आओ तुम्हें मैं चांद दिखाऊं

दक्षिण दिल्ली। डिफेंस कालोनी फ्लाई ओवर। शाम आठ बजे। दिन करवां चौथ। मर्सिडिज़, बीएम डब्ल्यू और पजेरो। अचानक किनारे इतनी कारों को देखकर लगा कि दुर्घटना हुई होगी।ध्यान से देखा तो नई नई साड़ियों में चमकती खनकती प्राण प्यारियां चांद निहार रही थीं। प्राण प्यारे कार में बैठे थे। कार का एसी ऑन था। कुछ प्राण प्यारी कार में बैठी थीं। एक पत्नी अपने पति के लिए दिन भर भूखी रही और पति क्रूड ऑयल के महंगे होने के ज़माने में एसी नहीं चलाएगा। हाय राम। कैसे कैसे पति हो गए। वो भी जब सेसेंक्स बीस हज़ारी हो गया हो।

लेकिन फ्लाई ओवर पर प्राण प्यारियां? जब बीएमडब्ल्यू कार है तो चांद देखने के लिए छत नहीं क्या? दिमाग खराब हो गया सोचते सोचते। आइडिया समझ में आ गया। डिफेंस कालोनी में हर अमीर ने दूसरे अमीर से ऊंची छत डाल ली है। नतीजा आसमान के करीब पहुंचने के बाद भी आसमान नहीं दिखता। जब आसमान नहीं दिखेगा तो चांद कहां से दिखेगा। ये सभी नव और पुरा दुल्हनें फ्लाई ओवर पर आईं थीं ताकि उसकी ऊंचाई से चांद दिख जाए। और वहीं ट्रैफिक के बीचो बीच पांव छूकर आरती उतारकर करवां चौथ संपन्न कर लिया जाए। जिनके पास छत है उन्हें चांद दिखता नहीं। जिनके पास छत नहीं उन्हें चांद से मतलब नहीं।

दिल दुखता है। वो छत ही क्या जहां से आसमान और चांद न दिखे। प्राण प्यारी को व्रत तोड़ने के लिए फ्लाई ओवर तो मॉल की छत पर जाना पड़े। अब अगले साल से करवां चौथ का फेस्टिवल डिफेंस कालोनी फ्लाई ओवर पर होगा। वहीं मेले लगेंगे। वहीं आरती होगी। वहीं चांद दिखेगा। हमें लगता था कि छत पर जाओ और चांद देखे। वाह। अब तो कार में बैठो और चांद देखने चले। एक गाना याद आ गया। आओ तुम्हें मैं प्यार सिखाऊं..सिखला दो न। उसी की तर्ज पर ये गाना है...
आओ तुम्हें मैं चांद दिखाऊं...दिखला दो न।

गांवों को बुलडोजर से ढहा दो

भारत के सभी गांवों पर बुलडोजर चला देना चाहिए।सारे घर और सड़के तोड़ देनी चाहिए। बाभन टोली, कुम्हार टोली, ठाकुर टोली, चमर टोली आदि आदि। ये क्या है। क्या हमने सोचा कि इन नामों की टोलियों में जातिवाद बेशर्मी से मौज कर रहा है।जब तक ये टोलियां है जातिवाद से हमारी लड़ाई फिज़ूल है। लोग खड़े हों और गांवों पर हमला कर दें। एक एक घर को तोड़ दें। ताकि चमर टोली, बाभन टोली और कुम्हार टोली का वजूद हमेशा के लिए खत्म हो जाए।

ऐसे गांवों का अस्तित्व भारत के लिखित और मान्य संविधान की तमाम भावनाओं के खिलाफ है। बराबरी की बात करते हैं। और गैर बराबरी के मोहल्ले बने हुए हैं। जिनका आधार जातिवादी है। ठीक है कि आरक्षण के कारण और शहरों में पलायन के कारण दलित टोली के कुछ मकान पक्के होने लगे हैं। लेकिन क्या इन नए और सवर्णों जैसे मकानों का बाभन टोली के मकानों से कोई नया रिश्ता बन रहा है। क्या भारत की आबादी के इस बड़े हिस्से में आ रहे बदलाव में बभन टोली, ठाकुर टोली के लोग शामिल हैं। करीब से देख पा रहे हैं? आर्थिक प्रगति के बाद भी जातिवादी टोलियां मज़बूत हो रही हैं।

अब इन टोलियों में पलने बढ़ने वाला सवर्ण बच्चा सामान्य व्यावहार में भी दलित बच्चों से फर्क करना सीखता होगा। दलित बच्चे इस अपमान को सहजता से स्वीकार करते हुए बड़े होते होंगे। ठीक है कि कई गांवों में अब दलितों को चप्पल नहीं उतारना होता है मगर पहचान कहां मिट रही है। उसे व्यापक समाजिक प्रक्रिया में साझीदार कहां बनाया जा रहा है।

