इस फ़िल्म में बंगालन का किरदार अनायास नहीं आया है। धनबाद कोलकाता जैसे बड़े महानगर के एक्सटेंशन के रूप में काम करता रहा है। आसनसोल उसको सहोदर खदान है। धनबाद और आसनसोल एक सहज विस्तार का हिस्सा है। इसीलिए सरदार ख़ान के जीवन में बंगालन आती है। दुर्गा। इस फिल्म में बंगालन के किरदार को कोई और ठीक से व्याख्या करे तो अच्छा रहेगा मैं अपनी स्मृतियों के सहारे एक व्याख्या करने की कोशिश करता हूं। हिन्दी भाषियों के मन में बंगाल और बंगालन का वजूद अभी तक एक्सप्लोर नहीं किया गया है। हमारे सामाजिक मन में बंगालन हमेशा से एक आज़ाद ख़्याल वाली औरतें रही हैं। आज़ाद ख्याल पर विशेष ज़ोर देना चाहता हूं। जड़ हिन्दी भाषी मर्दसोच में बंगालन उस आज़ादी का प्रतिनिधि करती है जिसकी तलाश में वो भटकता रहता है। बंगालन की यह वो ख़ूबियां हैं जो वो अपनी पत्नी या सामाजिक लड़कियों में नहीं देखना चाहता। इस आज़ादी का अंग्रेज़ी का एक समकक्ष शब्द लूज़ बैठता है। आप इस बात को तब तक नहीं समझेंगे जब तक आप बिहार यूपी के हिन्दी भाषी नहीं होंगे।
अनुराग ने अपनी फिल्म में दुर्गा का किरदार उसी मानसिक इलाके की तलाश में रचा होगा। कहानीकार ने बारीक निगाह से इस किरदार के बारे में सोचा होगा। वर्ना ऐसा नहीं था कि दुर्गा के बिना वासेपुर की कहानी पूरी नहीं होती। सरदार को अगर चरित्रहीन मर्द के रूप में ही दिखाना था तो दुर्गा का प्रसंग एक रात के लिए होता। मगर वो हम हिन्दी भाषियों के मानसिक मोहल्ले में पूरी फिल्म के दौरान आखिर तक मौजूद रहती है। वो एक स्वतंत्र महिला है। कम बोलती है। बिना किसी सामाजिक दबाव के सरदार से संबंध कायम करने का फैसला करती है। एक दृश्य है जब सरदार नहा रहा होता है। दुर्गा टाट के पीछे बैठकर सरदार को देखती है। वो उसके करीब आ जाती है। बंगाल की लड़कियां काला जादू कर देती हैं। फंसा लेती हैं। ऐसी बातें हम सबने कही होंगी और सुनी भी होंगी। दुर्गा की साड़ी और ब्लाउज़ को हिन्दी आंखों की हवस और सोच के हिसाब से बनाया गया है। बंगाल की औरतों के कपड़ों को सर से पांव तक ढंकी हिन्दी भाषी प्रदेशों की औरतों और उनके मर्दों ने ऐसे ही देखा है। जलन से और चाहत से। सरदार का दिल तो आता है लेकिन अंतत दुर्गा फंसा लेती है। वो उसे अपने पास रख लेती है।
धनबाद के रंगदारों को रखैल रखने और किसी की रखैल हो जाने का सुख बंगाल से ही मिलता होगा। सोनागाछी उनका पसंदीदा और नज़दीक का ठिकाना रहा होगा। बिहार और यूपी के लोगों के संपर्क में पहले बंगाल ही आया। बंबई दूर था। बंगाली औरतों ने बिहारी यूपी मर्दों को अपना भी बनाया। कम किस्से हैं कि यूपी बिहार का भइय्या बंबंई गया और मराठी लड़की के प्रेम में पागल हो गया। हो सकता है कि मेरी जानकारी में ऐसे प्रसंग न हो लेकिन आप भोजपुरी गानों को सुने तो बंगालन का ज़िक्र एक खास अंदाज़ में हो ही जाता है। उसी का विस्तार है बंगालन का किरदार। बिहारियों ने उनकी सेक्सुअल स्वतंत्रता को विचित्र रूप से तोड़मरोड़ कर देखा है और मुहावरों से लेकर अपनी कल्पनाओं में सजाया है। तभी सरदार ख़ान उसे बंगालन जानते ही उपलब्ध समझने लगता है। वहां उसके बोलने का लहज़ा भी क्लासिक है। फुसला रहा है। गोरे गाल को दबोच लेता है। गाल का दबोचना भी हिन्दी प्रदेशों के सामंती मन में मौजूद कई दृश्यों को खोलता है।
