मुझे अंधेरे मुँह उठने की आदत उन्हीं से लग गई होगी । नदी से नहा कर लौटते, अड़हूल का फूल तोड़ते और पूजा करते ही देखा है । भारी पुजेरिन । यहाँ जल चढ़ाया वहाँ दो फूल रख दिये । कोई मिल गया तो मिश्री के दो दाने प्रसाद के पकड़ा दीं । जाने कितने नाती पोते और बेटियों के लिए मन्नत माँगी होगी । दिन भूखी रही होंगी । बड़की माई का जीवन बहुत ही बड़े परिवार को पाल कर बड़ा करने में गुज़रा है । हर किसी की याद में वे किसी न किसी रूप में हैं । मेरे बाबूजी से लेकर जाने कितने देवरों ने उनकी गोद में खेला होगा । सबका जन्म उनके आने के बाद ही हुआ । घर की कितनी औरतों ने उनके पाँव छुए होंगे लेकिन बड़की माई को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा । मेरी माँ की जीजी हैं बड़की माई ।
हमारे बाबूजी को शायद बहुत प्यार करती हैं । हर दूसरी लाइन में अपने दुलारे देवर को याद करती रहती हैं । वो कितना छोटा था मुझसे पहले दुनिया से चला गया । देवर था तो यहाँ ले गया वो दिखा दिया । देवर ने ही ये ख़रीद दिया वो खिला दिया । देवर था तो मेरा शान था । काश कि उनकी बातों को भोजपुरी में ही लिख पाता लेकिन कई लोग समझ नहीं पायेंगे । बाबूजी को भी किसी ग़ुस्से के क्षण में अपनी भौजी को बोलते नहीं सुना । कभी बोला होगा तो मुझे जानकारी नहीं । लेकिन बड़की माई अपने देवर को जिस निश्छलता से याद करती हैं उसे देखने का सुख विरले हैं । छठ के दौरान जितनी बार टकराया बस देवर की बात । " आज हमार देवर रहते त उ कोरा( गोद) में उठा के गाड़ी में बइठा देते । " जीप से किसी तरह उतार कर घर के भीतर ले जाते वक्त कुछ ऐसा ही बड़बड़ा रही थीं । तुमलोग आते रहो यहाँ । उनकी आत्मा यही हैं ।
भले रहो, खूब ढंग से जीयो । भगवान ठीक से रखें तुम लोगों को । यही दुआ हमें देती हैं , यही दुआ सबको देती हैं । अपने अनगिनत नाती पोतों को भी । तमाम बेटियों और दामादों को भी । बड़किया को कभी किसी से माँगते चाहते नहीं देखा है । कभी किसी से माँगा नहीं । न खाने की इच्छा जताई न पहनने के लिए कुछ माँगा । उनकी बेटियाँ बहुत सक्षम हैं और नाती पोते बहुत लायक । ज़रूर ही वो लोग बड़की माई को कलकत्ता मुंबई अमरीका ले गए होंगे । मैंने पूछा नहीं पर मेरे बाबूजी का नाम खूब जपती रहीं कि वो उनको हरिद्वार ले गए थे । जिसने भी दिया है बड़की माई को, जितना दिया नहीं उससे कहीं ज़्यादा उन्होंने सबको आशीष दिया है । याद रखा है । कुछ भी दे दीजिये बड़की माई उतना ही आशीर्वाद देंगी जितना सबको देती आईं हैं । जीते रहो, ख़ुश रहो । नाती पोता हो । बेटा हो । पर अब बेटियों को भी आशीर्वाद देने लगी हैं । मुझे कहा भगवान करे तुम्हारी बेटियाँ कलक्टर बने । बेटा बेटी कुछ नहीं होता है । वर्ना तो बेटे के अलावा, खैर । बार बार कहती रहीं देखना बेटियाँ कमाल करेंगी । वक्त अपने आप बदल देता है ।
बाबूजी के सबसे बड़े भाई हमारे बड़का बाबूजी । दोनों भाइयों के मछली ख़रीदने और खाने के क़िस्से मशहूर हैं । तमाम झगड़ों के बीच बाबूजी ने जब भी मछली ख़रीदा अपने भइया के लिए भी ख़रीदा । बन गई तो उसमें से भी मछली भैया को भिजवा देते थे । कुछ तो था दोनों के बीच जो आज भी बड़का बाबूजी की बातों से झलक जाता है । इस बार छठ में गाँव आए तो सबसे पहले अपने दिवंगत भाई की तस्वीर साफ़ कराई । नाती से कहा पहले साफ़ करो तब खायेंगे । बेहद कमज़ोर और बच्चे से हो गए हैं बड़का बाबूजी । सबको पहचान भी नहीं पाते लेकिन वाॅकर से चल चल कर बाबूजी की तस्वीर के पास जाकर देखते हैं । माले को इस तरह से हटवाया कि उनका चेहरा दिखता रहे । वो बोल नहीं पाते हैं मगर पता नहीं अपने छोटे भाई को कैसे मिस करते होंगे । उनके पास हम जैसों की तरह बोलने की शैली नहीं है मगर जब मेरे ही सामने किसी से तस्वीर से माले को किनारे करने को कहा तो इस प्यार को देखकर कलेजा फट गया । क्या है दोनों के बीच । क्या था ? था तो ज़िंदा रहते क्यों नहीं दिखा या हम समझ ही नहीं पाए ।
