मीडिया का काट्जू काल

मेरी नज़र उस शख्स पर टिक जाती है जो चांदनी चौक के फव्वारे के नीचे बैठे लाल किला पर लहराते तिरंगे को देखे जा रहा है। ये वो शख्स है जो उन्नीसवीं सदी से वहां बैठा है। उसने इन रास्तों से मिर्ज़ा ग़ालिब को निकलते देखा है। उसने ग़ालिब से सौ साल पहले फ्रांस में पैदा हुए वोल्तेयर के बारे में सारे किस्से सुन चुके हैं। वोल्तेयर से भी सौ साल पहले पैदा हुए महान अकबर को भी गहराई से जानता है। यह शख्स उन तमाम सदियों की चिन्ताओं के साथ आज़ादी के चौंसठ साल बाद आधुनिक होते भारत पर भड़क उठता है। आस-पास से गुज़रने वाले इस शख्स का नाम जस्टिस मार्कण्डेय काट्जू बताते हैं जो चांदनी चौक के फव्वारे से कुछ किमी दूर मौजूद सुप्रीम कोर्ट से अपनी कलस से इंसाफ़ करता था। लेकिन कई सदियों से बंद पड़ा फव्वारा ही उसका घर है। सर और चेहरे पर कई सदियों की धूल की परतें जमीं हैं। जो हवाओं के कोर से टकराने से उघड़ती रहती हैं। पता नहीं कब कौन सी सदी की परत उघड़ आए और यह शख्स उस दौर को साफ साफ देखने लगे। बकने लगे। उसी बड़बड़ाहट में यह शख्स मांग करता है कि ऐ उर्दू के चाहने वालों,उठो और मिर्ज़ा ग़ालिब के लिए भारत रत्न की मांग करो।

मुझे जस्टिस काट्जू एक दिलचस्प व्यक्ति लगते हैं। एक अच्छा सा इंसान जिसके भीतर कई किताबों ने जज़्बातों का ऐसा निचोड़ पैदा कर दिया है जिसके दम पर वह हमारे समय की समस्याओं का इलाज करना चाहता है। यह जज ब्लागर भी है। जहां उसके कई फैसले पढ़े जा सकते हैं। जो इस बात का प्रमाण है कि इंसाफ लिखते वक्त इस शख्स ने साहित्य,धर्म और इतिहास की चुनिंदा बेहतरीन किताबों का अध्ययन किया है। उसने १९४३ में बंगाल के भीषण अकाल पर निखिल चक्रवर्ती की रिपोर्टिंग भी देखी है और मिरातुल अखबार और संवाद कौमुदी जैसे अखबारों की भूमिका का भी ज़िक्र किया है। यह जज अपने फैसलों में कम्पैशन शब्द की मार्मिक व्याख्या करने के लिए आक्सफोर्ड चैंबर्स जैसे शब्दकोशों का ज़िक्र करता है।  वेश्यावृत्ति पर फैसला देते वक्त दोस्तोयेवस्की,शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और साहिर लुधियानवी की मदद लेता है। पर सवाल यह है कि इक्कीसवीं सदी के भारत में जस्टिस काट्जू उन्नीसवीं सदी के बचे हुए एकमात्र शख्स की तरह बातें क्यों करते हैं है।

जस्टिस काट्जू ने अतिरेक के लहज़ें में मीडिया को ललकारा है। उनकी बातें सही हैं। मैं उनकी कई बातों से इत्तफाक रखता हूं। कोई तो है जो खुद को मूर्ख समझे जाने का जोखिम उठाते हुए भारतीयों की बौद्धिकता को फटकार रहा है। लेकिन वो झकझोरने की कोशिश में अन्ना की आलोचना करते हुए खुद अन्ना जैसे क्यों बाते करने लगते हैं।

