आनंद प्रधान का शुक्रिया। उन्होंने मुझे एक बहुत अच्छी किताब पढ़ने को दी। टीआरपी पर बहस करने वाले हर पत्रकार व संपादक को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। इसका नाम ही दिलचस्प है। We Interrupt This Newscast, How to improve local news and win ratings, too. Tom Rosenstiel, Marion R Just, Todd.Ll Belt, Atiba Pertilla,Walter C.Dean Dante Chinni इन लोगों ने मिलकर एक प्रोजेक्ट के तहत पांच साल की मेहनत के बाद इस पुस्तक को अंजाम दिया है। इस किताब की एक एक पंक्ति पांच साल के दौरान ३३,००० न्यूज़ स्टोरी और उनकी रेटिंग का तुलनात्मक अध्ययन के बाद ही निकली है। १९९८ से लेकर २००२ के बीच कई लोकल न्यूज़ चैलनों से प्रसारित रिपोर्ट का अध्ययन है। कुछ भी लगने के आधार पर नहीं लिखा गया है। यह किताब एक कोशिश है कि टीआरपी के इस मौजूदा मॉडल के बीच बेहतरीन पत्रकारिता को कैसे ज़िंदा रखा जाए और उन धारणाओं से भी मुकाबला करना है जो आए दिन हम न्यूज रूम में लगने के आधार पर सिद्धांत बनाते रहते हैं। एक बात ध्यान रखना चाहिए कि यह पुस्तक पूरी तरह अमरीकी समाज के संदर्भ में है और २००७ में छपी इस किताब के बाद से अमरीका से लेकर हिंदुस्तान तक में टीवी की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे दर्शक का संस्कार भले ही अलग हो लेकिन ज़्यादातर टीवी कार्यक्रमों की रुपरेखाएं अमेरीकी पृष्ठभूमि से ली गईं हैं या उनकी ही तरह हैं। इस पुस्तक को प्रोजेक्ट फॉर एक्सलेंस इन जर्नलिज़्म के तहत पूरा किया गया है।
यह ग्रुप दस साल तक लगातार शोध के बाद अपने नतीजे पर पहुंचा है। इस किताब को पढ़ने से पहले Elements of Journalism by Kovach पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब की चर्चा में मैं कई महीने पहले अपने ब्लॉग पर कर चुका हूं। मुझे ये किताब उबैद सिद्दीक़ी से मिली थी। उबैद साहब जामिया विश्वविद्यालय के मास कॉम में पढ़ाते हैं। उबैद साहब बीबीसी में कई साल काम कर चुके हैं और काफी बारीकी और जांच परख कर की जाने वाली पत्रकारिता में यकीन रखते हैं। लेकिन इन जैसे लोगों में अब ज़माना शायद ही यकीन रखता हो। आप इनसे सीखना चाहे तो धीरज के साथ जाइये और काफी कुछ सीख सकते हैं।
ख़ैर। यह किताब उम्दा पत्रकारिता से रेटिंग हासिल करने का मंत्र देती है। सोच सकारात्मक है। मामूली गिरावट पर पत्रकारिता के दोषों को दूर करने से पहले पूंजीवाद को पलट कर बिना किसी विकल्प के पत्रकारिता को गरियाने का मकसद कहीं नहीं है। बल्कि दावा करती है कि मेहनत और निष्पक्षता से की गई ख़बरों को डेस्क पर तैयार की फालतू रिपोर्टों से ज़्यादा नंबर मिलते हैं। हमारे मुल्क में इस