स्कूल, कालेज और अस्पताल सबकी हालत ख़राब है । जब तक राजनीतिक और प्रशासनिक ढाँचा नहीं बदलेगा कुछ नहीं होगा । सरकारी लूट में लोग भी शामिल हैं । लोगों का पता है कि कौन लूट रहा है । उन्हें यह भी पता है कि गाँव में किस योजना में कितना अनुदान आया है और कितना खा पी कर बराबर कर दिया गया है । फिर भी सब चुप हैं ।
सरकारी स्कूल साक्षरता और पंजीकरण दर के आँकड़ों को बढ़ाने के लिए हैं । गाँव क़स्बों के बच्चे अब उन स्कूलों में ठेले जा रहे हैं जिनकी इमारतें काँच की हैं और नाम प्राइवेट से लेकर इंटरनेशनल स्कूल तक है । पढ़ाई का स्तर ख़ास नहीं है । तकलीफ़ होती है देखकर । अस्पतालों को देखकर रोना आता है । आम आदमी बेहद तकलीफ़ से गुज़र रहा है ।
सरकारों को समझना चाहिए कि अब कामचलाऊ रफ़्तार से नहीं होगा । व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत है । यह वक्त था इन सब मुद्दों पर खुल कर बहस करने का मगर सारा वक्त हाँ या ना टाइप के नारों में चला गया । ज़मीन पर स्थानीय नेताओं को खरीद कर और टीवी में हवा बनाकर बहस हो रही है । घोषणापत्र में स्लोगन ज़्यादा लिख दिये गए हैं । देश बदलाव मांग रहा है । सिर्फ कुर्सी का बदलाव नहीं । आमूलचूल बदलाव ।
यह चुनाव चूक गया । राजनीतिक सुधार के मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं । प्रशासनिक सुधार कैसे होंगे इस पर कोई बात नहीं । लोगों ने जात पात को छोड़ काम काज को प्राथमिकता देना शुरू नहीं किया तो ग़ज़ब होगा । ऐसा कैसे हो सकता है कि लोग प्रधान से लेकर सांसद तक से परेशान है । सब कहते हैं कि क्या कर सकते हैं साहब । आख़िर समुदायों के आधार पर चुनें नेताओं से क्या लाभ हुआ । ऐसा नहीं है कि उनसे लाभ नहीं मिला मगर अब उसकी उपयोगिता समाप्त हो जानी चाहिए । हर मतदाता क्यों कहता है कि वो लाचारी में चुन रहा है । ग़लत लोगों को चुनने के लिए मतदान करना है तो मतदान केंद्र तक जाना ही क्यों । चुनाव मत प्रतिशत बढ़ाने के लिए नहीं होते । न ही सरकार चुनने के लिए होते हैं । चुनाव होता है लोक सभा के गठन के लिए । ऐसा नहीं है कि लोगों ने उम्मीद छोड़ दी है मगर उन्हें अब अपनी ताक़त की पहचान करनी ही होगी ।
33 comments:
Ravish sir mera ye kehna hai is baar logo ko nota ko use mein lana chahiye kya aap sahmat hai.netao mein kam se kam agli baar darr to banega ki hamne kaam nahi kiya Isliye reject hue hai.
Ek tarah ki uljhan hoti hai ye sab jaan kar ki kab tak aakhir , aur kab tak hum yahi sochte rahenge .. Education is the root cause of this mind blockage ...Haryana main dekha aapke show main , log kuchh samjhne lage hain.
Abhi me US me rah raha hu. Mainpuri sansadiya chetra me mere pitaji ka birthplace hai aur abhi bhi parivar ke bahut saare log wahi jaswantnagar me rahte hai. Me khud firozabad me bachpan me 5-6 saal raha hu. Aur is baar umeed ki hai ki desh shayad aage jayega. Halaki aaj ke karnamo se bada dukh hua hai. Agar is baar phir hum jaati aur dharm ke naam par logon ko jitate hai to dil tut jayega. Pata nahi phir hindustan wapas lautne ki himmat kar saku. Pata nahi hum aage jayenge ya piche. Is baar umeed thi, ki hum us se upar aa payenge.
