वन रूम सेट में रहने वालों की एक मानसिकता होती है। वो कभी अपने कमरे से संतुष्ट नहीं रहते। हमेशा एक बेहतर वन-रूम सेट की तलाश में रहते हैं। गोविंदपुरी,बेरसराय और मुनिरका की गलियों में आप देखेंगे, लोग ठेले पर सामान लादे एक गली से दूसरी गली में जा रहे होते हैं। इनमें से कोई न कोई तो ऐसा होगा ही जो अच्छे कमरे की तलाश में बदली कर रहा होगा। सीमित सामान के साथ जीने की कला वन-रूम सेट में ही रहते हुए आती है। प्लास्टिक की बाल्टी। पानी का सबसे बड़ा जलाशय और किताबें रखने के लिए बेंत की रैक। ये प्रवासी छात्रों का ज़रूरी सामान बनता जा रहा था। बीसवीं सदी का आखिरी दशक। उन्नीस सौ नब्बे। डियोड्रेंट अभी छात्रों की ज़िंदगी में नहीं आया था। पटना के मौर्यालोक से खरीद कर लाई गई सेंट की शीशी से बात आगे नहीं बढ़ी थी। एनसीआरटी की किताबें दोस्तों की रैक पर किसी सपने की तरह सोती नज़र आती थी। किताबों को अंडरलाइन करके पढ़ना। इन सबके बीच तकीये के नीचे छुपा कर रखी गई मेरी रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स की किताब। आज तक कोर्स पूरा नहीं हुआ। कमबख्त बैरी इंग्लिश आई ही नहीं अपनी लाइफ में। हर तरह से लुभाया, बुलाया मगर जालिम आज तक तड़पाती है। दोस्तों की इंग्लिश उधार लेकर अपना काम चला लेता हूं। वो मेरे लिए लिख देती हैं। खैर। रैपिडेक्स पर अपने ब्लॉग पर पहले भी लिख चुका हूं।
वन रूम सेट एक स्पेस बन रहा था। जिसके भीतर हम खुद को ढूंढ रहे थे। बंद कमरे में अपने आप को देखने के अलावा कुछ था ही नहीं। कल्पनाएं ऐसे हमला करती थीं कि छोटे से कमरे में दम घुटने लगता था। ज़मीन पर पड़ा गद्दा और उस पर चेकदार चादर। सिंगल बेडशीट भी वन रूम सेट की तरह जीवन का हिस्सा बन गया। वाटर फिल्टर जीवन में आ गया। ख़राब पानी ने जब पीलीया का मरीज़ बनाकर पटक दिया तो वॉटर फिल्टर लाना पड़ा। नदी के किनारे बड़ा हुआ था। गंडक और गंगा के किनारे। पानी छान कर नहीं पीया। बीच धार से गंगा का पानी कटोरे में भर कर पीया है। गोविंदपुरी में स्टील का वॉटर फिल्टर। पानी छनता था। हम मुफ्त पानी से साफ और महंगे पानी पीने की आदत के शिकार हो रहे थे। सुबह जब कमरे को साफ कर देता था तो लगता था कि जीवन में कुछ अपना होना ज़रूरी है और वो अपना अपने हिसाब का होना ज़रूरी है। फिर भी अपने साथी को रूम मेट बुलाना अजीब लगता था। कौन है तुम्हारा रूम मेट? एक लड़की ने जब यह सवाल पूछा तो हैरान हो गया। उसका नाम तो अनुराग है। अरे..वही...तुम्हारे साथ रहता है तो रूम मेट ही हुआ न। जब वी मेट तो बहुत बाद में आई। हम तो अपनी लाइफ में रूम मेट पहले बन गए थे। कमरे के दोनों छोर पर दीवार से सटा कर लगाए गए बिस्तर। बीच का रास्ता किसी राजपथ सा लगता था। कृपया जूते बाहर उतारें का नोटिस बोर्ड। यह भी नया था।