वही हाल बड़की माई का । कोई उनके सामने देवर की शिकायत करके देख ले । बाबूजी भी हम सबसे दूर अपने भैया भौजी को मिस करते ही होंगे । बड़का बाबूजी की आवाज़ में मेरे बाबूजी की आवाज़ ज़िंदा है । सुनकर सिहर जाता हूँ । ख़ून इसे कहते हैं ।बस यही अपना होता है क्या ? उनकी बहू ने बताया कि जब प्राइम टाइम आता है तो टीवी खोल देती हैं । अम्मा जी देख लीं राउर भतीजा आवतारे । बता रहीं थीं कि पूरे शो के दौरान बड़का बाबूजी मेरे बाबूजी को याद कर देखते रोते रहते हैं । बड़की माई मुझे देखकर रोती रहती है और वही आशीर्वाद देती रहती हैं । गाँव में मिलीं तो कहने लगी कि शिकायत है । मैं ठिठक गया । बोली कि जब तुम टीवी में दिखते हो तो हम तुमसे इतना बात करते हैं । खूब बात करते हैं और तुम खाली उन्हीं लोगों से बात करते रहते हो । थोड़ा हमसे नहीं बात कर सकते । उफ्फ । जान निकल गई मेरी । मैंने बड़की माई को टेक्नालजी नहीं समझाईं । बस कहा कि हाँ बात करना चाहिए । ग़लती हो गई ।
ज़िंदगी में वक्त कम पड़ जाता है । हम सब जब परिवार और घर छोड़ कर अपने जीवन की तलाश में दिल्ली मुंबई आ गए । न जाने कितनों ने अपनी किसी बड़की माई के साथ रहने का वक्त गँवा दिया । माँ बाप के साथ रहने जीने का वक्त गँवा दिया । बड़की माई थोड़ी और बड़ी हो गईं हैं । बूढ़ी हो गईं हैं । पता नहीं क्या क्या बोलती रहती हैं । देवर पहले क्यों गया । भगवान हमको क्यों नहीं ले गए । बड़की माई तुम सचमुच सबकी बड़की हो । हमने तुमको हमेशा बूढ़ी माई के रूप में देखा मगर तुम हमारी यादों में बिल्कुल जवान हो ।
आँख में पानी भर आया.. ऊपर वाला, बड़की माई को अच्छी सेहत से नवाज़े...बस अब और कुछ नहीं लिखा जा रहा।
ReplyDeleteहमरे बड़की माई नाइ बाटीं साहेब।।
ReplyDeleteमेरी माताजी ही सबकी बड़की माई हैं।
आप का यह लेख मेरे लिए इसलिए ख़ास है सर क्यूँकी यही पारिवारिक भावनात्मकता मैं अपने परिवार में पाता हूँ। .......मछली प्रसंग छोड़कर! :)
खैर आप बड़के बाबू जरूर लगते हैं मुझे रोज नौ बजे रोज!!
मुझे भी अपने याद आ गए. मेरे बाबूजी,माई, चाचा अब नहीं हैं. लेकिन बड़की माई अभी भी हैं.
ReplyDeleteमैं तो उन्ही के साथ रहकर बड़ा हुआ हूँ. कितनी समानता होती थी पहले के संयुक्त परिवार में. आँखे नम हो आयी
न जाने कितनी बार पढ़ चुका हूँ । न जाने कितनी बार और पढ़ँूगा । कुछ कहना चाहता हूँ । पर भरे मन और खाली साँस के बीच, सब कुछ खोलखला लगने लगता है । ज़िन्दगी पूरी होती रहती है और हम अधूरे होते जाते हैं। हर किसी की एक बड़की माई होगी, हर कोई किसी का दुलारा देवर होगा । हम सामूहिक रूप से कितने अकेले हैं !
ReplyDelete:)
ReplyDeleteसुबह-सुबह रुला दिया, आपने.
ReplyDeleteक्या लिखा है आपने रवीश जी. आंख भर आये. नौकरी के खातिर ह्म bahut se लॉग apne गांव chorkar दिल्ली, मुंबई आए हुए हैं. हैम sab apni परिवार को bahut याद करते हैं.
ReplyDeleteरवीशजी आपकी बातों ने तो रुला दिया...सभी लोग जो घर से दूर दाना-पानी की तलाश में रहते हैं..वो दिल से महसूस तो करते हैं लेकिन शब्दों में बयान नही कर पाते...आपकी बाते सुन लगा यही आवाज़ तो हुमारे अंदर भी उठती रहती है. और खुद की आवाज़ सुन हीं हम रो पड़ते हैं.
ReplyDeleteउफ़ ऐसा भी कोई लिखता है …………… रुला ही डालोगे।
ReplyDeleteJabardastt likha hai.. salute u
ReplyDeletebhavuk kar diya sir ji, gaanv ki yaad aa gayi, magar main kuchh had tak khud ko bhagyashali mahsoosh karta hu, kyonki saal me takreeban 5 mahine gaanv me bita paata hu
ReplyDeleteसही में, जिंदगी में वक़्त कम पड़ जाता है...
ReplyDeleteपता नहीं कहाँ कौन सी बात असर कर गयी कि ब्लॉग पढ़कर चुप गर गयी ।
आसाराम केस में मीडिया एवं तमाम नारीवादी संगठनों का उत्साह देखने लायक था होना भी चाहिए पर तरुण तेजपाल कि रिपोर्टिंग ndtv पर देख कर ऐसा लगा कि कोई इनका मर गया है ,,ऐसा नहीं होना चाहिए। आप पार्टी बाप पार्टी भी चुप हैं ...
ReplyDeleteaapke blog ne aanko main paani aur dil main ek kask de di kyun aaj sanyukt paariwar ki matav ko nhi samjhte humlog jitne educated ho rhe hain utna hi hum sanyukta pariwaar se door ho rhe.par aapke blog ne mujhe apne ghar ki yaad dilwa di um log bhi apne ghar ko miss karte ain...
