कोई संपादक कहेगा कि सटीक पहचान के लिए ऐसे घेरे मददगार होते हैं । दर्शक तेज़ी से गुज़रती तस्वीरों में से प्रमुख पात्र को पहचान नहीं पाता है । हो सकता है पर आप इन घेरों को ध्यान से देखिये । इनकी अपनी एक भाषा होती है । ये किसी चेहरे के ईर्द-गिर्द चमक चमक कर आपको बता रहे होते हैं कि ठीक से पहचान लो इसे । ये वही है । अपराधी । जबकि कई बार स्क्रीन पर इन घेरों के बिना भी स्पष्ट हो जाता है कि गिरफ़्त में आया अपराधी कौन है । क्या ये घेरे मीडिया ट्रायल नहीं है । हर दूसरे तीसरे रोज़ किसी न किसी मामले में ऐसे घेरे बना दिये जाते हैं । एक तीर होता है जो मार मार कर पहचनवा रहा होता है कि इहे है अपराधी । आज चुप रहेंगे तो कल आप भी इन घेरों के बीच हो सकते हैं । इन घेरों के कारण आरोपी और अपराधी के बीच का फ़ासला समाप्त हो जाता है ।
एक तरह से चैनल इन घेरों के ज़रिये 'स्टिग्मा' यानी कलंक की छवि बनाते हैं । ये उनकी अपनी गढ़ी हुई भाषा है जो शब्दों से कहीं ज़्यादा मारक है । आरोप को धब्बा में बदल देते हैं । हो सकता है कि अदालत बरी भी कर दे लेकिन इन घेरों से जो बट्टा लगता है वो स्थायी हो जाता है । प्रिंट के शब्दों में कथित या 'अलेज़्डेली' का इस्तमाल होता है । टीवी में भी कुछ एंकर या एकाध चैनल इसका इस्तमाल करते हैं मगर ये घेरे ऐसी सतर्कताओं को बाई पास कर जाते हैं । किसी कलंक की तरह चस्पाँ हो जाते हैं । प्रिंट के ग्राफ़िक्स में भी ऐसे घेरों का चलन बढ़ा है । आप किसी का चेहरा न दिखायें मगर घेरा बनाकर निर्दोष साबित होने की गुज़ाइश समाप्त तो कर ही देते हैं
मुझे इन घेरों से दिक्क्त होती है । कई बार उत्सुकता पैदा करने के लिए किसी डूबते को भी इन घेरों में क़ैद कर दिया जाता है । कई बार पहचान को और स्पष्ट करने के लिए लेकिन क्या अपराध के मामले में न्यूज़ चैनल किसी व्यक्ति को लाल घेरे में डाल कर एक किस्म का फ़ैसला नहीं सुना रहे हैं । हमेशा लाल घेरा ही क्यों ? नीला या पीला क्यों नहीं । आसाराम की पहचान तो उतनी अनजान नहीं है । सब पहचानते हैं । दस दिनों से वही दिख रहे हैं टीवी पर । उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिए लेकिन सज़ा मिलने से पहले क्या ये घेरे जजमेंट नहीं हैं ? स्टिग्मा नहीं हैं ? कई बार तो पीड़िता को भी घेरे में कैद कर दिया जाता है । चेहरा धुंध से ढंक दिया जाता है लेकिन घेरा बनाकर क्या चैनल उसकी पहचान स्थापित नहीं कर देते हैं । मैं बात एक विज़ुअल कलंक की कर रहा हूँ । ये मीडिया की बनाई हथकड़ी है । कल किसी को पहना दी गई थी और आज किसी और को । यही नहीं पुलिस के पकड़ने या अदालत का फैसला सुनाने से पहसे ग्राफिक्स आर्टिस्ट से सलाखें बनवा कर उसके पीछे व्यक्ति का चेहरा लगा दिया जाता है । लगे कि जेल हो गई है ।प्लीज़ बहस इसी पर कीजियेगा न कि संदर्भ के लिए यहां दिए गए नामों पर । हम सब इन घेरों का इस्तमाल करते हैं लेकिन क्या इसके करण इनके असर पर कभी सोचा ही न जाए ।
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ReplyDeleteमहाबेशर्म इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए नियम-कायदे उस समय बदल जाते है जब यह खुद गलती करता है. अगर देश का कोई भी मंत्री भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ये चीख-चीख कर उसके इस्तीफे की मांग करता है लेकिन जब किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया का कोई पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ना तो वह अपनी न्यूज़ एंकरिंग से इस्तीफा देता है और बड़ी बेशर्मी से खुद न्यूज़ रिपोर्टिंग