हम पत्रकारिता की चुनौतियों पर बात करने की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम बात करने में भी ईमानदारी नहीं बरतते। ठीक है कि संस्थान का मालिक कैसा चाहता होगा वैसी ही पत्रकारिता होती होगी लेकिन बाज़ार और मालिक के बीच एक कड़ी के रूप में पत्रकारों की दुनिया है जिनके अपने पेशेवर अंतर्विरोध भी कम इस पेशे की लानत मलामत नहीं करा रहे हैं। आप पत्रकारिता की चुनौतियों पर होने वाली तमाम मासिक,वार्षिक संगोष्ठियों में बनने वाली मंच की तस्वीर याद कीजिए। ज़्यादातर वही लोग होते हैं जो दिल्ली या अपने राज्य की राजधानियों में सत्ता प्रतिष्ठान का भौगोलिक ज्ञान रखने के कारण वहां मौजूद होते हैं। ये कौन लोग होते हैं, क्यों यही बोलते हैं और पत्रकारिता में इनका अपना योगदान क्या होता है? सिर्फ पेशे के भीतर के पावर स्ट्रक्चर के शीर्ष पर होने के कारण क्या कोई इस बात का अधिकारी हो जाता है कि पत्रकारिता के संकट पर वही सबसे प्रमाणिक जानकारी रखता होगा। जबकि संकट का जन्मदाता वह ख़ुद है।
अगर हमारे भीतर पेशे की बीमारी को समझने की ज़रा भी ईमानदारी बची है तो जान लेना चाहिए कि हिन्दी पत्रकारिता को तीन नंबर बनाने का काम(अगर यह तीन नंबर का मान लिया गया है तब) राजनीतिक पत्रकारिता करने वाले छोटे बड़े पत्रकारों का है। पत्रकारिता के पावर स्ट्रक्चर के शीर्ष को कब्ज़ाने का सबसे अच्छा मार्ग यही है कि आप पत्रकारिता में आएं तो सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक पत्रकारिता करें। क्योंकि राजनीतिक पत्रकारिता करने भर से आप संपादक हो सकते हैं। आप के हाथ में तथाकथित दिशाहीन होती पत्रकारिता को दिशा देने के उपायों पर भाषण देने का हक भी मिल जाता है। हालांकि टीवी में कुछ लोग राजनीतिक पत्रकारिता के बग़ैर भी शीर्ष पर पहुंचे हैं क्योंकि डेस्क टीवी की कलाबाज़ी में आंतरिक रूप से शक्तिशाली होता चला जाता है। मगर फिर भी आप पूरे पत्रकारिता के स्ट्रक्चर को देखें तो ज़्यादातर ल्युटियन दिल्ली के पांच किमी क्षेत्र में रहने वाले मकानों में बसे कोई सात सौ सांसदों के यहां चक्कर लगाने वाले पत्रकारों को ही सारा इनाम इकराम मिलता रहा है। उसमें से भी ये तथाकथित राजनीतिक पत्रकार पांच दस पचीस सांसदों के घर चक्कर लगाकर ही बाल सफेद कर भयंकरावस्था में दिखने लगते हैं। अब इन मकानों के बीच दस पांच दफ्तर भी आते हैं जिनका चक्कर लगाने से आप ब्यूरो चीफ बनते हैं।
यही भौगोलिक ढांचा कमोबेश राजधानियों को भी रहा है। इनमें से कुछ ने विगत सालों में अपनी प्रतिष्ठा ज़रूर हासिल की। बारीक समझ और तटस्था को बचाते बचाते । लेकिन बाकी ने क्या हासिल किया। क्या दिया पत्रकारिता को। राजनीतिक समझ को ही कहां से कहां पहुंचा दिया? उसकी हालत देखिये। चंद महासचिवों के बदले जाने की पहली खबर या फिर उनके यहां से वहां पहुंचने की ब्रेकिंग न्यूज़ देकर ही हमारे राजनीतिक पत्रकार थक जाते है। किसी को उनके द्वारा किये गए इंटरव्यू पर शोध करना चाहिए। शोध में देखा जाए कि वो किस तरह से सवाल कर रहे हैं, क्या पूछ रहे हैं, उनकी देह भाषा क्या है और क्या बोला गया है। उनके द्वारा फाइल की हुई राजनीतिक स्टोरी की गुणवत्ता और समझ को भी शोध में शामिल किया जाना चाहिए। सब कुछ पहले और अभी कर देना ही राजनीतिक पत्रकारिता हो गई है। फिर भी शोध हो तो हमें पता चलेगा या फिर कम से कम बहस ही तो पता चलेगा कि जिन लोगों ने पीछे लकीर बनाई हैं वो कैसी है।
चलिए मैं इस सवाल को दूसरे तरीके से पूछता हूं। आज किस हिन्दी के पत्रकार की राजनीतिक गलियारे में विश्वसनीयता या प्रखरता की धमक है। बाइट लेकर कूदने की बात नहीं कर रहा मैं। ऐसा क्यों होता है कि अरुण जेटली तक का इंटरव्यू इकोनोमिक टाइम्स में छपता है। ऐसा क्यों होता है सारे बड़े राजनीतिक इंटरव्यू अंग्रेजी अखबारों से होते हुए हिन्दी अखबारों में पहुंचते हैं। ऐसा क्यों होता है कि सारे बड़े इंटरव्यू बरखा,अर्णब और राजदीप को ही मिलते हैं। शुरूआत में इन्हें हिन्दी के ही पत्रकारों से ही चुनौतियां मिलती थीं। वो कहां चले गए। क्या हमारी पत्रकारिता ने कोई बड़ा राजनीतिक पत्रकार पैदा किया। कौन सी बड़ी राजनीतिक खबर है जो पहले हिन्दी में छपी, जिसे नेता ने पहले हिन्दी के पत्रकार को बुलाकर बात की हो। तुकबंदी और फटे ढोल की तरह बजने वाले बयानों की बात नहीं कर