तरह का अध्ययन नहीं हुआ है। कुछेक पत्रकार हैं जो संस्मरणात्मक और टिप्पणियात्म किताब लिख रहे हैं। लेकिन रेटिंग की बारीक आंकड़ों के बीच से जुझारू और ज़रूरी पत्रकारिता के लिए अच्छी ख़बर ढूंढ लाने की कोशिश कम हुई है। वैसे भी हमारे यहां पढ़ने का चलन कम है और पढ़ाने का ज़्यादा। सब एक दूसरे को पढ़ाना चाहते हैं। लेकिन इस किताब को पढ़िये ज़रूर। कई मिथक धाराशाही होते नज़र आएंगे।
पहले रेटिंग को समझना ज़रूरी है। शुरूआती दौर में रेटिंग से यह अंदाज़ा लगाया जाता था कि दर्शकों की संख्या कितनी होगी। अब यह मापा जाता है कि किसी खास रिपोर्ट या शो को कितने लोगों ने देखा। अब तो एंकर लिंक से लेकर ब्रेक और हर एक रिपोर्ट की रेटिंग निकाली जा सकती है। शुरूआत में जिनके घरों में टैम मीटर लगाये गए उन्हें एक डायरी दी गई। उनसे कहा गया कि वे एक महीने तक नोट करें कि कोई शो कितने देर तक और क्या क्या देखा। तब साल में चार बार ही रेटिंग ली जाती थी। लेकिन १९९० से हालात बदल गए। निल्सन कंपनी ने ऑडियेंस मीटर लगाने शुरू कर दिये। यह मीटर टीवी ऑन करते ही रिकार्ड करने लगता है। एक घर में अलग अलग लोगों के लिए कोड दिये गए। अगर कोई मर्द देख रहा है तो वह अपने कोड से टीवी ऑन करेगा। तभी हम जान पाते हैं कि अमुक टाइम में मर्द देख रहा है या औरत। इसीलिए दोपहर के वक्त न्यूज़ चैनल ‘महिलाओं के लिए’ चैनल में बदल जाते हैं। माना जाता है कि इस वक्त औरतें अपने कोड से टीवी ऑन करती होंगी। अब आपको हर मिनट की रेटिंग मिल जाती है। अगर आप किसी घटिया कार्यक्रम को एक मिनट से ज्यादा देख लेते हैं तो रेटिंग चाहने वालों का काम हो जाता है। इससे टाइम स्पेंट बढ़ जाता है और नंबर आ जाते हैं। इसलिए जब मैं कई घरों में जाकर सर्वे कर रहा था तो पाया कि ज्यादातर लोग चुनिंदा चैनलों की आलोचना कर रहे हैं लेकिन यह भी पाया कि वे उन चैनलों को देखते भी हैं। मुझे लगा कि वे जब तक आलोचना करने के मूड में आते होंगे वो चैनल उन्हें एक मिनट तक रोक लेता होगा और वो रेटिंग में आगे आ जाता होगा। तभी मैं कहता हूं जैसा दर्शक होगा वैसा ही होगा न्यूज़ चैनल। कम से कम इस रेटिंग व्यवस्था के तहत।
यह जागरूकता ज़रूरी है कि आप किसी चुनिंदा चैनल को पसंद नहीं करते हैं तो कभी जाइये ही मत। इससे खराब शो की रेटिंग खराब आएगी और बेहतर शो के लिए मौके बनेंगे। आप दर्शकों के हाथ में जो रिपोर्ट है उसी से तय होगा कि हम अगले हफ्ते किस किस्म के शो करेंगे। आपने देखा होगा कि अगर चीन पर एक चैनल ने शो चलाया और वो हिट हो गया तो उसकी रेटिंग देखते ही बाकी चैनल भी अगले हफ्ते चीन प्रलाप करने लगते हैं। बड़े-बड़े फिल्म स्टार शुक्रवार से पहले कांपने लगते