ReplyDeletebadki mai ko ishwar hamesha swasth rakhen.aur sir aapse ek vinti hai ki aap prime time ki videos ko youtube pe bhi upload karen.
ReplyDeletebadki mai ko ishwar hamesha swasth rakhen.aur sir aapse ek vinti hai ki aap prime time ki videos ko youtube pe bhi upload karen.
ReplyDeleteGermany mein bhi aankein nam kar di sir aapne
ReplyDeleteghar ki yaad dila di aapne
ReplyDeleteufff...kamal ka likha hai sir...
ReplyDeletedil bhar aaya...
aise logon ke dum pe hi humari hindustani sanskriti jinda hai or rahegi...
barki mai ko sat-2 naman :)
कुछ कहने को है ही नहीं, बस आँखों में आंसू है।
ReplyDeleteBas rula diya sir. Kaise likh paate ho!!!!!!
ReplyDeleteRavishji aapne to aaj rula dala.Mujhe apni aaji(Grand mother)aur Babuji yad aa gaye.Aaji 5 beton ki maa thi.Do bête Fauj me teesra MBBS chautha lecturer hone ke bavjood mritui ke samay unke pass koi box nahin. Do teen dhotiyan raheen hogee.Subah sare bachchon ke malish karna unka main work tha. Babuji(Ex subedar) teesre no par the. Babuji antim samay me Dementia se grashit ho gaye the. Us samay voh bachchon jaise bhi nahi the. Koi shabd nahin hai usko batane ke liye........
ReplyDeleteBhahuto to rulaya aap ne,muje bahut khuse huvi ke aaj bhi hamare dil ek Hindustani dil he,Jo gavo me basata he,
ReplyDeleteTabhi to itne savedana he,is electronic yug me bhi aapni parevarik savedana jivant he,
Ravishji mane comment post ki thi ki aapke papa ne aapko virasat me sachai shikhye he,par aaj laga ki barki mai ne aapko savedana shikhai he,
Hamesha jivant rakhana in savedanako,
Bahut umada lekhak Ho aap
Jabardast sir jee !! biharion ko hindi-prem ho hi jaata hai kaise bhi. Mujhe bhi ho gaya sir, aapke blog parh ke.
ReplyDeletelekh bahut hi bhavpurn hai,aapke anya aalekhon ki tarah.Bahut mushkil hota hai dil ko manana ki hamare
ReplyDeleteकुछ दिन पहले मैंने यह स्टेटस लिखा था ...मौजू है , इसलिए यहाँ भी दे रहा हूँ ..|
ReplyDeleteप्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी गाँव में इस समय प्रवासी लोगों की आमद अपने ‘उरूज’ पर है | चहकते हुए बच्चों के साथ उनके चेहरे पर अगले तीन दिनों तक हरियाली देखी जा सकती है | पहले दिन वे मौसम की बात करते हैं , साफ़ हवा की बात करते हैं और हरियाली की बात करते हैं | दूसरे दिन अपनी पत्नी को भेंट मुलाक़ात के लिए उसके मायके छोड़ आने के बाद वे अपने आपको दुर्भाग्यशाली और हम गाँव में रहने वालों को सौभाग्यशाली बताते हैं | तीसरे दिन जीवन द्वारा खुद को शहर में धकेल दिए जाने पर अफ़सोस जताते हैं , और कहते हैं कि अब मैं साल में तीन-चार बार गाँव जरुर आया करूँगा , क्योंकि यह हम सबके स्वास्थ्य के लिए ठीक रहेगा , और बच्चों का गाँव से रिश्ता भी जुड़ा रहेगा |
लेकिन चौथे दिन उनके सोचने का ‘गियर’ चेंज होने लगता है , जब अपने मोबाईल को चार्ज करने के लिए उन्हें शहर में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ जाना पड़ता है | पांचवे दिन जब मेल चेक करने की तड़प उनके भीतर उठती है , तो उन्हें यही गाँव खीज देनें लगता है | छठे दिन उन्हें उबड़-खाबड़ रास्ते की तकलीफ होने लगती है | और सातवे दिन पिताजी द्वारा खेत के मुक़दमे की प्रगति बताये जाने पर वे खीजने लगते हैं | आठवे दिन , जब उनकी पत्नी अपने मायके से लौट आती हैं , तो वे समय से तीन दिन पहले ही शहर वापसी का फैसला कर लेते हैं | ‘गाँव में रहने वाले इन कीड़े-मकोड़ों का कुछ नहीं हो सकता’ , और ‘इन गाँवों में आदमी कैसे रहते हैं’ जैसे जुमले उछालते हुए नवें दिन वे शहर लौट जाते हैं |
और इधर माँ-बाप इन नौ दिनों में उनको हुयी असुविधा के अपराध बोध में उनसे जाते-जाते यह भी नहीं पूछ पाते , कि बाबू ..! फिर कब आओगे ...?
kal jab ye post padha dil ke jajbat aur ankhon ke aansoon ne comment karne se manahi kar di......aaj 'bhai ramji tiwariji' ke comment padhkar 'eek-aah' nikal gai.....
ReplyDeletepranam.
Ravish jee aapne to bheetar tak hila ke rakh diya.
ReplyDelete‘‘देखो, मेरी बड़की भाई (बड़ी माँ) ऐसे ही गाती है।’’
ReplyDeletemeri kahanee me meri badakee mai ...
BADAKEE MAI ! BADKA BABUJEE ....!
YE SHABD BHI BADE PAPA SE , BADI MUMMY SE REPLACE HO GAYA HAI ...!