रहा हूं। हमारी राजनीतिक पत्रकारिता जिसने पत्रकारिता को चलाने वाले नियंता दिये वो इतनी फूंकी हुई क्यों लगती है। जबकि हमारा सारा समय उन्हीं के गलियारे में गुज़रता है। हम तो उनके गांव तक का नाम जानते हैं मगर पेशेवेर आधिकारिकता में हम कहां हैं। मैं अपवाद को शामिल नहीं करता। जो बारात है आप उसकी तरफ देखिये। आप देखिये कि कौन सा राजनीतिक पत्रकार है तो लिखने में माहिर है, कौन सा राजनीतिक पत्रकार है जो अपनी समझ को टीवी के माध्यम के हिसाब से उजागर करने में कारगर है। कौन है। क्या हम कभी ईमानदारी से इसकी समीक्षा कर पायेंगे। नहीं कर पायेंगे। हम यह कभी नहीं पूछ पायेंगे कि आपका पेशेवर कौशल क्या है। क्योंकि यही मायने रखता है कि अंग्रेजी अखबारों और टीवी को इंटरव्यू मिलने के बाद हिन्दी में हमको पहले मिला है। हद है। एकाध मामलों में हुल्लड़बाज़ी और नेता को रगेद देने के उदाहरणों को भी शामिल करना बेकार है यहां।
इसीलिए मेरी अब यह समझ बनने लगी है कि हिन्दी पत्रकारिता में संकट है तो इसलिए इसकी बागडोर कमोबेश तथाकथित राजनीतिक पत्रकारों के हाथ में रहती है। राजनीतिक पत्रकारिता को ही आप मुख्य पत्रकारिता मानते हैं और इसी के बरक्स पत्रकारिता की धाराओं की स्थितियां तय की जाती हैं। तब उस राजनीतिक पत्रकारिता फुटपाथी क्यों नज़र आती है। अगर राजनीतिक पत्रकारिता ही मुख्य है तो इसकी गुणवत्ता पर निर्ममता से बात होनी चाहिए। क्योंकि यही हमारे पेशे की सत्ता का सबसे ताकतवर केंद्र है. कार्यपालिका से नज़दीकियों के कारण सत्ता का लाभ हानि भी इसे ही उठाना पड़ता है। हमारी पत्रकारिता तथाकथित बुरे बाज़ार और मालिकों के चलते फटीचर हुई है तो इसमें राजनीतिक पत्रकारिता के पतन का भी उतना ही योगदान गिना जाना चाहिए। पूछा जाना चाहिए कि आपने इस पेशे का सबसे ज़्यादा लाभ लिया तो क्या मानक गढ़े। मुलाकाती ख़बरों और भीतरघाती ख़बरों को ब्रेक करने के अलावा। अगर आप संपर्क में ही माहिर थे तो उस संपर्क से पेशे को फायदा क्या पहुंचाया। ये बहाना नहीं चलेगा कि सत्ता की भाषा अंग्रेज़ी है तो अंग्रेज़ी के पत्रकार आगे हैं। हिन्दी भी सत्ता और संपर्क की भाषा है। जब आप मुख्यमंत्री तक पहुंच ही रखते हैं तो ऐसा क्यों है कि अखिलेश यादव का पहला विस्तृत इंटरव्यू टाइम्स आफ इंडिया में छपता है। क्या हमने अपना स्तर इतना गिरा दिया है। क्या हम नेताओं के सिर्फ काम ही आते रहेंगे। क्यों ऐसा है कि सभी तीन नंबर के नेता हिन्दी टीवी स्टुडियो में हैं और सभी एक नंबर के नेता अंग्रेज़ी स्टुडियो में। क्या इस सवाल का जवाब हमारी राजनीतिक पत्रकारिता के ढांचे में आई लुंज पुंजता में मिलेगा?
राजनीतिक संपादकों और राजनीतिक पत्रकारिता ने ही हिन्दी पत्रकारिता की ताकत कमज़ोर कर दी है। जनता से दूर कर दी है। हम हमेशा पत्रकारिता को सरोकारी बनाने पर लाखों शब्द और घंटों वक्त ख़र्च कर देते हैं। लेकिन कभी यह समझने की कोशिश की है अगर पूरा पेशा सिर्फ और सिर्फ एक और झुका हो तो क्या वो स्वतंत्र हो सकेगा। क्या वो सिस्टम की पूंछ नहीं बन जाएगा। जब सारे बड़े और प्रभावशाली पत्रकार राजनीतिक पत्रकारिता में ही समय गंवा देंगे और उसमें से भी पेशे को कुछ नहीं देंगे तो कौन सरोकार की बात करेगा। ल्युटिन दिल्ली की राजनीतिक पत्रकारिता से सरोकार की पत्रकारिता निकलती है क्या? सरोकार की पत्रकारिता निकलती है जनता के बीच से जहां राजनीतिक पत्रकार कभी नहीं जाता। वो चुनावों में जाता है और संसदीय क्षेत्रों का राजनीतिक देशाटन करके लौट आता है। अगर पत्रकारिता के पावर स्ट्रक्चर में एक संतुलन होता तो फिर भी पत्रकारिता की जनपक्षधरता बची रह पाती। राजनीतिक पत्रकार जनता से नहीं मिलता है। जनता के प्रतिनिधियों से संपर्क बनाते बनाते संपादक तक हो जाता है। राज्य सभा भी पहुंच जाता है। कभी आपने सुना है कि फीचर रिपोर्टिंग करते करते कोई राज्य सभा पहुंचा। और ये नामकरण जो किया गया है वो पेशे के भीतरी ढांचे में अपनी वर्चस्वता बनाए रखने के लिए किया गया है। क्या ये ढांचा बदल सकता है। नहीं। आप कब तक राष्ट्रपति चुनाव के पर्चे की खबर दिन भर देखते रहेंगे। कौन कहता है कि महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन यही महत्वपूर्ण है यह इसलिए भी मान लिया गया है क्योंकि पत्रकारिता के ढांचे के भीतर इसे कभी चुनौती नहीं दी गई है। क्योंकि