दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की तमाम यादें यहां की दीवारों पर चस्पां हैं। सत्तर हज़ार वर्ग मीटर इलाके में बसा है मजनूं का टीला। साढ़े तीन सौ से अधिक मकान हैं। तीन हज़ार की आबादी है। ज्यादा आबादी दक्षिण भारत के बौद्ध मठों और वहां किसानी करने लगे तिब्बती निर्वासितों का मिलन स्थल है। यहीं ठहर कर वो धर्मशाला की तरफ रवाना होते हैं। पहले यहां तिब्बती आए तो इस वीरानें में झोपड़ियां डालकर रहने लगे। कूली,रेल पटरी बनाने का काम किया। फिर लुधियाना से इनका रिश्ता हुआ। लुधियाना के ऊन व्यापारियों ने इन्हें उधार पर गर्म कपड़े दिये। हम बचपने में सोचते थे कि ये लोग तिब्बत से गर्म कपड़ा लाते हैं। मगर ये अपनी डिज़ाइन देकर लुधियाना के व्यापारियों से स्वेटर मफलर और मोजे बनवाते रहे। उन्हें देश भर के तिब्बती बाज़ारों में ले जाकर बेचते रहे। अक्तूबर नवंबर में लुधियाना में काफी तिब्बती लोगों का मजमा होता है।
लुधियाना ने इन्हें व्यापारिक समर्थन दिया जिसकी बदौलत इनके पास कुछ पूंजी आई। धीरे-धीरे अपने बच्चों को पढ़ाने लगे। अब वो काल सेंटर में नौकरी कर रहे हैं। कई विदेश जा चुके हैं। कुछ को होटलों में चीनी खान-पान बनाने की नौकरी मिल गई है। इससे जो पैसा आया उसका असर यहां की इमारतों पर हुआ। पक्के मकान बने। उनमें किरायेदार ठहरने लगे। बड़ी संख्या में बौद्ध मठों ने धर्मशालाएं बनवाईं। जिनसे होने वाली कमाई के कारण उनका काम चलने लगा। इन मठों में बिहार के गरीब बालिग बच्चों को नौकरियां दी जाने लगीं। इसलिए आपको यहां कई ट्रैवल एजेंट दिखेंगे। फिलहाल यहां किसी तरह के निर्माण कार्य पर रोक लगी हुई है।
तिब्बत की आज़ादी के सपने के साथ- साथ इस छोटे से तिब्बत को देखना चाहिए। गलियां तंग हो चुकी हैं। गाड़ियां अंदर नहीं आ सकतीं इसलिए मंदिर के आंगन और घर के बाहर बने छोटे-छोटे चौराहों पर लोग ठाठ से बैठे चाय पीते नज़र आएंगे। बच्चे बेफिक्र खेलते नज़र आएंगे। एक सुरक्षित माहौल नजर आता है। घरों में अब पारंपरिक चीज़ें कम होती जा रही हैं। सारे घर मुनिरका या बेरसराय जैसे लगने लगे हैं। अभी भी कुछ घरों में धूप जलाने का पवित्र चूल्हा बना हुआ है। मंत्रों से लैस पताके लहरा रहे होते हैं। छुबा लबादा अब कोई नहीं पहनता। अच्छी क्वालिटी का छुपा दस से पंद्रह हज़ार का आता है। कुछ औरतें पहनती हैं। मगर हल्के कपड़ों के।
इस तस्वीर में आप यमुना के किनारे बने एक क्लब देख रहे हैं। तिब्बती यूथ कांग्रेस का क्लब। इसके मालिक ने पैसे की कमी के कारण मकान नहीं बनाया। लिहाज़ा यहां चाय नाश्ते की शानदार दुकान है। खूबसूरत नज़ारा। कैरम खेलते हुए और खिड़की से नदी को देखते हुए। दिल्ली में यह सबसे बेहतरीन जगह होगी जो इतनी सस्ती भी है। यहां के लोगों को कान की सफाई कराने की आदत है। दस रुपये में कान साफ करने वाले खूब दिखते हैं। आखिर की तस्वीर में प्रेम पाल जी हैं। बुलंदशहर खुर्जा के एक गांव के। तेईसा साल पहले आए तो कोई आइडिया नहीं था कि तिब्बती पहनावा क्या होता है। आज वे यहां जम गए हैं।