बंगालन घर बर्बाद कर देने वाली औरतों के रूप में देखी जाती रही हैं। उनके संपर्क में आईं हिन्दी भाषी औरतों ने जब थोड़ी सी स्वतंत्रा का इस्तमाल किया तो उन्हें बंगाली कहा जाने लगा। यह मैं अपने बाप दादाओं के वक्त के सामाजिक अनुभव से लिख रहा हूं। तभी जब सरदार ख़ान का बेटा दुर्गा के दरवाज़े पर पत्थर मारता है तो उसका दोस्त भी मारने लगता है। ऐसे दोस्त मिल जाते थे जो बिना मतलब के दोस्त के काम आ जाते थे। मगर पत्थर मारने के उस दृश्य को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। नारीवादी विमर्श में इसकी प्रशिक्षित व्याख्या होनी चाहिए जो शायद मैं नहीं कर पा रहा हूं।
हां एक दृश्य और है। जब दुर्गा खुद सरदार खान के साथ हमबिस्तर होने आती है। उसके चीखने में एक पूरा विमर्श है। एक मुसलमान और बंगालन का हमबिस्तर होना एक सामान्य फिल्मी दृश्य नहीं है ये। मैं लिखना नहीं चाहता क्योंकि अच्छा होगा जब ये सवाल कोई अनुराग से पूछे और जवाब भी वही दें। मेरा इशारा काफी है। ऐसे सेक्सुअल पूर्वाग्रहों को भी समझने की ज़रूरत है। इसीलिए वासेपुर में बंगालन का किरदार उसके रहने की जगह,उसका पहनावा और उसकी चुप्पी सिर्फ एक जगह वो बंगाली बोलती है जब वो पत्थर मार रहे लड़कों को दौड़ाती है, मुझे विशेष रूप से आकर्षित कर गया। आश्चर्य है किसी की नज़र क्यों नहीं पड़ी।
बहुत पहले की बात है। बनारस में एक बंगालन भाभी थीं। खूबसूरत थीं। बहुत चहकती थीं। उन्हें देखकर कईयों का दिल हाथ पर आ जाता था। सबको लगता था कि उन्हें पटाना इजी है। वह सबसे हंस हंस कर बात करती थीं। जल्दी ही समाज में बदनाम हो गईं। शब्द मिला लूज कैरेक्टर की है। रविश सर आपने आज उन्हीं का चेहरा सामने ला दिया।
ReplyDeleteindeed..the portrayal of Durga is commendable but every character in that movie is fully justified by the actors...amazing movie..waiting for the continued part
ReplyDelete"फेसबुक पर एक जगह अपील की गई है - क्या आप मानते हैं एक अनुराग कश्यप एक 'राइजिंग स्टार' हैं? तो फिर वोट कीजिये, नहीं तो सरदार खान आपकी कह के ले लेगा ! यहाँ दर्शकों से पूछा गया है कि बताइये वासेपुर का सबसे अच्छा डायलाग कौन सा है और पढ़िए वासेपुर-तीन के लोगों ने क्या क्या लिखा है। इस बातचीत में शामिल फ्यूडल नॉस्टेल्जिया से ग्रस्त ज़्यादातर "ऊंची" जात के लड़के ही शामिल हैं, भले ही कोई इस फिल्म के स्त्री-किरदारों को मजबूत बताता फिरे।"
ReplyDeleteगैंग्स ऑफ शंघाई का नॉस्टेल्जिया है वासेपुर
http://gangadhaba.blogspot.in/2012/06/blog-post.html
रवीश जी,ये आपने अपने आखिरी पैरे में क्या क्या समेट दिया ।बहुत खूब...। वो बंगालन वासेपुर की है मगर हमारे वृंदावन में तो कई वासेपुर एक साथ देखने को मिलते हैं।अंतर इतना है कि यहां के सरदार ख्ाान सिर्फ खान नहीं बल्कि गोसाईं,वीआईपी,जजेज,प्रशासनिक अफसर समेत तमाम एैरे गैरे भी होते हैं । दिल्ली की संस्था तो बाकायदा यहां की बंगालनों के लिए "so called charity" भी चलाती है मोहिनी गिरी जिसकी अध्यक्षा हैं और उक्त''सभी''के लिए चैरिटी होती रहती है ।...और क्या लिखूं रिपोर्ट बड़ी हो जायेगी।