इसलिए एक नया राजनीतिक आंदोलन खड़ा होना चाहिए। जिसकी शुरूआत गांवों से हो और बाद में शहरों में पहुंचे। दिल्ली जैसे शहर में भी माथुर अपार्टमेंट, गुप्ता हाउसिंग सोसायटी, अहमदाबाद के चांदनगर में दलित डुप्लेक्स बन गए हैं क्योंकि पटेल अपने अपार्टमेंट में रहने नहीं देते। इनका नंबर बाद में आएगा। गांवों से शुरूआत का मतलब यह है कि कुछ चार पांच गांवों को मॉडल के रूप में चुना जाना चाहिए। जहां के तमाम घरों और उनसे जुड़ी स्मृतियों को बुलडोजर से ढहा दिया जाए। नई नगर योजना के तहत सड़के बनें, जिनके आने जाने से जाति का पता न चले। घर बने। एक कतार में सबके घर हों। सब जाति के लोग हों। एक ही मैदान हो ताकि सभी के बच्चे एक ही जगह खेलें।यह नियम बने कि एक कतार में लगातार किसी एक जाति का घर नहीं होगा। यानी ठाकुर टोली और चमर टोली खत्म।

अब आप यह पूछेंगे कि जातिवाद खत्म हो जाएगा? जवाब यह है कि नहीं होगा। लेकिन जातिवाद के नाम पर बने सीमेंट और मिट्टी के कुछ घर मिटा देने से उसका कंक्रीट ढांचा तो खत्म हो जाएगा। जो आपकी मानसिकता को आकार देता है। पहचान देता है। उसमें खांचे बना देता है। जहां आप ऊंच नीच के भाव के साथ रहते हैं।

मैं यह बात गुस्से में नहीं लिख रहा है। स्टालिन के की डाक्यूमेंटरी देखने के बाद जातिवाद पर विचार करते हुए यह रास्ता दिखा है। यह डाक्यूमेंटरी उन तमाम लोगों के मुंह पर तमाचा है जिन्हें लगता है कि हिंदुस्तान बदल गया है। इंडिया अनटच्ड नाम की इस डाक्यूमेंटरी में देश भर में फैले छूआछूत को पर्दे में उतारा गया है। इसे देखिये। आपको शर्म नहीं आएगी क्योंकि आप जानते हैं कि छूआछूत हमारे देश में अब भी है। हम सबने इस शर्म को छुपा कर जीना सीख लिया है। जैसे कोई शातिर अपराधी अपने इरादों को छुपा कर शरीफ दिखने की कोशिश करता है।स्टालिन की डाक्यूमेंटरी हर धर्म
में छूआछूत की कंक्रीट इमारतों को पकड़ती है। स्टालिन गुजरात के एक प्रसंग में कैमरे पर दिखाते हैं कि कैसे पटेल(सवर्ण) की गाय का दूध स्थानीय बाज़ार में बिकता है और दलित की गाय का दूध बाहर के राज्य में भेज दिया जाता है। क्योंकि स्थानीय लोग दलितों की गाय का दूध नहीं पीते। ये गुजरात की कापरेटिव सोसायटी की हकीकत है। जहां दलित दुग्ध उत्पादकों के साथ यह बर्ताव हो रहा है। अब इसमें एक बात हो सकती है कि दूसरे ज़िलों या बाहर के राज्यों में अलग से प्रचारित किया जाए कि आप जो दूध पी रहे हैं वो दलित कोपरेटिव का है। देखते हैं कि कितने पढ़े लिखे और प्रगतिशील भारत के लोग पीना जारी रखते हैं।

इसीलिए आइये मेरे साथ चलिए। गांवों को तोड़ने। इनकी प्रशंसा बंद करने का वक्त आ गया है। हिंदुस्तान में इससे भ्रष्ट और गंध बसावट नहीं है। इसे तोड़ दो। नया गांव बनाओ। गांवों को तोड़ कर नया बसाने के काम से क्रांतिकारी बदलाव आएगा।

हैप्पी विजयादशमी !

सुबह से ही मुर्गे की तरह मोबाइल टूं टूं करता हुआ बांग देने लगा। विजयादशमी मुबारक। हैप्पी विजयादशमी। लगा कि होली, दीवाली है। याद करने लगा कि क्या पहले भी हम हैप्पी विजयादशमी बोला करते थे। यह नया नया सा क्यों लग रहा है? याद ही नहीं आया कि कोई हैप्पी दीवाली की तरह हैप्पी विजयादशमी बोलता था। मेरी भाभी ने भी फोन कर कह दिया...हैप्पी दशहरा। दशहरे के लिए ईद नुमा खुशी। रावण को फूंक फांक कर और मां दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन कर हम घर आ जाते थे।लेकिन किसी को हैप्पी दशहरा नहीं बोलते थे। बंगाल में शुभ बिजोया बोलने की परंपरा है। बड़े बुजुर्गों को बोलना पड़ता है। दोस्तों को भी। बच्चों को भी।

लेकिन हैप्पी दशहरा। लगा कि इसकी खोज कल हुई है और चौबीस घंटे के भीतर लांच कर दिया गया है। विश यानी मुबारक बाद देने का दबाव इतना बढ़ गया है कि हर कोई एक एसएमएस भेज देता है। कुछ भाई ने तो रिप्लाय सेंटर डिफाइंड वाला संदेश भेजा। जिसमें आप सेम टू यू लिखकर रिप्लाय नहीं कर सकते। यह कुछ भले लोगों का काम था। समझ रहे होंगे कि एसएमएस भेज कर ही झेल काम कर रहे हैं कम से कम रिप्लाय करने का मानसिक दबाव या तनाव न बढ़ाया जाए। ऐसे लोगों को दिल से मुबारक।

हम बधाई युग में जी रहे हैं। बधाई के इस आदान प्रदान में रिश्तेदारों को भेजे गए एसएमएस की संख्या कम होती है। ज़्यादातर ऐसे एसएमएस क्लायंट, व्यावसायिक मित्रो, दफ्तर और पेशे के परिचितों को भेजे जाते हैं। कोई अपने पिता या मां को हैप्पी विजयादशमी का एसएमएस भेजता होगा इसमें मुझे संदेह है। हालांकि हैरानी नहीं होगी।