आपके पुराने सप्ताह के लगभग सारे एपिसोड देखा। यही पता चला की सबको पता है की पैसे कौन खा रहा है लेकिन दुःख
होता है ये जानकर की कोई आगे आवाज़ नहीं उठाना चाहता। नौजवान चुप है या की किसे भुलावे में ,थोड़ी बहुत जागरूकता है भी तो बूढ़े लोगो में जो लगता है अब थक गए है की कोई बदलाव नहीं हो सकता।पता नहीं लोग किस भुलावे में जी रहे है किस मशीहा का इंतज़ार कर रहे है।स्थिति पहले से और ख़राब हो रही है। पता नहीं कब लोग अपनी जर्रोरत से ज्यादा सबकी जर्रोरत पर ध्यान देंगे। जब से देने लगेंगे तब से ही इस देश में नयी सुरवात होगी।
जीतेन्द्र सर nota का use करना अपने वोट को बर्बाद करने जैसा है। इससे तो अच्छा होगा उसको वोट दे जो उनमे से ईमानदार हो जीते या हारे कम से कम लड़ने की शक्ति तो आएगी। कम से कम लगेगा की कोई साथ दे रहा है। अगर बाकियों को सुधारना होता तो लोग दुबारा बिना काम किये वोट मागने नहीं आते।
Kabhi rajasthan bhi aaye ravish babu yahaa bhi nobat e haram paida hai
सर, हो सके एक कार्यक्रम आप ईंट भटों पे काम करने वाले मजदूरों के जीवन पर करिये, उन्हें बहुत जरूरत
है समाज के मुख्यधारा से जोड़ने की कोई पार्टी अपने मेनिफेस्टों में उनके बारे में बात नहीं करती
सर, हो सके एक कार्यक्रम आप ईंट भटों पे काम करने वाले मजदूरों के जीवन पर करिये, उन्हें बहुत जरूरत
है समाज के मुख्यधारा से जोड़ने की कोई पार्टी अपने मेनिफेस्टों में उनके बारे में बात नहीं करती
1857 ke baad 90 saal laga so called azadi ke liye. 15-20 lakh longo kee jaa lene ke baad + 10 lakh Bangladesh kee paidaish me. Asha kar sakte hai is baar nahi to aglee bar 2019 me NOTA ko hee elect kiya jai. Ummed par duniya kayam hai.Bakaul Dushyant Kumar" Kaun kahta hai Ashman me ched nahi ho sakta, Ek Pathar to tabiyat se uchalo yaro"
चुनाव मत प्रतिशत बढ़ाने के लिए नहीं होते । न ही सरकार चुनने के लिए होते हैं । चुनाव होता है लोक सभा के गठन के लिए ।
इसके बारे मैं तो ECI को सोचना होगो , जांचना होगा कि कौन उम्मीदवार है इसे होना भी चाहिए या नहीं नहीं तो नोट ये NOTA तो बस दिखावा है. जब एक सीट पर १५ १६ उम्मीदवार खड़े हो तो NOTA का वोट प्रतिशत के होगा खुद हे अंदाजा लगा लीजिए
रवीश भाई ,
देखिये अब कुछ हो नहीं सकता. ये सिर्फ निराशा नहीं है बल्कि सच्चाई है. भ्रष्टाचार को आम आदमी ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया है. लोकतंत्र की मजबूती के नाम पर जो पाठ पिछले साठ सालों से पढाया जा रहा था अब वो कंठस्थ हो गया है और अंगीकार कर लिया गया है. आप जैसे कुछ लोग अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए लड़ाई लड़ते रहेंगे पर ये नक्कारखाने में तूती की आवाज़ है. जब तक रोटी मिल रही है आम आदमी को वो इन मुद्दों पर ध्यान नहीं देगा.
जिस देश का युवा गांधीजी को गाली दे सकता है उस से आप कितनी उम्मीद रख सकते है.