AAPKI BADAKI MAI SE MUJHE BHI YAAD AA GAYEE MAI ...KATHA ME JEEVIT HAIN MERI BADAKLEE MAI ...
तब समय इतना बदरंग नहीं था। ना ही चेहरों की कोई शवेत- शयाम पहचान थी। वो सतरंगी दिन थे। खूब चमकीले सात रंगों वाले। उन दिनों कचकचाती हुई हरी पत्तियों के बीच ढेरों लाल फूल खिला करते थे। हमारे गांव से बाहर बहने वाली कंचन नदी का पानी भी गहरा नीला था तब, जो अब एक आहर में तब्दील हो चुकी है। सूरज गहरी लालिमा लिये सुबह में उगता और चटख पीली धूप के साथ दिन भर हंसता रहता। हम धान या गेहूं की लहलहाती फसलों के बीच बने मेड़ो से होकर स्कूल जाते थे। तब बस्ते नहीं थे। बोड़े या टांट से बने झोले में या चमकी में कापी - किताब भरकर हम स्कूल जाते। उन दिनों चिड़ियां भी खूब चहकतीं थीं , गातीं थीं ।
तभी अपने दोस्तों से मैं कहा करता था- ‘‘देखो, मेरी बड़की भाई (बड़ी माँ) ऐसे ही गाती है।’’
बड़की माई- लंबे वैधव्य की सफेद साड़ी और माथे पर चंदन का तिलक लगाये कोई साध्वी या विरहिणी लगती। हां वह साध्वी ही थी जो पूजा- पाठ के अपने नित्य नियम से कभी नहीं चूकती और जिसके हाथों में रूद।क्ष के 108 मनकों से बनी माला या फिर रामचरित मानस, गीता या अन्य कोई धर्मगथ होता। बड़की माई के आंचल जैसी धवल निर्मलता, ठंडी छांव कहीं ना मिलती। रात गये जब चांद अपनी शीतलता बिखेरता और तारे टिम- टिम करते तब बड़की माई हमें रोज ही एक कहानी सुनाया करती। और हम सोचते-कहते-‘‘बड़की माई! तुम कहानियां बुनती हो न? या अपनी दादी-नानी से सुनी हुई कहानियों को ही आत्मसात कर लिया है?’’रोज ही बड़की माई को घेरे हम बैठते। उस दुलार के मजबूत घेरे में गहरी आश्वस्ति मिलती थी। उनके साथ खेलते कभी कंडे, कभी गिटटी तो कभी अटकन बटकन दही चटोकन................।
नहीं कोई साध्वी नहीं, कोई विरहिणी नहीं, बड़की माई एक देवी थी ,जो भवितव्यता के ृगार या डोर से बंधी होकर भी संतष्ट थीं । परम संतोष उसके चेहरे से हमेशा झलकता। कोई अभिलाषा, कोई इच्छा मैंने उसकी आंखों में नहीं देखी। उन्हें कभी कुछ लुभाता नहीं था। सचमुच बड़की भाई! हां राधे’याम की दुकान में बिकने वाली रंग- बिरंगी गोलियां भी नहीं। रंग- बिरंगी गोलियां जो हमें अतिप्रिय थीं और रोज स्कूल जाते समय जिसके लिये हम बड़की माई से अनुनय करते-‘‘अम्मा! प्यारी अम्मा पैसे दो न!’’ और बड़की माई अपने आंचल के खूंटे से पैसे निकाल कर हमें देती। गोलियों को अपने मुंह में डाल हम रसास्वादन की परम अनुभूति से सरावोर हो जाते।
बड़की माई को हमने कभी किसी चीज को लालायित होकर देखते नहीं देखा, सिवाय एक साबुन की बटटी के। हां, बस साबुन की एक छोटी बटटी। काकी उसे शहर से लाई थीं। उन दिनों हमारे गांव में रंग- बिरंगी खाने की मीठी टाफियां तो मिल जाती थीं पर रंग बिरंगी साबुन की बटिटयां नहीं। उस जैसी चमकीली रंगीन टिकिया हमने पहले कभी नहीं देखी थी। काकी- जिनका रंग पूर्णिमा की चांदनी सा धवल था और जिनके चेहरे में चमक थी, वह टिकिया प्रयोग करती थीं। मुझे पूरा वि’वास था कि यह सब कमाल उस साबुन की टिकिया का ही है। उस टिकिया की खू’श बू हमें खूब आकर्षित करती। काकी उसे प्रयोग के बाद हमेशा अपने कमरे में रख आती थी। और हम भंवरों की तरह हमे’ाा उसकी खू’ाबू से खिंचे चले आ काकी की नजरंे बचाकर टिकिया को उलट- पुलटकर देखते। गोल आकार में बनी वह नीली चमकीली टिकिया हमें अचंभित करती। उन दिनों हमारे लिये सर्वाधिक आ’चर्य की कोई वस्तु थी तो वह थी वह ‘साबुन की टिकिया’।
..........