यह फैसला संपादक लेता है जो मूल रूप से राजनीतिक पत्रकार होता है। इसीलिए ऐसी तथाकथित महत्वपूर्ण खबरों के चलते रहने पर किसी को अजीब नहीं लगता है। स्टुडियो में मुर्गा युद्ध होने लगा है। उससे पहले के राजनीतिक पत्रकारों की रिपोर्टिंग देखिये। उसमें भी मुर्गा युद्ध ही होता था। यहां से बयान लिया वहां से बयान लिया और फिर आखिर में अपना बयान दिया। जिसे मैं ल्युटिन जर्नलिज़्म कहता हूं। अशोक रोड से बयान लेकर निकले, अकबर रोड वाले से बयान लिया और फिर विजय चौक पर अपना बयान दर्ज कर दिया कि अब देखना है कि आने वाले दिनों में भाजपा कांग्रेस का या कांग्रेस भाजपा का क्या जवाब देती है।
ये ढांचा ही ऐसा है जो कभी सरोकारी नहीं हो सकता है। ल्युटियन दिल्ली में जनता नहीं रहती है। जनता रहती है कहीं और जहां कोई राजनीतिक पत्रकार नहीं जाता है। वहां कोई छुटभैया समझे जाने वाला, अपना करियर बना रहा पत्रकार जाता है। करियर बन जाने के बाद वो भी वही करता है जो राजनीतिक पत्रकार करते हैं। उसे भी लगता है कि कब तक सिटी बीट करेगा। पोलिटिकल बीट कब मिलेगी। पोलिटिकल बीट प्रमोशन की सबसे ऊंची मंज़िल है। उसमें भी महिला पत्रकार हाशिये पर ही हैं। पहले राजनीतिक पत्रकारिता के अपने ढांचे के भीतर का जेंडर असंतुलन ही ठीक हो जाए। इस पर कोई बात क्यों नहीं करता। क्यों लड़कियां फीचर रिपोर्टिंग करती मिलती हैं। क्यों फीचर रिपोर्टिंग करने वाला खुद को असुरक्षित महसूस करता है। उसके हिस्से दो चार अवार्ड न हों तो वो भी नसीब नहीं। कुछ ल्युटियन पत्रकार तो इसमें भी शातिर हैं। साल में दो चार दिन के लिए निकलते हैं और दिल्ली से दूर जाकर खबर कर आते हैं और फिर अवार्ड भी ले लेते हैं।
प्रभाष जोशी को याद करने के संदर्भ में ऐसा क्यों कह रहा हूं। इसलिए कह रहा हूं कि प्रभाष जोशी पत्रकारिता में आए इस असंतुलन का जवाब हैं। वो एक संतुलन का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका रेंज देखिये। राजनीति, धर्म, समाज,जनपक्षधर आंदोलन,समाज खेल किस विषय पर एकाधिकार से नहीं लिखा है। वो जाकर लिखते थे। पता करके नहीं लिखते थे।प्रभाष जोशी दिल्ली में ही नहीं रहते थे। प्रभाष जोशी का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन होना चाहिए। वो भी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके पीछे सिर्फ तारीफ ही करता रहे। लेकिन वो नर्मदा पर भी लिखते थे और यमुना पर भी। वो अनुपम मिश्र पर भी लिखते तो सुनील गावस्कर पर भी और उसी एकाधिकार से अटल बिहारी वाजपेयी को भी लपेट देते थे। वो नीचे से दिल्ली को देखते थे। बाकी दिल्ली से दिल्ली ही देखते रह जाते हैं।
(यह लेख प्रभाष जोशी की स्मृति में पाखी पत्रिका के विशेष अंक के लिए लिखा गया था।)
अगर हमारे भीतर पेशे की बीमारी को समझने की ज़रा भी ईमानदारी बची है तो जान लेना चाहिए कि हिन्दी पत्रकारिता को तीन नंबर बनाने का काम(अगर यह तीन नंबर का मान लिया गया है तब) राजनीतिक पत्रकारिता करने वाले छोटे बड़े पत्रकारों का है। पत्रकारिता के पावर स्ट्रक्चर के शीर्ष को कब्ज़ाने का सबसे अच्छा मार्ग यही है कि आप पत्रकारिता में आएं तो सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक पत्रकारिता करें। क्योंकि राजनीतिक पत्रकारिता करने भर से आप संपादक हो सकते हैं। आप के हाथ में तथाकथित दिशाहीन होती पत्रकारिता को दिशा देने के उपायों पर भाषण देने का हक भी मिल जाता है। हालांकि टीवी में कुछ लोग राजनीतिक पत्रकारिता के बग़ैर भी शीर्ष पर पहुंचे हैं क्योंकि डेस्क टीवी की कलाबाज़ी में आंतरिक रूप से शक्तिशाली होता चला जाता है। मगर फिर भी आप पूरे पत्रकारिता के स्ट्रक्चर को देखें तो ज़्यादातर ल्युटियन दिल्ली के पांच किमी क्षेत्र में रहने वाले मकानों में बसे कोई सात सौ सांसदों के यहां चक्कर लगाने वाले पत्रकारों को ही सारा इनाम इकराम मिलता रहा है। उसमें से भी ये तथाकथित राजनीतिक पत्रकार पांच दस पचीस सांसदों के घर चक्कर लगाकर ही बाल सफेद कर भयंकरावस्था में दिखने लगते हैं। अब इन मकानों के बीच दस पांच दफ्तर भी आते हैं जिनका चक्कर लगाने से आप ब्यूरो चीफ बनते हैं।