में दूसरो के लिए नैतिकता की दुहाई देता रहता है. कमाल की बात तो यह है की जब कोई देश का पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो उस न्यूज़ की रिपोर्टिंग भी बहुत कम मीडिया संगठन ही अपनी न्यूज़ में दिखाते है, क्या ये न्यूज़ की पारदर्शिता से अन्याय नहीं? हाल में ही जिंदल कम्पनी से १०० करोड़ की घूसखोरी कांड में दिल्ली पुलिस ने जी मीडिया के मालिक सहित इस संगठन के सम्पादक सुधीर चौधरी और समीर आहलूवालिया के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा ३८४, १२०बी, ५११, ४२०, २०१ के तहत कोर्ट में कानूनी कार्रवाई का आग्रह किया है. इतना ही नहीं इन बेशर्म दोषी संपादको ने तिहाड़ जेल से जमानत पर छूटने के बाद सबूतों को मिटाने का भी भरपूर प्रयास किया है. गौरतलब है की कोर्ट किसी भी मुजरिम को दोष सिद्ध हो जाने तक उसको जीवनयापिका से नहीं रोकता है लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है की जो पैमाना हमारे मुजरिम राजनेताओं पर लागू होता है तो क्या वो पैमाना इन मुजरिम संपादकों पर लागू नहीं होता? क्या मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं है ? क्या किसी मीडिया संगठन के सम्पादक की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है? अगर कोई संपादक खुद शक के दायरे में है तो वो एंकरिंग करके खुले आम नैतिकता की न्यूज़ समाज को कैसे पेश कर सकता है? आज इसी घूसखोरी का परिणाम है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया का एक-एक संपादक करोड़ो में सैलरी पाता है. आखिर कोई मीडिया संगठन कैसे एक सम्पादक को कैसे करोड़ो में सैलरी दे देता है ? जब कोई मीडिया संगठन किसी एक सम्पादक को करोड़ो की सैलरी देता होगा तो सोचिये वो संगठन अपने पूरे स्टाफ को कितना रुपया बाँटता होगा? इतना पैसा किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठन के पास सिर्फ विज्ञापन की कमाई से तो नहीं आता होगा यह बात तो पक्की है.. तो फिर कहाँ से आता है इतना पैसा इन इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठनो के पास? आज कल एक नई बात और निकल कर सामने आ रही है कि कुछ मीडिया संगठन युवा महिलाओं को नौकरी देने के नाम पर उनका यौन शोषण कर रहे है. अगर इन मीडिया संगठनों की एस.आई.टी. जाँच या सी.बी.आई. जाँच हो जाये तो सुब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा.. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आज जो गोरखधंधा चल रहा है उसको सामने लाने का मेरा एक छोटा सा प्रयास था. मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस लेख को पड़ने के बाद स्वयंसेवी संगठन, एनजीओ और बुद्धिजीवी लोग मेरी बात को आगे बढ़ाएंगे और महाबेशर्म इलेट्रोनिक मीडिया को आहिंसात्मक तरीकों से सुधार कर एक विशुद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान देंगे ताकि हमारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया विश्व के लिए एक उदहारण बन सके क्यों की अब तक हमारी सरकार इस बेशर्म मीडिया को सुधारने में नाकामयाब रही है. इसके साथ ही देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ किसी भी जांच के लिए न्यूज़ ब्राडकास्टिंग संगठन मौजूद है लेकिन आज तक इस संगठन ने ऐसा कोई निर्णय इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ नहीं लिया जो देश में न्यूज़ की सुर्खियाँ बनता. इस संगठन की कार्यशैली से तो यही मालूम पड़ता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तमाम घपलों के बाद भी ये संगठन जानभूझ कर चुप्पी रखना चाहता है.
