सात साल में सत्रह बेगुनाह लोगों को बाइज़्ज़त रिहा कराने वाला एक वक़ील मार दिया जाता है और उसकी कथा एक बेहतरीन फ़िल्म के बाद भी हमारे ज़हन में नहीं उतरती । मैं यह नहीं कहता कि आप शाहिद देखने ज़रूर जायें बल्कि हो सके तो न देखें क्योंकि यह फ़िल्म आपके अंदर झाँकने लगती है । आप शाहिद को नहीं देखते वो आपको देखने लगता है । यह फ़िल्म तकलीफ़ कम देती है हमारी सोच की चोरियाँ बहुत पकड़ती है ।
आतंकवाद इस्लाम या हिन्दू की कोख से पैदा नहीं होता । इसे पैदा करती है राजनीति । जो हम सबको रोज़ उस बीते कल में धकेलती हैं जहाँ हम चौरासी बनाम दो हज़ार दो का खेल खेलते है । मज़हब के हिसाब से अपनी अपनी हिंसा के खेमे बाँट लेते हैं । शाहिद हमारी उसी सोच से पैदा होता है और उसी से मार दिया जाता है । मारने वाले का चेहरा नहीं दिखता पर वो होता तो इंसान ही है । शाहिद की हर दलील आज भी हमारी राजनीतिक खेमों की अदालत में गूँजती हैं । इसलिए कि हम अपने भीतर के शाहिद को चुपचाप मारते रहते हैं । बड़ी चालाकी से हर हत्या के बाद किसी दूसरे हत्यारे का नाम ले लेते हैं ।
अगर आपके भीतर ज़रा भी सांप्रदायिकता है आप शाहिद देखने से बचियेगा क्योंकि आपको इन तमाम अतीतों को बचा कर रखना है जिसमें अभी कई शाहिद धकेले जाने वाले हैं । आप अगर अतीत को नहीं बचाकर रखेंगे तो राजनीति खुले में नंगा नहाएँगीं कैसे । आप राजनीति के किसी काम के नहीं रहेंगे । राजनीति में महान नेता पैदा कैसे होंगे । वे कैसे आपके भीतर जुनून पैदा करेंगे । अगर आप सांप्रदायिक नहीं हैं तो शाहिद ज़रूर देखियेगा । बहुत ज़रूरी है अपनी हार को देखना । शाहिद उन तमाम सेकुलर सोच वालों की हार की कहानी है जिन्होंने शाहिदी जुनून से सांप्रदायिकता और सिस्टम से नहीं लड़ा । जिनमें एक मैं भी हूँ ।
क्रेडिट लाइन -
फ़िल्म में अपनी दोस्त शालिनी वत्स को देखकर फिर अच्छा लगा । वक़ील बनी है और अच्छा अभिनय किया है । राजकुमार को काई पो तो में देखा था । बहुत अच्छा कलाकार है । प्रभलीन संधू को पहले कहाँ देखा याद नहीं पर सिनेमा हाल से निकलते एक सरदार जी नाम पढ़ कर उत्साहित हो गए । अपनी गर्लफ्रैंड को बताने लगे कि देख प्रभलीन कौर है । बस पीछे मुड़ कर थोड़ा सुधार कर दिया । कौर नहीं संधू है । निर्देशक हंसल मेहता और निर्माता अनुराग कश्यप के बारे में क्या कहा जाए । ये हैं तो बहुत कुछ हो जा रहा है ।
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ReplyDeleteseriosly...its very dark side of our country..and on the contrary we all know dis :-| bas dukhi ho kar reh jaate hai..n next day se fir se woi normal life..office masti n all...most of us are like that only..even i am also the same :-|
ReplyDeleteVah vah
ReplyDeleteThe poisonous idea that “Every Muslim is not a terrorist but every terrorist is a Muslim” had seeped into the country’s consciousness. No one was interested in the facts.
ReplyDeleteबहुत पहले इस मूवी के बारे में पढ़ा था.. फिर यहाँ वहां से शाहिद आज़मी के बारे में पढ़ने लगा । महीनो से इसके इंडिया रिलीज़ का इंतज़ार था। और अब इसके वर्ल्डवाइड रिलीज़ का..पर यहाँ के थिएटर में "बॉस" नाम की एक बेहूदा मूवी अपने दुसरे हफ्ते में चल रही है। हाल ही में आई संवेदनशील फ़िल्मों की तरह इसे भी यहाँ का कोई हॉल नसीब नहीं। ठीक है। डीवीडी का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteबहरहाल आज सुबह ही ये पढ़ रहा था "Fact Check: Are There More Muslim Undertrials In Indian Jails?"
http://www.indiaspend.com/fact-check/fact-check-are-there-more-muslim-undertrials-in-indian-jails-64579
और हाँ, प्रभ्लीन को आपने पहले टीवी पर देखा होगा। घर पुछा तो बताया की टीवी सीरियल में आती थीं पहले
ReplyDeleteअभी अभी abp न्यूज़ पर प्रधानमंत्री सीरियल देखा / १९८४ में कांग्रेसियों ने सीखो का चुन चुन कर कत्ले आम किया / उसके बाद की खालिस्तानी दहशत गर्दियो की घटनाये देखा तो पता चला १९८८ और १९९० में दहशत गर्दियो ने आरएसएस के कैंप पर ही हमला बोला और उनके कैडर को मार गिराया / आरएसएस को निशाना क्यों बनाया यह तो पता नहीं लेकिन १९९० के बाद प्रशासन सतर्क होता है और पंजाब में आतंकवाद पर बहूत जल्द काबू पा लेता है ऐसा दिखाई देता / १९८४ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद प्रशासन को जो हासिल नहीं होता वह १९९० के बाद हासिल होता है ?