और हां,हिंदी अखबार पढ़ने की आदत छूट गई। आर्यावर्त,प्रदीप,इंडियन नेशन,हिंदुस्तान,पाटलिपुत्र टाइम्स,नवभारत टाइम्स और जनसत्ता पढ़ने के संस्कारों से दूर चला गया। ये कैसे हुआ पता नहीं लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया हर दिन दरवाजे के बाहर पड़ा मिलता था। हॉकर पेपर का रोल बनाकर काली रबड़ चढ़ा कर फेंक देता था। सुबह सुबह इस तरह पेपर की बेकदरी बर्दाश्त नहीं होती थी। आदत नहीं थी अखबार को पढ़ने से पहले कूड़े की शक्ल में देखना। जब अपना घर हुआ तो सबसे पहले हॉकर को यही कहा अखबार दरवाज़े पर चाहिए। मोड़़-माड़ के नहीं देना। अब अख़बार अख़बार की तरह मिलता है।
गोविंदपुरी के मकान में शर्मा जी ने कहा कि आप एच के दुआ का आर्टिकल पढ़ते हैं। नहीं। क्या पढ़ते हैं,शर्मा जी के इस सवाल पर ईमानदारी से कह दिया कि अंग्रेजी नहीं आती। शर्माजी का एक और सवाल। फिर क्या आती है। हिंदी आती है मुझे। शर्मा जी झुंझला गए। हिंदी आती है। हिंदी इज़ अ डेड लैंग्वेज। सुन कर ऐसे लगा किसी ने बेंत की छड़ी कस दी हो। शर्मा जी ने एच के दुआ के लेखों की कतरनों की फाइल दे मारी। कहां पढ़ो। अंग्रेज़ी सीखो। कुछ नहीं कर पाओगे। मेरे तकिये के किनारे एच के दुआ और गिरीलाल जैन के लेखों की कतरनें सोने लगीं। वो सोती ही रह गईं। मैं अपने ख्यालों की भाषा में ही खोया रहा। जहां शब्द चित्र बनकर चलते दिखाई देते थे।
हाफ पैंट। पतले दुबले शरीर की डंडी सी लंबी टांगों पर जब चढ़ी तो लगा कि लंगोट के ऊपर लंगोट क्यों पहनी गई है। शर्मा जी ने ठीक ही कहा होगा कि पूरे कपड़े पहनो जी और बाहर रात में सोना बंद कर दो। दिल्ली साली। पहले बदलती है और फिर बदल कर पूछती है कि इतना क्यों बदल गए। बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा शर्मा जी, गर्मी के दिन हैं। अंदर लगता है कि जल जायेंगे। आपकी तकलीफ? कहा मेरे घर में बहू है। आप हाफ पैंट यानी शॉट्स न पहने और अंदर सोने की कोशिश कीजिए। मकान मालिक का फरमान था। जिस शहर में शाहजहां जैसे बादशाह आकर दुनिया से गए हों,उसी शहर में एक बादशाह तुगलक भी हुआ और उसी शहर में मोहम्मद शाह रंगीला भी। उसी शहर में शर्मा जी खुद को बादशाह क्यों न समझें। मकान बनाना किसी मुल्क को बनाने से कम नहीं। जवाहरलाल नेहरू और दिल्ली के किसी मकान मालिक के बीच बहस करा दीजिए। आप तय ही नहीं कर पायेंगे कि मुल्क बनाना मुश्किल काम था या मकान।
दिल्ली के वन-रूम सेट नए कानूनों की संसद में बदल गए। दस बजे से पहले घर आना है,पानी के लिए मोटर बार बार नहीं चलाना है, गेस्ट कम आयेंगे। लड़कियां तो सिर्फ बहू बन कर ही आ सकती थीं। एक मकान मालिक के सवालों से तंग आ गया था। बोल दिया कि मेरी शादी हो गई है। बीबी बिहार में रहती है। गांव में। वो नहीं आएगी। यहां की लड़की कैसे ला सकते हैं। शादीशुदा होना एक सोशल परमिट है। ड्राइविंग लाइसेंस। बनवा लीजिए और ट्रैफिक के नियम तोड़ते रहिए। खैर उस घर में बात पटी नहीं। जिस घर में बात पटी उस घर के मालिक से मेरा सवाल काम कर गया। इस बार मैंनें पूछ दिया। आप जब मेरी उमर के थे तब क्या करते थे। वो चुप हो गए। मेरा जवाब ये था- हम भी वही करते हैं जो आप करते थे। भरोसा करना है तो कीजिए। वर्ना मकान बनाकर अपनी नैतिकता हमारे ऊपर मत थोपिये। बस घर मिल गया। साला फिल्म का डायलॉग लगता है। लेकिन सच्ची मुच्ची का डायलॉग।
