सीढ़ियों वाली बस्तियां
हम सिर्फ झुग्गियों को उजाड़ने की ही ख़बरें पढ़ते-सुनते रहते हैं। कुछ अमीर लोग झुग्गियों पर उनकी शहरनुमा खूबसूरत बीबी के चेहरे पर दाग़ समझते हैं। कुछ को बिल्डर और राजनेताओं के गठजोड़ से पैदा हुई नाजायज़ औलाद नज़र आती हैं झुग्गियां। दिल्ली के बादली गांव के जे जे क्लस्टर गया था। आशियाना और गंदगी का मणिकांचन योग दिखा। सरकार और निगम ने नाली की निकासी का कोई इंतज़ाम नहीं किया है। बिजली आई है। झुग्गियों की आबादी बढ़ी है दो कारण से। एक तो पहले के परिवार बड़े हुए हैं और दूसरे गरीब प्रवासी मज़दूरों का बड़ी संख्या में आना हुआ है। यहां भी किराया सिस्टम आया है। सारी झुग्गियां अब दुछत्ती हो रही हैं। सीढ़ी बनाने के लिए पैसा और जगह दोनों नहीं हैं। इसलिए प्रवासी किरायेदार मज़दूर या परिवार के लोग सीढ़ियों के ज़रिये ऊपर जाकर रहते हैं। सारे मकान एक दूसरे की बोझ से दबे हैं और टिके हैं।
एक तस्वीर में आप देखेंगे कि कैसे रास्ते के बीच में ऊपर एक कमरा बनाया गया है। हर घर के बाहर एक बांस की सीढ़ी आपको दिखेगी। कुछ घरों में रंगाई और टाइल्स भी नज़र आए। वो इसलिए कि इमारती मज़दूर बचे हुए सामानों से अपने घरों को सुन्दर बनाने की कोशिश कर लेते हैं। थ। ज़मीन पर जगह नहीं है इसलिए छत का कई प्रकार से इस्तमाल हो रहा है। यहां की औरतें जिन मेमसाहबों के यहां काम करती हैं उनके बच्चे के छोड़े टूटे खिलौने,कुर्सियां और चादर वगैरह से लगता है कि यहां का स्तर बढ़ा होगा। कुछ मेमसाहबों की पुरानी साड़ियों में बनी-ठनी नज़र आती हैं। सारी औरतें कामगार हैं,अथाह परिश्रम करती हैं और उस अनुपात में पौष्टिक आहार नहीं मिलता इसलिए इन बस्तियों में ज्यादातर औरतें छरहरी दिखेंगी। लेकिन सब किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं।
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14 comments:
नमस्कार!
हर नगर महानगर को कामगारों की जरूरत है. कामगार कहाँ रहेंगे महानगर नहीं सोचता है. महानगर जब तक अपनी आवश्यकताओं ठीक से नहीं समझेगा उसे ऐसे लोग बेकार और पेपर नेपकिन जैसे लगते रहेंगे. यदि इसे वे कपडे की रूमाल बन जायेंगे तो जेब में जगह पाने लगेंगे, साफ़ होंगे और प्रेस भी होंगे. कम से कम तह करके रखे ही जायेंगे.
विकास या सीढ़ी।
सीढ़ी के साथ कूलर और बिजली के तार बता रहे हैं कि विकास तो यहाँ भी हुआ है ।
भला मुफ्त में बिजली किस विकसित देश में मिलती है ।
धारा 144 वाली रिपोर्ट देखी थी, काफी कुछ छिपा रहता है जो सामने नहीं आ पाता। ये सिढ़ियां उसी ओर ले जाती हैं, शायद जीवन के अनोखे सांप सीढ़ी वाले खेल की तरह।
''सारे मकान एक दूसरे की बोझ से दबे हैं और टिके हैं।'' में न जाने कितनी बातें समा गई हैं और लगा कि यहां लोगों के आपसी-सामाजिक संबंध भी अनूठे और अप्रत्याशित लग सकने वाले होंगे.
रवीश जी जिस प्रकार से लोग भारत की असली तस्वीर को हेय नजर से देखते है वहीं असली भारत है , भ्रम टूटेगें जब लोग संदर्भ समूह से बाहर आएगें
आपने अपनी रिपोर्ट में इनका भी ज़िक्र किया था...सीढ़ियां बनाने की जगह नहीं होने की वजह से ये विकल्प है लोगों के पास आपने बताया था...
अच्छा है ....भावुकता देर तक हावी रहे.तो........कुछ समय बाद ये सब लेज़ीटीमेट हो जायेगी.....किसी शहर में बसने का मोह....आदमी को धीरे धीरे ऐसे समूह ढूँढने को विवश करता है जो उस जैसे है ....कामकाजी.दिहाड़ी......फिर ऐसी बस्तिया बनने लगती है .....फिर उनकी जुदा जरूरते सर उठाने लगती है ......
मुख्य सवाल गरीबी का जो फिर पीछे छूट जाता है.........तब तक एक नयी बस्ती अपना दायरा बनाना शुरू कर देती है
"इसलिए इन बस्तियों में ज्यादातर औरतें छरहरी दिखेंगी। लेकिन सब किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं"
पढ़ कर दिल दुखी हो गया
देश के विकास के रसातल की गहराइयों को बयां कर रही हैं ये सीढियां.... बहुत तकलीफदेह
ravish ji agar aap delli ke dard ko aur nazdeek se jaanna chahte hai to nardan basti jaiye, delhi main mahrauli badarpur road par lal kuan ke paas bani yeh basti aapki aankhe khol degi, agar sunday ko free ho to aayiega mera cell number hai:9560441590
रवीश जी हर अति का अंत होता है में आशावादी हूॅ इसलिए बदलाव की प्रतिक्षा मे ंनहीं बैठना चाहिये कुछ करना चाहिये इस लिए व्यवस्था परिवर्तन का जो भी ऑदोलन चले उससे जुड़कर हम सभी कों सहयोग करना होगा सिर्फ कमेंट लिख देने मात्र से काम नही चलेगा।
रवीश जी हर अति का अंत होता है में आशावादी हूॅ इसलिए बदलाव की प्रतिक्षा मे ंनहीं बैठना चाहिये कुछ करना चाहिये इस लिए व्यवस्था परिवर्तन का जो भी ऑदोलन चले उससे जुड़कर हम सभी कों सहयोग करना होगा सिर्फ कमेंट लिख देने मात्र से काम नही चलेगा।
Jhakjhor diya sa anubhav!!!
Ankhein kholkar aaspaas dekhne ko prerit karne ke liye dhanyavaad.
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