खास बात यह है कि मोहल्ले की देखरेख पंचायत परिषद करती है। वोटिंग से सात सदस्य चुने जाते हैं। यहां के रेजिडेंट वेलफेयर दफ्तर में हर नागरिक की फाइल बनी हुई है। इसके प्रधान दोरज़ी का कहना है कि हर मकान के नीचे दुकान है। इंडिया ने हमें कितना कुछ दिया। अब हम अपनी तरफ से इंडिया को देना चाहते हैं। इसलिए सारे दकानों की गिनती की गई है। हम अपनी तरफ से कमर्शियल टैक्स देंगे। मोहल्ले का कचरा यमुना में ना जाए इसलिए महिला समिति कचरा उठाने वालों की खुद निगरानी करती है। कचरे को दो भागों में बांटा जाता है। एक प्लास्टिक वाला और दूसरा सड़ने वाला। यमुना में कुछ भी नहीं जाता। लोगों ने बताया कि वो बचपन में जमना बोलते थे। अब यमुना बोलने लगे हैं क्योंकि अभी दिल्ली में सब यमुना बोलते हैं। तब तो हम यमुना में खूब तैरते थे। अभी तो नहीं जा सके।
तिब्बत कभी तो आज़ाद होगा। यहां के लोग विस्थापन के भीतर विस्थापन भुगत रहे हैं। मां-बाप कई सालों तक मेहनत करने के बाद स्थायी होने लगे तो उनके बच्चे बाहर चले गए। यहां के स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे पांचवी के बाद धर्मशाला या पहाड़ों पर बने तिब्बती स्कूलों में चले जाते हैं। यानी फिर से विस्थापन। विस्थापन निरंतर है।
कुछ भी स्थाई नहीं है। पूरी बस्ती ही उजड़कर फिर से तिब्बत में बसने के इंतज़ार में हैं।
एक शहर के भीतर कई तरह के स्पेस हैं। सब स्पेस एक दूसरे से अलग हैं। हर मामले में। इसी थीम को लेकर रवीश की रिपोर्ट का एक हिस्सा चलता है। आज रात आप ९ बजकर २८ मिनट पर एनडीटीवी इंडिया पर देख सकते हैं। शनिवार को सुबह १० बज कर २८ मिनट और रात १० बजकर २८ मिनट और रविवार को ११ बजकर २८ मिनट पर देख सकते हैं।
19 comments:
ज़रूर देखेंगे. साहिब.....
धर्मशाला तक तो घूम आया.. इनकी संस्कृति से थोडा बहुत वाकिफ हूँ.
ravish ji ndtv par majnu ka teela wali report bahut achchi lagi..... aapse nivedan hai ki mukharjinagar k bare me bhi ek report bnaye.... coaching k naam par kai sansthan yaha studento ko loot rhe hai....aur to aur mukharjinagar me ab rehna bhi mushkil ho gaya hai .... rent mehanga ho gaya hai... ladke civil ki taiyari karte hai aur kai chote chote kamro me rah rhe hai jahan par keval ek bed lagne layak jagah hai.... yahi haal nehru vihar, indira vihar, gandhi vihar ilako ka hai.
जानकारी के लिए आभार ...इनकी संस्कृति से बेहतर तरीके से वाकिफ हूँ...शुक्रिया
बहुत बढिया रिपोर्ट, धन्यवाद
बहुत इच्छा थी मजनूं का टीला के बारे में जानने की। कई बार बाहर से गुजरा हूँ।
टीवी पर भी देखूंगां
प्रणाम
अपनी संस्कृति से दूर होकर भी अपनी संस्कृति को बचने कि पहल......जहाँ कि जमीं ने उन्हें पनाह दी है उसके लिए वफादारी कोई इनसे सीखे...और सीखे कोई रविश से कि पत्रकारिता क्या होती है...और ख़बरें कहाँ हैं........
एक संस्कृति की सुंदर छटा की बेहतरीन रिपोर्ट ....
बहुत बढ़िया प्रस्तुति. लेकिन रवीश जी एनडीटीवी इंडिया की घड़ी अभी भी दो मिनट पीछे ही चल रही. आपने ही लिखा था कि हिंदी न्यूज़ चैनल वालो की घड़ी ठीक हो गयी है.....
घड़ी ठीक कर लीजिये....
aisi hi ek duniya mecleodganj mein hain..vahan jakar bahut kuch jana samjha hai..
काश, इन्हें भी अपना एक देश मिले।
नमस्कार!
इसका नाम मजनू का टीला क्यों है?
नमस्कार.
waah ravish jee,
mazaa aa gaya majnu ka tila ghumkar.aapne ek nispaksha prastuti dene ki himmat ki, nahi to aur log wicharon ki chasani mila dete hai.