यही भौगोलिक ढांचा कमोबेश राजधानियों को भी रहा है। इनमें से कुछ ने विगत सालों में अपनी प्रतिष्ठा ज़रूर हासिल की। बारीक समझ और तटस्था को बचाते बचाते । लेकिन बाकी ने क्या हासिल किया। क्या दिया पत्रकारिता को। राजनीतिक समझ को ही कहां से कहां पहुंचा दिया? उसकी हालत देखिये। चंद महासचिवों के बदले जाने की पहली खबर या फिर उनके यहां से वहां पहुंचने की ब्रेकिंग न्यूज़ देकर ही हमारे राजनीतिक पत्रकार थक जाते है। किसी को उनके द्वारा किये गए इंटरव्यू पर शोध करना चाहिए। शोध में देखा जाए कि वो किस तरह से सवाल कर रहे हैं, क्या पूछ रहे हैं, उनकी देह भाषा क्या है और क्या बोला गया है। उनके द्वारा फाइल की हुई राजनीतिक स्टोरी की गुणवत्ता और समझ को भी शोध में शामिल किया जाना चाहिए। सब कुछ पहले और अभी कर देना ही राजनीतिक पत्रकारिता हो गई है। फिर भी शोध हो तो हमें पता चलेगा या फिर कम से कम बहस ही तो पता चलेगा कि जिन लोगों ने पीछे लकीर बनाई हैं वो कैसी है।
चलिए मैं इस सवाल को दूसरे तरीके से पूछता हूं। आज किस हिन्दी के पत्रकार की राजनीतिक गलियारे में विश्वसनीयता या प्रखरता की धमक है। बाइट लेकर कूदने की बात नहीं कर रहा मैं। ऐसा क्यों होता है कि अरुण जेटली तक का इंटरव्यू इकोनोमिक टाइम्स में छपता है। ऐसा क्यों होता है सारे बड़े राजनीतिक इंटरव्यू अंग्रेजी अखबारों से होते हुए हिन्दी अखबारों में पहुंचते हैं। ऐसा क्यों होता है कि सारे बड़े इंटरव्यू बरखा,अर्णब और राजदीप को ही मिलते हैं। शुरूआत में इन्हें हिन्दी के ही पत्रकारों से ही चुनौतियां मिलती थीं। वो कहां चले गए। क्या हमारी पत्रकारिता ने कोई बड़ा राजनीतिक पत्रकार पैदा किया। कौन सी बड़ी राजनीतिक खबर है जो पहले हिन्दी में छपी, जिसे नेता ने पहले हिन्दी के पत्रकार को बुलाकर बात की हो। तुकबंदी और फटे ढोल की तरह बजने वाले बयानों की बात नहीं कर रहा हूं। हमारी राजनीतिक पत्रकारिता जिसने पत्रकारिता को चलाने वाले नियंता दिये वो इतनी फूंकी हुई क्यों लगती है। जबकि हमारा सारा समय उन्हीं के गलियारे में गुज़रता है। हम तो उनके गांव तक का नाम जानते हैं मगर पेशेवेर आधिकारिकता में हम कहां हैं। मैं अपवाद को शामिल नहीं करता। जो बारात है आप उसकी तरफ देखिये। आप देखिये कि कौन सा राजनीतिक पत्रकार है तो लिखने में माहिर है, कौन सा राजनीतिक पत्रकार है जो अपनी समझ को टीवी के माध्यम के हिसाब से उजागर करने में कारगर है। कौन है। क्या हम कभी ईमानदारी से इसकी समीक्षा कर पायेंगे। नहीं कर पायेंगे। हम यह कभी नहीं पूछ पायेंगे कि आपका पेशेवर कौशल क्या है। क्योंकि यही मायने रखता है कि अंग्रेजी अखबारों और टीवी को इंटरव्यू मिलने के बाद हिन्दी में हमको पहले मिला है। हद है। एकाध मामलों में हुल्लड़बाज़ी और नेता को रगेद देने के उदाहरणों को भी शामिल करना बेकार है यहां।
इसीलिए मेरी अब यह समझ बनने लगी है कि हिन्दी पत्रकारिता में संकट है तो इसलिए इसकी बागडोर कमोबेश तथाकथित राजनीतिक पत्रकारों के हाथ में रहती है। राजनीतिक पत्रकारिता को ही आप मुख्य पत्रकारिता मानते हैं और इसी के बरक्स पत्रकारिता की धाराओं की स्थितियां तय की जाती हैं। तब उस राजनीतिक पत्रकारिता फुटपाथी क्यों नज़र आती है। अगर राजनीतिक पत्रकारिता ही मुख्य है तो इसकी गुणवत्ता पर निर्ममता से बात होनी चाहिए। क्योंकि यही हमारे पेशे की सत्ता का सबसे ताकतवर केंद्र है. कार्यपालिका से नज़दीकियों के कारण सत्ता का लाभ हानि भी इसे ही उठाना पड़ता है। हमारी पत्रकारिता तथाकथित बुरे बाज़ार और मालिकों के चलते फटीचर हुई है तो इसमें राजनीतिक पत्रकारिता के पतन का भी उतना ही योगदान गिना जाना चाहिए। पूछा जाना चाहिए कि आपने इस पेशे का सबसे ज़्यादा लाभ लिया तो क्या मानक गढ़े। मुलाकाती ख़बरों और भीतरघाती ख़बरों को ब्रेक करने के अलावा। अगर आप संपर्क में ही माहिर थे तो उस संपर्क से पेशे को फायदा क्या पहुंचाया। ये बहाना नहीं चलेगा कि सत्ता की भाषा अंग्रेज़ी है तो अंग्रेज़ी के पत्रकार आगे हैं। हिन्दी भी सत्ता और संपर्क की भाषा है। जब आप मुख्यमंत्री तक पहुंच ही रखते हैं तो ऐसा क्यों है कि अखिलेश यादव का पहला विस्तृत इंटरव्यू टाइम्स आफ इंडिया में छपता है। क्या हमने अपना स्तर इतना गिरा दिया है। क्या हम नेताओं के सिर्फ काम ही आते रहेंगे। क्यों ऐसा है कि सभी तीन नंबर के नेता हिन्दी टीवी स्टुडियो में हैं और सभी एक नंबर के नेता अंग्रेज़ी स्टुडियो में। क्या इस सवाल का जवाब हमारी राजनीतिक पत्रकारिता के ढांचे में आई लुंज पुंजता में मिलेगा?