समाज में विमर्श फैसले की शक्ल में नहीं किये जाते हैं। क्या काटजू ने वोल्तेयर और रूसो को पढ़ते वक्त यह महसूस नहीं किया है। ज्यादातर हिन्दुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक बताकर वे उस समाजिक राजनीतिक प्रक्रिया को अनदेखा कैसे कर सकते हैं जिसने सांप्रदायिकता को बार-बार परास्त किया है। अपने फैसलों में महान अकबर के सुलह-अ-कुल और वाजिद अली शाह का संदर्भ देने वाला जज कैसे भूल जाता है कि गंगा जमुनी तहज़ीब भी इसी समाज देन है।  वो खुद कहते हैं कि भारत सामंती समाज से आधुनिक समाज की तरफ बढ़ रहा है। पुरानी मान्यताएं चरमरा रही हैं। फिर वही कहते हैं कि नब्बे फीसदी लोग अंधविश्वासी हैं। तो फिर वे इस संक्रमण का प्रामाणिक आधार  क्या दे रहे हैं। काट्जू यूरोप की मीडिया की ऐतिहासिक भूमिका तो बताते हैं लेकिन तमाम विसंगतियों के बीच भारतीय मीडिया के शानदार पहलुओं को अपनी ऐतिहासिक व्याख्या का हिस्सा क्यों नहीं बनाते हैं। यह सवाल भी है कि क्या वो सही नहीं कह रहे हैं कि हमने अपने बौद्धिक प्रयासों में वैज्ञानिक सोच को जगह नहीं दी है। सरकार ने सांप्रदायिक सोच के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया। मीडिया अपनी भूमिका से भटका है। क्या यह सही नहीं है कि मीडिया ने बाबाओं की शरण ली है। क्या यह सही नहीं है कि सार्वजनिक राजनीतिक और साहित्यिक समाज से गंभीर विमर्श गायब हो रहे हैं। जो बचे हैं उसे मीडिया या राजनीति किनारे लगा देती है।

समस्या यह है कि जस्टिस काट्जू ने इतना पढ़ लिया है कि सब गडमड हो गया है। गांव देहात में ऐसे लोग होते थे जो एम पास करते करते गड़बड़ा जाते थे। लोग उनका मज़ाक उड़ाने लगते थे। तब भी जबकि वो कभी-कभी सही बातें करने लगते थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम भी उनकी सही बातों को छोड़ उन बातों को पकड़ रहे हैं जो मज़ाक उड़ाने के लायक ही हैं। नब्बे फीसदी आबादी को मूर्ख बताकर वो अपनी बात कहेंगे तो मूर्खों का क्या है वे तो काटजू साहब को मूर्ख ही कहेंगे न। एक पागल दूसरे को भी पागल ही कहता है। फिर भी मैं खुश हूं कि कोई तो है कि पढ़ने की बात कह रहा है। क्या हमारे समाज में ज़्यादा पढ़ने वाले को पागल नहीं कहा जाता है। तो क्या हम पढ़ने को ही गलत करार देंगे? जस्टिस काटजू सही बात कह रहे हैं लेकिन वो गंभीर विमर्श पैदा नहीं कर रहे। उन्हें अपने संदर्भ और लहज़े में बदलाव करना चाहिए। एक ही साथ और एक बयान में सारे समस्याओं का ज़िक्र और समाधान पेश करेंगे तो वो भी बाबाओं की तरह लगने लगेंगे।
(शुक्रवार पत्रिका में यह लेख छपा था। काट्जू साहब पर विशेषांक इकला है)

20 comments:

aSTha said...

its pretty lame in India..we do not do anything to improve the things around us, but when somebody comes up and guides towards a better tomorrow; we have a problem. Why this person is being considerate towards people at large, what is his hidden agenda? Be it Anna Hazarre or Aamir Khan..Indeed there is no comparison between the two but they have stood up and we criticise..such is Indian software.

शेष said...