अब एक नज़र एसएमएस पर।

दुर्गा है इसलिए ताकत से जुड़ी तमाम चीज़ें मिलने की दुआ की जाती है। शांति, शक्ति, संपत्ति, संयम, सादगी, सफलता, समृद्धि, संस्कार, स्वास्थ्य, सम्मान, सरस्वती और स्नेह। एक एसएमएस में मेरे लिए मां दुर्गे से इतना कुछ मांगा गया। सारे एक दूसरे के विरोधी। शांति, संपत्ति और सादगी एक साथ। संपत्ति और समृद्धि का मतलब शायद अलग होगा। खैर।

एक एसएमएस अंग्रेजी में लिखा था। May this Vijayadashmi brings joy to you, happiness and affluence of all the bright aspects in the life along with the best of everything.

2. We pray to MAA SHERAWALI to shower her blessing to you and your family Happy Vijayadashmi.

3. विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं। इस शुभअवसर पर आपको विशेष तरक्की मिले।

४. कुछ संदेश नवरात्रि पर भी आ गए।

-इस नवरात्रि पर मां वैष्णो देवी आपकी मनोकामना पूरी करें
मां नैना देवी नैनों को ज्योति दें
मां चिंतपूर्णि चिंता दूर करें
मां काली दुश्मनों का नाश करें
मां मनसा देवी मंशा पूरी करें
मां शेरांवाली परिवार में सुख शांति दें
मां लक्ष्मी धन दें
मां ज्वाला देवी जीवन में रौशनी प्रदान करें

इन सब संदेशों में विरोधाभास है। इन संदेशों का पाठ किया जाना चाहिए। यही सब संदेश होली और दीवाली में भी आएंगे। सिर्फ दुर्गा की जगह लक्ष्मी का नाम होगा। हैप्पी न्यू ईयर के संदेश भी यही सब होते हैं। उनमें दुर्गा और लक्ष्मी की जगह मे दिस ईयर ब्रिंग्स....लिखा होता है।

लोग आपके लिए वही कामना करते हैं जिनकी पूर्ति से बाज़ार को फायदा होगा। यानी आपकी क्रयशक्ति बढ़ जाए और माल बिक जाए। या फिर जिनकी चिंता में आप मरे जाते हैं। वेतन बढ़ेगा तो एसी खरीदेंगे। कार खरीदेंगे। तभी खुशी आएगी। यही फिक्र एसएमएस भेजने वाले की भी होती है। मुबारकबाद बदल गया है। मुबारकबाद के नए मौके तलाशे जा रहे हैं। एसएमएस भेजने वालों की मंशा ठीक होगी लेकिन अचानक विजयादशमी पर हुए इस हमले से मैं घबरा गया हूं। लगता है कि बूढ़ा होने लगा हूं। अपने दौर में जब खुद पूजा का आयोजन करता था तब तो किसी ने हैप्पी विजयादशमी नहीं बोला। सिर्फ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संदेश आते थे। वो भी अकेले मेरे लिए नहीं बल्कि पूरे देश के नाम होते थे। इन संदेशों में उपराष्ट्रपति का संदेश तो किसी गरीब की चीख की तरह होता था। कोई ध्यान भी नहीं देता था। और तो और इनमें बिना वजह सांप्रदायिक सौहार्द का मसला ठूंस दिया जाता था। हिंदू मुस्लिम सिख और ईसाई सबका है। मिल कर मनायें। भारत एक है। ख्वामख्वाह दशहरे के दिन टेंशन पैदा करने वाले संदेश होते हैं। अब भी वैसा ही होता है। लगता है विजयादशमी पर बधाई देने का आइडिया वहीं से आया है।

आइये इस दौर में मैं भी एक संदेश छोड़ मारता हूं। नया संदेश है। अगले साल किसी को भेज दीजिएगा। या फिर एसएमएस बनाने के लिए एक नई कंपनी लांच करें। जो आइडिया निकाला करेगी।

जैसे-

हिप हिप हुर्रे। विजयादशमी विजयादशमी। इसे तीन बार बोले। काफी लय है।

---------------------------------------
वैसे एक एसएमएस मुझे अच्छा लगा।

Best wishesh on occassion of 51th Dhammachakra Pravartan Din. Let us resolve to work hard for making Buddhist India, Casteless Society and to establish our rightful claim on India.

----हैप्पी डी डे।

सफल होने के उपाय-

सत्य और सफलता पर खूब शोध होता रहता है। हासिल करने के तमाम उपाय बताये जाते हैं। वनिता पत्रिका के साथ एक आरती संग्रह आया है। जिसमें राशि के अनुसार सफलता के उपाय दिए गए हैं।कुछ उपायों को पेश कर रहा हूं ताकि आपकों भी पढ़कर पता लग जाए कि सफलता कितनी दो कौड़ी की चीज़ होती है जिसे आलतू फालतू तरीके से भी हासिल किया जा सकता है। हर राशि के नीचे मेरा नोट भी है। देखिए सफल होने के नाम पर क्या कूड़ा हमारे घरों में आ रहा है।