हैं। करोड़ों रुपये दांव पर लगे होते हैं। हम पत्रकार ये दर्द अब हर दिन झेल रहे हैं। समय के साथ टीवी पत्रकारिता खूब बदली है। बदलना भी चाहिए। कब तक आप अरुण जेटली या अभिषेक मनु सिंघवी की वही बातें बार बार सुनेंगे। इसके साथ टीवी को दूसरे इलाके में जाना होगा। इस माध्यम का काम दिखाना भी है। दिखाने के नए किस्से ढूंढने होंगे। कई लोग आलोचना में स्टोरी की एडिटिंग को भी लपेट में ले लेते हैं। ये अधिकार तो हमें कंप्यूटर देता है। इफैक्ट डालें और कलात्मक संपादन से बेहतर करें ताकि वो दर्शनीय हो। सिर्फ कच्चे फुटेज के सिम्पल एडिट से भी काम नहीं चलेगा। और जब तक इनका इस्तमाल खबर को प्रभावशाली बनाने में किया जाता है तब तक ये ठीक भी है। इन तरीकों की आलोचना होनी चाहिए लेकिन ये नहीं कि क्यों कर दिया। बात इस पर हो कि जो किया उससे अच्छा क्या हो सकता था।
इस किताब के कुछ निष्कर्ष से मैं सहमत होता लगता हूं। मैंने भी देखा है कि खराब तरीके से की गई कई रिपोर्ट की रेटिंग नहीं आती। कारण समझा है तो पाया कि जब भी बेमन से कोई रिपोर्ट फाइल की जाती है उसके नंबर नहीं आते। लेकिन जब पूरी मेहनत और निष्पक्षता से कोई रिपोर्ट फाइल की जाती है तो उसके नंबर आते हैं। मेहनत से मेरा मतलब है कि किसी ने बयान दिया तो उसकी पड़ताल की गई। उस पर प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की गई। सही संदर्भों में रखा गया। इस तरह की राजनीतिक खबरों के भी नंबर आए हैं। इस किताब का भी यही दावा है कि अगर रिपोर्टर मेहनत से रिपोर्ट फाइल करेगा तो उसके नंबर आने के चांस वही है जो शिल्पा शेट्टी के चुम्मे से आते हैं।
यह लेख मैं दर्शकों के लिए लिख रहा हूं। कई सीरीज़ में लिखूंगा। मकसद यही है कि टीआरपी का विकल्प जब तक नहीं आता और आज तक कहीं आया भी नहीं है तो कैसे बेहतर पत्रकारिता की जाए। एक बात ध्यान में रखना होगा। टीवी बदल गया है। वो हमेशा सीरीयस नहीं रह सकता। उसके लिए दर्शकों और आलोचकों को अलग पैमाना बनाना होगा। अखबार की नज़र से टीवी नहीं देख सकते।
10 comments:
shukriya yah lekh kafi mahtwapoorn hai...aage ke lekhon ka intzar hai...
Its amazing how fast media has changed.In times of Gandhi in South Africa,people used to handtype papers and distibute it in crisis facing adversities and Now Its only a commercial game how to gain money faster and media houses have their own commercial interests,people certainly take note of these things but at the end of the day,people want honest and peaceful reporting and not irritating dramas which we often encounter on TV these days.
