इंटरवल होते ही यह आवाज़ कानों में गूंजने लगती थी। बीच की सीढ़ियों पर कंधे पर लकड़ी का एक विशालकाय ट्रे लादे वो चिल्लाने लगता था। गले को दबा कर और नाक को चबा कर आवाज़ निकलती थी। टन टन भाजा पोटैटो चिप्स। पटना के सिनेमाघरों में इंटरमिशन का जलपान कुछ इसी तरह आता था। टन टन भाजा पोटैटो चिप्स। दो अलग अलग चीज़ें,लेकिन कविता के किसी एक छंद की तरह खन खन खन। सिनेमाघरों में खाने पीने के सामान तो कब से बदल गए। महंगे हो गए सो अलग।
कागज़ की सफेद पुड़िया में दालमोट होता था। गरम गरम शायद। इसी को टन टन भाजा कहते थे। नमकीन चखना। चिप्स का अलग अस्तित्व होता था मगर ट्रे में एक तरफ उसका भी पैकेट रखा होता था। बेचने की कला ऐसी थी कि टन टन भाजा और पोटैटो चिप्स हीरो हीरोईन लगते थे। कागज़ की पुड़िया में मात्रा काफी कम होती थी और दाम भी। धीरे धीरे टन टन भाजा पोटैटो चिप्स गायब हो गया। अब सुनाई भी नहीं देता।
इसी तरह से चना ज़ोर गरम का भी ज़ोर खत्म हो गया है। सिनेमा हॉल के गेट पर चना ज़ोर गरम का अलग अस्तित्व था। मैं एक चना ज़ोर गरम वाले को जानता था। लोहारी। हर बात पर छंद बना देता था। दोपहर को चना कूटने के बाद जब वो घंटी बजाता हुआ,चिल्लाता हुआ गलियों से गुज़रता था, तो यकीन हो जाता था कि लोहारी जा रहा है। शाम होने को आ गई है। कहीं निकला जा सकता है। शायद लोहारी जैसा ही कोई किरदार मनोज कुमार को कहीं नज़र आया होगा,जिससे प्रभावित होकर क्रांति फिल्म में चना ज़ोर गरम का इस्तमाल गाने के साथ ही किया गया है। कई साल से किसी चना ज़ोर गरम वाले को गाते नहीं देखा। पीले या लाल रंग का टिन का बक्सा। तिकोने ठोंगे में मुट्ठी भर चना। लोग कहते हैं पटना मार्केट में आज भी चना ज़ोर गरम वाला मिल जाता है। कल ही दिल्ली के ग्रेटर कैलाश मार्केट में एक चना ज़ोर गरम वाले को रोक दिया। साइकिल से जा रहा था। बहुत छोटा बक्सा था उसका। लगा कि अब खाने वाले भी कम हो गए हैं।
खैर, सिनेमा हॉल के आस पास का खान पान बदला है। मूंगफली गायब है। चिनिया बादाम को भगा दिया जा चुका है। पॉपकॉर्न ने उपेक्षित मकई को प्रतिष्ठा दिलाई है। उबले हुए मकई के दाने। बीस रूपये का कप। हेल्दी फू़ड बनकर जेब को हल्का करता है। मॉल वाले पीवीआर टाइप के सिनेमा हॉल में सैंडविच से लेकर पेप्सी और टमाटर के स्वाद वाली तिकोनी चिप्स मिलती है। इन सबको आप ट्रे में सजा कर ला सकते हैं। इंटरवल के बाद तक खाते रह सकते हैं। कई हॉल में और भी तरह तरह के खाने के सामान मिलते हैं। कोल्ड कॉफी,हॉट कॉफी,बर्गर,डायट कोक आदि आदि। मेनू बदल गया है।
लेकिन टन टन भाजा पोटैटो चिप्स की बात ही अलग थी। वो खुद आकर दे जाता था। उसकी जेब में रेज़गारी खूब खनकती थी। चार आना और आठ आने के टकराने से भी संगीत निकलता था। लगता था कि कितना कमा रहा है। अब तो वेटर आता है। यूनिफार्म में। आर्डर ले कर जाता है और डिलिवर कर जाता है। नोट के अलावा रूपये के साथ दो और पांच रुपये के सिक्के चिपके होते हैं। खनकने की आवाज़ नहीं होती। खाने की आदत काफी बदली है। सिनेमा हॉल भी तो बदल गए।