राजनीतिक संपादकों और राजनीतिक पत्रकारिता ने ही हिन्दी पत्रकारिता की ताकत कमज़ोर कर दी है। जनता से दूर कर दी है। हम हमेशा पत्रकारिता को सरोकारी बनाने पर लाखों शब्द और घंटों वक्त ख़र्च कर देते हैं। लेकिन कभी यह समझने की कोशिश की है अगर पूरा पेशा सिर्फ और सिर्फ एक और झुका हो तो क्या वो स्वतंत्र हो सकेगा। क्या वो सिस्टम की पूंछ नहीं बन जाएगा। जब सारे बड़े और प्रभावशाली पत्रकार राजनीतिक पत्रकारिता में ही समय गंवा देंगे और उसमें से भी पेशे को कुछ नहीं देंगे तो कौन सरोकार की बात करेगा। ल्युटिन दिल्ली की राजनीतिक पत्रकारिता से सरोकार की पत्रकारिता निकलती है क्या? सरोकार की पत्रकारिता निकलती है जनता के बीच से जहां राजनीतिक पत्रकार कभी नहीं जाता। वो चुनावों में जाता है और संसदीय क्षेत्रों का राजनीतिक देशाटन करके लौट आता है। अगर पत्रकारिता के पावर स्ट्रक्चर में एक संतुलन होता तो फिर भी पत्रकारिता की जनपक्षधरता बची रह पाती। राजनीतिक पत्रकार जनता से नहीं मिलता है। जनता के प्रतिनिधियों से संपर्क बनाते बनाते संपादक तक हो जाता है। राज्य सभा भी पहुंच जाता है। कभी आपने सुना है कि फीचर रिपोर्टिंग करते करते कोई राज्य सभा पहुंचा। और ये नामकरण जो किया गया है वो पेशे के भीतरी ढांचे में अपनी वर्चस्वता बनाए रखने के लिए किया गया है। क्या ये ढांचा बदल सकता है। नहीं। आप कब तक राष्ट्रपति चुनाव के पर्चे की खबर दिन भर देखते रहेंगे। कौन कहता है कि महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन यही महत्वपूर्ण है यह इसलिए भी मान लिया गया है क्योंकि पत्रकारिता के ढांचे के भीतर इसे कभी चुनौती नहीं दी गई है। क्योंकि यह फैसला संपादक लेता है जो मूल रूप से राजनीतिक पत्रकार होता है। इसीलिए ऐसी तथाकथित महत्वपूर्ण खबरों के चलते रहने पर किसी को अजीब नहीं लगता है। स्टुडियो में मुर्गा युद्ध होने लगा है। उससे पहले के राजनीतिक पत्रकारों की रिपोर्टिंग देखिये। उसमें भी मुर्गा युद्ध ही होता था। यहां से बयान लिया वहां से बयान लिया और फिर आखिर में अपना बयान दिया। जिसे मैं ल्युटिन जर्नलिज़्म कहता हूं। अशोक रोड से बयान लेकर निकले, अकबर रोड वाले से बयान लिया और फिर विजय चौक पर अपना बयान दर्ज कर दिया कि अब देखना है कि आने वाले दिनों में भाजपा कांग्रेस का या कांग्रेस भाजपा का क्या जवाब देती है।
ये ढांचा ही ऐसा है जो कभी सरोकारी नहीं हो सकता है। ल्युटियन दिल्ली में जनता नहीं रहती है। जनता रहती है कहीं और जहां कोई राजनीतिक पत्रकार नहीं जाता है। वहां कोई छुटभैया समझे जाने वाला, अपना करियर बना रहा पत्रकार जाता है। करियर बन जाने के बाद वो भी वही करता है जो राजनीतिक पत्रकार करते हैं। उसे भी लगता है कि कब तक सिटी बीट करेगा। पोलिटिकल बीट कब मिलेगी। पोलिटिकल बीट प्रमोशन की सबसे ऊंची मंज़िल है। उसमें भी महिला पत्रकार हाशिये पर ही हैं। पहले राजनीतिक पत्रकारिता के अपने ढांचे के भीतर का जेंडर असंतुलन ही ठीक हो जाए। इस पर कोई बात क्यों नहीं करता। क्यों लड़कियां फीचर रिपोर्टिंग करती मिलती हैं। क्यों फीचर रिपोर्टिंग करने वाला खुद को असुरक्षित महसूस करता है। उसके हिस्से दो चार अवार्ड न हों तो वो भी नसीब नहीं। कुछ ल्युटियन पत्रकार तो इसमें भी शातिर हैं। साल में दो चार दिन के लिए निकलते हैं और दिल्ली से दूर जाकर खबर कर आते हैं और फिर अवार्ड भी ले लेते हैं।
प्रभाष जोशी को याद करने के संदर्भ में ऐसा क्यों कह रहा हूं। इसलिए कह रहा हूं कि प्रभाष जोशी पत्रकारिता में आए इस असंतुलन का जवाब हैं। वो एक संतुलन का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका रेंज देखिये। राजनीति, धर्म, समाज,जनपक्षधर आंदोलन,समाज खेल किस विषय पर एकाधिकार से नहीं लिखा है। वो जाकर लिखते थे। पता करके नहीं लिखते थे।प्रभाष जोशी दिल्ली में ही नहीं रहते थे। प्रभाष जोशी का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन होना चाहिए। वो भी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके पीछे सिर्फ तारीफ ही करता रहे। लेकिन वो नर्मदा पर भी लिखते थे और यमुना पर भी। वो अनुपम मिश्र पर भी लिखते तो सुनील गावस्कर पर भी और उसी एकाधिकार से अटल बिहारी वाजपेयी को भी लपेट देते थे। वो नीचे से दिल्ली को देखते थे। बाकी दिल्ली से दिल्ली ही देखते रह जाते हैं।
(यह लेख प्रभाष जोशी की स्मृति में पाखी पत्रिका के विशेष अंक के लिए लिखा गया था।)
ab samajh me aaya ki kuchh channels bakwas interview kyun dikhate hain...