रविश जी, जिस चीज की आप बात कर रहे हैं वह सिर्फ उत्तर भारत तक सिमित नहीं है. लगभग पुरे भारत की तस्वीर है. जब हमारी युवा पीढ़ी सामाजिक सरोकारों से कटकर golobalization के मोहपाश में बंध जाय तो इसी तरह लोकलाइजेशन होता है. विकास का बवंडर पुरे समाज को तहस-नहस कर रहा है. हमारा पूरा ecosystem ही गड़बड़ा रहा है. कॉर्पोरेट संस्कृति लोगों को संवेदनहींन बना रही है. आपने देखा की नॉएडा और गुडगाँव 15% चकाचौंध से बहार 85% बिरानी फैली हुई है.जो समाज हांसिये पर छुट रहा है वो एक बहुत बड़ा तबका है. वो संगठित नहीं हो रहा बल्कि एक तरह के fundamentalism की तरफ अलग-अलग टुकडो में बाँट रहा है. क्या कहें निराश हूँ लेकिन सपने देखे बिना रहा भी तो नहीं जाता.
रवीश जी,
कल का प्राइम टाइम देखा, अब तक जिस पार्टी को वोट देने का मन बना लिया था अब उसे देने का मन नही करता. वो रातोरात खराब तो नही हुए पर उतने अcचे भी नही है. किसी को भी देने का मन नही करता, क्या हम किसानो की स्तिथि को बदलने के लिए कुछ नही कर सकते? क्या किसान अपनी स्तिथि को बदलने के लिए कुछ नही कर सकते? (शायद वो पहले ही बहुत कुछ कर रहे है)
इतना छाती पीटने की कोई बात नहीं है रविश जी लेकिन आपकी कोई गलती भी नहीं है दरअसल जो आर्टिस्ट लोग जो होते है न वो होते ही सेंटीमेंटल टाइप है।एसी रूम मे रहते रहते जमीन की असलियत से दूर हो जाते हो आप लोग बाकी इतनी बुरी हालत है नहीं जो आप दिखा रहे हो बिना लाइट और टीवी के मेने ज़िंदगी के 14 साल काटे है बल्कि वो दिन इन दिनो की बनिस्पत अच्छे लगते थे। अब आप हो गए शहरी आदमी धुआँ पी पी कर गाँव की ताजा हवा का स्वाद भूल गए हो। पर आप अकेले की समस्या नहीं है ये,ज़्यादातर लोगो का यही हालत है। तो ज्यादा चिंता मत करिए चिता के समान होती है। जल्दी बूढ़े हो जाएंगे तो हमारे तो मनोरंजन का एक और साधन कम हो जाएगा न खांमखां
देश के महाभ्रष्ट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (महाभ्रष्ट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसलिए क्यों की उसका उल्लेख मैं अपने पूर्व के ब्लॉग में विस्तारपूर्वक कर चूका हूँ अत: मेरे पूर्व के ब्लॉग का अध्यन जागरणजंक्शन.कॉम पर करे ) के उन न्यूज़ चैनलों को अपने गिरेबान में झाँक कर देखना चाहिए जो न्यूज़ चैनल के नाम के आगे ”इंडिया” या देश का नॉ.१ इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते है. क्यों की इन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुँए के मेढक न्यूज़ चैनलों का राडार या तो एन.सी.आर. या फिर बीमारू राज्य तक सीमित रहता है. कुए के मेढ़क बने इन न्यूज़ चैनलों को दिल्ली का “दामिनी” केस तो दिख जाता है लेकिन जब नागालैंड में कोई लड़की दिल्ली के “दामनी” जैसी शिकार बनती है तो वह घटना इन न्यूज़ चैनलों को तो दूर, इनके आकाओं को भी नहीं मालूम पड़ पाती. आई.ए.एस. दुर्गा नागपाल की के निलंबन की खबर इनके राडार पड़ इसलिए चढ़ जाती हैं क्यों की वो घटना नोएडा में घटित हो रही है जहाँ इन कुँए के मेढक न्यूज़ चैनलों के दफ्तर है जबकि दुर्गा जैसी किसी महिला अफसर के साथ यदि मणिपुर में नाइंसाफी होती है तो वह बात इनको दूर-दूर तक मालूम नहीं पड़ पाती है कारण साफ़ है की खुद को देश का चैनल बताने वाले इन कुँए का मेढ़क न्यूज़ चैनलों का कोई संबाददाता आज देश उत्तर-पूर्व इलाकों में मौजूद नहीं है. देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिस तरह से न्यूज़ की रिपोर्टिंग करता है उससे तो मालूम पड़ता है की देश के उत्तर-पूर्व राज्यों में कोई घटना ही नहीं होती है. बड़े शर्म की बात है