ऐसी बात नहीं है कि लड़कियां नहीं आती थीं। उन्हें भी जानना था कि साथ पढ़ने वाले ये लड़के आए कहां से हैं। रहते कहां हैं। जब भी कोई लड़की कमरे में आती तो उसकी गर्दन कमरे में पूरे ब्रम्हांड की तलाश करती। उसके पांव दहलीज़ पर ऐसे ठिठकते थे जैसे कोई हमारी नीयत का इम्तहान ले रहा हो। उनके जाते ही मकान मालिक आता था। कौन थी। जी..... लड़की। लड़की कैसे आ गई। अब कोई आना चाहे तो कैसे मना कर दें। मकान मालिक के जाने के बाद हम सब आशंकाओं की दहलीज़ पर खड़े मिलते थे। गहरे अविश्वास से शुरू होने वाले रिश्ते वक्त की आंधियों के साथ उड़ते चले गए। वन-रूम सेट की दहलीज़ को जो पार नहीं कर सका वो जान ही नहीं सका इन अंधेरे कमरों में आने वाले कल के लिए कैसे कैसे ख्वाब सजाते हैं। वो देख ही नहीं पाए बिस्तर के नीचे दबीं रूम मेटों की चिट्ठियां। जिनमें उनके मां बाप लिखते थे। सिर्फ पढ़ना है। आईएएस बनना है। मुश्किल से पढ़ा रहे हैं। दो सौ रूपये अलग से भेज रहा हूं। जूस के लिए। इस तरह के खत आते थे। मेरे बाबूजी ने तो कभी खत ही नहीं लिखा। डाकिया, कमबख्त कभी मेरे लिए भी आता। कुछ करने के भयंकर दबाव से कभी-कभी वन-रूम सेट हिटलर का गैस चेंबर लगता था। खै़र जिन्होंने हमारे वन रूम सेट की दहलीज़ पार की, उनकी दुनिया बड़ी हो गई। दिल्ली टकरा रही थी। टिन के डिब्बे की तरह हिल रही थी। आंटा समाने लगा। हम सब एक दूसरे को अपने अनुभवों से भरने लगे। लड़कियों के लिए लड़के बदलने लगे। ये आप दिल्ली की लड़कियां सीरीज़ में पढ़ सकते हैं। पहली बार एक शब्द ज़िंदगी में आया। इम्प्रेस करना।
इस पर अभी नहीं। लेकिन गलियों में सुबह सुबह ठेले पर लदे ब्रेड और अंडे। दरवाज़े पर दूध का पाकेट। किस शहर में मैं भी आ गया था। जहां कोई किसी को फूफा,मामा, चाचा नहीं बोलता था। धोबी से लेकर दूधवाला, पेपर वाला और मकान मालिक। सबके सब अंकल जी। रिश्तेदारियों के इस मुल्क में सबको अंकल जी पुकारना अजीब लगता था। सारी महिलायें आंटी जी। दिल्ली विश्वविद्यालय की तरफ मेरी बस पहुंच रही थी। मैं उतरने वाला था। उम्र और सूरत देखे बिना उस महिला को आंटी जी कह दिया। आंटी जी थोड़ी सी जगह दीजिएगा। गुस्सा गई। क्यों बे...मैं तेरी आंटी लगती हूं। अब ये तो नहीं कह सकता कि दिलरुबा भी नहीं लगती हैं। खैर। चुप हो गया। जब आंटी गाली ही लगती है तो साली दिल्ली सबको अंकल-आंटी बुलाती क्यों हैं। वैसे मुझे भी अच्छा नहीं लगता। अंकल जी बुलाया जाना। बुलाते तो हैं। दिल्ली के अंकल-आंटी पर फिर भी कभी। वन रूम सेट का रोमांस और दिल्ली मेरी जान जारी है।
22 comments:
मुल्क बनाना मुश्किल काम था या मकान।
मकान तो मर खप कर अपने लायक बन जाता है। मुल्क बनाना जरा टेड़ी खीर है। अब तो पता ही नहीं लगता कि बन रहा है या बिगड़ रहा है।
Raveesh jee maza aa gaya padh kar....bahut bahut accha likha hai...
bahut khoob.. one room set ka romance padhne mein bahut mazza aa raha hai..likhte rahiye...padh kar javed akhtar sahab ka ek sher yaad aa gaya ..arz hai
TALKHIYAN KAISE NA HO ASHYAAR MEIN..
HUM PE JO GUZRI HUME HAI YAAD SAB...