ऐसा नहीं कि सब बदल गया। कुछ चीज़ों की निरंतरता आज भी बनी हुई है। लाल रंग की वजन बताने वाली मशीन। सिक्का डालने पर उसकी घूमती चक्री। वजन के प्रति जिज्ञासा की भूख इसी मशीन ने पैदा की होगी, जिसका फायदा आज के डायटिशियन और फिज़िशियन उठा रहे हैं। स्टेशन से लेकर सिनेमा हॉल तक मौजूद इस मशीन ने वजन के साथ भविष्य बता कर कमाल का असर डाला होगा। आज वजन से हमारा भविष्य वाकई जुड़ गया है। ये मशीन आज भी सिनेमा हॉल में दिख जाती है। नहीं दिखता है तो सिर्फ टन टन भाजा पोटैटो चिप्स।
18 comments:
सिनेमा हॉल के आस पास का खान पान बदला है। मूंगफली गायब है। चिनिया बादाम को भगा दिया जा चुका है। पॉपकॉर्न ने उपेक्षित मकई को प्रतिष्ठा दिलाई है। उबले हुए मकई के दाने। बीस रूपये का कप। हेल्दी फू़ड बनकर जेब को हल्का करता है।
बात बात में गहरी चोट कर गए। वाह रवीश जी।अच्छा आलेख।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
सहज और सार्थक लेखन! ये टन-टन भाजा, नयी चीज है, मुझे लगता है, टन-टन जो है वो किसी धातु से आवाज निकालता होगा। हमारे यहां भी छोटे सिनेमाघरो में कोल्ड ड्रिंक लेकर आने वाला बोतलों पर लोहे की चाबी से टन-टन की आवाज निकालता है। टन टन, और भाजा का मतलब शायद भूजिया से हो जो नमकीन के सन्दर्भ में होगी। पौटेटो चिप्स वो बेचता ही होगा। चीजे बदल रही है, बदल रहे है हमारे प्रतिमान। हमारा मित्र प्रवीण शुक्ल बता रहा था कि वो अपने परिवार के साथ मल्टीप्लेक्ट गया तो उसके 10 वर्ष के बेटे ने भूट्टे की तरफ इशारा करते हुए कहा-पापा ये दिला दो, हैंडल वाला पोर्पकार्न।
Aajkal to multiplex main intermission ke samai yadi apne kok chips aur popcorn ka order de diya to Film dekhna bahut mahnga ho jata hai aur film ka maja bekar ho jata hai.
रवीश जी, मुंह में पानी के बाढ की स्थिति हो रही है। आपसे निवेदन है कि ऐसी पौष्टिक पोस्टें न लिखा करें, लोगों का वजन बढ सकता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
इस ज़माने में आप "ब्लैक एंड व्हाइट" फोटो दिखा कर ब्लॉग बेच रहे हैं :) बढ़िया है ! लगे रहिये ! अब हर आदमी डोक्टर - इंजिनियर बन कर तो नहीं न पेट पाल सकता है - कुछ आप तरह के भी लोग समाज में रहेंगे ! समाज को बिना कुछ दिए हुए भी इतना "नाम" - यही तो है मीडिया का कमाल !
रविश जी मुझे तो कॉलेज के दिन याद आ गये जब कॉलेज से भागकर दोस्तों के साथ फिल्मों का मज़ा लेने जाया करते थे अब तो पहले से ही जाकर कैटीन से चिप्स और कोल्ड ड्रिंक्स लेनी पड़ती है कोई देने नही आता...यहीं बात पिछले दिनों की याद दिलाती है क्यों कि पहले इंटरवल तब होता हुआ लगता था जब आवाज आती थी समोसे ले,चने, चिप्स कोल्ड ड्रिंक्स....
टन टन भाजा और पोटैटो चिप्स हीरो हीरोईन लगते थे।
bahut badhiya likha ha. "Anti" aur "Science Bloggers Association" ke comment dam hai.
khair chana zor garam mast hai.
thank ji.
हमारे मुर्गे की तो भाई एक ही टांग है (एक भगवान पर विश्वास यानि अद्वैतवादी होने के कारण)...