मेष- हर मंगलवार हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाएं और पूरा प्रसाद मंदिर में ही बांट दें। पहले हनुमान जी के पैर देखें फिर चेहरा।
( नोट- ये कैसा प्रसाद है। जो घर नहीं ला सकते। भगवान के भोग के साथ ऐसा व्यावहार। जातिवाद की बू आती है)
वृषभ- काम शुरू हो क बीच में अधूरा रह जाता हो तो २१ गुरुवार गरीब ब्राह्मण को भोजन कराएं।
(नोट- इतने में क्या अधूरा काम पूरा नहीं हो सकता है? इतना बड़ा बवाल क्यों लादे भई?)
मिथुन- बीमारी में पैसा खर्च हो रहा हो या दफ्तर मे परेशानी आ रही हो तो किसी को मीठा व नमकीन दोनों खिलाएं।
---शोहरत पाने के लिए पानी में फिटकरी डाल कर स्नान करें।
(नोट- धोनी, अमिताभ या मडोना की तरह शोहरत पानी हो तो फिटकरी लेकर चलिए। नहाते नहाते आप दुनिया में मशहूर हो जाएंगे। लेकिन बाथरूम से निकलिएगा नहीं। नहाते रहिएगा।)
कर्क- बहस हो जाती हो तो शिव मंदिर में लाल चंदन दान करें
( नोट- आस पास शिव मंदिर न हों तो बहस ही न करें)
सिंह- ७ शुक्रवार कुएं में फिटकरी का टुकड़ा डालें। काम बन जाएगा।
--सौहार्द के लिए हर बुधवार गणेश जी को किशमिश चढ़ाएं।
(नोट- कुंआ ढूंढने के लिए दिल्ली से रोहतक जाना होगा। गुजरात के लोग गणेश जी को किशमिश खिलाएं। सांप्रदायिक सौहार्द बन जाएगा)
कन्या- परेशानी से बचने के लिए घर में कुत्ता न पालें।
-किसी से बेकार बहस हो जाती हो तो खाने के बाद सौंफ खाएं।
(नोट- दफ्तर सौंफ ले कर जाएं। खूब बहस करें और सौंफ खाते रहें, लेकिन कन्या राशि वालों ने कुत्तों का क्या बिगाड़ा है ???)
तुला-- दो सौ ग्राम गुड़ का रेवड़ी और दो सौ ग्राम बताशे इक्कीस मंगलवार तक बहते पानी में प्रवाहित करें। धन की समस्या दूर होगी।
( नोट- चार सौ ग्राम गुड़ और बताशे से अमीर बन सकते हैं। अंबानी को बता दीजिए। स्टाक मार्केट छोड़ बताशा खाना शुरू कर दें)
वृश्चिक--उच्च शिक्षा के लिए केले के पेड़ की पूजा करें, जल चढ़ाएं।
( नोट- अर्जुन सिंह सर्व शिक्षा अभियान बंद करें। और ज्योतिष से पूछें कि प्राथमिक शिक्षा के लिए किस पेड़ की पूजा कराएं)
धनु-- उच्च शिक्षा के लिए तांबे के बरतन में पानी भर कर अपने कमरे में रखें और सुबह पौधे में डाल दें।
( नोट- यूजीसी सारे विद्यार्थियों को तांबे का बर्तन उपलब्ध कराये। जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय में खासकर)
मकर- परेशानी से बचने के लिए लाल सांड को मीठी रोटी खिलाएं।
(नोट- कहां मिलेगा ये लाल सांड, दिल्ली के साउथ एक्स पर या नरीमन प्वाइंट में)
कुंभ-- उच्च शिक्षा के लिए तुलसी के पत्ते खाएं।
( नोट- यूजीसी या नॉलेज कमीशन ध्यान दें)
मीन-- नौकरी में परेशानी आ रही हो तो पीपल की जड़ में पानी डालें और कभी भी झूठ न बोलें।
(नोट- सही आइडिया है। झूठ बोलने से भी परेशानी होती है।)

बाप रे बाप। भगवान बचाए इस मुल्क को। वो भी अपने बंदों को कैसा कैसा आइडिया देता रहता है। राशिफल के नाम पर ज्योतिष भाई लोग खूब फल खा रहे

स्वेटर

तब की बात है जब अक्तूबर में हल्की सर्दी आने लगती थी। दुर्गा पूजा के पंडाल के खंभे सितंबर की बरसात में ही गड़ने लगते थे। बारिश के खत्म होते ही दिन छोटा होने लगता। शाम धुंधली होने लगती। सुबह सुबह ओस की बूंदे दिन की गरमाहट को कम कर देती।

तब फुल स्वेटर से पहले हाफ स्वेटर निकला करता था। पुराने के साथ साथ नया बुनता था। मनोरमा पत्रिका में छपी डिज़ाइन या किसी के हाथ का फन। हर बार स्वेटर कुछ नया होने की ज़िद करता था। रंग वही होते थे।गाढ़े लाल। नारंगी। सफेद। नीला। पीला। आज कल ऐसे रंगों से बने स्वेटर देहाती कहलाते हैं।तब स्वेटर का बनना तमाम लड़कियों और घर-पड़ोस की औरतों की कारीगरी हुआ करता था। बेटों के रंग चटकदार होते ही थे ताकि लगे कि कोई इस पितृसत्तामक समाज में उन्हें दुलार रहा है।