ReplyDeleteधन्यवाद.
राहुल वैश्य ( रैंक अवार्ड विजेता),
एम. ए. जनसंचार
एवम
भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रयासरत ADD ME
भाई, तुम अपना ओहदा इतने विस्तार से क्यों बताते हो...? तुम्हारा कमेन्ट पढ़ा ही नहीं ।
Deleteअगर मिडिया ना बोले तो भी समस्या तो इल्जाम ये की मिडिया बिक गया अगर बोलता है तो आमजन बोलता है की निर्णयात्मक भूमिका निभाता है और रही गोल घेरे की बात वो इस लिए होता है की दस वयक्तियो में उस आरोपी की पहचान करवानी होती है जनता जनार्दन जी।।।।। और एक बात जो लोग मिडिया को ये बोल रहे है की वे टीवी पर ऐसे बोलते है वेसे बोलते है तो वे अपने ऊपर लिखे गए कमेन्ट खुद दुबारा पड़े उन लोगों ने उसमे क्या क्या लिख दिया विद्वान् महा पुरषों
Deleteमहाबेशर्म इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए नियम-कायदे उस समय बदल जाते है जब यह खुद गलती करता है. अगर देश का कोई भी मंत्री भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ये चीख-चीख कर उसके इस्तीफे की मांग करता है लेकिन जब किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया का कोई पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ना तो वह अपनी न्यूज़ एंकरिंग से इस्तीफा देता है और बड़ी बेशर्मी से खुद न्यूज़ रिपोर्टिंग में दूसरो के लिए नैतिकता की दुहाई देता रहता है. कमाल की बात तो यह है की जब कोई देश का पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो उस न्यूज़ की रिपोर्टिंग भी बहुत कम मीडिया संगठन ही अपनी न्यूज़ में दिखाते है, क्या ये न्यूज़ की पारदर्शिता से अन्याय नहीं? हाल में ही जिंदल कम्पनी से १०० करोड़ की घूसखोरी कांड में दिल्ली पुलिस ने जी मीडिया के मालिक सहित इस संगठन के सम्पादक सुधीर चौधरी और समीर आहलूवालिया के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा ३८४, १२०बी, ५११, ४२०, २०१ के तहत कोर्ट में कानूनी कार्रवाई का आग्रह किया है. इतना ही नहीं इन बेशर्म दोषी संपादको ने तिहाड़ जेल से जमानत पर छूटने के बाद सबूतों को मिटाने का भी भरपूर प्रयास किया है. गौरतलब है की कोर्ट किसी भी मुजरिम को दोष सिद्ध हो जाने तक उसको जीवनयापिका से नहीं रोकता है लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है की जो पैमाना हमारे मुजरिम राजनेताओं पर लागू होता है तो क्या वो पैमाना इन मुजरिम संपादकों पर लागू नहीं होता? क्या मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं है ? क्या किसी मीडिया संगठन के सम्पादक की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है? अगर कोई संपादक खुद शक के दायरे में है तो वो एंकरिंग करके खुले आम नैतिकता की न्यूज़ समाज को कैसे पेश कर सकता है? आज इसी घूसखोरी का परिणाम है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया का एक-एक संपादक करोड़ो में सैलरी पाता है. आखिर कोई मीडिया संगठन कैसे एक सम्पादक को कैसे करोड़ो में सैलरी दे देता है ? जब कोई मीडिया संगठन किसी एक सम्पादक को करोड़ो की सैलरी देता होगा तो सोचिये वो संगठन अपने पूरे स्टाफ को कितना रुपया बाँटता होगा? इतना पैसा किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठन के पास सिर्फ विज्ञापन की कमाई से तो नहीं आता होगा यह बात तो पक्की है.. तो फिर कहाँ से आता है इतना पैसा इन इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठनो के पास? आज कल एक नई बात और निकल कर सामने आ रही है कि कुछ मीडिया संगठन युवा महिलाओं को नौकरी देने के नाम पर उनका यौन शोषण कर रहे है. अगर इन मीडिया संगठनों की एस.