कि जब देश के सिक्किम राज्य में कुछ बर्ष पहले भूकंप आया था तो देश का न्यूज़ चैनल बताने वाले इन कुँए का मेढ़क न्यूज़ चैनलों के संबाददाताओं को सिक्किम पहुचने में २ दिन लग गए. यहाँ तक की गुवहाटी में जब कुछ बर्ष पहले एक लड़की से सरेआम घटना हुई थी तो इन कुँए के मेढक न्यूज़ चैनलों को उस घटना की वाइट के लिए एक लोकल न्यूज़ चैनल के ऊपर निर्भर रहना पड़ा था. इन न्यूज़ चैनलों की दिन भर की ख़बरों में ना तो देश दक्षिण राज्य केरल, तमिलनाडु, लक्ष्यद्वीप और अंडमान की ख़बरें होती है और ना ही उत्तर-पूर्व के राज्यों की. हाँ अगर एन.सी.आर. या बीमारू राज्यों में कोई घटना घटित हो जाती है तो इनका न्यूज़ राडार अवश्य उधर घूमता है. जब देश के उत्तर-पूर्व या दक्षिण राज्यों के भारतीय लोग इनके न्यूज़ चैनलों को देखते होंगे तो इन न्यूज़ चैनलों के द्वारा देश या इंडिया नाम के इस्तेमाल किये जा रहे शब्द पर जरुर दुःख प्रकट करते होंगे. क्यों की देश में कुँए का मेढ़क बने इन न्यूज़ चैनलों को हमारे देश की भौगोलिक सीमायें ही ज्ञात नहीं है तो फिर ये न्यूज़ चैनल क्यों देश या इंडिया जैसे शब्दों का प्रयोग करते है क्यों नहीं खुद को कुँए का मेढक न्यूज़ चैनल घोषित कर लेते आखिर जब ये आलसी बन कर देश बिभिन्न भागों में घटित हो रही घटनाओं को दिखने की जहमत ही नहीं उठाना चाहते. धन्यवाद. राहुल वैश्य ( रैंक अवार्ड विजेता), एम. ए. जनसंचार एवम भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रयासरत फेसबुक पर मुझे शामिल करे- vaishr_rahul@yahoo.कॉम और Rahul Vaish Moradabad
आज के भ्रष्ट्राचार से इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी अछुता नहीं है, आपने भले ही आज जनसंचार में PH.D क्यों न कर रखी हो लेकिन आज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो उसी फ्रेशर को नौकरी देता है जिसने जनसंचार में डिप्लोमा इनके द्वारा चालए जा रहे संस्थानों से कर रखा हो .. ऐसे में आप जनसंचार में PH.D करके भले ही कितने रेजिउम इनके ऑफिस में जमा कर दीजिये लेकिन आपका जमा रेजिउम तो इनके द्वारा कूड़ेदान में ही जायेगा क्यों की आपने इनके संस्थान से जनसंचार में डिप्लोमा जो नहीं किया है ..आखिर मीडिया क्यों दे बाहर वालों को नौकरी ? क्योंकि इन्हें तो आपनी जनसंचार की दुकान खोल कर पैसा जो कमाना है .आज यही कारण है की देश के इलेक्ट्रोनिक मीडिया में योग्य पत्रकारों की कमी है. देश में कोई इलेक्ट्रोनिक मीडिया का संगठन पत्रकारों की भर्ती करने के लिए किसी परीक्षा तक का आयोजन भी नहीं करता जैसा की देश में अन्य नामी-गिरामी मल्टी नेशनल कंपनियाँ अपने कर्मचारियों की भर्ती के लिए परीक्षा का आयोजन करती है. यह महाबेशर्म इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो सिर्फ अपनी पत्रकारिता संस्थान की दुकान चलाने के लिए ही लाखों की फीस लेकर सिर्फ पत्रकारिता के डिप्लोमा कोर्स के लिए ही परीक्षा का आयोजन कर रहा है. आज यही कारण है कि सिर्फ चेहरा देकर ही ऐसी-ऐसी महिला न्यूज़ रीडर बैठा दी जाती है जिन्हें हमारे देश के उपराष्ट्रपति के बारे में यह तक नहीं मालूम होता की उस पद के लिए देश में चुनाव कैसे होता है? आज इलेक्ट्रोनिक मीडिया के गिरते हुए स्तर पर प्रेस कौसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष भी काफी कुछ कह चुके है लेकिन ये इलेक्ट्रोनिक मीडिया की सुधरने का नाम ही नहीं लेता ….इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो पैसों से खेलने वाला वो बिगड़ा बच्चा बन चुका है जो पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है.