---सविता पाण्डेय
savitapan@gmail.com
Shesh...Continued
ReplyDeleteसाबुन की वह टिकिया aur बड़की माई
...उस दिन साबुन की वह टिकिया चुराकर हम बड़की माई को दिखा रहे थे। बड़की माई की आंखों में मैंने पहली बार कोई कौतुहल देखा,उत्सुकता देखी , भोली सी चमक देखी थी, वैसी ही चमक जैसी किसी नये खिलौने को देखकर हमारी आंखों में होती थी। बड़की माई के वे झूर्रियों वाले हाथ जिनसे उलट- पुलटकर वह उस नीली चमकीली टिकिया को देख रही थी मुझे आज भी याद है । और याद है उनके चेहरे की बाल- सुलभ मुस्कान और आंखों में चमकती साबुन की वह नीली चमकीली टिकिया। नवजात बच्चों की तरह निश्छल-निर्दोष दिखती थीं मेरी बड़की माई। तब बड़की माई की सजल आंखों में उस टिकिया को छीनते- झपटते से काकी के हाथ भी प्रतिबिंबित हुये थे। और क्षण- मात्र में बड़की माई के नेत्र विस्फारित हो गये। मुस्कुराहट के आकार में फैले होंठ खुले रह गये थे। उनकी सफेद साड़ी की तरह उनका चेहरा भी सफेद पड़ गया था-‘‘छोटी! यह टिकिया तो............’’। यह बड़की माई की निरीह आवाज थी,जो अपना एक वाक्य भी पूरा न कर सकी। ‘‘दीदी! तुम्हें टिकिया उपयोग करनी ही थी तो मुझसे मांग लेती। इस तरह चुरा लेने से क्या मुझे पता नहीं चलता?’’ यह काकी थीं। ‘‘छोटी.........’’ कहते- कहते बड़की माई की आंखें डबडबा आर्इं और मुंह से बोल न फूट पड़ा कि वह चोर नहीं है कि वैधव्य की कठिन साधना में जी रही देवी को अब सांसारिक मोह- माया की कोई वस्तु नहीं लुभाती। फिर यह तुच्छ साबुन की बट~टी..........!।बड़की माई चाहे काकी को माफ कर दंे, पर मैं कभी माफ नहीं कर सकता। नहीं कर पाया भी...। कभी नहीं भूल सकता बड़की माई के हाथों साबुन की उस टिकिया का छीना जाना और फिर एक- एक कर उसके बड़की माई के हाथों से पूरी गृहस्थी ही छीन गई।
समय के साथ हम बड़े और बड़की माई ढलती चली गई। अब वह अपने कमरे में ही रहने लगी। वह दिन भर लेटी रहती । हम दबे कदमों से उस तक जाते और देर तक उसे निहारते रहते। वह देर तक सोती थी। उस लोरी में न जाने क्या था कि मैं भीतर ही भीतर हिलक उठा था। ‘मातृत्व उसके लिए गुनाह था’ पर वैसी मातृत्व की धनी दुर्लभ छाँह दुर्लम होती है। वह छाँह मुझे हासिल था। अब हमें घर में बांधनेवाला कोई नहीं था। किसी के सामने कहानी सुनने या मुठठी बांधकर खेलने हम नहीं बैठते थे। हां अब भी मैं रोज रात बड़की माई के पास ही सोता था। अब भी वह अपने हाथों से मेरा सिर सहलाया करती थी। अब बड़की माई भी ठीक हो रही थी। उस रात उसने मुझे लोरी भी सुनाई थी। हमने साथ साथ बचपन वाली वह कविता भी दुहराई थी ‘‘आ री चिडियां, गा री चिडियां ,अपना नाच दिखा री चिडिया.........’’। उसके कांपते हाथ मेरे माथे को सहला रहे थे कि अचानक उसके हाथ रूक गये। उसने गाना बंद कर दिया और उसकी सांसें तेज चलने लगीं। मैं पहली बार डर गया था। थोड़ी ही देर बाद मां बाबूजी और बाकी सभी जोर- जोर से रोने लगे। और मैं जो उस दिन उस कमरे से बाहर आया दुबारा कभी भीतर जाने का मन नहीं हुआ। ‘‘माई !बड़की माई !तुम ई’वर का अनमोल उपहार थी जो जन्म लेते ही मुझे मिल गई।’’वह बाबू जी के लिए भी माँ ही तो थीं। बड़के ताउ जी (बड़े पिता) तो गंवने से पहले ही उठ गये थे.... और बड़की भाई-15 साल की उम में मैके छोड़कर यहाँ रहने आ गई थीं। बाबूजी और काका को उन्होंने पूरी जिम्मेदारी से पाला थां
बड़की माई के बाद और उस साबुन की बटटी से भी अधिक कोई चीज मुझे लुभाती थी तो वह थी-चंदा।
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BADAKEE MAI ...CHANDA..