Regards,
Pragya
SACHIN KUMAR
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कस्बा के सभी पाठकों को दिवाली की देर से बहुत-बहुत बधाई। आजकल कुछा ऐसा हुआ है कि मैं अपना मेल चेक करने से पहले कस्बा पर जाना चाहता हूं। पता नहीं यहां क्या मिलता है। अब देखिए ना चारों ओर पटाखों की शोर है और यहां एक गंभीर विषय पर गंभीर तरीके से लिखा गया है। टीआरपी इसे एक नया नाम दिया जा सकता है टोटल रिजेक्टेड प्वाइंट...इसके मापने का जो तरीका है वो सच नहीं बताता। जबकि ये करोड़ों का धंधा है। क्या बेचे और क्या ना बेचे, यहीं तय करता है। इसमें सेटिंग-गेटिंग की भी बात होती है।
'लोग आलोचना करते है फिर भी चैनल को देखते है और जबतक रिमोट का बटन बदलते है उस चैनल का काम हो गया होता है। लोग SERIOUSLY उसे नहीं लेते...लेकिन उस पर जाते तो है और बस यहीं पर उससे बेहतर चैनल भी मात खा जाते है। तो क्या किया जाए। ये सही है कि लोग गंभीरता से फिर उसी बेहतर चैनल को लेते है.संवेदनशील मुद्दों पर लोग उसी चैनल पर ज्यादा भरोसा करते है। लेकिन फिर वही सवाल इस संवदेनशील मुद्दों पर वैसे चैनल भद्दा मजाक कर भी टीआरपी बटोर ले जाता है। तो क्या किया जाए। यहीं सवाल है जिसका जबाव ढूढ़ना होगा. लालू जी की वो पवन की कार्टून वाली बात याद है ना...तोड़ा TRP के मच्छर काटो..यहीं से LIVE दिखायेगा का रे...तो ऐसी घटना TRP बटोरती है इसमें दो राय नहीं..जो अलग हो.. हटके हो..EXCLUSIVE हो...मतलब की हो...लोगों के लिए हो...मेहनत कर बनाई गई हो...अब अमेरिका के गुब्बारे वाले बच्चे की स्टोरी ही देखिए..घर में बच्चा और शहर में ढिढोंरा...अमेरिका के हर चैनल गुब्बारे से भर गए लेकिन अंत...सुना FACEBOOK से लेकर TWITTER पर बच्चे के लिए दुआ की जाने लगी...TRP के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ना होगा..कुछ नया करना होगा...भूत-प्रेत,नाग इन सबसे अलग...यानी ऐसे प्रोग्राम दिखाने होंगें कि लोग चैनल से चिपक जाएं..दूसरी अगर कनेक्टिविटी कम हो तो भी कुछ ऐसा करें कि टाइम स्पेंड बढ जाएं...अब ऐसा कैसे होगा..अगर ऐसा हुआ तो ये बड़ा बदलाव होगा..और ये तय करेगा कि बेहतर पत्रकारिता और टीआरपी साथ-साथ चल सकते है। शायद टीआरपी के पैमाने को चेंज करने से ऐसा हो जाए क्योंकि अभी जो दर्शक संख्या है वो तो सही टीआरपी का पैमाना ही नहीं है।
दर्शक ये करें दर्शक वो न करें बताने से अच्छा है की इस फर्जी टेम सिस्टम को बदल कर एक नई और पारदर्शी प्रणाली लाई जाए.
दीवाली की बधाई ................जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए .
Baat 1985-86 ki hai. Un dinon hamare saath hamare 80 varshieya babuji bhi rahne aaye the. Aur wo lagbhag 15 maheene unke jiwan ke antim din siddh hue...Tab doordarshan ke karyakram hi TV par dekhne ko milte the...Raat ko ham sab, hamare bachche bhi, unke saath koi program dekhte the. Ek din meri badi ladki ne unse poochh hi liya, "Babaji, aap sare program dekhte hain aur ant mein unhein 'wahiyaad' kahte hain! Aap phir TV dekhte hi kyun ho?"
Unka jawab tha ki unke paas kuchh aur kaam tha hi naheen: khane, aur sone ke alava! Kintu wo asha rakhte the ki shayad kabhi to koi achha program dekhne ko mil jaye!
"Pasand apni-apni, khyal apna-apna".
Sach to ye hai ki TV channels kewal wo program hi dikhayenge jinse unki swarthpoorti ho. Is kaaran, udaharantaya, yadi aap 'shastriya gayan' mein ruchi rakhte hain to aapko nirash hi hona padega...