ReplyDeleteआशा करता हूं कि कभी कोई अनुराग कश्यप इधर भी देखेगा । इंतजार रहेगा...क्या पता आप ही कभी इधर देख लें।फिर भी वासेपुर की इस तरह समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा वरना बिकी हुई समीक्षायें पढने का तो मन ही करता ।
Maza aa gaya bangalan ke bare ai padhkar...waise mujhe bhi Durga ka character kaafi accha laga tha...waise Ravish ji aap PRIME TIME par kabse aane wale ho? Jaldi aao taki hum NDTV dekhna start kar de :-)
ReplyDeleteMaza aa gaya bangalan ke bare ai padhkar...waise mujhe bhi Durga ka character kaafi accha laga tha...waise Ravish ji aap PRIME TIME par kabse aane wale ho? Jaldi aao taki hum NDTV dekhna start kar de :-)
ReplyDeleteबैचलर इन फिल्म मेकिंग की डिग्री के फर्स्ट सेमिस्टर का पेपर है "गैंग्स ऑफ़ वासेपुर..."
ReplyDeleteAnurag Kashyap का शुक्रिया... फिल्म में चलने वाली गोलियां और गालियाँ शायद कईं लोगों को फिल्म से दूर रख दें.. लेकिन जो जानना चाहते हैं कि फिल्में कैसे बनायीं जाती हैं उनके लिए ये फिल्म देखनी अनिवार्य है...
बहुत खूब.... आपके इस पोस्ट की चर्चा आज 29-6-2012 ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित है ..अपने बच्चों के लिए थोडा और बलिदान करें.... .धन्यवाद.... अपनी राय अवश्य दें...
sadhu sadhu
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमनोज तिवारी का एक गाना है, गोरिया बंगाल के दगा दे गईल. मुझे आज भी याद है, इंटर में पढाई के दौरान मैं ये गाना गुनगुना रहा था. तभी एक लड़के ने इस पर आपत्ति की. वह कोलकाता में रहता था और उसका कहना था कि बंगाल की लड़की धोखा नहीं दे सकती. हालाँकि मैं इस जिद पर अड़ा था कि मनोज भाई ने गया है तो सही ही होगा. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर देखते हुए जब आखिरी सीन में दुर्गा फ़ोन पर बताती है कि सरदार खान वहां से निकल चुका है और आगे जाकर उसे गोली मार दी जाती है तो मेरे दिमाग में फिर से वही गाना बजने लगता है, गोरिया बंगाल के दगा दे गईल...
ReplyDelete'बंगालन' और 'काला जादू' मन को ले जा सकता है दक्षिण-पश्चिम मॉनसून की ओर जो संकेत करता है कि उत्तरपूर्व भारत में कोई न कोई अदृश्य शक्ति का निवास है, जिसके कारण बरसात के मौसम में, प्रत्येक वर्ष, हवाएं अरब सागर के जल को बादलों के रूप में हिमालयी क्षेत्र में विष्णु/ देवी के मूलाधार/ जननेंद्रिय शक्ति-पीठ (कामाख्या मंदिर असम क्षेत्र) की ओर खींच लेती हैं... और 'भारत' भूमि पर आधारित प्राणियों को एक वर्ष के लिए नया जीवन दान मिल जाता है...
ReplyDeleteवृक्ष हरे भरे हो उन पर आधारित प्राणीयों के लिए भोजन का साधन तो बनते ही हैं, वे अपने जीवन के अंत में भूमिगत हो, पेट्रोलियम (काला सोना)/ कोयले/ हीरे आदि के रूप में भी पाताल में परिवर्तित हो, प्राणीयों की सेवा करते चले जाते हैं - शक्ति के स्रोत भी बन... और हिन्दू मान्यता के अनुसार जीवन-चक्र की निरंतरता का सत्यापन करते भी, जैसे आकाश में भी एक भारी सितारा अपने अरबों वर्षों के जीवन के अंत में ब्लैक होल में पर्तिवार्तित हो कर करता है... और तीनों लोकों के स्वामी को त्रिपुरारी शिव, भूतनाथ कहा जाता आया है... ...