ReplyDeleteचेन्नई एक्सप्रेस और बॉस जैसी बिना अर्थ की फ़िल्में देखने की आदी अल्ट्रा मॉडर्न जनरेशन कहाँ ऐसी फ़िल्में पसंद करेगी। परदे और सोच के यथार्थ में बहुत गैप है। शुक्रवार से अगले तक।
ReplyDeleteचेन्नई एक्सप्रेस और बॉस जैसी बिना अर्थ की फ़िल्में देखने की आदी अल्ट्रा मॉडर्न जनरेशन कहाँ ऐसी फ़िल्में पसंद करेगी। परदे और सोच के यथार्थ में बहुत गैप है। शुक्रवार से अगले तक।
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ReplyDeleteपिछले कई दिनों से शाहिद का ज़िक्र हर जगह होता चला आ रहा है | जितना सुना क्योंकि फिल्म देखने का अभि तक मौका नहीं मिला, निःसन्देह कहानी अच्छी है | वास्तविकता संभवतः यही है , जिसे हम अपने आस-पास होते देखते रहते हैं | न्याय कितना अन्यायी हों चला कि आमजन फ़रियाद करने के बज़ाय होंठों को ना हिलने देना ही बेहतर समझते है |
ReplyDeleteरवीश जी बेबाक बात कहने को मशहूर हैं | उल्लिखित वक्तव्य फिल्म के सन्दर्भ में सटीक बैठती है |
लेकिन जिस साम्प्रदायिकता को लेकर वो प्रतिक्रिया दे रहे हैं , मै उनसे सहमत नहीं हूँ....
अगर फ़िल्में सच में उस कौतुहल को अनवरत उद्द्वेलित करने में सक्षम होतीं तो , संभवतः कला फ़िल्में आम परिदृश्य में अपनी उपयोगिता सिध्ध कर रही होतीं ?
पीयूष मिश्रा ने एक प्रोग्राम में कहा था, "हर देश में एक अनुराग कश्यप बहुत ज़रूरी है। दो हों तो थोड़ी दिक्कत हो जायेगी"। :)
ReplyDeleteनिसंदेह यह बात यही कहती है कि अनुराग के बैनर की फिल्में "Do Not Miss" केटेगरी की होती है।
और प्रभलीन संधू पहले serials में आती थी।
Hum aise samaj se kya ummeed kar sakte hai jaha pe sansad me 202 criminals ho... enko hume terrorist se bhi jyada khatarnak manana padega kyu ki terror se to hum lad sakte hai par ense kaise ladenge jinke pas terror ke sath sath sath loktantra ka bhi sath hai... hume kisi bhi serial criminal ko terrorist ke category me lana hoga chahe wo jis roop me bhi ho...
ReplyDeletepehli bar kisi film ko lekar aapke vichar sahi lage,varna aaj tak aapke film reveiws padh-padh kar ye samajh aaya tha ki jis film ki aap tareef karen wo kabhi nahi dekhni chahiye aut jiski burai wo jaroor dekhni chaiye.
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ReplyDeleteAapko Pata hai Ravishbhai,AAP bahot hi badiya script likhte hai,ye padhkar game zarur Jana hora hai Film delhne ko,bahot badhiya Vishleshan.
ReplyDelete.....हमारी सोच की चोरियाँ बहुत पकड़ती है..
ReplyDeleteऐसी फ़िल्में हम तक तो बड़े विलम्ब से पहुँचती हैं ।
ReplyDeleteबेकरारी बढ़ा दी इस लेख ने ।
इस दौर-ए-मुन्सफ़ी में ज़रूरी नहीं 'वसीम'
ReplyDeleteजिस शख्स की ख़ता हो उसी को सज़ा मिले। …. प्रो. वसीम बरेलवी
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ReplyDeleteRavish ji iss bolg mee likana isliye suru kar diya aapne, kyuki aap aapne alochana ko delete kar sake, agar aap sahi mane mee ek nispaksh patrakar hai toh alochanao ko bhi grahan kare.
ReplyDelete@pali naithani: भाई आलोचना और दुर्भवाना में अंतर भी समझना होगा...
ReplyDeleteरवीश जी जो comments delete कर देते हैं मैं उनके content को अच्छे से समझ सकता हूँ, कई बार लोग लोग अपने दिमाग की "गंद" आलोचना के नाम पर उड़ेलने लगते हैं
Jab log ye bolte the ki iss desh ka kuch nahi ho sakta too mujhe bura lagta tha, par dheere-dheere ye samjh aane laga wo aisa kyon bolte the, wo samjh gaye the ki yahan samjhne wale kam or samjhane wale jiyda ho gaye hai.
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ReplyDelete@Rajneesh Dhakray: alochana aur durbhavana toh dono taraf se ho rahi hai, kese ek taraf se nahi.
ReplyDeletehttps://www.youtube.com/watch?v=amnevwW0MJo&feature=player_detailpage
ReplyDeleteमैं भी आपका एंकरिंग और आपके बोलने के लहज़े का प्रसंशक हूँ (क्योंकि मैं आपके वैसे ही जानता हूँ। और अगर मैं आपके साथ फोटो खिंचवाना चाहूँ, तो आप मुझे भी झटक देंगे, यह जानकर बुरा लगा। (आपके "शहिद" वाले ब्लॉग में लिखे गए वाक्यों से)
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