आपका एफबी एलर्ट देर में देखा. पता भी नहीं था, यूं कि जेहन में नहीं था कि आपकी रिपोर्ट अब आने ही वाली होगी पर मुनादी ना भी करेंगे तो क्या. हम चाहे जो भी काम कर रहे हों, एक पहचानी-चीन्ही आवाज़ यूं ही इमारतों के जंगल के पीछे से उभरती है, जैसे गांव का कोई चच्चू-भइया भीड़भाड़ चीरते हुए ज़ोर से पुकार रहा हो-सुने हो नन्हे, का भकुआ गए हो, हम हैं यहां, तभी तो खबरें बनाते-देखते हुए भी रवीश की आवा़ज़ गांव-जवार तक लेके चली जाती है, रिपोर्ट चाहे सनीमा पे हो, चाहे अयोध्या पर। हर बार की तरह अब भी पीछे (कुर्सी के) टीवी चल रही है। खबरें बन रही हैं और कानों में आपकी वही चीन्ही हुई आवाज़ सुनाई दे रही है। एकदम अपनी, गांव-जंवार वाली। नए-नए प्रतीक गढ़ती हुई, सेटायर करती हुई। अपने वाले रवीश की आवाज़। हम फिलहाल टीवी देखने की फुरसत में भले नहीं पर आपकी आवाज़ तो संग-संग है। ये है रवीश-रेडियो का कमाल, जो टीवी स्टेशन पे ट्यून होता है।
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खैर, एलर्ट की बदौलत अब यहां भी आ गए अपन, कस्बे पे। एक बार फिर से। सो यहां पढ़ ली पूरी रिपोर्ट।
शुक्रिया साहेब।
तिब्बत के नाम से ख्याल आता है कि कैसे हर दो साल में अपना निवास स्थान बदलती वहाँ की एक डॉक्टर की तारीफ मेरा एक सहकर्मी अस्सी के दशक में करता था कि कैसे वो नाडी पकड़ ही बिमारी समझ जाती थी और हिमालय में प्राप्त जड़ी बूटी से बनी रंगीन गोलियों से इलाज करती थी,,, उसके भाई को एप्पोलो मद्रास में हृदय के ऑपरेशन के लिए चार माह बाद बुलाया गया था,,, किन्तु इस बीच वो दिल्ली आया था तो वो उसे तिब्बती डॉक्टर के पास ले गया और उसकी गोलियां खा जब ऑपरेशन के लिए गया तो उन्होंने बताया कि उसको अब आवश्यकता नहीं थी!
कल (20 नवम्बर को)एक खबर को छिपाने के चक्कर में भारतीय मीडिया की असमायिक मौत हो गयी। आप अंतेष्टी में जा रहे हैं क्या?
Mcleodganj ki yaad aagayi
18वीं सदी के स्रोतों से पता चलता है कि उस समय इस टीले पर मजनूं नाम के एक मशहूर और बड़े सनकी कि़सम के सूफ़ी होते थे.. उनके प्रताप से ही इस टीले का नाम मजनूं का टीला पड़ गया।
मैं भी १९९९ में सिविल लाइन एरिया में रह चुका हूँ ...आपने सही बात उठाई है
रवीश, कोशिश करें तो फोटोयें शब्दों के साथ inline आ सकती हैं. उससे पढ़ते समय बार बार ऊपर नीचे नहीं जाना पड़ेगा.
हमेशा की तरह आपके अपने ही अंदाज़ में, एक अनोखा किस्सा इस इलाके के बारे में.
बहुत साल हो गए हिंदी में बोले लिखे सोचे हुए. सिर्फ हिंदी फिल्मों और गानों तक सीमित रह गयी थी मेरी हिंदी. आपका शो देखा, फिर ब्लॉग ढूँढा, और आज बहुत सालों बाद हिंदी में कुछ अभिव्यक्त कर रहा हूँ. चूंकि पहले पहले शब्द है, दसवी के इम्तिहान याद आ रहे हैं. उसके बाद से आज तक शायद ही हिंदी में कभी कुछ लिखा हो.
कुछ दिन पहले कुश्ती और दंगल पर आपकी रिपोर्ट देखी थी. Commonwealth के बाद रिपोर्टिंग तो कई लोगों ने की, पर आपकी तरह दंगल की मिटटी के करीब कोई नहीं पहुँच पाया. धन्यवाद.
आज भी जब मैं कभी जनपथ जाता हूँ, तो वह किताबों की दुकान, जहाँ आपके शो का intro शूट हुआ है, हमेशा आपकी याद आ जाती है.
लिखना तो शुरू किया था क्या लेकर, और कहाँ पहुँच गया. धन्यवाद
सामाजिक गतिशीलता के पाठ सहित समाजशास्त्र का पूरा काव्य समाहित लगता है यहां. कस्बा ब्लॉग पर ''मजनूं ...'' शीर्षक, बहुत खूब.
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