आई.टी. जाँच या सी.बी.आई. जाँच हो जाये तो सुब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा.. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आज जो गोरखधंधा चल रहा है उसको सामने लाने का मेरा एक छोटा सा प्रयास था. मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस लेख को पड़ने के बाद स्वयंसेवी संगठन, एनजीओ और बुद्धिजीवी लोग मेरी बात को आगे बढ़ाएंगे और महाबेशर्म इलेट्रोनिक मीडिया को आहिंसात्मक तरीकों से सुधार कर एक विशुद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान देंगे ताकि हमारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया विश्व के लिए एक उदहारण बन सके क्यों की अब तक हमारी सरकार इस बेशर्म मीडिया को सुधारने में नाकामयाब रही है. इसके साथ ही देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ किसी भी जांच के लिए न्यूज़ ब्राडकास्टिंग संगठन मौजूद है लेकिन आज तक इस संगठन ने ऐसा कोई निर्णय इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ नहीं लिया जो देश में न्यूज़ की सुर्खियाँ बनता. इस संगठन की कार्यशैली से तो यही मालूम पड़ता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तमाम घपलों के बाद भी ये संगठन जानभूझ कर चुप्पी रखना चाहता है.
ReplyDeleteधन्यवाद.
राहुल वैश्य ( रैंक अवार्ड विजेता),
एम. ए. जनसंचार
एवम
भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रयासरत ADD ME
आज के भ्रष्ट्राचार से इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी अछुता नहीं है, आपने भले ही आज जनसंचार में PH.D क्यों न कर रखी हो लेकिन आज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो उसी फ्रेशर को नौकरी देता है जिसने जनसंचार में डिप्लोमा इनके द्वारा चालए जा रहे संस्थानों से कर रखा हो .. ऐसे में आप जनसंचार में PH.D करके भले ही कितने रेजिउम इनके ऑफिस में जमा कर दीजिये लेकिन आपका जमा रेजिउम तो इनके द्वारा कूड़ेदान में ही जायेगा क्यों की आपने इनके संस्थान से जनसंचार में डिप्लोमा जो नहीं किया है ..आखिर मीडिया क्यों दे बाहर वालों को नौकरी ? क्योंकि इन्हें तो आपनी जनसंचार की दुकान खोल कर पैसा जो कमाना है .आज यही कारण है की देश के इलेक्ट्रोनिक मीडिया में योग्य पत्रकारों की कमी है. देश में कोई इलेक्ट्रोनिक मीडिया का संगठन पत्रकारों की भर्ती करने के लिए किसी परीक्षा तक का आयोजन भी नहीं करता जैसा की देश में अन्य नामी-गिरामी मल्टी नेशनल कंपनियाँ अपने कर्मचारियों की भर्ती के लिए परीक्षा का आयोजन करती है. यह महाबेशर्म इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो सिर्फ अपनी पत्रकारिता संस्थान की दुकान चलाने के लिए ही लाखों की फीस लेकर सिर्फ पत्रकारिता के डिप्लोमा कोर्स के लिए ही परीक्षा का आयोजन कर रहा है. आज यही कारण है कि सिर्फ चेहरा देकर ही ऐसी-ऐसी महिला न्यूज़ रीडर बैठा दी जाती है जिन्हें हमारे देश के उपराष्ट्रपति के बारे में यह तक नहीं मालूम होता की उस पद के लिए देश में चुनाव कैसे होता है? आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया के गिरते हुए स्तर पर प्रेस कौसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष भी काफी कुछ कह चुके है लेकिन ये इलेक्ट्रोनिक मीडिया की सुधरने का नाम ही नहीं लेता ….इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो पैसों से खेलने वाला वो बिगड़ा बच्चा बन चुका है जो पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है.
