha hai :-) Yeh Ishwar ki tathakathit maya to nahin? :-)
ReplyDeleteरवीश जी आपके लेखन की कायल हूं। पत्रकारिता से इतर, आपके लेखन में संवेदनाएं किसी मंंझे साहिित्यक लेखन की तरह गुंथी होती हैं। आपकी हालिया पोस्ट ब्लॉगजगत के इन अजीब से दिनों में ठंडी हवा का झोंका बन कर आई है। बेेहतरीन है।
ReplyDeleteravish ji namaskar
ReplyDeletesir krpya aap mera blog bhi link road me shamil kar le.
mera blog hai
www.merajugad.blogspot.com
sushil raghav
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसीरियस बात है। पढ़कर हंस दिये।
ReplyDeleteAre yar lekin tum kyun itne serious hue ja rahe ho.... cool yaar :)
ReplyDelete