हाफ स्वेटर जल्दी बन जाता था। दस दिन में।सब मिलकर बना देते। सामने का पल्ला बड़ी दीदी ने बुन दिया। तो पीछे का पल्ला पड़ोसी की चाची ने। मेरे घर के ठीक पीछे गीता दीदी अक्सर स्वेटर का बार्डर तैयार कर देती थी। और हमारी उम्र की लड़कियां। उनके हाथों में अपना स्वेटर बुनता देख बहुत अच्छा लगता था। रोमांस तो नहीं लेकिन रोमांस जैसा ही लगता था। स्वेटर का बुनना एक संसार का बनना लगता था।

घीरे घीरे बुनता था स्वेटर। हर चार अंगुल की बुनाई पर नाप लेने का सिलसिला। कंधे से पहले कमर। कमर के बाद पीठ। पीठ के बाद गर्दन। गर्दन तक पहुंचने की बेकरारी चार अंगुल के नाप से तय होती रहती थी। पटना मार्केट से खरीदा गया ऊन का गोला। धीरे धीरे उघड़ता जाता। खुल कर बुनता जाता।

स्वेटर के साथ रिश्ते भी बुन जाते। इतनी मेहनत से कई दिनों तक बुना गया होगा। कभी बुआ, कभी बहन तो कभी मां। कभी कभी वो लड़कियां भी, जिनसे कभी बात करने की हिम्मत न हुई लेकिन उनका बुना हुआ स्वेटर पहन कर शहर में घूमते रहे। आखिर स्वेटर में उनका भी हिस्सा होता ही था।

अब कोई स्वेटर नहीं बुनता। स्वेटर का कांटा और ऊन का गोला...लोग अब भी खरीदते होंगे। लेकिन मेरी ज़िंदगी के दायरे से ऐसे लोग दूर हो गए हैं। अब किसी पड़ोसी को नहीं जानता। बहनों से दो साल में एक बार मिलता हूं। लेकिन कोई सात साल पहले तक ऐसे ही बुने स्वेटरों से मेरी सर्दी का संसार भरा था। चेक की डिज़ाइन हो या फिर रंग बिरंगे ऊन से बनती आड़ी तिरछी रेखाएं। बहुत शान से पहनकर एनडीटीवी आ गया । नया नया रिपोर्टर बना था। लगा कि इस स्वेटर का रंग कैमरे पर कितना खिल उठेगा। तभी प्रोड्यूसर ने कहा कि इन्हें उतार दो। बाय सम नाइस स्वेटर। यू कांट वेयर देम ऑन कैमरा। मैं सदमें आ गया। इस कदर इतनी मेहनत से बने स्वेटर को रिजेक्ट होते देखना। मौके पर मेरी एक सहयोगी खड़ी थी। पहली पहचान थी। हंसती रही। बहुत देर तक। स्वेटर पुराना पड़ गया। सात साल बाद वो मेरी दोस्त हैं। एक अच्छी दोस्त।
लेकिन एक बात खलती है। हंसते हंसते उसने कह दिया कि चेक वाले स्वेटर नहीं चलेंगे। वो पहली बार मिली थी लेकिन बात साफ साफ कह गई। बदल जाओ। नहीं तो बेटा ये दुनिया तुम्हारा मजाक उड़ाएगी। मेरे पास विकल्प नहीं था। आदेश था। हमेशा के लिए कई हाथों से बुना वो स्वेटर उतार दिया गया। नया स्वेटर है। नए दोस्त हैं। वो दोस्त अब भी हैं। हर सर्दी में चेक स्वेटर की याद दिला देती हैं।

अब बुना हुआ स्वेटर नहीं पहनता। अक्तूबर कब आता है कब जाता है पता नहीं चलता। सर्दी कम हुई है तो हाफ स्वेटर पहनने का चलन भी कम होने लगा है। स्वेटर के साथ रिश्ते नहीं पहनता। ब्रांड पहनता हूं। मांटे कार्लो। कासाब्लांका। होते बहुत रद्दी हैं। लेकिन पहनता हूं।

दोस्तों के बिना....

ज़िंदगी बेकार है। बहुत लोग कहते हैं। मुझे लगता था कि बेकार की बातें हैं। सही नहीं कहते हैं। बीस साल पहले तमाम दोस्तों से घिरा रहा। दिन रात उनके बीच। धीरे धीरे लगा कि दोस्ती एक दिन छूट जाती है। ज़िंदगी बदल जाती है। ऐसा होने भी लगा। जो बचपन के दोस्त थे, गायब होने लगे। जो जवानी के दोस्त थे,कम होने लगे। कंपनी के काम में कंपनी मिलती है दोस्ती नहीं बनती। बहुत सारी चीज़ें दोस्त नहीं बनने देती।


जिन लोगों ने दफ्तर में अच्छे दोस्त हासिल किए वो वाकई दिलदार होंगे। मेरे भी दफ्तर में कुछ ऐसे ही दोस्त हैं। कह नहीं सकता कि मैं दिलदार हूं। लेकिन वो मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं। मिलकर, बात कर अच्छा लगता है। सब कुछ बता आता हूं। बिना परवाह किए कि उन बातों का क्या होगा। कहीं गलत इस्तमाल तो नहीं हो जाएगा। यही भरोसा काफी है कि जिसे बता रहे हैं उसे आप दोस्त समझते हैं। ये और बात है कि ऐसे दोस्त बहुत कम हैं। उनके खो जाने का डर भीतर से खाली कर देता है।बदल जाने का डर मार देता है।साथ मिलने का अहसास ज़िंदा रखता है। कई साल से वो दोस्त हैं। दिन रात बात करता हूं। खोजता रहता हूं। ये मेरा व्यक्तिगत मामला है। फिर क्यों लोगों की नजर होती है कि ये या वो दोस्त क्यों हैं? आप से कोई नाराज़ हुआ तो दोस्त को लपेट लिया। दफ्तर में दोस्ती बैड क्यों मानी जाती है? लोग घबराते क्यों हैं कि कोई किसी का दोस्त है।

