रात को घर के किस कमरे में जलती होगी मां

हंसती होगी, रोती होगी, हंसती होगी मां
रात को घर के किस कमरे में जलती होगी मां

बाप का मरना मेरे लिये जब इतना भारी है
उस के बिना तो रोज़ ही जीती मरती होगी मां

बाबुजी घोड़ी पर चढ़ कर घर आते होंगे
अपनी याद में दुल्हन जैसी सजती होगी मां

पानी का नलका खोला तो आंसू बह निकले
गहरे कुएं से पानी कैसे भरती होगी मां

मेरी ख़ातिर अब भी चांद बनाती होगी ना
जब भी तवे पर घर की रोटी पकती होगी मां

अपनी आंख का नूर तो वह बस मुझ को कहती थी
मेरी भेजी चिट्ठी कैसे पढ़ती होगी मां

मेरी लम्बी उम्र की अर्ज़ी होठो पे ले कर
मंदिर के सब जीने कैसे चढ़ती होगी मां

तहसीन मुनव्वर
(तहसीन दूरदर्शन पर उर्दू न्यूज़ एंकर हैं, बेसाख्ता नाम से इनकी क्षणिकाएं कई अख़बारों में छपती हैं। फिलहाल रेलवे में पिछले छह साल से जनसंपर्क का काम कर रहे हैं। मगर साहित्य सृजन और संपर्क में भी दिलचस्पी रखते हैं)

29 comments:

Satish Saxena said...

आज के निर्दयी समय में यह बेहद मार्मिक गीत, कुछ विसंगति सा लगता है ! माँ को याद करने का समय नहीं है लोगों के पास ! कवि की संवेदनशीलता को प्रणाम

Aadarsh Rathore said...

बेहद खूबसूरत कविता...

Dipti said...

एकदम नकारात्मक कविता...

श्यामल सुमन said...

अपनी आंख का नूर तो वह बस मुझ को कहती थी
मेरी भेजी चिट्ठी कैसे पढ़ती होगी मां

संवेदनाओं भरपूर रचना। एकदम सजीव चित्रण रवीश भाई - हकीकत से आँखें मिलाती हुई। वाह। वैसे कुछ दिन पहले आपके मित्र संजय मिश्र जी से जमशेदपुर में बातचीत हो रही थी आपके बारे में तो पता चला कि आप बहुत संवेदनशील और जमीन से जुड़े इन्सान हैं। प्रमाण रह रचना है।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

M VERMA said...

संवेदनशील कविता

सदा said...

अपनी आंख का नूर तो वह बस मुझ को कहती थी
मेरी भेजी चिट्ठी कैसे पढ़ती होगी मां

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति बधाई ।

vikram said...

यही विडंबना है । हम मजबूर हैँ अकेले जीने को ।

Aadarsh Rathore said...

दरअसल ये भविष्य की कविता है। लेखक ने जिस तरह से कुछेक भावों पर लिखा है उन पर छद्म संस्कृतिवादी आपत्ति जता सकते हैं।

admin said...

Dil ko chhu gayi aapki gazal.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

दिनेशराय द्विवेदी said...

माँ के इस स्मरण ने आखें गीली कर दीं।

Sanjay Grover said...

ग़ज़ल मार्मिक है, कवि की भावना समझी जा सकती है। मैं खुद आजकल लगभग इसी मनःस्थिति से गुज़र रहा हूं। लेकिन दीप्ति जी की टिप्पणी भी क़ाबिले-ग़ौर है। उन्होंने अपनी बात स्पष्ट नहीं की। मुझे लगता है कि पुराने ढांचे में बिलकुल निरीह, अव्यवहारिक, बाहरी दुनिया से कटी और तयशुदा दायरे से बाहर के हर काम को करने/करवाने के लिए पति, पिता, भाई आदि का मुंह ताकती औरत बड़ी त्यागमयी, सुशीला वगैरह मानी जाती थी। त्याग वह करती भी थी, भले मरजी हो या मजबूरी। क्यों कि त्याग न करे, अपनी भी इच्छाएं पूरी करने लगे तो चरित्रहीन वगैरह तक कहलाने की नौबत आ सकती थी/है। लेकिन आप देखें कि पिता, पति, भाई के न रहने पर उसके लिए जीवन कितना मुश्किल हो जाता था/है। शायद इसीलिए उस वक्त स्त्रियां ‘स्वेच्छा’ से सती हो जातीं थीं ! क्या स्त्री को पुरुष पर इस कदर निर्भर रखने की यह व्यवस्था उचित थी कि हमें तो वह त्यागमयी, पूजनीय वगैरह लगे मगर उसका अपना जीवन एक राख, एक पत्थर या एक पशु की तरह कटता हो !?
अब एक तीसरा पहलू देखें:-