ReplyDeleteचंदा- जो मेरे स्कूल के पास के टोले पर ही रहती थी और जिसका रंग गहरा था। तब वह एक छोटी सी या घाघर पहनती थी और उसके हाथों में चूड़ियां होती थीं।चंदा- जो अब शांति और सौम्यता की प्रतिमूर्ति है तब नन्हीं चंदा प्यारी चंदा उड़ती,फुदकती,नाचती और जब चलती तो नन्हें-नन्हें पैरों में बंधे घुंघरु छमकते। इन्हीं छमकते घुंघरुओं के साथ वह तितलियों के पीछे भागती,बारिश के बुलबुले पकड़ती।तब मैं और चंदा नीली कंचनी नदी में कागज की नौकायें तैराते। मैं हमे’ ही उसकी लंबी चोटी खींच भाग जाया करता था। आप सबको बता दूं कि उस साबुन की बट~टी को चुराने में चंदा ने ही मेरी सहायता की थी।
थोडे दिनों बाद जब हम कुछ और बड़े हो गये थे और हमारी उम अब इतनी हो गई थी कि अब मुझे चंदा से छुप-छुपकर मिलना पड़ता था,तब हम गांव के बाहर बहनेवाली उसी नीली नदी के किनारे मिलते। बड़की माई की मृत्यु से पूर्व मैं उन्हें चंदा की बातें बताया शेयर करता था। पहली बार तो मैंने महसूसा था उनकी किसी दिलचस्पी को। जब कभी चंदा हमारे घर आती बड़की माई अपनी हथेलियों में चंदा का चेहरा थामतीं तो वह शरमा कर भाग जाती थी। तब मेरा भी मन होता कि मैं भी चंदा का चेहरा अपनी हथेलियों में थाम लूं और वह ऐसे ही लजा कर भाग जाये।
उस साबुन की बटटी का पहला प्रयोग मैं चंदा या बड़की माई पर ही करना चाहता था।उस दिन जब मैंने बड़की माई को वह टिकिया दिखाई थी और काकी ने छीन ली थी, उस टिकिया को चुराने का दृढ़ संकल्प मैंने अपने मन में कर लिया था। और यह मेरे लिये अति आव’यक था क्योंकि मैंने देखा था- बड़की माई की आंखों में इसे तैरते। और बड़की माई की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद ही हमने टिकिया चुराने की योजना बना ली जो हमारे लिये किसी षडयंत्र के रचने से कम नहीं था।
पुरानी बट्टी के घिस जाने पर काकी ने आज संदूक से नई बट~टी निकाली थी। जिसका प्रयोग भी अभी नहीं किया था। उस दुपहरी में जब सभी सो रहे थे मैं काकी के कमरे में गया चंदा बाहर दरवाजे पर ही पहरा दे रही थी। साबुन के अपने नियत स्थान पर न होने के कारण मुझे थोड़ी देर हुई पर अंतत: हम उसे पाने में सफल रहे।उस दिन उस साबुन की बट~टी को चुराकर मुझे लगा जैसे मैंने रत्न-जड़ित किसी मुकुट से कोई हीरा दुर्लभ चुरा लिया हो। लेकिन फिर उस हीरे को वापस लाकर उसके पूर्व स्थान पर रखना था। उस टिकिया को मेरे हाथ में कोई देख ले इससे पहले ही मैंने भाग जाना चाहा। आज मेरी सर्वाधिक प्रिय वस्तुयें मेरे साथ थीं। एक हाथ में साबुन की वह बट~टी और मेरा दूसरा हाथ थामे चंदा मेरे साथ- साथ दौड़ी चली जा रही थी। डर और रोमांच का वह मिश्रित अनुभव मुझे आनंदित ही कर रहा था। बड़की माई के शरीर पर उस बट~टी के प्रयोग का मेरा सपना तो उसकी मृत्यु के साथ ही टूट गया। लेकिन मेरे सपने की दूसरी कड़ी आज पूरी होने वाली थी। चंदा की सांवली किंतु चमकयुक्त त्वचा के स्पर्’ा करने की कल्पना मुझे रोमांचित कर जाती थी। आज उसके हाथों की पकड़ को मैं और भी मजबूत कर लेना चाहता था। और हमारा गंतव्य था वह नदी का किनारा.............। जहां पहुंचकर ही हम रुकें और रुककर खूब हंसें।यह हंसी हमारे क्षणिक विजय की परिचायक थी।
प्रभु, टीवी में दिखते नहीं ज्यादा इनदिनों, कुरुक्षेत्र ज्यादा पसंद नहीं, इस ब्लॉग पर आता हूँ तो वही नास्ताल्जिया...तेजपाल और केजरीवाल, शाहजादा और इश्कजादा..कुछ इन पर भी ध्यान दें.
ReplyDeleteगाँव से दूर रहकर लगता था कि दिल मशीन या फिर पत्थर का हो गया है , लेकिन ………………………………………।
ReplyDeleteravish ji ankho me paani bhar gaya... bahut badhiya likha hai aapne, Premcgant ki yaad taza ho gaye..
ReplyDeletePrakash
kal se maine das baar to padh hi liya hoga... aur apne kitne hi dosto ko forward kiya hai...
ReplyDeleteBahut badhiya ravish Jee.
the way of your writing makes me feel it..... ultimate sir ....
ReplyDeletebhavnatmak ar gramin prishthbhumi se Jude har ravish ki kahani h...isi liye har shakhsh khud se juda mehsoos kar raha h..
ReplyDeletelekhni uchchkoti ki.. rekha chitra sa khich diya aapne.. purane Dino ki yaad dilane k liye shukriya.
mjhe nh pata tha ki aap rulate b ho... khair padhne k baad aapke sath badki maai se milne ka mann ho raha hai.
ReplyDeleteबूढी माँ और ताउजी ..मेरी माँ और बाबा को गाँव में छोड़ के जा रहा हूँ ..मज़बूरी कह लो या घरवालो की इच्छा का सम्मान पर जा रहा हूँ
ReplyDeleteज़िंदगी में वक्त कम पड़ जाता है । हम सब जब परिवार और घर छोड़ कर अपने जीवन की तलाश में दिल्ली मुंबई आ गए । न जाने कितनों ने अपनी किसी बड़की माई के साथ रहने का वक्त गँवा दिया । माँ बाप के साथ रहने जीने का वक्त गँवा दिया
इसे पढ़ के लग रहा है ट्रेन से उतर जाऊं क्या अजीब पहेली है जीवन रविश भाई ..
Ravish bhai, ham sab ki peeda ko Aapne bahut marm sparshi abhivyakti dee hai. Bahut bahut sadhuvaad
ReplyDeleteBahut Sundar. Dil ko chu liya.
ReplyDeleteपढ़ कर दिल भर गइल भईया .... आज आँख से आंसू आ गइल ......... बहुत ही सुन्दर लागल राउर इ लेख…
ReplyDeleteपढ़ कर दिल भर गइल भईया .... आज आँख से आंसू आ गइल ......... बहुत ही सुन्दर लागल राउर इ लेख…
ReplyDeleteBas v kijiye Ravish jee pahle Babujee ke Krte ne rulaya aur ab ye Badki Mai.