मैं तो कहता हूं हजार दोस्त हों। क्यों ऐसा है कि दोस्त एक या दो ही होते हैं। दस बीस क्यों नहीं हो सकते। वर्ना हमने बारह साल की अपनी नौकरी में कई लोगों को देखा है। प्रतिस्पर्धा के बहाने दोस्ती दागदार होती रहती है। आप किसी के लिए दिल से संवेदनशील नहीं रह जाते। सिर्फ अपनी बात कहने के लिए या फिर अपनी बात कहने के बहाने किसी के दिल तक उतरने के खेल में माहिर हो जाते हैं। तमाम सूचनाएं किसी को न बताने की शर्त पर चुपचाप इधर से उधर हो जाती है। कुछ लोग तो रोने के लिए भी मिलने लगते हैं। रोने के बाद उसी को रुलाने में लग जाते हैं जिसके साथ रोते रहते हैं। दोस्तों के बिना आदमी खूंखार हो जाता है।


बहुतों को देखा है। एक ही गाड़ी से आते हैं। एक ही शिफ्ट में काम करते हैं। करीब जाने पर पता चलता है दोनों दोस्त नहीं। वो दफ्तर में दोस्त होने के लिए काम नहीं करते। कुछ हासिल करने के लिए काम करते हैं। इसीलिए हमारे संबंध बहुत जटिल होते हैं। हम संबंधों का इस्तमाल करते हैं। अपने आप को बचाने के लिए तो किसी को गिराने के लिए। सवाल है कि क्या आप संबंधों के बिना जी सकते हैं।

बस मैंने अपने पुराने दोस्तों की तलाश शुरू कर दी। बारह साल में इंटरव्यू के अलावा किसी व्यक्तिगत काम से कम ही लोगों से मिला हूं। दफ्तर के बाहर कोई ज़िंदगी नहीं रही। तो दोस्त भी नहीं रहे। अब मुझे मेरे तमाम दोस्त याद आते हैं। जो दोस्त हैं लगता है कि कैसे इन्हें संभाल लिया जाए। बचा लिया जाए ,उन पलों के लिए जहां ज़िंदगी अपना मतलब ढूंढती है। तीन महीने में मैंने दस दोस्तों को ढूंढ निकाला। बचपन और जवानी के दोस्त। ज़िंदगी में कुछ कामयाब तो कुछ असफल। जिसने भी बात की लगा कि सब मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। मेरे फोन का। पुराने दोस्तों के मिलने की खुशी ठीक उसी तरह है जैसे सर्दी के दिनों में बक्से से कोट निकाला और कोट की जेब से पिछले साल का रखा दस रुपया निकल आया हो। इस पैसे से आप कुछ कर तो नहीं सकते मगर खुशी जो मिलती है, वो खरीद नहीं सकते। पुराने दोस्तों का मिलना भी वैसा ही लगा। दोस्त मिलते रहने चाहिए। उससे ज़्यादा बनते रहने चाहिए।

ये कोई सलीम जावेद की थर्ड क्लास कहानी नहीं है। पुराने दोस्तें के मिलने के अहसास को बांट रहा हूं। प्रमोद सिंह ने कहा कि मिला जुला करो। वो खुद मेरे घर आ गए। अच्छा लगा। दोस्त हुए या नहीं पर इतना तो लगा ही कि कोई दोस्त जैसा ही आया है। संजय श्रीवास्तव ने कहा कि अरे रवीशवा... तुम हमलोग के बिना कैसे रह लेता है रे। एतना अच्छा लगा है कि का कहे। संजय बोलता रहा और पूछता रहा कि रवीशवा तू अभी भी हंसता है कि नहीं। मस्त है न। चिंता मत करना। हम लोग तो है ही। कोई काम हो तो बोल देना। जब से पत्रकार बना हूं लोग मुझे किसी काम के बहाने फोन करते हैं। पहली बार किसी ने कहा कि तुम्हें काम हो तो बोलना। ये कोई दोस्त ही कह सकता है। दोस्त होने चाहिए। बनते रहने

यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं

बहुत अच्छी सड़क है
घर में है बिजली
फिर वो क्यों अपने
घर में दबा सहमा है
कोई गरीब नहीं
सब अमीर हो गए
फिर वो क्यों अपनों
से खौफज़दा है

गुजरात में कितना कुछ है
पांच करोड़ गुजराती खुशहाल हैं
फिर क्यों पांच करोड़ में
मुसलमान शामिल नहीं है
अहमद की आंखों में इनदिनों
वो खौफ का मंज़र क्यों हैं
ज़ुबेर की ज़बान पर इनदिनों
इस बार अल्लाह खैर करे
हर बार क्यों हैं

दूर से चमकता है गुजरात
अच्छा लगता है गुजरात
इतना विकसित गुजरात का
इतना छोटा सा दिल क्यों है

मोदी को सिर्फ नज़र आता है
विकास और पांच करोड़
इस तंगदिल नेता का गुरूर
कुछ कम होता क्यों नहीं है