सारे दिन तो जाल बुनेंगी अम्माजी
और शाम को कथा सुनेंगी अम्माजी

वही पुरानी पिटी लकीरें पीटेंगी
वर्तमान से नहीं जुड़ेंगी अम्माजी

खुश होंगी तो जी भर कर आसीसेंगी
गुस्से में करतूत गिनेंगी अम्माजी

बेटी को मां जैसी सास तलाशेंगी
मगर बहू को सास रहेंगी अम्माजी

फुरसत से देहरी पर आकर बैठ गईं
अब ताज़ा अखबार बनेंगी अम्माजी

(यह वरिष्ठ कवि राजेश ‘राजे‘ की ग़ज़ल है। जिनकी जन्म तिथि 02-04-1941 है। मेरा आशय यही है कि सोच से उम्र का कोई तआल्लुक नहीं होता।)
-संजय ग्रोवर

Azeez Tehseen said...

Sanjay Grover ji Namaskar
Aapne Rajesh Raje ji ki ghazal se dil cchu liya. Dar asal hamari ghazal Abba ke inteqal ke aik saal ke baad wajood mein aayi hai. Hum aur Ravish donon hi taqreeban aik saath hi yateemi ke tufaan ke ghere mein aaye the. Abba ke inteqal ke baad hum ne Ravish se puccha tha ke aakhir woh iss bedard dard se kis tarah lad rahe hain tab unke jawab ne ander se hila diya tha. Aik din Maa ko dekh ker yeh khayal aaya:-
Baap ka merna mere liye jab itna bhaari hai,
Uske bina to roz hi jeeti merti hogi Maa...
Iske baad baqi ghazal Maa ki mamta ki cchaon mein puri ho gayi..
Dipti Ji ne agar kuch kaha hai to us mein yaqeenan koi na koi mazboot khayal zaroor hoga...
Hum unke wichar ka ehteram kerte hain...
Dard to yeh hai ki hum se pehle walon ko iss dard ke saath jeena pada tha aur hamein bhi jeena padega...us waqt tak ke hum iss dard ki wirasat ko nai nasl ko sonp ker pehle walon ki tarah rawana na ho jayein...
Shukria
Tehseen Munawer

Jayram Viplav said...

रविश जी , आपकी इस रचना को पढ़ कर मुझे भवानी प्रसाद मिश्र कि एक कविता याद आ रही है -
"आज पानी गिर रहा है
बहुत पानी गिर रहा है
रात भर गिरता रहा है ,
प्राण मन घिरता रहा है "

इस लम्बी कविता में घर -परिवार खास कर माँ -बाबूजी से दूर होने पर इंसान कि मनोदशा का भवानी जी ने मर्मिक वर्णन किया है .....मैं जब भी घर कि याद में .परेशां होता हूँ इस को पढने से थोडी रहत जरुर मिलती है

Sanjay Grover said...

भाई तहसीन मुनव्वर जी,
जो कुछ भी आपने कहा आपके बड़प्पन और खुलेपन का परिचायक है। मैं आपके और रवीश भाई के जज़्बात को बख़ूबी समझ सकता हूं। नयी नस्ल अपना काम कर रही है। दोस्तों की तरह ही सही-ग़लत को बांटना-समझना होगा।
आपके खुलेपन को फिर से सराहना चाहूंगा।

अमिताभ मीत said...