ReplyDeletenicely summarised..though a lot has to be done and we all know, nothing will be done..but when these words come from someone who belongs to the same fraternity..we know all that is not lost.
ReplyDelete"हालांकि टीवी में कुछ लोग राजनीतिक पत्रकारिता के बग़ैर भी शीर्ष पर पहुंचे हैं क्योंकि डेस्क टीवी की कलाबाज़ी में आंतरिक रूप से शक्तिशाली होता चला जाता है। मगर फिर भी आप पूरे पत्रकारिता के स्ट्रक्चर को देखें तो ज़्यादातर ल्युटियन दिल्ली के पांच किमी क्षेत्र में रहने वाले मकानों में बसे कोई सात सौ सांसदों के यहां चक्कर लगाने वाले पत्रकारों को ही सारा इनाम इकराम मिलता रहा है। उसमें से भी ये तथाकथित राजनीतिक पत्रकार पांच दस पचीस सांसदों के घर चक्कर लगाकर ही बाल सफेद कर भयंकरावस्था में दिखने लगते हैं। अब इन मकानों के बीच दस पांच दफ्तर भी आते हैं जिनका चक्कर लगाने से आप ब्यूरो चीफ बनते हैं।"
ReplyDeleteहा-हा-हा-हा... रवीश जी, सर्वप्रथम तो आपको बधाई देना चाहूँगा कि पत्रकारिता के इस आज के ज्वलंत मुद्दे पर कम से कम आपने तो अंतरात्मा की आवाज को सुना और बेवाकी की! बड़े अरसे के बाद आपके ब्लॉग पर टिपण्णी कर रहा हूँ , या यूं कहिये कि आपके इस लेख ने मजबूर कर दिया टिपण्णी देने को! आप तो रोज-मर्रा के जीवन में टीवी पर दिखाई जाने वाली तमाम ख़बरों के बीच ही बैठते हो, इसलिए सभी तरह की ख़बरों से वाकिफ रहते होंगे ! यह सही है कि पत्रकारिता का काम ही आम के बीच में से ख़ास को ढूंढ निकालना होता है! लेकिन हकीकत वो नहीं होती जो ख़बरों में दिखाई जाती है! हकीकत के पीछे की सच्चाई चंद रूपये के नोटों की विसात पर फेंकी गई वे राजनीतिक चाले होती है, जिन्हें खेलने में हमारे चार स्तंभों के सिपहिसलार माहिर होते है! अभी चंद हफ्ते पहले आपने भी देखा होगा कि आदर्श घोटाला मामले में महाराष्ट्र के एक पूर्व मुख्यमंत्री जी जब आयोग के सामने पेश होने जा रहे थे, तो उन पर तने खबरिया चैनलों का फोकस सिर्फ उस जगह पर था, जहां बीच से पूर्व मुख्यमंत्री महोदय शान से गुजर रहे है और अगल-बगल से पहले से ट्रेन खड़े दो "पेड़-भक्त" झट से झुककर उनके चरण-स्पर्श करते है! मैं देखकर बस यही सोचता रह जाता हूँ कि हमारे इस लुटियन-जर्नलिज्म ( आपके शब्दों में ) को पहले से कैसे यह मालूम पड़ जाता है कि इस अमुक , इस ख़ास जगह पर चंद सेकेंडों में कुछ होने वाला है और उनके भविष्य-ज्ञांता कैमरामैन अपने कैमरे का फोकस पहले से वही कर लिए होते है! और हमारे ये माननीय कैटेगरी के लोग यह सन्देश टीवी पर देने में सक्षम हो जाते है कि देखो अगले की जनता के बीच क्या इज्जत है, लोग झुक-झुककर उसके पैर छूंते है !
पिछले यूपी चुनाव के परिणाम आने के बाद एकदिन दोस्तों के बीच इसी मुद्दे पर यूं ही गप-शप चल रही थी, तो मैंने कौंग्रेस के प्रदर्शन पर सवाल उछाला कि यार टीवी पर तो हम देखते थे कि राहुल की सभाओं में बड़ी भीड़ उमड़ी पडी है रैली स्थल में जब राहुल अगलबगल भीड़ के बीचों-बीच बने लकड़ी के कोरिडोर से गुजरते थे तो महिलायें आगे बढ़कर उस कोरिडोर के अन्दर अपना हाथ आगे कर राहुल से हाल मिलाने को उत्सुक बड़ी दिखती थी, लेकिन इनको जो वोट मिले वह तो कहीं नहीं दर्शा रहे उनकी उस उत्सुकता को ? तो एक दोस्त ने जबाब दिया, अबे वो पहले से लिखा गया रूपक होता है, ठेकेदार तो १०० रूपये प्रति किरदार वसूलता है मगर ६० रूपये मिलते है, वहाँ मौजूद प्रत्येक किरदार को इसके एवज में ! उसकी बात सुनकर मैं उसवक्त तो हंस दिया लेकिन बाद में सोचता रहा कि क्या ये जो शिक्षा का बखेड़ा खडा किया जा रहा है कहीं इसके पीछे का उद्देश भविष्य के लिए सिर्फ एक "रेंट-ए-मॉब " खडा करना तो नहीं आने वाले युवराजों के लिए ?