ReplyDeleteKhai ye likhan padhan se ye to tasalli hoti hai ki hamar Desh abhi INDIA nahi hua hai.
राजस्थान में रहकर भी आपकी बिहारी हिंदी पढ़ना अच्छा लगता है ! बड़की माई पढ़ते हुए मुझे मेरी बुआ की याद आपने दिला दी ! उम्र में आप हम दोनों शायद एक ही मुकाम पर है ! ऐसी बाते पुराने परिवारों में देखने को मिलती है जो परिवार को एक सूत्र में बांधती है !
ReplyDeleteराजस्थान में रहकर भी आपकी बिहारी हिंदी पढ़ना अच्छा लगता है ! बड़की माई पढ़ते हुए मुझे मेरी बुआ की याद आपने दिला दी ! उम्र में आप हम दोनों शायद एक ही मुकाम पर है ! ऐसी बाते पुराने परिवारों में देखने को मिलती है जो परिवार को एक सूत्र में बांधती है !
ReplyDeleteravish sir
ReplyDeletebahut khub...iss prasang ko padne par premchand ki shaili ki yaad aa rahi thi,,unki bhi kahaniyon,upanayson me isi tarah ka varnan milta hai
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ReplyDeleteSir jee gaon me jeene ka aur rahne ka maja hi kuchh aur hai. Yaha ki khuli fija kahin aur nasib nahi ho sakti. Apne apni badki mai ke bare me jo likha hai dil se likha hai. Are han jee mai v to bachpan me aap hi ke ghar ki or se hokar dhala par parma dubey jee ke school me padhne jata tha tab v apki badki mai waisi hi thi....bara badhiya lagal haue gaon ke bare me raur lekhani ke parh ke. Jiyara me hilor ho gail h.. Bahute bahute hamra taraph aa raur janamdharti ke taraph se dhanyavad bate. Yehiye likhat rahi sir jee...
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ReplyDeleteKa kahin ab..sochatani kahe ghare na ja pawni a beri chhath main...
ReplyDeleteरिश्तेदार भी अजीब गिनती है अपनेपन के touch वाली-दूर हो तब रिश्तों की हूँफ याद आती है और सामने हो और अपना हक़ चला रहे हो तब रिश्तों की गिनती याद आती है:) और हा इस द्व्न्द्व मैं अगर कोई innocent होता है तो भी हम खुद और victim होता है वह भी बेचारा खुद :)
ReplyDeleteबडकी माई और बड़के बाबूजी ने जब आप से कह दिया के वे आप को टीवी पर देखते है और आप उनसे बात नहीं करते!
ReplyDeleteक्या अब आप जब भी प्राइम टाइम शुरू करेंगे तब एक पल के लिए आप को यह ख्याल नहीं आएगा के वे लोग भी आप को देख रहे होंगे और 1 घंटे के शो में आप कुछ तो ऐसा बोले जिससे उन्हें लगे की वह बात आप ने सिर्फ और सिर्फ उनसे कही है!
बड़की माई और बड़का बाबूजी जितने दिन हैं, जरुर उनसे मिलते रहिए। यही वो यादें रहेंगी जो बुढ़ापा काट देंगी। हमारी पीढ़ी शायद अंतिम पीढ़ी होगी जो ऐसे भावनात्मक रिश्तों को ऐसी शिद्दत से महसूस करेगी। गाँव कितना भी बदल जाए फिर भी वहाँ कुछ बचा हुआ है जिसकी याद जब आती है तो शहर में बसे हम लोगों को रुला जाती है.
ReplyDeleteसोमवार को जब प्राइम टाइम कीजिये तो बड़की माई को सम्बोधित कर कुछ कहियेगा जरुर, हम भी इन्तजार करेंगे।
very touching.such affectionate moments will not be there for our grand children in future due to nuclear family trend and city breeding'
ReplyDeleteबडकी माई का किरदार आज से बीस साल पहले हुआ करता था,आज तो सब बदल/मिट गया,वो स्नेह वो प्यार वो दुलार बडकी माई ही दे सकती थी,आप सबसे भाग्यशाली व्यक्ति है जिसे बडकी माई का प्यार मिल रहा है,भारत में अब बहुत कम लोग है जिन्हें वो स्नेह मिलता होगा,संयुक्त परिवार का एकल परिवार में बदल जाना ही इसका मुख्य कारन है.
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ReplyDeleteकलेजा फट गया
ReplyDeleteSir ji aapko meri taraf se pranam....
ReplyDeleteBadki mai jaisi story padhate hue mere aankho se aansu nikalne lage....
Apne badki mai ka asali tasweer ham logo ke samne rakhha...
Kahi aisa lagta hai ki ye badki mai ..meri dadi se kafi milti julti hai...
Par sir ji meri dadi ab is duniya me nahi hai..
But mujjhe yaad hai wo HAR DIN BHAGWAN SE KAHTI THI KI MERA BETA MUMBAI ME RAHTA HAI USKI RAKSHA KARNA USKO KOI KAMI NA HO...he laxmi maiya ;he dularo maiya:he vindhywasini mqiya...sir ji mujjhe to pure devi devta ke naaam bhi nahi pata jo wo nahane ke baad aur sone se pahle bed par baith kar japti thi..
BUT SIR JAB mai IS KAHANI Ko padha to bhavbibhor ho gya...aur sir EK BAAR NAHI 10 TIMES AUR HASRA HAR BAAR WAHI HUA ...
JAISE KISI NE NAL KHULA CHHOD DIYA HO....
UPMA TO SAMJHH HI GAYE HONGE YANI MQI APNE AANSOO CONTROL NAHI KAR PAYA ..