ReplyDeleteशायद इसी वजह से आजकल मीडिया खुद इन घेरों में आ गया है........
ReplyDeleteजब समाचार तथ्यात्मक से निर्णयात्मक हो चलते हैं, मैं टीवी बन्द कर कोई पुस्तक खोल लेता हूँ।
ReplyDeleteपता नहीं ये TRPबाज़ लोग, चैनलों को कैसे बहका लेते हैं कि लोग 24वों घंटे अासारामों को ही देखते रहना चाहते हैं...
ReplyDeleteElectronic media ek fasttrack court ban gaya hai jo investigation se pehle hi apna decision de deta hai. is tarah ka ravaiya galat rai paida karta hai.Programs dikhate samay is tarah ka title use kiya jata hai jo jo media ke trial ko indicate karta hai. media ko chahiye ki woh unbiased hokar news dikhaye.
ReplyDeleteToday i saw a news in some news papers about Yasin Bhatkal's instructions while came across media, i don't know he is guilty or not court will decide but do you think media should cover these kind of stories in so much details that he done that and that whatever he tried to say or convey to his fellows it must not be spread by media at least after the Mumbai Attack media has decided to not show these kind of things but where is there instinct now.
ReplyDelete@RAHUL VAISH aap jo baat keh rahe hain woh bhi public trial hai. aur zee channel wale case me bhut se channels pe debate hui thi aur electronic media aur print media ne bhi ise chupane ka prayas nahi kiya lagatar ispe news dikhai hai.Aur koi channel apne staff ko moti salary deta hai toh isme galat kya hai mujhe samajh nahi aaya.Apko agar pata karna hai inke earning sources kya hain toh aap inki audit report dekhiye jo k internet pe asani se mil jati hai. keval is base pe ke koi media apne editor ko jyada salary deta hai use galat bata dena yeh sahi nahi hai.
ReplyDeleteHello sir, hum dally blame-blame khelte he, but aaj mood nhi he, dusro pe aarop pratyaropan karte karte, hum khud ki galtiyon pe to dhyan hi nhi dete, company target achieve nhi kr pati he to market condition ka excuse de dete he, jbki hm apna main attention social sites pe de rhe he. Family n friends hmari RAS me selection ki baat krte he, or yaha to book kholte hi nind k jhoke aane lagte he. Khud imperfect he but papa k bataye ladko ko not suitable btane me time nhi lagate. We don’t have right to blame anyone until we are honest with ourselves...
ReplyDeletesymbolic signs का इस्तेमाल गलत भी तो नहीं हैन रवीशजी!
ReplyDeletei mean अगर आप कहते हो की अँधेरे मैं देखने के लिए हर वक़्त फ्लड लाइट्स का इस्तेमाल क्यूँ?तो आप भी तो सही हो न?जहाँ टार्च से काम चलन चाहिए वहाँ फ्लड लाइट्स बेवकूफी होगी:) लेकिन यही बात जाकर आप बेवकूफ को नहीं समझा सकते-बस यहीं से ही तो समझदारों की बुद्धिमानी की सीमा शुरू होती है !:)
गुजराती मैं एक कहावत है "अक्कल ने आबरू पैसे तोलाती(नाप तोल) होय तो एकेय(एक भी)पैसादार मूरख के शरम वीना (बेशर्म) ना होय"
समझ तो गए ही होंगे:) गुजराती समझने मैं आसान है और गुजरातिओं को समझना भी मुश्किल नहीं है :)
गुजरात गांधी-मोदी को एक सा सराहता है--आलोचना तो गांधीजी भी झेल रहे थे/है/रहेंगे और मोदी भी :)
https://www.facebook.com/mukeshbhati79 ravish sir plz see my cartoons on above facebook link,and please give your valueble comments mukesh.....9311898191
ReplyDeletehttps://www.facebook.com/mukeshbhati79