टिपण्णी ज़रा लम्बी हो गई इसके लिए क्षमा !
ReplyDeleteरवीश जी, मैं भी आपके बहुत सारे प्रशंसकों में से एक गिनती हूं। आपका नौ बजे वाला कार्यक्रम भी अक्सर देखता हूं। आपने हिंदी व अंग्रेजी के पत्रकारों और पत्रकारिता पर जो कुछ लिखा है, वह तारीफ के काबिल है पर सच्चाई इस सबसे कहीं अधिक भयावह नजर आती है। पत्रकारों और पत्रकारिता का वीभत्स चेहरा तो छोटे शहरों तथा कस्बों में देखने को मिलता है।
ReplyDeleteशायद आपने कल्पना भी नहीं की होगी कि छोटे-छोटे शहरों में मीडिया माफिया किस कदर हावी है। वह करोड़ों में खेल रहा है और पत्रकारों की पूरी जमात को बंधक बनाये हुए है। एकबार के लिए स्टाफ रिपोर्टर अपने अखबार मालिक के चंगुल से तो निकल सकता है पर मीडिया माफिया के चंगुल से नहीं। ये बात अलग है कि इस सब के बावजूद कुछ पत्रकार हैं जो पत्रकारिता को जीवित रखने की धुन में मगन हैं।
आप तो फिर भी बहुत सक्षम हैं। अगर वक्त मिले तो कभी उनकी जिंदगी में भी झांक कर देखिये। यकीन मानिये, बहुत सुकून मिलेगा।
Hi Ravish - First of all, I congratulate you for this brave & transparent analysis of current working style of media. Irrespective of the media platform (be it Hindi or English), we all feel that there is some kind of the under-the-table truth. These 24 x 7 news reporting has lost the charm of ethical reporting...
ReplyDeleteअच्छा लेख लिखा।
ReplyDeletesach me sir isiliye aap mere inspiration hai wo bebak baat rakhne ka tareka , har mudde ko itni shiddat se samajh kar hame samjhana sach me asan kaam nahi hai isilye main sirf aap ka prog.hi dekhta hu aur sabhi channels aur prog.me sirf awaz ki teji hoti hai apne vicharo ki nahi...dhanyabad...
ReplyDeletesach me sir isiliye aap mere inspiration hai wo bebak baat rakhne ka tareka , har mudde ko itni shiddat se samajh kar hame samjhana sach me asan kaam nahi hai isilye main sirf aap ka prog.hi dekhta hu aur sabhi channels aur prog.me sirf awaz ki teji hoti hai apne vicharo ki nahi...dhanyabad...
ReplyDeleteचौथे पाराग्राफ में अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता के बीच वर्तमान भेदभाव का सवाल बहुत सही है. इसका जबाब प्रसूनजी ने अपने इस इंटरव्यू में दिया है... http://www.youtube.com/watch?v=S3vX4uMjo1s
ReplyDeleteरविशजी, मैं आपकी बहुत बड़ी प्रशंक हूँ. NDTV पर जब भी आपको देखती हूँ, remote एक तरफ रख देती हूँ पूरे इत्मिनान से आपका प्रोग्राम देखने के लिए. नौ बजे का शो तो मेरी खास पसंद है जो अगर रात को मिस हो जाये, तो सुबह ६.०० बजे repeat telecast देख लेती हूँ. २-३ दिन से गुवाहाटी प्रसंग को लेकर एक अलग क्षोभ आपकी वाणी में नज़र आ रहा है, खासतौर पर जो लोग बाद में कुछ कर सकते थे, उनको लेकर और सबसे अच्छी बात है कि आप उसे छुपाने का कोई प्रयास नहीं करते. आप सबसे बेहतरीन हैं रवीशजी.
ReplyDeleteरविश जी ,पत्रकारिता के पेशे में नहीं हूँ,न ही वही घिसे-पिटे समाचारों को देखना सुनना पसंद करता हूँ, क्या कहा जाना है और क्या होना है इसका अंदाजा पहले ही हो जाता है.जब आपको पहली बार बोलते सुना तो लगा की यार कुछ मिस कर गया हूँ. आपको और सुना जाना चाहिए,आपको और वक्त मिलना चाहिए.एक आदमी जो पत्रकारिकता के पैरामीटर के अनुकूल है उसे देख सुन कर राहत मिलती है की नहीं, हालात अभी इतने बुरे नहीं हैं की लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण पिल्लर से पूरी तरह नाउम्मीद हुआ जाये.
ReplyDeleteनेताओं,पार्टियों,बड़े घरानों की आँख में आँख डाल कर सवाल पूछने से बचने वाला शख्श ,स्वयं को मौके के अनुरूप ढाल कर अपने चैनल के लिए बड़ा विज्ञापन मार लेने वाला, एक शानदार व्यापारी,मौके की टांग पकड़कर सफलता के शिखर पर पहुंचने वाला तीसमारखां तो हो सकता है,लेकिन हजारों मजलूमों की आवाज को बुलंद करने वाला पत्रकार नहीं.
पत्रकार वो है जिसके शरीर में खून के बदले कलम की स्याही और छापाखाने की इंक बहती है,जिसकी हर सांस से फुस्स -फुस्स के बदले इन्कलाब जिंदाबाद की आवाज आती है,जो एक सड़क पर पड़े भिखारी के हक़ के लिए एक रईसजादे का गला पकड़ने से नहीं कतराता ,जो अपनी अंगुली को मुट्ठी में न भींचकर गुनाहगार के सीने में ठोकने का दम रखता है,जिसके भरोसे पर एक आम सताया हुआ आदमी संगठित गुंडों के सामने अपने हक़ के लिए आवाज बुलंद कर सकता है. आपको देखकर कुछ कुछ ये आस बंधती है. बस यही दुआ है आपके लिए की "खुदा करे जोर- ऐ -कलम कुछ और भी ज्यादा"
Salaam, jis najakat aur khubsurti se aapne aaj ki patralarita ko lapeta hai vo kaabil e tareef hai...kal prime time mein aapka ek naya hee roop dekhne Mila..kya Karen iss desh ki visangati hee hai..pashchim to uth ke gir raha hai..apna desh shayad bina uthe hee...Dekhte Rahiye, Kehte Rahiye aur bolte Rahiye..