Aur sir sabd prayog to aap behtreen karte hi hai.
Dnhanya hai sir aap...
God bless u...
Hamari Iya ke yaad aa gaya
ReplyDeleteSoch to badal rahi hai bihar mein Ravish sir...main chhath mein gaya tha..to ek gaon mein bartuhari ke silsile mein jane ka mauka mila...Baat nikli to,ek bujurg ne kahan...thoda katakch karte hue bade prashannta se kahan...Nitish ji ke raaj mein do chiz ta hua hai..."Sarak par garda nai hai..aur aurat ko parda nai hai..."..agla tark ye tha ki ..aajkal aurat log v khub naukri kar rahi hai...teacher ki ho ya gramsevika ki...mere dimag mein yahi aaya..jo vyakt karna chahunga...ki sarak par garda nai..aur aurat ko parda nai...ye main kisi bhi pradesh ki tarraki ke suchak ke taur pe hi dekhta hu...apki pratikriya ka ikchhuk.
ReplyDeleteRavish bhai, touching, very touching, enough to make anybody weep
ReplyDeleteरवीश जी आपने मेरी पुरानी यादे ताजा करा दी...आज भी मुझे याद हे कि मेरी दादीजी ने मुझे खाना परोसा तो पानी का गिलास देना भुल गयी। जल्दी खाना खत्म कर के खेलने जाने के ख्याल मे मुझे पानी मागंने जरुरत ही मह्सुस हुई। जब खाना खा चुका तो दादीजी को याद आया, वो इतनी व्याकुल हो गयी की अपने आप को भला बुरा कहने लगी। अपने आप को कोसते हुए पता नही क्या क्या कहा। मेने उन्हे समझाने कि व्यर्थ कोशिशे भी की और बाद मे पुरे दिन सोचता रहा कि उन्होने एसा भी कोनसा पाप कर दिया था जो इतना पछता रही थी। उम्र के साथ बड्ते हुए मेने देखा कि मेरी छोटी से छोटी तक्लीफ उन्हे बडा कष्ट देती थी। शायद ये मेरा छोटा सा कष्ट ही था जो उस दिन उन्हे फांस कि तरह चुभ रहा था। आज जब मे अपनी दुनिया मे व्यस्त हु तो उनको उतना समय नही दे पता, पर जब भी उन्हे वो ही निश्छ्ल प्यार मेरे बच्चो से करते देखता हुं तो कलेजा फट्ने लगता हे और विचार आता है कि क्या हम हमेशा उनसे कु्छ पाते ही रहेंगे या हम कभी उनहे कुछ वापस भी चुकायेंगे।
ReplyDeleteरवीश जी आपने मेरी पुरानी यादे ताजा करा दी...आज भी मुझे याद हे कि मेरी दादीजी ने मुझे खाना परोसा तो पानी का गिलास देना भुल गयी। जल्दी खाना खत्म कर के खेलने जाने के ख्याल मे मुझे पानी मागंने जरुरत ही मह्सुस हुई। जब खाना खा चुका तो दादीजी को याद आया, वो इतनी व्याकुल हो गयी की अपने आप को भला बुरा कहने लगी। अपने आप को कोसते हुए पता नही क्या क्या कहा। मेने उन्हे समझाने कि व्यर्थ कोशिशे भी की और बाद मे पुरे दिन सोचता रहा कि उन्होने एसा भी कोनसा पाप कर दिया था जो इतना पछता रही थी। उम्र के साथ बड्ते हुए मेने देखा कि मेरी छोटी से छोटी तक्लीफ उन्हे बडा कष्ट देती थी। शायद ये मेरा छोटा सा कष्ट ही था जो उस दिन उन्हे फांस कि तरह चुभ रहा था। आज जब मे अपनी दुनिया मे व्यस्त हु तो उनको उतना समय नही दे पता, पर जब भी उन्हे वो ही निश्छ्ल प्यार मेरे बच्चो से करते देखता हुं तो कलेजा फट्ने लगता हे और विचार आता है कि क्या हम हमेशा उनसे कु्छ पाते ही रहेंगे या हम कभी उनहे कुछ वापस भी चुकायेंगे।
ReplyDeleteआपके शब्दों ने बे-लफ्ज कर दिया.........बहोत बहोत खूब.... शायद इसे ही कहते हैं दिल को शब्दों में उतार देना .... बातें वहाँ तक पहुंच गई जहाँ शब्द नहीं मिलते....पता नहीं कैसे लिख गए आप. बिना आँखे नम् किए पढना मुश्किल है..लिखा किस अवस्था में गया होगा पता नहीं!
ReplyDeleteजगज़ित साहब की एक गज़ल है....
ReplyDeleteमुझ को य़कीन है सच कहती थी जो भी अम्मी कहती थी
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद पे परियां रहती थी
बस यही लगता है हर किसी को किसी ना किसी बड़की- छूतकी अम्मी ने कोई परियां, कोई सपने जरूर दिखाए होंगे.. पूरा करने की होड़ और मजबूरी में हम उन्हे ही छोड के चले अए!!
मौका मिले तो ये गज़ल सुनियेगा कभी!!
Desh ki yaad dila di. Sochta hu kya waisa hi hota hoga sabkuch
ReplyDeleteContext alag hai par padhte padhte bachpan mein hindi ki textbook mein padhi hui Vishwambharnath Sharma Kaushik ki kahaani 'Taai' yaad aa gayi.
ReplyDeleteso touching sir,,,,,,,,,,,each word fragrances the culture of Bihar....
ReplyDeleteEach word of this article fragrances the culture of Bihar....
ReplyDeleteAankh me aanshu aa gaye ravish ji....
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