इतना ही नहीं खुद को देश के लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहने बाले इस महाबेशर्म इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए नियम-कायदे उस समय बदल जाते है जब यह खुद गलती करता है. अगर देश का कोई भी मंत्री भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ये चीख-चीख कर उसके इस्तीफे की मांग करता है लेकिन जब किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया का कोई पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो ना तो वह अपनी न्यूज़ एंकरिंग से इस्तीफा देता है और बड़ी बेशर्मी से खुद न्यूज़ रिपोर्टिंग में दूसरो के लिए नैतिकता की दुहाई देता रहता है. कमाल की बात तो यह है की जब कोई देश का पत्रकार भ्रष्ट्राचार में लिप्त पाया जाता है तो उस न्यूज़ की रिपोर्टिंग भी बहुत कम मीडिया संगठन ही अपनी न्यूज़ में दिखाते है, क्या ये न्यूज़ की पारदर्शिता से अन्याय नहीं? हाल में ही जिंदल कम्पनी से १०० करोड़ की घूसखोरी कांड में दिल्ली पुलिस ने जी मीडिया के मालिक सहित इस संगठन के सम्पादक सुधीर चौधरी और समीर आहलूवालिया के खिलाफ आई.पी.सी. की धारा ३८४, १२०बी, ५११, ४२०, २०१ के तहत कोर्ट में कानूनी कार्रवाई का आग्रह किया है. इतना ही नहीं इन बेशर्म दोषी संपादको ने तिहाड़ जेल से जमानत पर छूटने के बाद सबूतों को मिटाने का भी भरपूर प्रयास किया है. गौरतलब है की कोर्ट किसी भी मुजरिम को दोष सिद्ध हो जाने तक उसको जीवनयापिका से नहीं रोकता है लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है की जो पैमाना हमारे मुजरिम राजनेताओं पर लागू होता है तो क्या वो पैमाना इन मुजरिम संपादकों पर लागू नहीं होता? क्या मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं है ? क्या किसी मीडिया संगठन के सम्पादक की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है? अगर कोई संपादक खुद शक के दायरे में है तो वो एंकरिंग करके खुले आम नैतिकता की न्यूज़ समाज को कैसे पेश कर सकता है? आज इसी घूसखोरी का परिणाम है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया का एक-एक संपादक करोड़ो में सैलरी पाता है. आखिर कोई मीडिया संगठन कैसे एक सम्पादक को कैसे करोड़ो में सैलरी दे देता है ? जब कोई मीडिया संगठन किसी एक सम्पादक को करोड़ो की सैलरी देता होगा तो सोचिये वो संगठन अपने पूरे स्टाफ को कितना रुपया बाँटता होगा? इतना पैसा किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठन के पास सिर्फ विज्ञापन की कमाई से तो नहीं आता होगा यह बात तो पक्की है.. तो फिर कहाँ से आता है इतना पैसा इन इलेक्ट्रोनिक मीडिया संगठनो के पास? आज कल एक नई बात और निकल कर सामने आ रही है कि कुछ मीडिया संगठन युवा महिलाओं को नौकरी देने के नाम पर उनका यौन शोषण कर रहे है. अगर इन मीडिया संगठनों की एस.आई.टी. जाँच या सी.बी.आई. जाँच हो जाये तो सुब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा.. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आज जो गोरखधंधा चल रहा है उसको सामने लाने का मेरा एक छोटा सा प्रयास था. मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस लेख को पड़ने के बाद स्वयंसेवी संगठन, एनजीओ और बुद्धिजीवी लोग मेरी बात को आगे बढ़ाएंगे और महाबेशर्म इलेट्रोनिक मीडिया को आहिंसात्मक तरीकों से सुधार कर एक विशुद्ध राष्ट्र बनाने में योगदान देंगे ताकि हमारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया विश्व के लिए एक उदहारण बन सके क्यों की अब तक हमारी सरकार इस बेशर्म मीडिया को सुधारने में नाकामयाब रही है. इसके साथ ही देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ किसी भी जांच के लिए न्यूज़ ब्राडकास्टिंग संगठन मौजूद है लेकिन आज तक इस संगठन ने ऐसा कोई निर्णय इलेक्ट्रोनिक मीडिया के खिलाफ नहीं लिया जो देश में न्यूज़ की सुर्खियाँ बनता. इस संगठन की कार्यशैली से तो यही मालूम पड़ता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तमाम घपलों के बाद भी ये संगठन जानभूझ कर चुप्पी रखना चाहता है.
धन्यवाद.
राहुल वैश्य ( रैंक अवार्ड विजेता),
एम. ए. जनसंचार
एवम
भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रयासरत, SET QUALIFIED (HPPSC)
फेसबुक पर मुझे शामिल करे- vaishr_rahul@yahoo.com और Rahul Vaish Moradabad
Ravish Ji, really main yeh soch ke hairaan hota hai ki Hindustan ke janta kab jagegi. agar abhi hum sote rahe to next generation ke liye bhahut muskil waqt ayega. i am big fan of your and your programme. you are doing a fantastic job. kuch toh aur koi toh change hoga.......
जितना देखेंगे, उतना अवसाद में उतर जायेंगे।
Ravish bhai, i have been regular viewer of you Prime Time show on NDTV which is not insightful of 'real India' but will open the eyes of the policy makers in our country! I would love you make similar stories on Maharashtra, es Marathwada region! Your indepth analysis punctuated by humorous comments we really enjoy! No other media house ever did stories like you! I can compare you with BBC reporter Nick Goving for your knoweledge! congrats
Ravishji,
I just hate caste politics, just hate it. But after seeing ur Prime time on mathura farmers issue. I tried to understand why people vote on caste in UP. I realized Muslims+dalits form 40% population on average in each district and for this community its life and death situation if BJP wins. Forget development, if it is life and death. Based on this I will say BJP won't win more than 20 seats in UP and it really gives me a relief that we will not be making a communal govt at center.
घोषणा पत्र…… और इधर मीडिया का पैनल डिस्कशन। उधर 'स्मार्ट सिटी ' …इधर 'स्पीड न्यूज़ ' .... स्मार्ट न्यूज़।
इसमें देखिएगा कि जो बुनियादी जरूरतें हैं उसको लेकर क्या है ? रोटी , कपड़ा , मकान , स्वास्थ्य , शिक्षा , सुरक्षा , खेती -किसानी , बिजली , पानी , सड़क
इनके बारे में क्या है ? ब्रेकिंग , एक्सक्लूसिव , खास न्यूज़ में इनका कोई हिस्सा बनता है क्या? किस नेता , मंत्री , अधिकारी , शिक्षा मंत्री , विधायक , एमपी , सभासद , ग्राम प्रधान... का बच्चा मिड डे मील ग्रहण करते हुए प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहा है ? क्या नर्सरी , एलकेजी , यूकेजी की शिक्षा अच्छे पब्लिक स्कूल में दिलाना सबके बस में है ? क्या हमारी सरकारें यह नहीं जानती ?