दरअसल, हमारे यहां सिर्फ "क्या" पर बात करने की परंपरा रही है। वह भुक्तभोगियों से लेकर उन पर उंगली उठाने वालों तक में मौजूद है। काटजू साहब लगातार उसी "क्या" की बात कर रहे हैं, और उन्होंने शायद ही किसी मसले के "क्यों" की बात की हो। और क्या बिना क्यों की बात किए हम किसी भी मसले के हल की उम्मीद कर सकते हैं।
किसी का सांप्रदायिक होना उसकी उस कंडिशनिंग का नतीजा है, जिसकी हर कोशिश के नतीजे में व्यवस्था की कुर्सी की पाए मजबूत होते हैं। इसीलिए व्यवस्था विरोध के हर प्रतीक तक को पूरी तरह नष्ट करने की कोशिश होती है।

Unknown said...

सर मुझे काटजू साहब में एक अलग उर्जा एक अलग बदलाव दिखता है ..
आप सोचिएगा कितनी दफ़ा चाय के खॉको पर खड़े हम अपने साथ के मित्रो आदि से ये 90 फीसदी वाली बात बढ़े गर्व से कह जाते है .. सार्वजनिक मंच पर या व्यापक तौर पर इसे कहना अपने आप में बहुत बढ़ी बात है .. और मेी समझता हू पागल खाने में अगर आप किसी पागल को पागल कह कर पुकारेंगे तब भी उसे कोई फरक नही पढ़ेगा.

Kundan said...

There was a time when journalism was conidered as a passion.I am talking about Tilak,Gandhi,Dada bhai Nauroji etc. And now the twittor phase of journalism. Problem is not about journalists. The social networking sites have produced a herd of so-called intellectuals. The supply will be in sync with the demand.

Even I dont find a news channel which shows news that has something to do with my day to day life. I dont like the headlines like पाताल का रास्ता,स्वर्ग की सीढ़ी that news channels are showing as breaking news. Forget about journalists like P. Sainath and a channel like Loksabha TV. Problem is with us. We dont like people who talks in a rational way whether it is Katju or any one. I may be sound like a pessimist but this is the truth today.

nptHeer said...

Let me clea-main 90% indians main se hun:)to main apne level ke hisab se hi kisi judge ko judge karne ka prayatna kar paaun vo bhi ek media anchor ke blog main:)haha pahle to mujhe laga lekhak koi jarjarit imaarat ya koi jagah ko ingit karna chahte hai,koi justice katju ke baare main kaise soch bhi sakta hai-hasi ka fawara,aur kya?well itne vaanchan ke dhani insan ki soch ko mere jaise naapte tolte fire ye bhi unhi ki tarah ayogya lagega.lekhak ko unke chukade ya unki tippaniyon main diye gaye mudhanya parichay se koi aitraz nahin hai,sirf 'media' se ulajhne par hai:) sirf yahan hi unki padhai gadmada gai hai:)mujhe media ko hui ya ho rahi ya honewali dikkaton ka bhi pata nahi puri tarah-sjt.katju ki taraf se:) fir jyada kahna beimaani hogi,lekin agar dhunaa hai to aag bhi to hogi?:)agar lekhak multi media,multi boxes main multi discutions kar sakte hai,aur ha:)tweeter par multi comments ko 'justify' yes'justified replies' deneka daava ya kahlo safaai de sakte hai,to pls inko bhi to unke adhikar bhugatne do:)mera matlab hai-unke multi layered reading,multisolution statements ko aap apne 'dual ears band frequancy' par set karlo pls:))))

अनूप शुक्ल said...

काटजू साहब के बारे में अच्छा लिखा है। यह बात एक सही सी लगती है-जस्टिस काट्जू ने इतना पढ़ लिया है कि सब गडमड हो गया है।

Aadarsh Rathore said...

जस्टिस काट्जू ने इतना पढ़ लिया है कि सब गडमड हो गया है।

इसीलिए वो विचारों को धरातल पर उतार ही नहीं पा रहे.

RAJESH KUMAR said...

wakai..
justice katju sahab ke vichar ki dhara ko chinhit karna muskil hai.