ReplyDeleteमेरी आंटी ने वर्षों मेहनत के बाद जनम, मुंडन, उपनयन तथा विवाह संस्कार और त्यौहार गीतों का एक संग्रह तैयार किया है. बिहार मैं ऐसे गीत विलुप्त होने के कगार पर है. आज की पीढ़ी को लोकगीतों से कोई लगाओ नहीं है. खासकर लगन के अवसर पर गिरिह्देवी - देवता (गोसायं) के गीत, जो नितांत आवश्यक होते है. इसे गानेवाली एक्के दुग्गे लाचार बुजुर्ग महिला बची हुई हैं, जिन्हें भरपूर कास्ट दे कर लोग कम चला रहे है. यह समस्या गाँव और शहर दोनों जगह सामान रूप से पर्याप्त है. ऐसे गीत हमारे सांस्कृतिक धरोहर है. इसे सुरक्षित रखना अति आवश्यक है. आप विद्वानों से अनुरोध है कृपया इस गीत संग्रह को आम जनता तक पहुचने का कोई रास्ता सुझायें. tarun006@gmail.com
ReplyDeleteयह मीडिया ट्रायल भी है और किसी ख़बर या दृश्य को सनसनीखेज़ बनाने का तरीका भी। ऐसे गोल घेरों से ऐसा प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं की जैसे कोई बहुत बड़ा सुराग ढूंढ़ लिया हो।
ReplyDeleteअब कम्पटीशन इतना बढ़ गया है तो हर न्यूज़ चैनल पूरा प्रयत्न करता है की खुद को बाकी सब से बेहतर और तेज़ साबित करे। यह कोशिश भी जारी रहती है की ऐसे विसुअल इफेक्ट्स की मदद से दर्शकों को आकर्षित किया जा सके और उन्हें अपने प्रोग्राम से बाँध कर रखा जा सके।
ऐसे में इस प्रकार के गोल घेरे, सलाखें या फिर चिल्ला-चिल्ला कर ख़बर पेश करना कोई अचरज भरी बात नहीं हैं।
आदरणीय मनोज भाई , आप लोग मेरे ब्लॉग पर प्रश्न उठाठे है फिर अपने ही उठाये गए सवालो के घेरे में आ जाते है. प्रथम बात तो ये की मुझे किसी न्यूज़ चैनल की ऑडिट रिपोर्ट देखने के लिए सर्च में जाने की जरूरत किया है? ये ऑडिट रिपोर्ट न्यूज़ चैनल की वेबसाइट पर कियों नहीं है ? क्या पारदर्शिता के नाते ऑडिट रिपोर्ट को न्यूज़ चैनल को अपनी वेबसाइट पर नहीं करना चहिये ? पिछले बर्ष जब मैंने भारतीय सूचना सेवा, भारत सरकार की मुख्य परीक्षा को फेस किया था तब मुझे एक प्रश्न पूछा गया था की सामाचार पत्र अपनी लागत की तुलना में कम पैसे में कियों बिक रहे है? आप जैसे 7० % लोगो ने बिग्यापन की कमाई को आधार बना कर उत्तर दिया था और बिग्यापन तो १ की कमाई का जरिया है जो ये प्रश्न अपने उत्तर में बिलकुल नहीं जानना चाहता था . जब की मेने दुतीय प्रेस आयोग की रिपोर्ट , राजनितिक संरक्षण, और पेड न्यूज़ को आधार बनाया था और मेरे सिलेक्शन इंटरव्यू के लिए हो गया था . रही बात संपादक सुधीर चौधरी की तो मुझे आप एक बात बताइए क़ि जब भ्रष्ट्राचार के आरोपों में ये लोग पवन बंसल जी से इस्तीफ़ा मांग सकते है तो फिर खुद भ्रष्ट्राचार के आरोप सिद्ध होने तक खुद समपादक पद से इस्तीफ़ा कियों नहीं देते? आखिर समाज में ये दो मापदंड कैसे ? इन संपादक के उपर हुई टीवी चैनल पर किसी बहस ने उनको क्लीन चिट दे दी ? या किसी बहस ने ये कह दिया क़ि सम्पादक लोग जिस किसी से चाहे तो रंगदारी कर सकते है और फिर बाद में नैतिकता क़ि दुहाई देते हुए खबरों का भाई संचालन कर सकते है? क्या कोई सम्पादक पैसे के लिए इतना गिर जाता है की वो अपने आका हुक्म पैर समाज के लोगो से ही रंगदारी करे? आप दिल्ली पुलिस से आर टी आई के माद्यम से पूछिए की तिहाड़ जेल से छूटने के बाद उस सम्पादक ने कैसे सबूते को नष्ट किया है है और दिल्ली पुलिस को अपनी आवाज़ का नमूना तक नहीं दे रहा है? ये क्या ठीक बात है? मुझे संपादको की सैलरी से कोई नफरत नहीं है लेकिन गुस्सा तब आता है जब ख़बरों का प्रबाह किसी देश की एक पार्टी की तरफ हो जाता है? आप किसी न्यूज़ चैनल के फेसबुक पर कमेंट को पदिये आपको मालूम हो जायेगा की देश की जनता न्यूज़ चैनल को क्या सब्दो का प्रयोग करती है और जनता के सच को कभी झुठलाया नहीं जाता.