क्या मीडिया के सामने जनहित पगुराते मंत्रियों -नेताओं को यह नहीं पता ? दोपहर का भोजन भी क्या है ? क्या खाने-खिलाने का स्टैण्डर्ड है ? समय-समय पर विषाक्त भोजन से बच्चे असमय काल-कवलित हो जाते हैं।
मौत पर वोट खेलने वाले इस दर्द को कैसे महसूस कर सकते हैं ? आप छींक आने पर अमेरिका की सैर करें और आपको बनाने वाली जनता सरकारी अस्पतालों के भ्रष्टाचार-बदहाली के बीच मर जाये ! हमारे नेताओं, जनप्रतिनिधियों , सरकारों को इससे क्या फर्क पड़ता है ?
सडकों की बदहाल स्थिति जो है सो है ही , जहाँ बढ़िया सड़कें हैं , घटिया भी ---वहां आप पैदल नहीं चल सकते। वह सब कारों , बड़ी -बड़ी गाड़ियों के लिए हैं ! पैदलमार्गी हैं तो कुचला जाएंगे ! पैदल चलने की सुविधा नहीं है , अगर आप चलना चाहते हैं तो ! ये जो 'शहर -महानगर हैं वहां कहीं पर्याप्त (अपर्याप्त भी !) महिला शौचालय है ? पुरुष शौचालय भी बस खानापूर्ति है। दूर -दूर तक नजर दौड़ाइए। सब चमकीले विकास सिर्फ कुछ लोगों , वर्गों के लिए हैं। इन्हें क्या पता कि विकास के बड़े दावे , चन्द्रमा , मंगल पर कॉलोनी बनाने के दौर -दौरे में भी '' भूख आदमी का सबसे बड़ा तर्क है '' (धूमिल )
SIR JI abhi bhi yehi kahongi ki aapne Uttar Pradesh dekha hi nahi hai.Aapne logo ka dard dekha hai DARRR nahi.
1 program Kashmiri Panditon par bhee kar lo
Saw your program talking to Mathura’s farmers. One noticeable thing that emerged was that farmers are a rational lot. Some of them may not be even literate, but they seemed well informed about things/issues that concern them. We generally hear comments such as, farmers are gullible, susceptible to all kinds of misinformation and so on. But, don’t forget, they run a small enterprise. They understand profit and loss. They run their households and regularly make important decisions for their farms and their families. Then why have their condition gone from bad to worse? Why do they struggle in spite of working hard? Why suicide?
I don’t know. But, I fear a greater danger for future. Successful agriculture practices in other parts of the world have adopted mechanization and use of technology. One can debate whether it’s good or bad, but mechanization and technology use is lucrative for agriculture. It has to be with age old debate between machine and labor. Mechanization increases productivity and brings certainty in farming which is hard to achieve with labor use. Going by records of other countries, mechanization of Indian agriculture is inevitable. It is happening in some parts of India, but catch up in other places soon. In an era of mechanization, use of technology, GMO seeds, less people will produce food for a larger population. Where does that leave the large population dependent on agriculture? People being uprooted from agriculture would look for alternative sources of employment.
Indian agriculture scenario is also unique in many respects and there are not too many examples to follow. A credible solution would involve a multi-pronged approach. This is where I am not very optimistic. As your program showed, in spite of their rationale thinking and awareness, farmers remain a divided group. They need solution to get by through the short term, but greater challenges are in the future. But, the policies to tackle the future has been designed in today. In an environment where there is apathy towards farmers, we cannot expect much from policy makers. My thoughts are still shaping on this issue, but I would love to watch a program where you talk to experts about this. Someone who understands agriculture issues, and also has an insight into what could be potential solutions. That would a natural extension to the curiosity that your show has generated by bringing these issues to the fore. May be sometime after May 16th.
HUM layenge change, HUM karnege badlao....bas kuch bada hone dijiye, abhi to bs 18 ke huwe hain..
i'll better prefer the best local candidate than a incongruous national leader.if no one deserves a vote den i'll go wid #NOTA.
यहाँ सारे चेहरे हैं माँगे हुए से,
निगाहों में आँसू भी टांगे हुए से.
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