Ati mahatpurn lekh.....anya lekho ka bhi intezaar rahega
कहीं कहीं मैं आपसे सहमत और कहीं थोडी बहुत असहमत भी. टी आर पी को लेकर जो सबसे बड़ी प्रॉब्लम है वो ये है की आज भी आप इसकी तकनीक पर यकीन नहीं कर सकते. एक ऐसी प्रणाली विकसित करने की ज़रुरत है जो ज्यादा पारदर्शी हो और बिलकुल सच दिखाए. एक मिनट का funda तो कतई सही नहीं है. हो सकता है की हम किसी ख़राब खबर पर रूक जाएँ सिर्फ ये देखने के लिए वो इससे और खराब क्या कर सकता था. या कोई बेवकूफी भरा प्रोग्राम केवल हंसने के लिए.
अक्सर मैं न्यूज़ चैनल की ratings देखती हूँ तो अक्सर कुछ चैनलों को उसमे नहीं पाती हूँ, लेकिन ये भी तो बड़ा सच है की आज भी खबरों की विश्वसनीयता जानने के लिए, वही पर जाते हैं. झूठ-सच, नाग और बाबा लोग थोड़े और दिन की बात है, अंतत: जो सच्चा है वही survive करेगा
कोई माने या ना माने लेकिन चैनलों में काम करने वाले लोग जानते है कि अंतिम सत्य टीआरपी है..जो खबर टीआरपी देती है वो ही चलती है जो खबर पिट जाती है वो पिट जाती है..इसलिए मेरी समझ से टीआरपी होना चाहिए या नहीं जैसे मुद्दों पर बहस फिलहाल तो बेकार है..हर चैनल टीआरपी चाहता है क्योकि ये विज्ञापन से भी जुडा हुआ मसला है.. इसलिए यदि महाप्रलय और तबाही से जुडी हुई खबरें बिक रही है तो उन्हें खूब चलाना चाहिए.. आप देखिए एक समय खली बिकता था फिर अजब गजब बिकने लगा उसके बाद तालिबान का वक्त आया अब प्रलय चल रहा है..साफ है कि टीआरपी में भी कोई एक मुद्दा हमेशा नहीं चला है.. वक्त के साथ दर्शकों की रुचि बदली है तो यदि हम टीवीवाले भी उसके मुताबिक बदल जाएं तो हर्ज ही क्या है ..
प्रमोद चौहान
रविश जी नमस्कार ,
आपने ठीक ही कहा है " आओ खेती खेती खेलें " खेल में सब कुछ क्लिक या ड्रैग करने से ही हो जाता है
न तो किसान को खेत जोतते हुए अपने ही पसीनो में नहाना पड़ता है और न ही फसल बर्बाद होने पर खून के आंशु बहाना पड़ता है !
काश !!!! बस एक सुभिदा और अगर हमारे सॉफ्टवेर इंजिनियर इसमें जोड़ देते की output क्लिक करते ही C.P.U से गेंहूं और चावल निकलने लगता !
अफ़सोस की ब्लू टूथ से किसान बीज नहीं बो सकते और न ही networking से वो दूर के नहरों से खेत में पानी transfer कर सकते
हम सब की पेट की आग को बुझाने के लिए ,अभागे किसान को दिन रात खेत की मिटटी में अपना सर रगरना ही होगा
हमारे देश की विडम्बना तो देखिये की किसान का मतलब अनपढ़ और पढ़े लिखे लोग कंप्यूटर में खेती खेती खेल कर गंगा अस्नान कर रहे है
परन्तु अब पढ़े लिखे लोगो को इस खेल में output command भी डाल लेना चाहिए क्योंकि आज कोई भी किसान अपने बेटे को खुरपी चलाना नहीं सिखाता वह भी चाहता है की उसका बेटा माउस चलाना सीख लें !
आखिर क्यों न करे वो ऐसा क्या उसने हम सब का कर्जा खा रखा है की वो भूखे पेट रहकर आनाज उगाए और हम पेट भर कर "खेती खेती खेलें "
चलो कंप्यूटर में ही सही हम सब को प्रक्टिस कर लेना चाहिए क्योंकि पासा पलटने वाला है ..................
सुधीर झा (journalism D.U south campus)
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