ReplyDeleteवंजारा चिट्ठी विवाद PRIME TIME में आप अपसेट नजर आये। मामला कुछ बना नहीं।
ReplyDeleteWah Media Wah...Pahley ke time Songs, Movies ,Poets, Person, Actor..Etc Top Ten main Hotey they..but aaj ke media ne to Kisi death, Rap , Accident Ko Bhi Top TEN News me add Diya Hai Aur To Aur Logo Ki Maut Rap Bhi Speed Me aatey hai...Wah Media Wah...
ReplyDeleteयह अवलोकन दिलचस्प लगा। मुझे मीडिया की कार्यप्रणाली की ज्यादा जानकारी नहीं है, और पिछले कुछ साल से न्यूज़ क़रीब-करीब न के बराबर देखने के कारन इसका अनुभव भी कम है। पर पहले भी टीवी की ये "निशानेबाज़ियाँ" कुछ अजीब लगती थी। वास्तविक केस-जहाँ पहचान कराना ज़रूरी हो (जैसे भीड़ में किसी की शिनाख्त, आदि) को छोड़कर - टीवी स्क्रीन पर ये गोल घेरा एक हद तक नाटकीय लगता है। बची हुई कमी - फ़्लैश, आधी स्क्रीन पर फ़ैले बड़े-बड़े कैप्शन, और बैकग्राउंड पूरी कर देते हैं। लेख में बहुत सी बातें आपने पहले ही कवर कर ली हैं. यहाँ २ अतिरिक्त बातें जल्दी से कहना चाहूँगा :
ReplyDelete१) इस "घेराबंदी" की एक सम्पादकीय अवधारणा ये हो सकती है कि आजकल कोई फुर्सत से टीवी देखने, न्यूज़ समझें नहीं बैठता। इसलिए अब टीवी (साउंड के मुक़ाबले ) इमेजेज के द्वारा, ज्यादा से ज्यादा बात करने की कोशिश करता है। आपको पूरी रिपोर्ट सुनने की ज़रुरत नहीं। बस, गोल पट्टी में फंसे चेहरे पर, अर्जुन के तीर दागते हुए ग्राफ़िक को देखें ; आखों के सामने चीखते कैप्शन को पढ़े और बस मिल गई इंस्टेंट जानकारी। हो गया इंस्टेंट जजमेंट। इंस्टेंट कॉफ़ी जैसे। दर्शक भी, टीवी पर खींचे अपने पूर्वाग्रह के इस गोलार्ध में बंध जाता है.. या शायद बंधना चाहता है। या यूँ कहें कि अपनी ही अव्धार्नाओं को चित्रित देख आगे सोचने समझने की ज़हमत से खुद को बचा लेता है।
२) एक और बात है.. विसुअल मद्ध्यम जैसे फिल्मों में दर्शक को मूर्ख समझने की एक पुरातन परंपरा चली आ रही है। मुझे टीवी की ये नक्कासेबाज़ी, उसी का एक्सटेंशन लगता है। याद कीजिये कैसे फिल्मो के कुछ दृश्यों में अति स्पष्ट और स्वाभाविक चीज़ों को भी, संवाद के द्वारा फिर से स्पष्ट कर दिया जाता है। ताकि सहज या आसान बात को भी न समझने की गुंजाईश न बची रहे.. (कनपट्टी पर पिस्तौल तानकर कहना "मैं तुम्हें गोली मार दूंगा", किसी मजाकिए दृश में बैकग्राउंड ट्रैक-ताकि आपको समझ आ जय हँसना कहाँ है )… न्यूज़ पर लाल रंग के ये कटघरे भी एक तरह का बैकग्राउंड म्यूजिक है.. "क्यों रिस्क लेना। अगर किसी को न समझ आ रहा हो तो ये लीजिए। ये है अभियुक्त। आप ज्यादा मत सोचिये। उसकी फिर्क हमने पहले ही कर ली है. आप अपनी सोच फेंकिए तमशा देखिए "