अस्सी के दशक में जाना कि ( ) यानि शनि ग्रह से आवाज़ प्रसारित होती है जो एक मिश्रण होता है ३ (ॐ समान, या त्रेयाम्बकेश्वर, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, समान, या अनंत शिव समान) आवाजों का: घंटी, ढोल, और पक्षियों की चहचहाट का..और यूं समझ में आया सुदर्शन-चक्र धारी विष्णु का नादबिन्दू रूप और प्राचीन हिन्दुओं के मंदिर में घंटी यानि नादबिन्दू विष्णु का द्योतक, ढोल/ डमरू शिव का, और पक्षी आकाश में विचरते सूर्य यानि ब्रह्मा का...और "टन टन" आवाज़ स्कूल की घंटी का आनंद दायक छुट्टी के समय का, यानि 'मोक्ष' का द्योतक :)
और यह भी पता चला है कि सूर्य से जो आवाज़ निकलती है वो पश्चिमी वाद्य हार्प समान सुनाई पड़ती है...जिससे पता चलता है कि क्यूँ हिन्दुओं ने ब्रह्मा की अर्धांगिनी ज्ञान की देवी सरस्वती को 'वीणा वादिनी' कहा, अनादी कल से...क्यूंकि प्राचीन हिन्दू सर्वगुणसंपन्न इश्वर समान बनने में, यानि सिद्धि प्राप्त करने में, विश्वास रखते थे..:)
क्षमा प्रार्थी हूँ, उपरोक्त टिपण्णी में (Ring Planet Saturn) छूट गया था...
हिमाचल प्रदेश में सिनेमा हॉल कम ही हैं। वीडियो पार्लर्स ने बंद करवा दिए हैं। इसलिए कभी ज्यादा अनुभव नहीं हुआ। यहां दिल्ली आया हूं तो दूसरी वाली तस्वीर ही देखी। लेकिन भावनाओं को समझ सकता हूं।
:)
स्वादिष्ट पोस्ट... :-)
... सही कह रहे हैं... आज चना जोर गरम की जगह पिज्जा और बर्गर ने ले ली है.
कुछ चीज़ों के प्रति अतीतमोह हमें अच्छा लगता है और कुछ की निरंतरता से खीझ होती है. भारत के मुफस्सिल टाऊन दीवारों पर दाद खुजली के विज्ञापनो से अटे रहते है तो हम कहते हैं यहाँ कुछ नहीं बदला. आपकी पोस्ट हिंदी पट्टी के मन की ऊहापोह को दिखाती है.
अपने अतीत की यादों मे ले जाती एक सशक्त रचना और आज की इस तस्वीर के लियी आभार्
yeh padh k mujhe apne school k din yaad aagye jab school k samne khatta mitha churna wala aya krta tha aur us k bagal me massal patti bhi hua krti the ab to yeh sab mano ghyab he ho gye hain khai p hain bhi to use ab bhut low standard mana jata hai.
अभी भी अशोका और मोना में सारी चीजें मिलती है... शायद आपके पास ही समय कम है... कभी जाकर मजा ले लीजिए... अब नन रेसिडेंसियल बिहारी होकर मजा उठाना चाहिएगा तो मुश्किल है...
अभी भी अशोका और मोना में सारी चीजें मिलती है... शायद आपके पास ही समय कम है... कभी जाकर मजा ले लीजिए... अब नन रेसिडेंसियल बिहारी होकर मजा उठाना चाहिएगा तो मुश्किल है...
Ravish Ji! ek aur awaaz sunai deti thi CHAI CHAI LIMCA LASSI CHAI..... ye shabd bhi nahi sunai dete...Kab chota tha to inhi shabdo ko sunkar har cold drink ko LIMCA kahta tha.. bas pili lagakar Gold Spot aur kali lagakar Thums Up maangta tha... kya branding thi LIMCA ki.. kahir ab ye sab kahan..aap achcha likhte hain ye kahan zaruri nahi....
टन टन भाजा तो नहीं सुना, हां पोटैटो चिप्स तो हमारे यहां भी ख़ूब मिलते थे। एक बात सही है कि मकई को काफ़ी सम्मान मिला है सिनेमा हाल्स में। पॉपकॉर्न बनने से रेट तो बढ़ा ही है, टेस्टी भी हो गया है।
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