Aapki one roon set ka romance qasba pe jaari hai aur meri apni life me. Mai to har subah pahle naisadak pe hi aata hoo. Dimag ko shant karke aur sukoon zeb me bharke kaam pe lag jata hoon.
shukriyaa.
मकान बनाना किसी मुल्क को बनाने से कम नहीं। जवाहरलाल नेहरू और दिल्ली के किसी मकान मालिक के बीच बहस करा दीजिए। आप तय ही नहीं कर पायेंगे कि मुल्क बनाना मुश्किल काम था या मकान।
शादीशुदा होना एक सोशल परमिट है। ड्राइविंग लाइसेंस। बनवा लीजिए और ट्रैफिक के नियम तोड़ते रहिए।
खैर उस घर में बात पटी नहीं। जिस घर में बात पटी उस घर के मालिक से मेरा सवाल काम कर गया। इस बार मैंनें पूछ दिया। आप जब मेरी उमर के थे तब क्या करते थे। वो चुप हो गए। मेरा जवाब ये था- हम भी वही करते हैं जो आप करते थे। भरोसा करना है तो कीजिए। वर्ना मकान बनाकर अपनी नैतिकता हमारे ऊपर मत थोपिये। बस घर मिल गया। साला फिल्म का डायलॉग लगता है। लेकिन सच्ची मुच्ची का डायलॉग।
कुछ करने के भयंकर दबाव से कभी-कभी वन-रूम सेट हिटलर का गैस चेंबर लगता था।
Aap to Dr. Shrilal shukl ke liye khatra bante ja rahe haiN.
रविशजी , साहित्य को सुधिजन समाज का दर्पण कहें या के आलोचना. पर साहित्य में अगर जमाने का दर्द और कश-म-कश ,फसाने और अफ़साने ,मौजूद
हैं तो वह उम्दा है - मनोरंजन और उस दौर का हवा -पानी सम्जहने और समझाने दोनों लिहाजन
आप का यह वों रूम सेट रोमांस दिल्ली के प्रवासी छात्रों और उस दौर-अ- हकीकत से बखूबी रु- व - रू करवाता है.इसे और उन्मुक्त उड़ान दें. कभी कभी ऐसा लगता है की
टी वी पत्रकारिता ने साहित्य की एक सामर्थ्यवान संभावना को छेंक लिया है .
सादर
ये मसैल-ए तसवूफ ये तेरा बयान गालिब
हुम तुझे वली समझ्ते जो न बादा-े-ख्वार होता ...
i wish u were not a poltical reporter.....
जबर्दस्त post .... Delhi और उसकी यादें..
Manoj
Dear Raveesh ji,
Apne bahut achha likha hai.Aisa lagta hai jaise Bihar se ane wale sab ladko ke liye ek nai anubhav hai.ye mere saath bhi hua hai.
Keep it up.All the best.
Regards,
Sanjeev Kumar
Laxmi Nagar
Delhi.
यह श्रंखला जारी रखें मजा आ रहा है... सबकी यही कहानी होगी उन्नीस-बीस
Awesome! Keep up the gud work.
Dear ravsih,
Dont have that much speed in reading hindi... but bahut mushkil se i read two para. felt the crust...
once i was having these feelings...
with love
.
.
.
"वन रूम सेट का रोमांस और दिल्ली मेरी जान"
बहुत अच्छा लगा आपका यह संस्मरनण... अपने बीते दिन याद आ गये।
'ग्लोबल वार्मिंग' और 'क्लाइमेट चेन्ज' का सच, एक बहुत बड़ा धोखा है यह गरीब देशों के साथ...
दिल्ली साली। पहले बदलती है और फिर बदल कर पूछती है कि इतना क्यों बदल गए।..
जवाहरलाल नेहरू और दिल्ली के किसी मकान मालिक के बीच बहस करा दीजिए। आप तय ही नहीं कर पायेंगे कि मुल्क बनाना मुश्किल काम था या मकान।
क्यों बे...मैं तेरी आंटी लगती हूं। अब ये तो नहीं कह सकता कि दिलरुबा भी नहीं लगती हैं।
जय हो प्रभु....वैसे तो आज प्रत्येक लाइनें गुदगुदाई हैं---हसांई हैं। लेकिन कुछ व्यंग बड़े ही जतन के साथ समेट लिया हूं...। आशा करता हूं कि आपकी कोई व्यंग-प्रधान किताब छपे तो और अच्छा रहता। कम से कम आपके लेखों की कतरनें विद्यार्थियों के तकिये के नीचे तो सोती हुई नहीं मिलेंगी। प्रतिक्षा है अगले लेख की.......