Unknown said...

Words to be read and digested
Deccansojourn.com

Akhilesh Jain said...

शानदार लेख के लिए धन्यवाद..पता नहीं पर इसे पढ़ते हुए ऐसे लगा जैसे मैं कडकडाती धूप से आकर छाया में सुस्ता रहा हूँ. आपकी लेखनी को में छायावादी निराला श्रेणी में रखता हूँ. बहरहाल, काटजू साहब हमेशा से ही अपने विपरीत बयानों से चर्चा में रहे है. शायद वो अपने काल में देश को सुधारना चाहते हैं और जल्दबाजी में हैं. लेकिन ऐसे लगभग अराजकता के माहौल में आदमी कर भी क्या सकता है? उनका अर्जित ज्ञान खौल रहा है और बाहर आकर ज्वालामुखी की तरह फ़ैल जाता है.

दुष्यंत के शब्दों में:
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकनें उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
जिन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।
कहाँ तो तय था चिरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

kam se kam dil ki bat bolte hai !

saurabh kumar said...

sahi farmaya janab , wah kya bat hai,patrakarita me humne aur bhi patrkaro ko dekha par aapsa bewak aur satik tathya se ru b ru karane ka andaj nirala hai..
jahan tak katju sab ki baat hai to mere khayal se ye unke jajikaran ka bhoot hai ,yahan wo koi faisla to de nahi sakte par PCI ke chairman ke nate apni bhadas nikal lete hain.

Unknown said...

Dayashankar-lahja train me hone wali gappbaji ka par bat itani satik ki dil ko lage.Par kya kewal bat aur kewal bat se samasyaon ka samadhan hoajayega?In vicharon ko dharatal par utarne ko kadi mehnat kaun karega?

JC said...

JC said...
'भारत' से अंग्रेजों को यदि जाना पडा तो उसके लिये जिम्मेदार वे स्वयं थे क्यूंकि उन्होंने तत्कालीन देशवासियों को शिक्षा ग्रहण करने का मौक़ा दिया, विशेषकर उन्हें कानून पढ़ा कर, वकील बनाकर... और अँगरेज़ तो चले गए किन्तु उनका कानून अब भी हम पर राज्य कर रहा है, क्यूंकि अब कोई ऐसा माई का लाल पैदा होना ही सम्भव नहीं है जो जड़ तक पहुँच पाने में सक्षम हो... किसी भी क्षेत्र में सभी लकीर के फकीर हैं... कंप्यूटर पर उंगलियाँ सभी पीट रहे हैं किन्तु मस्तिष्क रुपी सुपर कंप्यूटर ठप पड़े हैं... "पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ/ पंडित भया न कोई..." कह गए ज्ञानी-ध्यानी पूर्वज, जो सत्य को जान उपदेश दे गए कि हरेक व्यक्ति का उद्देश्य केवल निराकार ब्रह्म और उस के साकार रूपों को जानना ही है... किन्तु वो समझ के बाहर है स्वार्थ के और पापी पेट के कारण...:(

May 18, 2012 8:27 PM

ritesh kumar said...

sabse badi baat ye hai ki main us 10
percent me aata hun ya mera padosi.

ritesh kumar said...

"je ba se ki" to nahi hai na...

Vaibhav said...

gayab kahan ho jaate hain maharaj!!!

akhilesh said...

yah bilkul sahi baat hai kataju saab kahte hai ki 90 percent log murkh hai
arastu ne bhi kaha tha loktantra murkho ki sarkaar hai
aur aaj ise kataju saab ne pramadik kiya hai

maxsamuel said...

This is a an excellent review, All your reviews are great but here you reach closer, as you progress, to discovering the gem in the book. Your observations on writing are top-class, your descriptions subtle.
Business Transformation

ritesh kumar said...

aapko pata hai kabir das ji ko english aati thi -

"nindak near rakhiye....."

jo bad me "nindak niyre rakhiye" ho gaya.