गया गुजरा नहीं गुजरात
चालीस करोड़ हिंदुस्तानियों के लिए
एक गांधी निकला था गुजरात से
उसी गुजरात से अब निकला मोदी
सौ करोड़ को डराता क्यों है
पांच करोड़ की बात कर
यह गुजराती गुर्राता क्यों हैं

मोदी का सांप्रदायिक विकास

नरेंद्र मोदी को सिर्फ गुजराती नज़र आते हैं। साढ़े पांच करोड़ गुजराती। उन्हीं के विकास के लिए नरेंद्र मोदी दिन रात काम करना चाहते हैं। सड़कों का विकास किया है। बिजली दी है और शिक्षा दी है। नरेंद्र मोदी अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद को बकवासवाद मानते हैं। नरेंद्र मोदी कहते हैं कि जनता उनके साथ है। उन्हें किसी की परवाह नहीं।


किसी ने कहा है क्या कि सांप्रदायिक सिर्फ नेता होता है? वोटर नहीं होता। नरेंद्र मोदी अक्सर सांप्रदायिकता से जुड़े सवालों को जनता के काम और विकास से जोड़ कर बच निकलते हैं। जनता भी सांप्रदायिक होती है। सांप्रदायिकता के खिलाफ की लड़ाई सिर्फ नेताओं से नहीं बल्कि उनका साथ देने वाले वोटर से भी है। बिहार में कई सालों तक वोटर ने भ्रष्ट औऱ गुंडे नेताओं को चुना। तो क्या वोटर के बहाने नेता अपना पाप धो लेगा? वोटर भी अपराधी है। बाद में जब वोटर को अहसास हुआ तो आज शहाबुद्दीन जेल में है। ऐसे नेताओं को शह देने वाली सरकार बाहर है। नई सरकार बहुत अलग नहीं है। मगर हाशिये पर दिखने वाले जनमत का दबाव तो है कि नीतीश लालू से कितने अलग है।

लोकतंत्र में लड़ाई नेता से नहीं बल्कि वोटर से और उसके बीच भी होती है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। किसी एक चुनाव का नतीजा उस लड़ाई का अंतिम फैसला नहीं होता। कई चुनावों के बाद भी फैसला हो सकता है। जैसे बिहार की राजनीति का अंतिम फैसला अभी नहीं हुआ है। लेकिन हो रहा है।

नरेंद्र मोदी जानते हैं कि वो हिंदुत्व की लड़ाई में कमज़ोर पड़ रहे हैं। हारे नहीं हैं। जिस आलोचना को वो हाशिया कहते हैं उसी का दबाव है कि वो अब खुलकर इस पहचान की बात नहीं करते। इसलिए वो विकास के लहज़े में हिंदुत्व की बात करते हैं। सांप्रदायिकता को नई धार देने के लिए। पांच करोड़ गुजराती की बात करते हैं। जैसे सारे गुजराती मोदी के बोरे में आ गए हैं। जैसे पांच करोड़ गुजराती देश से अलग होने का फैसला कर लें तो बाकी भारत के लोग मान लेंगे। बाकी के कई करोड़ भारतीय इस सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं उनका क्या करेंगे। नरेंद्र मोदी वोटर के नाम पर अपने पाप धोने की कोशिश न करें। सांप्रदायिकता की कीमत पर अगर विकास को चुनना होगा तो यह भयानक है। ऐसे विकास को उसी तरह खारिज कर देना चाहिए जैसे आर्थिक उदारीकरण को खारिज करने की मुहिम है।

गुजरात के वोटर से बात करनी चाहिए। क्या उसका सांप्रदायिकता को समर्थन है? क्यों नहीं जनता ने मोदी का विरोध किया? क्या पांच करोड़ गुजराती की बात कर मोदी अपने सांप्रदायिक राजनीति में उसे भी सहभागी बना रहे हैं? गुजराती से पूछना चाहिए। क्या इस पांच करोड़ गुजराती में वो भी शामिल हैं जो मोदी के साथ नहीं है। चाहे वो जितने भी हैं। एक करोड़ ही सही। इतने लोग तो होंगे ही जो कांग्रेस या बीजेपी के विरोधियों को वोट देते होंगे या फिर मोदी के साथ नहीं होंगे। फिर किस हक से मोदी सभी गुजरातियों को एक ही बाड़े में हांक रहे हैं। गुजरात में पटेल की कालोनी में कोई दलित नहीं रह सकता। पटेलों के किसी अपार्टमेंट में दलित फ्लैट नहीं खरीद सकता। तो क्या गुजरात में जातिवाद की आलोचना बंद कर दें क्योंकि सारे पटेल ऐसा करते हैं। वो किसी दलित को पड़ोस में नहीं रहने देते। अगर गुजराती किसी समस्या से ग्रस्त हैं तो उसकी आलोचना हर हाल में होनी चाहिए। उसका इलाज होना चाहिए। मोदी संख्या न दिखायें।