प्राचीन भारत में 'काला जादू' का आरम्भ इसी क्षेत्र से हुवा होगा, और जो अंग्रेजों के शासनकाल में राजधानी कोलकाता बंगाल होने से देश के अन्य क्षेत्रों में भी प्रचलित हुवा होगा और प्रसिद्द हो गया होगा... और माँ काली की लाल जिव्हा ही शायद उन भोंडी (बिहारी?) गालियों का कारण बनी होंगी शायद... कहावत भी है कि सब दोष जिव्हा का ही है (गलत खाने और बोलने में, कलियुग में?)...
मुझे नही लगता कि एक समाज विशेष की महिलाओं के लिये ऐसे विचार व्यक्त किये जा सकते हैं। यह जरूर है कि बर्मा युद्ध से लेकर मुस्लिम लीग की दंगाई नीतियो और उसके बाद बंग्लादेश की आजादी के दौरान बंगाल हालिया सदियो मे भयानक झंझावातो से गुजरा है। और हर उथल पुथल का शिकार औरते ही होती है। हर युद्ध का संताप उन्हे ही भोगना होता है। खैर जिस सहज भाषा से आपने वर्णन किया और फ़िल्म मे भी है और जाहिर है समाज मे भी है शायद यह उन लम्हो की कहानी है जिन्हे सदियां दोहरायेंगी। और चिंकी कही जाने वाली नेपाली मूल की महिलाये भी यही दंश तो भोग रही है। फ़िर भी सत्य कहना हरदम समाज को मजबूती देता है चाहे सत्य कैसा भी हो। सत्य से ही आगे की राह निकलती है। हरदम की तरह बेलाग और भदेस लेखन और यही आपकी USP भी है।
ReplyDeleteपता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा आपका आलेख पढ़ के की आप अभी तक हमार्रे दादाओ के सामंती सोच में अटके हुए है इसीलिए शायद आपको 'सामाजिक स्वतंत्रता ' सेक्सुअल स्वतंत्रता लगती है . और यही कारण है की इस कमेन्ट section में बहुत सारे भाइयो को वासेपुर की बंगालन एक ब्याक्तिगत न होकर सामाजिक repesentative लगाने लगाती है. मुझे लगता है की हम बिहारियों को बंगाल का कला जादू का डर ज्यादा लगता है और इसके पीछे भी हमारा सामाजिक और आर्थिक पिछारापन ही. फिल्म में एक मुसलमान और बंगालन हमबिस्तर नहीं हो रहे थे बल्कि एक स्त्री और पुरुष हमबिस्तर हो रहे थे हम हर बात को आखिर धर्म जाती के साथ क्यों जोड़ देते है और आखिरी में सेकुलर भी हो जाते है . आखिरी बात, वासेपुर की बंगालन का पहनावा सरदार खान जैसे चरित्रहीन को लुभाने के लिए नहीं था बल्की उसका natural स्टाइल था. हमारे हिन्दुस्तान में सारियो को बहुत तरीको से पहना जाता है.
ReplyDeletehttp://jaatnapuchosadhuki.blogspot.com/2012/07/gangs-of-wasseypur-most-authentic-movie.html
उस डायलोग पर ध्यान मेरा भी गया था, मैंने बगल बैठे दोस्त को धीमी आवाज में फुसफुसा कर कहा भी, "बंगाली गाली भी है दोस्त"!
ReplyDeleteमगर आप जैसे लिख नहीं सकते हैं ना हम.. :-)
YOU CAN ALSO READ IT IN...ये लिंक चलई नई री है |
ReplyDeleteबंगाल शेष भारत से अधिक जागरूक रहा है। वहाँ की औरतों में भी चेतना पहले आई थी। शरत के उपन्यास हो, देश की पहली डॉक्टर, स्नातक, क्रांतिकारी महिलाएं भी बंगाल से ही थीं। बंगाल को भारत का मस्तिष्क यूं ही नहीं कहाँ जाता था। रही बात औरतों को ले कर ढीली मानसिकता की तो यह केवल बंगाल के लिए नहीं बल्कि हर औरत के लिए ही सही है। गैंग ऑफ वासेपुर नहीं देखि वीभत्स हिंसा के कारण। जुगुप्सा हमेशा मनोरंजक नहीं होती। मधुर भंडारकर अब ढर्रे के आदमी हो चुके हैं।
ReplyDeleteये नजर—नजर की बात है।
ReplyDelete------
’की—बोर्ड वाली औरतें!’
