पागलनामा पार्ट सेवन
हफ़्ता ख़ाली गुज़रा है । वैसे अब भरता ही कहाँ है । छत को आसमान समझ कर ज़मीन पर तारे गिनते गिनते कोने में पड़ी एक गेंद पर नज़र पड़ी । स्थूल । जैसे किसी ने बहुत दिनों से खेला ही नहीं । अब खेलना भी कहाँ होता है । कुछ खेलते हैं बाक़ी दर्शक बनकर खेलने वाले के साथ खेलते हैं । स्टेडियम की बेंच पर बैठे चिप्स खाते मोटाते रहे । खेलना आभासी है । टीवी विचित्र है । आलोचना आसमान में थूके जैसा चेहरे पर गिर आती है । जीवन चंदा नहीं है । जीवन धंधा है । बाक़ी सब गंदा है । जीवन को धंधे की तरह जीयो । नफ़ा नुक़सान देखकर । कविता हिन्दी में लिखो पर काम अंग्रेज़ी में करो । सब अंग्रेज़ी बोल रहे हैं । हिन्दी के शो में अंग्रेज़ी बोल रहे हैं । तो हिन्दी में पूरा का पूरा अंग्रेज़ी क्यों न बोली जाए । ब्रेड बटर ने और मोटा कर दिया है । कौन है जो चिट्ठी लिखता है और कौन है जो पत्रकार से बात करना चाहता है । भाग भाग कर बोलने आ जाते हैं । बोलते बोलते भाग जाते हैं । बोला नहीं कि पहले का बोला बोल दिया जाता है । अजीब सा माहौल है । क्या हो गया बोलने से और क्या नहीं हुआ नहीं बोलने से । तभी पैराग्राफ़ बदलने का मन नहीं करता । जिस कुर्सी पर बैठे हो उसी से रिटायर हो जाओ । नेमप्लेट बदल लो मगर कमरा मत बदलो । कुछ बदलता नहीं । झुर्रियाँ जुड़ती हैं । जिगर से लेकर फ़ीगर तक घट जाता है । भात खा लो वर्ना डाक्टर मना कर देगा । मौक़ा देखकर सेट हो जाओ । नहीं हो पाओ तो चलते रहो । धर्मगुरुओं की तरह । एक सरकार से दूसरी सरकार में फिर अपनी सरकार बना लो । भरते रहो खुद को । ख़ाली मत रहो । नींद नहीं आए तो जागो । अगला हफ्ता भी वैसे ही गुज़रेगा । ख़ाली बर्तन फिर बजेगा । ख़ाली बर्तन फिर बजेगा । जो सुनेगा वो ख़ाली हो जाएगा । बर्तन बचा रह जाएगा । टीवी बोलता रह जाएगा ।
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5 comments:
Bahut badiya ravis bhai .......
sahi hai Ravish ji..
bharne ki kosis to jari hi rahna chahiye
samveedna hai aur us se uthti vedna ki cheekh .. ravish ji jeevan ki gaadi men jo gyan ka bojh hai usko utar bhi do to khali gaadi men kya bharen ??? jo gyan ke naam par hamare dimaagon men thoonsa gaya tha wo sab bemaani ho raha hai.. aur khali bartan ki bhayen bhayen sone nahin deti... jo kuch bacha hai wo theek nahin lagta aur jo nazar nahin aa raha hai uski khoj ka naam hi jeevan hai .... aap likhte rahiye awaaj kahin to pahunchti hi hai ...
कुछ लोग टी वी से बतियाते रहते हैं. हँसते हैं रोते हैं, कभी कभी बीच में ध्यान तब भंग होता है जब हवा छूटती है. इधर उधर देख कर फिर लग जाते हैं खैनी चुनियाने. पिरकी जूता में ही फेंककर मस्त हो जाते हैं. दांत के दर्द को पेट का दरद समझ कर जोर जोर से गरियाते हैं.जब पगलेट ही हो गए हैं तो कुछ भी कर सकते हैं. कभी कभी बचपन में रटे अंग्रेजी का लाइन भी बडबडा देते हैं. शारदा सिन्हा का गीत भी गा देता है - पनिया के जहाज से .....डा ..डा ..डा ... आती जाती गंगनहोनी कहती है - अरे दुरे रहना सनकल है...
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