गोल ही अच्छा लगता है चांद
भोला सा
जैसे निकल आया हो मेरे गांव से
दिल्ली के आसमान में
बिना बताये
बाबूजी और मुखिया जी को
आवारा लग रहा था
दिल्ली के आसमान में
कैसे खा गया था रेड लाईट से चकमा
रूक रूक के निकलना पड़ा था चांद को
लौटने से पहले अपने गांव
घंटों फंसे रहना पड़ा था जाम में
मुंह चिढ़ा कर निकल गई थी मेट्रो
जिसने देखा भी उसने भी नहीं पहचाना
मेरे भोले चांद को
अनजाना,अकेला और अजीब लग रहा था
दिल्ली के आसमान में
जहां मोहब्बत की कसमें तरंगों में बदल कर
धड़कती रहीं चकोरों के फोन में
और ख़त्म हो चुका था चांद का इंतज़ार
दिल्ली के आसमान में
जहां तकियों के नीचे छुपाकर चेहरा
रची जाने लगी थीं इश्क की कल्पनाएं
आवारा लग रहा था चांद
दिल्ली के आसमान में
10 comments:
कैसे खा गया था रेड लाईट से चकमा
रूक रूक के निकलना पड़ा था चांद को
लौटने से पहले अपने गांव
घंटों फंसे रहना पड़ा था जाम में
आपकी कविता पढ़ने पर ऐसा लगा कि आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखते हैं। इस कविता में बहुत बेहतर, बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है।
गोल ही अच्छा लगता है चांद
भोला सा
जैसे निकल आया हो मेरे गांव से
दिल्ली के आसमान में
बिना बताये
बाबूजी और मुखिया जी को
आवारा लग रहा था
दिल्ली के आसमान में -----
रवीश जी ,
बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता।सचमुच दिल्ली के आसमान में इन दिनों चांद दिखने की कल्पना ही नहीं हो सकती----निकलता भी होगा तो धूल धुयें और धुंध का गुबार उसे दिखने नहीं देगा---बाबू जी और मुखिया जी का नाम पढ़ते ही आपकी बाबू जी---वाली कविता याद आ गयी---वह एक बेहतरीन संवेदनात्मक कविता है----
हेमन्त कुमार
जब भी आप को पढ़ती हूं तो ऐसा लगता है कि एक प्रसिद्ध पत्रकार के पीछे रहने वाला इंसान खुद को ही कहीं ढूंढ रहा है
कविता हमेशा की तरह आप के मन से निकलकर पाठको के मन का छूती है
शुक्र है रवीश जी कम से कम आपको दिल्ली में चाँद तो देखने को मिल जाता है. यहाँ तो दिल्ली में रहते हुए महीनो हो जाते हैं आसमान की ओर देखे हुए. अब ये फ्लैट में आपको पता ही है, इन बिल्डिंगों के जंगल में आसमान की ओर देखने का मौका ही कहाँ मिलता है. और रास्ते, यहाँ ख़ुद को बचाएँ या चाँद देंखे.
"इक चाँद तो रहता है नभ पर
दूजा उतर आया धरती पर,"
इंजीनियरिंग कॉलेज में यह पंक्ति मेरे एक दोस्त के मुंह से अक्सर सुनाई पड़ती थी जब कोई चाँद पास से गुजर जाता था :)
जब हम बच्चे थे तो चाँद जब पूरा होता था पूर्णमासी में तो अंगेज़ नारी की याद दिलाता था. और भारतीय नयी नवेली बहू अमावस्या के चाँद समान - पूरा चेहरा ढका. और 'मुंह दिखाई' में आई सब स्त्रियाँ, वर की रिश्तेदार का एक एक कर घूँघट उठा चेहरा देख उसे कुछ रुपये आदि गिफ्ट देने का रिवाज़ एक जिज्ञासा उत्पन्न करता था इस प्रथा के चलन के स्रोत का...
वो अब समझ में आया कि यह तो चाँद ही है माया का कारण तभी तो प्राचीन भारतीय 'हिन्दू' कहलाया - चाँद को इन्दू कहा जाता है संस्कृत में, और 'प्राचीन हिन्दू' किन्तु पहुंचे हुवे खगोलशास्त्री ही थे जिन्होंने चन्द्रमा के चक्र के आधार पर कैलेंडर यानि पंचांग रचा...आज भी क्षत्रिय हिन्दू नारी करवा चौथ मनाती हैं, और सत्य को कटु यानि 'कडवा' कहा जाता है :)
जिस पर एक अंग्रेजी चुटकुला याद आ गया कि कैसे एक बाप अपने बेटे के साथ कडवी दारू के साथ कडवा ओलिव फल खा रहे थे. लड़का पहली बार खा-पी रहा था, इस लिए कुछ देर बाद पिताजी से बोला "पिताजी यह कमाल है कि मेरे पास कडवे ओलिव ही आ रहे हैं जबकि आपके पास सब मीठे :) .
जहां तकियों के नीचे छुपाकर चेहरा
रची जाने लगी थीं इश्क की कल्पनाएं
आवारा लग रहा था चांद
दिल्ली के आसमान में .....
बेहद ही खूबसूरत रचना.....
bahut he umda kism ki kavita likhi aapne........padh kar achha laga
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लाइट से चकमा और जाम में फंसने की बात समझ से बाहर है। बाकी चीज़ें अच्छी हैं। ज़माने के मुताबिक।
आपको क्या पता कसबे में आने से क्या मिलता है ?
बहुत प्यारी लाइंस हैं रविश जी ...
manojeet singh
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