सर्कस का सबसे पसंदीदा पात्र जोकर होता है, जिसे सबसे जयादा बच्चे पसंद करते हैं और उसके उछल-कूद पर खूब तालियाँ बजाते है। उसका मकसद कैसे भी लोगो का मनोरंजन करना और भीड़ को बनाए रखना है। सर्कस को सफल बनाने के लिए यह भीड़ बहुत जरूरी है और ऐसे ही जोकर अपनी प्रासंगिगता बनाये रखता है। बच्चे बार-बार जोकर देखने की जिद पर अड़े हुए हैं। जगह और नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता अब यह जोकर सर्कस के बहार आ चूका है, वह कथित धर्म गुरु, नेता और भी न जाने कितने भेष धारण कर चुका है। बच्चे हैं की अब भी उसे वही सर्कस वाला जोकर समझ रहें हैं जबकि वह हजारों करोड़ का मालिक बन चुका है और एक साथ में ढेरों सर्कस भी चला रहा है और भीड़ को अपनी अंगुली पर नचा रहा है। जबकि भीड़ अब भी उसे वही अपना पुराना वाला जोकर ही मान रही है।
ReplyDeleteRanjanji kee baat main dum hai.
ReplyDeleteRajhans ji kee baat main dum hai.
ReplyDelete@RAHUL VAISH abp news auditreport at www.nbanewdelhi.com ndtv audit report at www.ndtv.com ibn7 audit report at IBN7 at ibnlive.in.com sir sabki audit reports unki official websites pe hi hain you can check it. Main apki baat ko criticise nahi kar raha tha but apki baat se aisa msg jata hai jaise media me sirf corruption hai aur media ne kuch kiya hi nahi hai aajtak.
ReplyDeleteBhai ek baata agar ye audit report sahi hai to samachar patr apni keemat se kum lagat me kyon bik rahe hai? Electronic media ne is desh me kafi kuch kia hai, uma khurana ka case, rahul gandhi ki katith apradh me shamil hone ki news na chalana, jindal se rangdari karna, aajtak channel ka modi ke peeche hath dokar pad jana. Bhai, janta ke aaj tak channel blog ke neeche comment pad, sacchai samne aajayegi. Hindu dharam guru ke sath muslim dharam guruon ne bhi gunah kia hai lekin unki story ko ye channel hath tak nahi lagate.
ReplyDeletemidia ka trail bhi jaruri nahi to logo ka jurm public ke samne ata tha our log bach jate the
ReplyDeletenahi ata tha
ReplyDeleteबहुत सटीक। जो बात हमे भी कहीं न कहीं अटपटी लगी, उसे आपने बड़े सहज तरीके से कह दिया यहां। मीडिया को अपनी भूमिका को लेकर एक बार विचार करने की जरुरत है। चाहे वो फिर मामला लाल तीर, घेरे का हो या किसी मुद्दे पर रिपोर्टिंग का। अपनी सीमाओं को जान-समझकर उनके तहत ही अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए।
ReplyDeleteसहमत हूँ। ये घेरे जजमेंट ही हैं।
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