वाह साहब. बहुत दिनों में ऐसी रचना पढ़ी. बहुत बहुत शुक्रिया.

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

इसी संदभॆ में मौजूदा दौर को रेखाकित करती ये पंक्तियां याद आती हैं-
जिस दिन ठिठुर रही थी
कोहरे भरी नदी में मां की उदास काया
लेने चला था चादर मैं मेजपोश लाया

----

http://www.ashokvichar.blogspot.com

सौरभ के.स्वतंत्र said...

उकेरते रहिये मुन्नवर साहब...उम्दा..शब्द नहीं हैं..

Prabuddha said...

रवीशजी, हो सके तो इस बेहतरीन रचना के रचनाकार का नाम बोल्ड फ़ॉन्ट में कर दीजिए, कई लोग इसे आपकी रचना समझ बैठे हैं। बाक़ी, नज़्म की तारीफ़ में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं हैं। लफ़्ज़ नहीं हैं, अहसास स्याही की शक्ल में काग़ज़ पर उड़ेले हुए हैं।

सुबोध said...

बाप का मरना मेरे लिये जब इतना भारी है
उस के बिना तो रोज़ ही जीती मरती होगी मां

बाबुजी घोड़ी पर चढ़ कर घर आते होंगे
अपनी याद में दुल्हन जैसी सजती होगी मां

पानी का नलका खोला तो आंसू बह निकले
गहरे कुएं से पानी कैसे भरती होगी मां
..........
बेहतरीन

Unknown said...

मेरी लम्बी उम्र की अर्ज़ी होठो पे ले कर
मंदिर के सब जीने कैसे चढ़ती होगी मां


अच्छा प्रश्न है,लेकिन इसका उत्तर कोई माँ भी नहीं देगी। बस महसूस कीजिए।

anil yadav said...

बेहतरीन....दिल के तारों को हिला गई ये रचना....

syahi said...

aik muddat se meri maa nahin soyi tabish
main ne ek baar kaha tha mujh ko dar lagta hai

mishra said...

isse achha aaj tak nahi padha pahli bar aisa laga ki ahsas bhi koi cheez hoti hai
thanks

mishra said...

isse achha aaj tak nahi padha pahli bar aisa laga ki ahsas bhi koi cheez hoti hai
thanks

रज़िया "राज़" said...

अपनी आंख का नूर तो वह बस मुझ को कहती थी
मेरी भेजी चिट्ठी कैसे पढ़ती होगी मां
रवीशजी। आज आपने तहसीन मुनव्वर की गजल परोसकर हमें रुला ही दीया।

kshitij said...

Ek Umda Rachna ...jisne dil ke tar jhanjhana diye......

अमित said...

एक उम्दा रचना !कुछ याद दिलाती सी -
माँ पत्थर उबालती रही रात भर ..
बच्चे फरेब खा के सो गए ..!

SACHIN KUMAR said...

SACHIN KUMAR.....
AAJ JAB MAA KA PHONE AATA HAI,
KABHI CALL KAT DETA HAI BETA,
KABHI GUSSE ME KAHTA HAI,
KYA BAT HAI, MAI BAD ME CALL KARTA HOON,
KABHI PYAR SE THODI DER BAD CALL KARTA HOON,
WAQT NE HAME KYA SE KYA BANA DALA
MERE BHEJI CHITHI KAISE PADHTI HOGI MAA,
PRANAM MAA, BUS EK TU HI TO SAMAJH SAKTI HAI,
KIS TARAH JI RAHA HOO MAIN,
KAISE-2 LOGO SE MILNA PADTA HAI,
KYA-KYA KARNA PADTA HAI,
MERI BHEJI CHITHI...AB TO CHITHI LIKHNE KA BHI WAQT NAHI RAHA.
PHIR MA KAISE SAMJ JATI HAI SAB...
PRANAM MA...

aparajita said...

बहुत ही सुंदर रचना!! एक मां के ह्रदय में ही ये सब होता है।।। अफिस में बैठे बैठे अचानक मां को प्रणाम करने को मन कर हो गया है....