नरेंद्र मोदी का अब भारत नहीं रहा। वो सिर्फ गुजरात है। एक ऐसी पहचान की राजनीति जो सांप्रदायिक सोच से अपना चेहरा ढांकती है। मोदी के गुजरात में सिर्फ गुजराती हैं। मोदी किसी अलगाववादी नेताओं की तरह बात कर रहे हैं। गुजरात गौरव क्या होता है? गुजरात की अच्छी सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए यह समझना होगा कि आखिर कार का मालिक इतनी अच्छी सुविधाओं के बाद भी सांप्रदायिकता जैसी संकीर्ण सोच क्यों रखता है? लगातार बिजली और अधिक पैसा सांप्रदायिकता की बीमारी को हवा देती है। अधिक पैसे से कई बीमारियां समाज में फैल रही हैं। मोबाइल फोन से कान खराब हो रहे हैं, सेक्स की क्षमता कम हो रही है। तो मोबाइल फोन के सीमित इस्तमाल की बात हो रही है या नहीं? मोदी को बताओ कि विकास अंतिम सत्य नहीं है। जैसे किसी एक या दो चुनाव का नतीजा अंतिम फैसला नहीं।

चुनाव की पनबिजली

अंधेरे में रहने वाले देशवासियों

आज तक किसी को फिक्र नहीं थी। तुम्हारे घरों में घंटों बिजली नहीं आती थी। जो तुममें अमीर था उसने जेनरेटर और इंवर्टर से बिजली का उत्पादन शुरू कर दिया। फिर भी बिजली की कमी बनी रही। गांव गांव और दिल्ली मुंबई जैसे शहरों के कई हिस्से में बिजली, बिजली की तरह की आती रही है। घंटों कटौती। याद कीजिए कब बिजली को लेकर राजनीतिक दलों में घमासान मचा है। अभी तक मुफ्त बिजली देने को लेकर युद्ध होता था इस बार बिजली पैदा करने की तकनीक को लेकर मार मची है। परमाणु ऊर्जा से बिजली बने इसलिए मनमोहन सिंह अमरीका से करार कर आए तो करात साहब को अच्छा नहीं लगा। क्या वो नहीं चाहते कि आज न सही कम से कम दो हजार बीस तक लोगों के घरों में बिजली आ जाए। घंटों कटौती न हो।

खैर यह ज़रूरी नहीं है कि किसे अच्छा लगा या नहीं लगा। लेकिन यह तय हो गया कि कभी भी हो सकने वाला अगला चुनाव उन लोगों की बातें करेगा जो घंटों बिजली के नहीं आने से तौलिये और लुंगी से पंखा करते आए हैं। वो छात्र अब खुश हो सकते हैं कि इस बार मोमबत्ती की रौशनी में बोर्ड इम्तहान देने के दुख पर बड़े बड़े नेता बात करेंगे। वादे करेंगे। तब आप छत पर खटिया लगा कर तारे देखते हुए बिजली की बातें और वादे सुना कीजिएगा।

कांग्रेस वाले कहेंगे कि हम परमाणु बिजली पैदा कर अंधेरा दूर करना चाहते थे। कब तक २०२० तक। तब तक दो और चुनाव हो जाएंगे। बीजेपी कहती है कि दो चुनाव बाद पैदा होने वाली बिजली के करार की शर्तें दिखाओ। करात कहते हैं देशवासियों तुमने साठ साल अंधेरे में ज़िंदगी काट दी। कुछ साल और सही । मगर अमरीका के सामने झुकना मत। देशहित बिजली की रौशनी से कहीं ज़्यादा महान है। सो करात का फरमान है करार नहीं हो। ज्योति बसु कह रहे हैं कि प्रणब बाबू की सुन लो भई। करात और राजा कहते हैं कि उनकी नहीं सुनेंगे। अपनी कहेंगे।

इसीलिए कहता हूं अंधेरे में रहने वाले लोगों आपकी ज़िंदगी में उजाला आने वाला है। बिजली नहीं आएगी मगर बिजली की कमी पर बातें होंगे। अभी तक बिजली कटौती की खबरें अखबारों के कोने में छपती थी। टीवी तो दिखाता ही नहीं था। लेकिन इस बार लोग खूब बोलेंगे कि भइया वोट देना तो बिजली पर। वो भी परमाणु बिजली पर। पनबिजली पर नहीं। प्रकाश करात के झांसे में मत आओ। कहते हैं कि भारत अपनी बिजली बना सकता है। तो बना क्यों नहीं रहा था। बिजली विभाग के कर्मचारी इनदिनों नए नए इलाकों में बन रहे अपार्टमेंट्स में मीटर लगाने के कमीशन में मालामाल हो रहे हैं। इधर हाल है कि इनके लिए सरकार गिर रही है। मैं तो कहता हूं कि इस देश में बिजली नहीं आएगी। जितनी आ गई काफी है। बस घंटों कटौती को हफ्तों कटौती में बदल दो।

इसलिए इस पूरे बहस में मैं खुश हूं। कम से कम बिजली की बात तो हो रही है। अभी तक बिजली का चुनावी ज़िक्र बिजली सड़क पानी के नारे को पूरा करने के लिए होता था। नेता बिजली और पानी को छोड़ जवाहर रोजगार योजना के तहत सड़क बनवाने में ही रह जाता था। अब बिजली बनेगी। अंधेरा दूर होगा। गिरने दो साली सरकार को। हम तो चाहते हैं कि अभी गिरे। अगर ये सरकारें बिजली पैदा करती रहती हैं तो आज यह नौबत न आती। तीन साल में बिजली के लिए ढेले भर काम नहीं किया तिस पर से तुर्रा यह कि परमाणु बिजली से देशभक्ति तय करेंगे। कीजिएगा। जून के महीने में किसी स्मॉल टाउन जहां घंटो बिजली नहीं होती है वहां जाकर।

यह भारत का पहला चुनाव होगा जो बिजली को लेकर लड़ा जाएगा। सड़क और पानी को लेकर नहीं।