’प्राचीन बनाम आधुनिक बाल कहानी।’
दुर्गा का किरदार, सरदार खाँ को उसके अन्जाम तक पहुँचाने के लिये फिल्म में लाया गया है । अब उसकी असली बीबी से दगाबाजी तो दिखा के उत्तर भारतीय दर्शकों से पंगा लेने की गलती अनुराग कर नहीं सकते । फिल्म मेकिंग में पैनी निगाह रखनी होती है ।
ReplyDeleteइसे दो महिलाओं की अपने वर्चस्व को बचाने की मुहीम के रूप में देखा जाना चाहिये । जब सम्बन्धों को और ढ़ोना सम्भव न हो तो उससे मुक्ति पाने का वासेपुरिया रास्ता 1970 - 1985 के उत्तर भारतीय समाज से अपेक्षित नहीं है ।
सो दुर्गा ने महिषासुर मर्दनी का रोल निभा दिया ।
gajab ka likhte ho bhai, bahoot muskil se google me mile ho, NDTV me ek hi journalist hai Ravish kumar jiska jaat, dharam puchne ka man nahi karta, baki sab chor, daku, dalal hai ek pahle bhi tha tumhare jaisa DEVANG pata nahi kaha gaya. Ravish ka report dekhte the aur ab prime time. dar lagta hai NDTV ko click karne me kahin kuch fayada na ho jaye NDTV ko anjane me lekin tumhara show dekhte hai. excellent job
ReplyDeleteRonny Yadav, Austin Texas, USA
Ravish jee,
ReplyDeleteWhile going through today's Times of India, saw an interesting article on super achievement of Kapil Sibal. Now instead of 2, MPs can send 6 students to Kendriya Vidyalaya. What now has started with MPs, will trickle down to MLAs, then to Ward comissionars as they are elected people too.
Ravish jee, you can perhaps a discussion in Prime time, that how long should we taken a ride for?
Ravish ji me aapke her samikshao aur tippniyo ko padhta hoon aur accha lagta he....
ReplyDeleteGang of vasepur zimini taur par ek
damdaar film he. Mujhe ajeeb laga ki bangalan ka charitr us patkatha me shahi ho us samay me.
Agar anurag kahshyap- part-2 me kisi aur bashi aurat ka chitran bangalan ki tharah karte he to ye nahi samajhna chahiye ki us jaisi har koi waisi ho....? Hume banglan ka character ko film k nazariye se dekhna chahyie na ki vastvikta se jodkar....
Ravish ji. Thank you very much for this article and I still remember then in 1991, when I went to BHU for graduation in science then my NANI told beware with Bangalans because they know Kala Jadoo. Today my Nani ji is not in this world but I remembered her due to your article.
ReplyDeleteParesh Kumar Singh, Varanasi
9415372338
नजर तो हर बात पे गई थी सर पर क्या करें आपकी तरह सरलता से लिखना नही हो पाता...क्योकिं जो भी मैं कहना चाहूँ बर्बाद करें अल्फाज मेरे... :)
ReplyDeleteu were the student of history,may be that's the reason you noticed the character which we guys taken very lightly.whatever the reason but your explanation for the character of"Durga" is phenomenal.....honestly speaking i didn't like the character when i watched the movie but now i am loving this,according to me this is the best character now....
ReplyDeleteअंत में काफी समेट दिया सर जी और पढ़ने की इच्छा थी।
ReplyDeleteयह सही है कि बंगाली औरतों के प्रति उक्त दृष्टिकोण आज भी कायम है। पर सच्चाई यह है कि स्त्री-पुरुष संबंधों में खुलापन धीरे-धीरे हर जगह अपनी जगह बना/बढ़ा रहा है। इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं(भले ही कई लोग इस सच से आंखें चुरा लें या जायज ठहरा दें)। एक बात और कि जिन इलाकों में औरतों को ज्यादा झेलना पड़ा, वहां की औरतें ज्यादा आजाद ख्याल होती गईं। समाज की मानसिकता में विकारों ने इतनी जगह बना ली है कि जहां सहानुभूति होनी चाहिए वहां भी 'मजा'घुस आता है। मुझे लगता है रवीश जी ने इसी सच्चाई को बिना आडंबर के सबके सामने रख दिया है।
ReplyDelete