100%KHARI BAATEN...
SACHIN KUMAR.
सभी वन रुम सेटरों की तरफ से बहुत-बहुत साधुवाद। कम से कम कोई उनके बारे में सोचता तो,उनकी तकलीफों का बताता तो है। सबको मजा आ रहा होगा। ऐसा लगता है कि सबकुछ आंखों के सामने से जैसे गुजर रहा है। मजा आए अगर ये VISUALISE हो जाए। कैसा होगा अगर इन सबको दृश्यों के साथ पेश किया जाए।
Ab chauthi post ka iantjaar hain, 2-3 saal maine bhi dilli ke one room set me guzare hain, behatrin saal jab main chat ke liye kewal barsaati hi chunti thee, baadal, suraj aur chaand dekhte rahne ka lutf millte rahne ke karan khud ko khusnaseeb samajhti thee. khair mujhe Dilli me sabko BHAIYA bulane par shuru me bahut koft hoti thee, yahan har koi Bhaiya thaa. mere liye har koi Bhaiya nahi ho sakta thaa isliye maine khud Bhaisahab shabd use karana shuru kar diya. Aur haan subah-sawere jhopadpatti ke bachhe hamari gali me aakar chillate the Aunti Rotti de do! 23-24 saal ki umra me isse bahut chidh hoti thee, lekin Rotti de hi deti thee.
साहब मजा आ गया . लगा की आप मेरी जिंदगी को आपने लिख दिया.
एक कमरे को लेकर इतना कुछ सोचा जा सकता है जो एक कमरे में नहीं समा सकता ।
द्वापर युग में इन्द्रप्रस्थ के नाम से प्रसिद्द दिल्ली का भारत, अथवा महाभारत, के इतिहास में सदैव एक महत्वपूर्ण रोल रहा है...कभी यह कुरुवंशी राजाओं की राजधानी थी, और तब कौरवों ने धोखे से उनकी सब संपत्ति हड़प कर पांच पांडवों को एक सुई के नोक के बराबर भी जमीन देने से इंकार कर दिया जब उनकी ओर से द्वारका राज कृष्ण ने उनके राजदूत बन उनके लिए पांच गाँव भर ही मांगे थे...और जो इस कारण कृष्ण का अर्जुन का सारथी बन कौरवों का विनाश का मूल बना...और शायद तभी से पांडव और कौरवों और उनके अनुयायियों की आत्माएं भटक रही हैं जैसा आपने लिखा ठेले में सामान रख एक गली से दूसरी गली घर की तालाश में...
आज कलियुग में एक-दो कमरे का घर भी मिल जाए तो हमें शायद तसल्ली कर लेनी चाहिए...
जिंदगी का ये हसीन सपना मैने भी देखा था....सर जब मैं आईआईएमसी में पढ़ रहा था....और मुनिरका की तंग गलियों में मेरा ठिकाना था....आपकी कहानी मेरी यादों पर पड़ी धुल की पर्त को हटा दिया...इसके लिए आपका शुक्रिया...
दोस्तों,
आप लोगों को यह सीरीज पसंद आई। इसके लिए बहुत शुक्रिया। इतना लंबा लेख पढ़ना आसान नहीं।
मेरा तो धीरज जवाब दे जाता है। फिर भी आप लोगों ने पढ़ा और सराहा और अपनी यादें भी साझा कीं। फिर से एक चौथा हिस्सा लिखा है। गतांक से आगे टाइप का है। आप पर अपनी यादों का बोझ डालने के लिए माफी चाहूंगा।
ओ अंकल जी,
आज आपके कई लेख फुरसत से पढा हूँ। कम्बख्त मुंबई भी फुरसत दे ही देती है कभी कभी :)
अच्छा लगा यह वन रूम सीरिज।
इलाहाबाद में कम्पटीशन की तैयारी करते लोगों के बीच एकाध हफ्ते रह आया हूँ। एक तपस्या ही है इस तरह कि जिंदगी और इस तरह की पढाई।
एक के मुंह से सुना था मैंने कि - आईएएस बनने के चक्कर में कई लोगों के बिस्तर बंधते मैने देखा है। यह शख्स कोई और नहीं इलाहाबादी मकान मालिक था जो तैयारी करने वाले छात्रों के सपनों की खुरचन पर जी रहा था ।
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