ReplyDeleteSalaam, jis najakat aur khubsurti se aapne aaj ki patralarita ko lapeta hai vo kaabil e tareef hai...kal prime time mein aapka ek naya hee roop dekhne Mila..kya Karen iss desh ki visangati hee hai..pashchim to uth ke gir raha hai..apna desh shayad bina uthe hee...Dekhte Rahiye, Kehte Rahiye aur bolte Rahiye..
ReplyDeleteजब उत्तरों से अधिक प्रश्न उठें, मान लीजिये, चिन्तन आवश्यक है।
ReplyDeleteआपने जिस परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता को स्थान दिया है वह वाकई आज की आधुनिकता का आइना है !!! जिस तरह फिल्म का असली हीरो उसका निर्देशक होता है मुझे लगता है कि ठीक उसी तरह चैनल व अखबार के शीर्षपदधारी ही उसके असली कर्ताधर्ता हैं, उनकी मर्जी के खिलाफ जाना अपने पेट पर लात मारने जैसा है, आपका व आपके ब्लाॅग का मुरीद !!!!!!!!!!!! सर्वोत्कृष्ट लेख !!!!!!!!!!!
ReplyDeleteRavish Ji achcha likha....but aisa nahi hai ki hindi mai sirf bindi rah gayi hai...ek Link de raha hun...Patrika Group ka News Paper hai news today Indore Edition Jaroor padiyega. pichhale dinon ka arcive mai hai dekh sakte hai.
ReplyDeletewww.newstoday.net.in
ये आज के पत्रकारिता जगत की सच्चाई है... लेकिन फिर भी आप इतनी बेबाकी से कैसे लिख जाते हैं... जबकी आप भी इसी भीड़ में हैं उन्हीं के बीच काम कर रहे हैं... क्या कभी आपको झाड़ नहीं पड़ी बॉस से इस बात के लिए... जो भी हो खांटी बिहारी का मतलब रविश कुमार... सैल्यूट.
ReplyDeleteGogiyal Sir kee tipadi kabile tarif hai. Ravishji Rajendra Mathur bhi Prabhash je ke samkaksh the. Lekin dono ke jane ke baad sachmuch ek nirwat sa utpann ho gaya hai. Apke prime time se thoda energy mil jate nahi HUM TIMES NOW ke sahare hee the.Jab har chees bazar ban jati hai to problem hoti hee hai.APKE sabdo main, hamen rajneetik partiyon ke vichardharaon ka saman nahi banna chahiye.
ReplyDeleteravish ,aapne durust likha hai ,rajnaitik patrkarita ke alawa main aksar sochta hoon ki is nayee peedhi ke patrakaron ko ho kya gaya hai, delhi me ek bade aadmi kutta bhi mar jaaye to ye use breaking news bana dete hai ,par inme se koi bhi north east ki khabrein laane ki zurrat nahi karta hai .shayad inme sahas ki kami hai ya phir ye suvidhbhogi patrakar hai ,ya phir blackmail karke paise kamane wale hai ,inke liye patrakarita ek shaandar ,glamorous career hai ,iske siwa kuch nahi.
ReplyDeleteअच्छा ...यानि मैं सही था की हिंदी में अच्छे पत्रकार क्या पत्रकार ही नहीं हैं...
ReplyDeleteprabhash joshi was a gr8 jounalist.always represented aam admi n his language.but in his last few yrs he bcame biasd against BJP n RSS.unki achchaiyo me bhi unhe conspiracy najar aati thi.har samay chide hue dikhte the t.v. par.lagta tha koi personal dushmani nikaal rahe ho.ye ek paksha chhod dia jaye to it is difficult to attain his position s a journalist.
ReplyDeleteRavish ji, rochak tatha sargarbhit laga apka lekh,kintu samjane ko itna aaya ki samudaik vaimansyata ki alochana usme upje dosh ki wajah se usme hi samil kutumb ki alochana ko kitni tarhij di jani chahiye
ReplyDeletebahut accha lekh hai
ReplyDeleteDont know anything about prabhash joshi and a very little about ravish kumar:) but whatever i got frim this blog is-how to identify 'lutians' :) simply,'dekho,socho,samjho aur santulan sikho'-shayad yahi hetu hai is pure lekh ka :) honest blog on journalisum,keep up.
ReplyDeleteabhi tak kuch english aur hindi channels ki biased reporting aur discussion dekh kar tanav ho jata tha,aapeke iss lekh se mere shaqe sahi lage,aapeke jase samvadansheel patrakar (ashutosh bhi from IBN)aur kuch aise hi darshak ki mansik vedana aisee patrakarita bahoot bada(increase)deti hai.aap iss lutian journalism main bihari ganga baha sake to khud aapake chahne waalown se jyada khud aapki bacheni ko marham milegi. prabhash joshi ji ke samaband main yashodhan ne jo likha hai ,aapki feelings ko dekhte hue main bus wahin tak apani sahamati deta hoon.aapako bahoot hi sammanpoorvak mera, Namaskar.
ReplyDeleteaap ne meri soch ko shabdon mein dhaal diya.main bhee kuchh aisa hi sochata tha per yakt nahi kar pata tha. aap ne mery soch ko shabd diye .dhanyawad.
ReplyDeleterajendra misra.
aap ne meri soch ko shabdon mein dhaal diya.main bhee kuchh aisa hi sochata tha per yakt nahi kar pata tha. aap ne mery soch ko shabd diye .dhanyawad.
ReplyDeleterajendra misra.